शनिवार, 6 अक्तूबर 2018

सीपीएम के ‘बहुमतवादी’ नेताओं को पूरा संतुलन खोने से बचना चाहिए !


-अरुण माहेश्वरी


'द वायर’ ने दिल्ली स्थित एक पत्रकार के. बेनडेक्त का दो दिन पहले एक लेख जारी किया था - ‘केरल में कांग्रेस का भूत प्रकाश करात को भगवा-अंधता का शिकार बना रहा है’ । (लिंक नीचे दिया हुआ है)

इस लेख से लगता है कि सीपीआई(एम) में पिछली हैदराबाद कांग्रेस में मुंह की खाने के बाद भी पार्टी की सर्वोच्च कमेटी में अपने बहुमत के अहंकारवश कुछ लोग राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में कोई नई शिक्षा लेने के लिये तैयार नहीं है । उनकी यह जिद एक पुराने लाइलाज मर्ज की तरह लगती है । लगने लगता है कि क्या यह विषय अब उनके संदर्भ में मनोवैज्ञानिक ज्यादा है, राजनीतिक नहीं !

प्रसिद्ध मनोविश्लेषक जॉक लकान जिसे ‘शब्दों का लक्षण’ (symptom of words) कहते थे, वह रोग कुछ ‘सिद्धांतकारों’ की अपनी पहचान बन जाता है । इनका सिद्धांत-विमर्श इनकी काया की सीमा में ही पूरी तरह से फंस कर वास्तविकता के आधार से पूरी तरह कट जाता है । यह किसी वस्तु सत्य पर नहीं, अन्य सिद्धांत से सिर्फ विभेद मात्र पर टिक जाता है । यह एक प्रकार से सिद्धांत से सिद्धात की, शुद्ध सैद्धांतिक निर्मिति ही होती है ।

मसलन्, भाषाशास्त्र के दायरे में फंस कर आदमी किसी शब्द को इसलिए एक शब्द मानने लगता है क्योंकि वह दूसरे शब्द से अलग होता है । बिल्ली बिल्ली है क्योंकि वह दिल्ली नहीं है । जैसे व्यवहार में रेलवे की संचालन व्यवस्था में 10.30 की ट्रेन भले 11 बजे पहुंचे, लेकिन कहलाती 10.30 की ट्रेन ही है क्योंकि वह 10 बजे वाली या 11बजे वाली से अलग है । अर्थात यहां सार का कोई महत्व नहीं होता, उसका अन्य से भाषिक विभेद ही महत्वपूर्ण हो जाता है ।

लकान कहते हैं कि बच्चे अपने अंदुरूनी अंगों के बारे में उतना ही जानते हैं जितना उनके मां बाप उन्हें बताते हैं । इस प्रकार, उनके लिये उनके शरीर का अंदुरूनी भाग शब्दों से बना होता है ।


यही हाल इन बचकाने सिद्धांतकारों का होता है । उनकी किसी भी विषय में आपत्ति के कारण कभी वस्तुनिष्ठ नहीं होते हैं । यह एक प्रकार का मनोरोग है । बहुत से डाक्टर ऐसे रोगियों को जानते हैं जो बिना किसी शारीरिक कारण के ही शरीर में तेज दर्द की शिकायत किया करते हैं । इसका मतलब यह नहीं है कि उनका यह दर्द झूठा है । यह वैसा ही, बल्कि उससे भी तेज दर्द हो सकता है जैसा शरीर पर चोट लगने से होता है । यह अपने किसी खास अंग पर अतिरिक्त जोर से भी हो सकता है ।

लकान ने ऐसे मनोरोगियों का इलाज यह बताया है कि किसी भी प्रकार से उनके अंदर की फांस को, उनके दमित विचारों को उनके बाहर के विचारों की पूरी श्रृंखला की बाकी कड़ियों से जोड़ा जाए । उन्हें पूरे संदर्भों को नये प्रकार से पढ़ना सीखाया जाए ।

इसमें फिर से भाषा शास्त्र का उदाहरण लिया जा सकता है । भाषा शास्त्र में शब्दों के लक्षणों को दूर करने में किसी रूपक की भूमिका क्या होती है ? रूपक उसमें एक तत्व की जगह दूसरे तत्व को ले आते हैं । मसलन, शेर की जगह बहादुर आदमी को रख दिया जाए। इससे उस पद के अंदर का दबा हुआ अर्थ बाहर निकल आता है । उसी प्रकार हमें लगता है कि वामपंथ के इन अपने में फंसे हुए सिद्धांतकारों को अपने अंदर की फांसों से मुक्त कराने की जरूरत है । इन्हें संसदीय जनतंत्र की परिस्थितियों से जुड़ी पूरी विचार श्रृंखला से जोड़ने की जरूरत है ।

अन्यथा, ये इसी प्रकार हमारे देश में अंध-कांग्रेस-विरोध की फांस में फंस कर भगवा-अंधता के रोग से कभी मुक्त नहीं हो पायेंगे और फासीवाद के रास्ते को साफ करने के सबब बनते रहेंगे । खुद तो विक्षिप्त होकर खत्म होंगे ही ।

https://thewire.in/politics/congress-phobia-in-kerala-is-making-prakash-karat-saffron-blind

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