-अरुण माहेश्वरी
सचमुच, जिसे बंदर के हाथ में तलवार कहते हैं, साक्षात देखना-समझना हो तो मोदी और उनके शासन की दशा को देख लीजिए ।
मोदी लगभग चौदह साल गुजरात के मुख्यमंत्री रहे । एक ऐसे राज्य के मुख्यमंत्री जहां उनके आने के पहले ही अहमदाबाद की कपड़ा मिलों, अंबानी, एस्सार की तरह के समूह पूरे शबाब पर थे। पेट्रोकेमिकल्स की बदौलत सिंथेटिक कपड़े का विशाल केंद्र सूरत पूरी तरह विकसित हो गया था । वहां का हीरा कटिंग उद्योग दुनिया में अपना स्थान बना चुका था, वहीं तटवर्ती स्थानों पर शिपब्रेकिंग के काम ने नई-नई ऊंचाइयां ले ली थी । इसके अलावा कृषि क्षेत्र में अमुल की बदौलत गुजरात दूध की सहकारिताओं का सबसे बड़ा केंद्र बना और भारत में एक दुग्ध क्रांति का प्रमुख स्थान । इन सबके साथ ही सिरेमिक टाइल्स के उत्पादन में यह चीन को टक्कर देने लगा था ।
मोदी, भारत के एक ऐसे तेजी से विकसित राज्य में बीजेपी के अंदर की आपसी राजनीति के चलते सन् 2001 में मुख्यमंत्री बने थे । वे कभी भी गुजरात में राजनीति के जमीनी नेता नहीं थे । वे अपनी पत्नी को छोड़ कर भागे और कुछ दिनों तक पलायनवादी साधुओं की तरह भटकने के बाद आरएसएस से जुड़ गये । कोई खास औपचारिक शिक्षा न होने के कारण आरएसएस की बौद्धिकी की मूर्खतापूर्ण और अधकचरी झूठी बातों को अपना कर सांप्रदायिक उत्तेजना फैलाने के सारे कुकर्मों में जल्द ही सिद्धहस्त होकर उसके प्रचारक हो गये थे ।
यही वह समय था जब आरएसएस में एकमात्र गैर-ब्राह्मण सरसंघचालक रज्जू भैय्या के लगभग सात साल के कार्यकाल के बाद आरएसएस के इसी झूठ-उत्पादक बौद्धिकी के क्षेत्र के प्रभारी जबलपुर के के.एस. सुदर्शन 2000 में सरसंघचालक हो गये ।
गुजरात में 1975-77 के आपातकाल के बाद भी कांग्रेस की सरकार कायम रही, लेकिन उसका जनाधार कमजोर हो गया था । ‘90 के रामजन्मभूमि से जुड़े सांप्रदायिक वातावरण में 1995 में पहली बार वहां चिमनभाई पटेल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी जो की सिर्फ दो साल चल पाई क्योंकि शंकरसिंह बाघेला के नेतृत्व में बीजेपी टूट गई । सन् 2000 में फिर बीजेपी जीती और केशूभाई पटेल मुख्यमंत्री बने । उसके साल भर बाद ही राज्य की दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव में बीजेपी हार गई और उसी समय आरएसएस के गुजरात प्रभारी होने के नाते नरेन्द्र मोदी ने के एस सुदर्शन से मिल कर केशूभाई पर ऐसा दबाव तैयार किया कि उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और सुदर्शन ने राजनीति में अनुभव-विहीन मोदी को ही मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठा दिया ।
और, इसके बाद ही सुदर्शन ने मोदी के जरिये गुजरात को आरएसएस की राजनीति की प्रयोगशाला बना दिया । गोधरा कांड का षड़यंत्र रच के 2002 का मुसलमानों का जनसंहार किया गया । इसके बाद के गुजरात की कहानी सब जानते हैं । पूरे गुजरात के जन-मानस को गहरे सांप्रदायिक नफरत के जहर से भर दिया गया । और जहां तक गुजरात के विकास का सवाल है, शिक्षा-दीक्षा और आर्थिक विकास की नीतियों के मामले में पूरी तरह से शून्य मोदी ने अपने को गुजरात के पहले से चले आ रहे बड़े-बड़े पूंजीपतियों के दासानुदास में बदल लिया । गुजरात को पूंजीपतियों के द्वारा खुली लूट का चारागाह बना कर छोड़ दिया गया । अर्थात वास्तव अर्थों में विकास का मोदी मॉडल पूंजीपतियों की खुली गुलामी के मॉडल के अलावा कुछ नहीं है ।
मोदी देखते-देखते पूंजीपति आकाओं की कृपा से एक सबसे अय्याश नेता का रूप ले चुके थे। वे उनके निजी जहाजों में सैर-सपाटें के अभ्यस्त हो गये । और तो और, 2002 के जनसंहार और उसके बाद उसे लेकर हुई जांचों और मुकदमों ने मोदी और अमित शाह की एक ऐसी जोड़ी तैयार कर दी जो राज्य की पुलिस का इस्तेमाल अपने निजी कामों के लिये करने में सिद्धहस्त होगई । मोदी का स्नूपगेट कांड, हरेन पांड्या की हत्या के बाद सोहराबुद्दीन शेख, तुलसी प्रजापति और जस्टिस लोया की हत्याओं की श्रृंखला से पता चलता है कि गुजरात में प्रशासन का मॉडल किसी माफिया गिरोह के संचालन के मॉडल पर तैयार हुआ ।
कुल मुला कर आर्थिक नीतियों में पूंजीपतियों की गुलामी और प्रशासनिक नीतियों में दाउद इब्राहिम की तरह की माफियागिरी - इन्हें ही गुजरात मॉडल के मूलभूत तत्व कहे जा सकते हैं । गुजरात मोदी के आने के पहले ही औद्योगिक लिहाज से काफी आगे था । मोदी का उसमें रत्ती भर भी नया योगदान नहीं हुआ।
हमारे देश का दुर्भाग्य देखिये कि चौदह साल तक एक राज्य के मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए, इस प्रकार की सांप्रदायिक राजनीति, पूंजीपरस्ती की अर्थनीति और अपराधपूर्ण शासन नीति के त्रिक में पगा हुआ आदमी 2014 में देश का प्रधानमंत्री बन गया ; भारत की तरह के एक विशाल, संभावनामय राष्ट्र का प्रमुख संचालक बन गया । इसके पास सिवाय तमाम प्रकार की विकृत बातों के देश के बारे में कोई भविष्य-दृष्टि नहीं थी । एक उद्धत और उच्छृंखल बंदर के हाथ में तलवार आ गई !
सत्ता पर आते ही मोदी ने पूर्व के बड़े नेताओं की नकल करनी शुरू की । गांधी की नकल पर समाज सुधार और नैतिकता के उपदेश झाड़ने लगा, नेहरू की तर्ज पर रेडियों पर ‘मन की बात‘ कहने लगा । और जहां तक अर्थनीति का मामला है, अमेरीकियों और नये डिजिटल प्रभुओं के कहने पर नोटबंदी की तरह का पागलपन किया और रात के बारह बजे आनन-फानन में आजादी के वक्त की तरह का जीएसटी का जश्न मनाया । इसके अलावा, एक के बाद एक, संघी प्रचारक वाली बेसिरपैर की झूठी बातों से भरे भाषणों के प्रचार की झड़ी लगा दीं। दुनिया के सारे देशों में घूम-घूम कर बड़े नेताओं से मिल कर अपने संगी बड़े पूंजीपतियों की झोलियां भी भरने की कोशिश करता रहा । मोदी का दुर्भाग्य कि इसी चक्कर में एक राफेल लड़ाकू विमानों के मामले में रंगे हाथों पकड़ा गया ।
आज भारत आरएसएस की प्रयोगशाला से पैदा हुए इस एक अनोखे प्रकार के राजनीतिक जीव के किये गये उत्पातों से पूरी तरह तहस-नहस सा दिखाई दे रहा है । बेरोजगारी और महंगाई ने अपने सारे रेकर्ड तोड़ दिये हैं । आजादी के बाद पहली बार रोजगारों में साफ गिरावट दिखाई दी है । किसान पूरी तरह से तबाह हैं । और भारत की आम जनता की तरह ही सारी संवैधानिक, अर्द्ध-संवैधानिक संस्थाएं अपने अस्तित्व के संकट से जूझते हुए आज हांफ रही है ।
शुक्र है कि भारत में लोगों का अब तक वोट पर विश्वास कायम है और इसीलिये वे अपने आक्रोश पर काबू रखे हुए हैं । अब मतदान पेटियों में इस निकम्मे और शैतान शासन के खिलाफ जनता के आक्रोश के विस्फोट का समय आ गया है ।
कोई कुछ भी कहे, हमारा विश्वास है कि आने वाले पांच राज्यों के चुनाव में मोदी और उनकी बीजेपी को एक-एक सीट के लाले पड़ेंगे । किसी भी सीट पर बीजेपी की जीत हुई भी तो वह वहां के उम्मीदवार के अपने कमाये हुए भारी यश का परिणाम भर होगी । वर्ना मोदी की सूरत पर वे सिर्फ अपने मतों को गंवायेंगे, एक भी अतिरिक्त मत नहीं पायेंगे ।
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