—अरुण माहेश्वरी
कांग्रेस की दैनन्दिन राजनीति में प्रियंका गांधी के आने के फैसले को भारत की राजनीति के वर्तमान परिदृश्य की एक बड़ी घटना के रूप में लिया जा रहा है । खास तौर पर उत्तर प्रदेश और उसके पूर्वांचल के संदर्भ में इसकी विशेष चर्चा हो रही है ।
यद्यपि राहुल गांधी ने इसे प्रस्तावित करते हुए इसे 2019 के चुनाव से जोड़ कर देखने के बजाय कांग्रेस दल के दूरगामी लक्ष्यों से जोड़ कर देखने की बात कही है । लेकिन मीडिया का अपना एजेंडा होता है, जिसमें ज्यादा दूर तक सोचने को तरजीह नहीं दी जाती है । इसीलिये राहुल की इस बात को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा है ।
जहां तक 2019 और उत्तर प्रदेश का सवाल है, इसका मामला तो उसी दिन तय हो गया था जिस दिन मायावती और अखिलेश ने महागठबंधन की घोषणा की थी । अब यदि किसी भी राजनीति का लक्ष्य मोदी की तानाशाही को पराजित करना है तो उसकी हरचंद कोशिश इस महगठबंधन को बल पहुंचाने की ही हो सकती है, इसे कमजोर करने की नहीं । राहुल ने भी प्रियंका और ज्योतिरादित्य की घोषणा करते हुए मायावती और अखिलेश के गठबंधन के प्रति अपने सम्मान के भाव को जाहिर किया है । लेकिन गठबंधन के तर्क हमेशा कुछ इस प्रकार के भी होते है जिसमें इस बात की आशंका बनी रहती है कि हर पार्टी उस पीछे वाली पार्टी पर दुलत्ती झाड़ती रहती है जो आगे वाली को पीछे से दबाती है, और इस उपक्रम में वह लड़खड़ा कर अजीबो-गरीब कलाबाजियां दिखाने के बाद मुंह के बल गिर पड़ती है ; लक्ष्य पीछे छूटता जाता है ।
हाल के सर्वेक्षण यह साफ बता रहे हैं कि मायावती और अखिलेश के साथ आने से उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी का पतन तय हो चुका है और यदि उसमें कांग्रेस भी किसी प्रकार शामिल हो जाती है तो पूरे प्रदेश से भाजपा का पूर्ण सफाया हो जायेगा, जो आज कांग्रेस दल और दूसरे विपक्षी दलों का भी घोषित लक्ष्य है । प्रियंका के अतिरिक्त आकर्षण से निश्चित तौर पर यह काम और ज्यादा आसान होगा । फिर भी अपनी 'विचारधारा की श्रेष्ठता' को स्थापित करने का वह लोभ जिसका यथार्थ में कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है, बल्कि वह एक कल्पना ही होता है, लोगों में नींद में चलने का रोग पैदा कर सकता है और उनके हमेशा किसी न किसी खड्डे में गिर जाने का खतरा बना रहता है । राहुल गांधी की उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ताकत के साथ स्वतंत्र रूप में उतरने की घोषणा से ऐसे रोग के भी कुछ लक्षण दिखाई देते हैं । जैसे मायावती ने भी अखिलेश के साथ गठबंधन की घोषणा के वक्त भाजपा के साथ ही कांग्रेस को भी आड़े हाथों लेने का जो भाव जाहिर किया था, वह भी कुछ इसी प्रकार की अहम्मन्यता कहलायेगा ।
इसके अलावा, जो लोग भी प्रियंका के आने को लेकर 'परिवारवाद' की एक पिटी हुई बहस को उठाने की कोशिश कर रहे हैं, उनके बारे में मार्क्स की शैली में हम सिर्फ इतना कहेंगे कि यह 'परिवारवाद' वह रात है जिसमें हर बिल्ली सफेद होती है और जिसके हवाले से रात का संतरी अपनी घिसी पिटी प्रेतों की कहानी को बेधड़क दोहरा सकता है ।
बहरहाल, गनीमत यह है कि मोदी पार्टी बन चुकी भाजपा की तरह अभी विपक्ष में कोई भी दूसरी पार्टी अपने साधनों को उनकी तरह बढ़ा चढ़ा कर पेश नहीं करती है, और परिस्थिति के बारे में मोदी-शाह की तरह की गैर-संजीदगी के साथ अपने को धोखे में नहीं डालती है । 2019 के चुनाव से मोदी को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान हो जायेगा । चूंकि 2014 में विपक्ष के मतों में बटवारे के राजनीतिक गणित ने मोदी को पूर्ण बहुमत दे दिया तो इसे उन्होंने अपने कल्पित देवत्व के प्रति 125 करोड़ जनता का पूर्ण समर्पण मान लिया और अपना आपा खोकर जनतंत्र के काल में भी इस सपने में खो गये कि उनके चरणों पर झुके हुए ये दास जन उनके इशारे पर हमेशा मर-मिटने को तैयार रहेंगे ! अमित शाह हाल में जब देश भर से बटोर कर लाये गये भाजपा के लोगों से कह रहे थे कि 'अगर इस बार हम हार गये तो हम गुलाम बन जायेंगे', तब उनके लोगों में व्यापी हुई पथरीली चुप्पी यह बताने के लिये काफी थी कि साधारण लोग नेताओं के अपराध से जुड़े भय-बोध के बोझ को कभी अपने कंधों पर नहीं लादा करते हैं ।
2014 के पूर्ण बहुमत ने मोदी के अंदर से उनके संघी, हिटलरी तत्व को उभार दिया । राजसत्ता की दमनकारी शक्ति के एक झटके में उन्होंने भाजपा को मोदी पार्टी में तब्दील करके खुद को अकेला कर लिया । रातो-रात इतिहास पुरुष बनने के उन्माद में उन्होंने अजीबो-गरीब ढंग से भारतीय इतिहास के नेहरू, गांधी और बाकी सभी व्यक्तित्वों पर आघात करना शुरू कर दिया । क्रमश: वे अपनी पहचान अपने से बाहर स्थित कांग्रेस और अन्य दलों के बड़े-बड़े लोकप्रिय नेताओं में स्थिर करते चले गये । और बार-बार अपने को उनके जैसा न पाकर वे एक प्रकार के आत्म-प्रताड़क भय से ग्रस्त होते चले गये । जिस प्रकार से उन्होंने अन्य सभी दलों के बड़े-बड़े लोकप्रिय नेताओं की छवि को बिगाड़ने और उन्हें निजी तौर पर प्रताड़ित करना शुरू किया वह उनके इसी आत्म-प्रताड़क मनोरोग का परिणाम रहा है । पूर्ण बहुमत से सत्ता पर आसीन होने का अहंकार उनमें आत्ममुग्धता का, अपनी छवि में कैद हो जाने का रोग पैदा करता है और क्रमश: वही उनके व्यक्तित्व की कमियों को छिपाने का साधन बन जाता है । झूठ उनकी आदतों में शरीक होता चला गया ।
मोदी शायद भारत के पहले ऐसे शासक बने हैं जिन्होंने अपनी छवि के लिये सरकारी आंकड़ों तक से हेरा-फेरी करने से परहेज नहीं किया । सर्वज्ञता के दिखावे में उन्होंने सरकारी तंत्र से उपलब्ध मानव संसाधनों का भी सही ढंग प्रयोग नहीं किया जिसके परिणाम स्वरूप हमने फटी आंखों से नोटबंदी और जीएसटी की तरह के तुगलकी कदमों और राफेल की खरीद की तरह के नग्न भ्रष्टाचार को देखा । अर्थ-व्यवस्था पटरी से उतर गई और मोदी उसे आंकड़ों की हेरा-फेरी से सुधारने में लग गये ! बाजार में भारी मंदी ने बेरोजगारों की समस्या को अकल्पनीय विकराल रूप दे दिया और व्यापक किसान जनता के जीवन को दूभर बना कर छोड़ दिया ।
बहरहाल, आज अब जब 2019 के चुनाव में तीन महीने भी बाकी नहीं रहे हैं, चारों दिशाएं जैसे एक साथ मोदी शासन के अंत की ध्वनि-प्रतिध्वनि से गूंजने लगी है । कहा जा सकता है कि मोदी का भविष्य अब तक तय हो चुका है । मोदी की व्यक्तिगत स्थिति यह है कि उनकी उपस्थिति अब किसी में भी कोई सकारात्मक भाव पैदा नहीं करती है । और प्रथम दृष्टया जब हम किसी को नकारात्मक रूप में ग्रहण करते हैं तो हमें जितना भी उन पर सोचने के लिये मजबूर किया जायेगा, वह सोचना नकारात्मकता के अलावा किसी दूसरे रास्ता पर नहीं जाया करता है । मोदी आज सभाओं में जितना ज्यादा बोलते हैं, उतना ही उनकी फेंकू के रूप में बन गई छवि लोगों में मजबूत होती जाती है ।
जाहिर है कि इसी प्रकार के माहौल की गूंजों से राजनीति में नाना प्रकार के मतिभ्रमों की आशंका भी बनी रहती है । तब आदमी सीधे चलने के बजाय जो दृश्य में नहीं है, उसे ही खोजने के लिये इधर-उधर घूम-फिर कर चलने लगता है । 2019 के बाद मोदी की जगह प्रधानमंत्री कौन बनेगा, इस चीज को टटोलने की कोशिश कमोबेस उसी प्रकार के एक नकारात्मक मतिभ्रम के अलावा कुछ नहीं है । लेकिन जब भी आप किसी नेता से इसके बारे में सवाल करेंगे तो वह इसका सीधा जवाब देने के बजाय घुमा-फिरा कर विचारधारा और जनता और देश के हितों की बात कहने लगेगा ।
प्रियंका गांधी के मैदान में उतरने से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में एक नया जोश आयेगा और जनता के एक हिस्से में कांग्रेस के प्रति अतिरिक्त आकर्षण भी पैदा होगा, इसमें कोई शक नहीं है । लेकिन इस जोश में यदि कोई 2019 से जुड़े अपने राजनीतिक लक्ष्य के प्रति निष्ठा से डोल जाता है तो आज मोदी का भविष्य जिस प्रकार तय नजर आता है, वह छंद फिर से टूटता हुआ दिखाई दे सकता है । फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में इस प्रकार का भटकाव काफी महंगा साबित हो सकता है । इसे सभी राजनीतिक दलों के नेतृत्व को अच्छी तरह से समझ कर चलना चाहिए ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें