दुनिया का एक भी देश ऐसा नहीं है जिसकी आबादी की संरचना वहां के सिर्फ मूल निवासियों से बनी हुई हो ।
इसीलिये कहीं से भी किसी भी देश में आकर बस जाने वालों को हमलावर नहीं कहा जाता है । आप्रवासी ही आगे स्थायी निवासी हो जाते हैं ।
इतिहास में इस प्रकार आकर बसने वालों में घुमंतू समूहों, खोजी लोगों, प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित आबादियों के अलावा बाकायदा सामरिक शक्ति से लैस समूह भी रहे हैं जो स्थानीय राजाओं को पराजित कर खुद राजा भी बन जाते हैं ।
मसलन्, सबसे निकट इतिहास में आज के अमेरिका को ही लें, वह जो और जैसा है, वहां के मूल निवासियों की बदौलत नहीं है । आस्ट्रेलिया महाद्वीप को भी लिया जा सकता है । दुनिया के तमाम देशों के निर्माण में आप्रवासियों की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता रहा है ।आज दुनिया के सबसे सुखी देशों में एक माना जाने वाले स्वीडेन के इतिहास में वहां से आबादी का सबसे अधिक पलायन हुआ है । दुनिया के लगभग सभी देश अपने निर्माण में आप्रवासियों के योगदान को खुले मन से स्वीकारते रहे हैं ।
सुदूर इतिहास में जाएं तो हजारों साल पहले भारत में घोड़ों पर सवार आर्यों के आगमन का इस देश की आबादी की संरचना में एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
इसीलिये किसी भी भूखंड पर किसी का भी प्रवेश मानव सभ्यता के इतिहास का एक सबसे अधिक स्वाभाविक घटनाक्रम है । इसी से दुनिया के सभी राष्ट्रों का निर्माण और मनुष्यों की वैश्विक सभ्यता का उदय होता है ।
समाजशास्त्री और मानवशास्त्री इतिहास में आबादियों के बीच इस प्रकार की अन्तरक्रियाओं को मनुष्यों के बीच एक जरूरी आदान-प्रदान की प्रक्रिया बताते हैं । समाजशास्त्री मार्शेल मौस ने अपनी किताब ‘द गिफ्ट’ में इसे मनुष्यों के बीच उपहारों के आदान-प्रदान की तरह देखा था । इनसे सभी मनुष्य समृद्ध होते हैं । इस सामाजिक प्रक्रिया के प्रारंभिक चरण में मार्शेल मौस कबीलाई समाजों में स्त्रियों को उपहार-स्वरूप दिये जाने को भी चिन्हित करते हैं ।
कई फासिस्ट ‘शुद्धतावादी’ तत्व मनमाने और चुनिंदा ढंग से इतिहास में किसी एक समूह के इस प्रकार के अनुप्रवेश का स्वागत करते हैं और दूसरे को आक्रमणकारी शत्रु कह कर उनके प्रभाव से मुक्ति के राजनीतिक लक्ष्यों पर काम करते हैं ।
भारत का उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र मध्य एशिया, यूरोप और अफ्रीका तक से भू भाग से जुड़ा हुआ है । दुनिया के इस हिस्से से नाना प्रकार की घुमंतू जातियों का हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों के पार इस आकर्षक और विशाल उपजाऊ उष्णकटिबंधीय मैदानी क्षेत्र में हजारों-हजारों सालों से आना-जाना चलता रहा है । इसके अलावा दक्षिण में समूद्री पथ से भी भारत का सारी दुनिया से संपर्क रहा है ।
भारत में आर्यों की तरह ही मध्य एशिया से शक आएं, हूण आएं । उन्होंने यहां शासन भी किया और यही पर बस कर यहां की आबादी में विलीन हो गये । भारत में इस्लाम धर्म के अनुयायी तुर्कों की दिल्ली सल्तनत (1206- 1526) की पृष्ठभूमि में भी पहले से लगभग दो सौ सालों से चली आ रही महमूद गजनवी, मोहम्मद गौरी आदि की लूटमार का इतिहास था जिसने इस सल्तनत की स्थापना की जमीन तैयार की थी ।
दिल्ली सल्तनत को भारत की मिट्टी की उपज कहा जा सकता है । यह औपनिवेशिक शासन नहीं था । इसी के अंतिम बादशाह इब्राहिम लोदी को परास्त कर मुगलों का शासन कायम हुआ जिसकी छठी पीढ़ी में औरंगजेब के तहत भारत एक सबसे बड़े साम्राज्य के रूप में सामने आया था ।
बाबर ने भी हिंदुस्तान को ही अपना वतन माना । मुगल शासन औपनिवेशिक लूट का शासन नहीं था । मुगलों के साथ यहां के हिंदू राजाओं के संघर्ष में देशी-विदेशी का कोई भाव नहीं था । राजपूतों का तो मुगलों से रोटी-बेटी का संबंध था । मुगलों के मुख्य सिपहसालार राजपूत भी हुआ करते थे । राजपूत राजाओं के मुगल बादशाहों से संघर्ष अपने क्षेत्र में अपनी खुद-मुख्तारी बनाये रखने की दिल्ली के बादशाह के खिलाफ स्थानीय राजाओं की लड़ाइयां थी । महाराणा प्रताप भी अकबर को विदेशी मान कर उनके खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ रहे थे ।
भारत में प्रकृत अर्थों में अंग्रेजों का दो सौ साल का शासन ही औपनिवेशिक शासन रहा जिसमें उन्होंने भारत की संपदा की खुली लूट करके अपने देश की औद्योगिक क्रांति के लिये भी संसाधन जुटायें । अंग्रेजों ने सचेत रूप में अपने को भारत की आबादी में विलीन नहीं होने दिया और जब उन्हें इस देश को छोड़ कर जाना पड़ा, यहां वर्षों से रह रही अंग्रेजों की पूरी आबादी भी अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर विलायत चली गई ।
अंग्रेजों ने भारत के इतिहास को विकृत करने, सभी भारतीय भाषाओं और भारत के ज्ञान-विज्ञान को दबाने की हर संभव कोशिश की । भारतीय नवजागरण के अग्रदूतों ने भारतीय ज्ञान-विज्ञान की परंपरा पर दृढ़ता से जमे रह कर ही पश्चिम में घट रही घटनाओं पर भी अपनी नजर रखी और विज्ञान, जनतंत्र तथा कानून के शासन के मूल्यों के प्रति अपने झुकाव को जाहिर किया था । भारत में जिस समय मुगल साम्राज्य का पतन हुआ वही समय यूरोप में भी राजशाहियों के पतन का समय था । अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों का शासन कायम हुआ तभी 1789 की फ्रांस की राज्य क्रांति हुई । इसने भी अंग्रेजों के ‘कानून का शासन’ के प्रति भारत में स्वीकृति का एक आधार तैयार किया था ।
इसीलिये भारत के इतिहास को आक्रमणकारियों का इतिहास कहना मानवशास्त्रीय मानदंडों पर सरासर गलत है । हजारों हजार सालों में अकेले अंग्रेजों के शासन को प्रकृत अर्थों में आक्रमणकारियों का शासन कहा जा सकता है । बाकी सारे शासन आर्यों के आगमन की तरह ही इतिहास के स्वाभाविक क्रम में भारत की आबादी की संपूर्ण संरचना के कारक तत्व रहे हैं । और, जो किसी परिवार का स्वाभाविक अंग होता है, वह कभी बाहरी या मेहमान नहीं कहलाता जिसके होने से परिवार के अपने जीवन की लय बिगड़ती हो । समाजशास्त्र में राष्ट्रों के निर्माण में धर्म को कभी भी अनिवार्य कारक तत्व नहीं माना जाता है ।
मजे की बात यह है कि आज हम एक ऐसे काल में रह रहे हैं जब यहां का शासक दल लुटेरे अंग्रेजों की विकृतियों के प्रति तो पूरी तरह से स्वीकार का भाव रखता है, लेकिन यहां के इस्लाम धर्म के अनुयायी लोगों को ही बाहरी शत्रु या ‘अतिथि’ बताता है । वह मनमाने ढंग से धर्म को ही राष्ट्र का अनिवार्य तत्व मानते हुए ‘हिन्दू ही राष्ट्र है’ की तरह के झूठे नारे दिया करता है ।
ये वे लोग हैं जो इस झूठ का भी प्रचार करते हैं कि दुनिया में भारत अकेला सेकुलर देश है, बाकी सभी राष्ट्रों का अपना-अपना एक धर्म है । ये धर्म-आधारित राज्य और धर्म-निरपेक्ष राज्य के बीच के फर्क को ही गड्ड-मड्ड कर दिया करते हैं । ये इस सच को छिपाते हैं कि जब आठ सौ साल पहले इंगलैंड में मुक्ति का महान घोषणापत्र ‘मैग्ना कार्टा’ तैयार हुआ था, तभी से धर्म के शासन के अंत और सेकुलर कानून के शासन की आधारशिला रख दी गई थी ।
भारत में भी इस्लाम को मानने वाले शासकों ने कभी किसी इमाम की सत्ता नहीं स्थापित की और न शरियत कानून को ही पूरी तरह से लागू किया । स्थानीय परंपराओं और विश्वासों को मुगलों के काल में भी हमेशा पूरा संरक्षण प्राप्त था ।
इसके बावजूद, भारत की ये साप्रदायिक ताकतें सेकुलरिज्म के बारे में तमाम प्रकार के भ्रमों को फैलाती हैं, मानो किसी देश में किसी धर्म को मानने वालों का होना ही उस देश के शासन को धर्म-आधारित राज्य बना देता है । इनके पास सभ्यता के इतिहास से नि:सृत सेकुलर मान-मूल्यों की कोई अवधारणा नहीं है । खुद को बौद्धिक मानने वाले कुछ लोग भी इनके भ्रमों के शिकार हो कर अपनी पहचान की रक्षा के प्रति व्यग्रता में सेकुलरिज्म के खिलाफ जहर उगला करते हैं । अपने ही सह-नागरिकों को धर्म के आधार पर दुश्मन बताने लगते हैं ।
हम इतना ही कह सकते हैं कि ये सब लोग गुटका किस्म की किताबों से फैलायी जा रही संघी अज्ञता के रोग के शिकार हैं । मानवशास्त्र और समाजशास्त्र की इनके पास न्यूनतम समझ भी नहीं है ।
-अरुण माहेश्वरी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें