‘साहित्यिक पत्रिका सम्मेलन’ और एक हमारा एक नोट
-अरुण माहेश्वरी
कोलकाता में दो दिन से शहर में हिंदी भाषा के व्यापारों के प्रमुख संचालक डा. शंभुनाथ और भारतीय भाषा परिषद के तत्वावधान में साहित्यिक पत्रिकाओं के एक सम्मेलन का एक भारी आयोजन चल रहा है । गौर करें, लघु पत्रिकाओं का सम्मेलन नहीं, ‘साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्मेलन’ - दोनों में शायद कुछ वैसा ही सूक्ष्म फर्क है जैसा ‘दलित’ और अनुसूचित जाति के बीच का बताया जाता है ! मालूम नहीं, इस भव्य कार्यक्रम की आनुदानिक जरूरतों की इस सूक्ष्म भाव को अपनाने कितनी भूमिका रही होगी !
बहरहाल, नामकरण कोई खास विषय नहीं है । इस सम्मेलन के प्रति हमारे मन में पहले से ही एक गहरी उदासीनता थी । आज की वैचारिक दुनिया में साहित्यिक पत्रिकाओं की दशा नक्कारखाने में तूती की आवाज बनी हुई है । इनसे अभी किसी नए विमर्श की उम्मीद तक नहीं की जाती है । फिर भी ये बड़ी तादाद में जगह-जगह से बाकायदा बृहद से बृहदतर कलेवर के साथ लगातार प्रकाशित होती है ! इसी से इन पत्रिकाओं के परजीवीपन का एक अनुमान मिल जाता है। जाहिर है कि इनसे जुड़े लेखकों के जमावड़े का खुद इनके अपने हित में कितना ही महत्व क्यों न हो, वैचारिक जगत के लिये इसका कोई खास महत्व नहीं हो सकता है । इसीलिये हममें इस सम्मेलन के प्रति किसी प्रकार के आग्रह का सवाल ही नहीं था ।
इन सबके बावजूद आज लगभग एक घंटे के लिये मैं यहां उपस्थित हुआ था, क्योंकि डा. शंभुनाथ ने निजी तौर पर हमसे उपस्थिति दर्ज कराने का आग्रह किया था, जिसे महज सामाजिकता के नाते ही टालना हमारे लिये मुमकिन नहीं था । और चूंकि जाना था, इसीलिये डर था कि ‘कलम’ जैसी अपने समय की एक महत्वपूर्ण पत्रिका के संपादन के अपने जुर्म के चलते कोई मित्र पकड़ कर कुछ बोलने का आग्रह न कर बैठे, यही सोच कर हमने आज सुबह ही हाथो-हाथ एक छोटा सा नोट तैयार कर लिया था ताकि मुख्तसर में अपनी बात कह के निकल जाऊं । गनीमत रही कि हमारी मूल धारणा को ही पुष्ट करते हुए ही वहां ऐसी कोई नौबत नहीं आई कि जिसमें अपने इस बेढंगे से नोट को रखने की हमारे लिये कोई मजबूरी पेश होती । हाजिरी देकर एकाध मित्र से हाथ मिला कर लौट आया । मंच पर सभी संपादक वही सब कह रहे थे जो उनकी पत्रिका निकालने की चिंता के विषय थे, लेकिन हमारी चिंता के कत्तई नहीं ।
खैर, चूंकि हमने वह नोट लिख लिया था, इसीलिये उसे अभी अपने ब्लाग के जरिये यहां जारी करने में कोई हर्ज नहीं लग रहा है :
‘साहित्यिक पत्रिका सम्मेलन’ के लिये तैयार किया गया नोट :
आज ही सोशल मीडिया पर रवीश कुमार का कल का एक संक्षिप्त सा भाषण सुन रहा था । एनडीटीवी को सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल का पुरस्कार दिया गया था, उसी का समारोह था । उसमें रवीश ने अन्य कई बातों के साथ ही एक मार्के की बात कही — ‘आख़िर हमने से पाँच साल गुज़ार ही दिये !’
उनकी बातों से साफ़ था कि ये पाँच साल उनके और एनडीटीवी के जीवन के साधारण साल नहीं रहे हैं । उन्हें इनकी अनुभूति कुछ वैसी ही थी जैसे ‘एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है’।
वही प्रेम के दौर की अनुभूति जब होश खोकर आदमी एक अलग ही जुनून में जीता जाता है ।
प्रेम के बारे में कहते हैं कि यह सबसे पहले सामान्य बुद्धि को परे कर देता है, उसे चुनौती देता है । जीने के सामान्य तर्कों को झकझोरना ही किसी भी क्षेत्र में नये विमर्शों के प्रारंभ की पहली शर्त होती है । कुछ नया कर गुज़रने की जोखिम का बिंदु । और कहना न होगा कि विचार-विश्लेषणों के जगत में यही हर प्रकार के नये विमर्शों का कारक बनता है ।
जहाँ चली आ रही परिपाटी को कोई चुनौती नहीं, स्थापित मान्यताओं को ध्रुव सत्य मान कर रटा भर जाता है, वहाँ कभी कोई विमर्श तैयार नहीं होता । वहाँ विमर्श का स्वाँग किया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह से निरर्थक ।
क्यों कहा जाता है कि जब दर्शनशास्त्र किसी बंद गली के आख़िरी छोर पर पहुँच रहा था, तभी फिराया ने अपने मनोविश्लेषण से विषय के तल में जाकर उसके मूल को निकाल कर बाहर करने और उसे ध्वस्त करके नई ज़मीन पर खड़ा किया था । अपने इन्हीं मनोचिकित्सीय कार्यों से उन्होंने अवचेतन की खोज की और इस नतीजे पर पंहुचे कि हर विषय को अवचेतन की ज़मीन पर खड़ा किया जा सकता है । यह बिल्कुल वैसा ही था जैसे मार्क्स ने समाज के इतिहासों को वर्ग संघर्ष की नई ज़मीन पर स्थापित किया था । मार्क्स ने अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से दर्शनशास्त्रीय विमर्श को उसके गतिरोध से मुक्त किया तो फ्रायड ने इसकी बाधाओं को अपसारित कर मनोविश्लेषण के नये मार्ग की आधारशिला रखी ।
हम सभी जानते हैं कि फ्रायड के बाद जॉक लकान, एलेन बाद्यू और स्लावोय जिजेक के स्तर के आज के काल के सभी प्रमुख दर्शनशास्त्री अपने को मनोवि़्लेषक भी कहते हैं, हांलाकि वे फ्रायड और लकान की तरह के पेशेवर मनोचिकित्सक नहीं है ।
यहाँ यह सब कहने का हमारा तात्पर्य सिर्फ़ इतना है कि साहित्य हो या भाषाशास्त्र, या राजनीतिशास्त्र या नीतिशास्त्र — इन सबको कभी भी वैयाकरणवादियों की तरह उनके निश्चित और कठोर मान्य सिद्धांतों के हवाले छोड़ कर निश्चिंत हो जाने में कोई कर्त्तृत्व नहीं है । यदि आप किसी भी क्षेत्र की गतिशीलता में अपनी भूमिका अदा करना चाहते हैं तो आपका असली काम वहाँ से शुरू होता है जब आप उस क्षेत्र में चीज़ें जहाँ अटकी हुई है, वहाँ उसे चुनौती देते हैं। उसे झकझोरते हैं । इस अटकन से ही आप विषय के तल में जाकर उसके मूल को बाहर निकाल उसके अंत का रास्ता खोजते हैं । और ऐसा करते हुए ही आप अवचेतन की तरह, विषय के सत्य के अलग जगत के पहलू को सामने लाते हैं ।
आज के भारत में हमारे देखते-देखते कितना कुछ बदलता चला गया है । देखते-देखते हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिक विचार मंच के केंद्र में आ गये हैं । लेकिन सवाल है कि हिंदी के प्रगतिशील खेमे में क्या इससे वास्तव में कोई हलचल हुई है ? क्या यह ज़रूरी नहीं था कि ऐसा क्यों हुआ, इसके लिये इस हलके में एक गहरा आत्मनिरीक्षण होता और हम अपनी व्याधि को उसके तल से खींच कर बाहर लाते, उसके अंत के ज़रिये एक नया विमर्श रचते ?क्या हिंदी जगत में सचमुच ऐसा कुछ हुआ है ? यह सवाल यहाँ उपस्थित लघु पत्रिकाओं के सभी कर्ता-धर्ताओं से बिल्कुल वाजिब ढंग से किया जा सकता है ।
इसी संदर्भ में मुझे कोलकाता से निकलने वाली ‘लहक’ पत्रिका की भूमिका बिल्कुल अलग दिखाई पड़ती है । उस मंच से हिंदी साहित्य के जगत की अनेक कमजोरियों और गलाजतों को सही-ग़लत, बल्कि विध्वंसक ढंग से ही खींच कर सामने लाया गया है और हमारा मानना है कि इसी बिंदु से हिंदी में किसी नये और गतिशील विमर्श का सिलसिला शुरू हो सकता है । ‘लहक’ ने हिंदी साहित्य जगत के सामान्य विवेक को झकझोरा है, जो आग का दरिया से गुज़रने की मजबूरी वाले इस दौर का सबसे ज़रूरी और विशेष पहलू कहला सकता है ।
इसीलिये अंत में हम यही कहेंगे कि दो दिनों के इस सम्मेलन में आपने क्या हासिल किया, कौन से नये विमर्शों की दिशा में बढ़ने के संकेत प्राप्त कियें,इस पर सोचा जाना चाहिए । अर्थात्, इस सम्मेलन की अपनी क्या कामना रही जो इसकी क्रियात्मकता को निर्धारित कर रही थी ? सिर्फ़ संपादकों का एक जगह मिल बैठना भी इसका एक वाजिब उद्देश्य हो सकता है । लेकिन तब यह बदलती और ऐसी कठिन परिस्थिति में विमर्शों का मंच समझी जाने वाली पत्रिकाओं के लिये ज़्यादा उपयोगी साबित नहीं होगा ।हम जो करते रहे हैं, वही और वैसे ही करते रहना है तो फिर ऐसे सम्मेलन का क्या मायने हैं ?
इस प्रकार के कठिन सवाल उठा कर मैं सिर्फ़ यह कहना चाहता हूँ कि हर रचनात्मक कोशिश के पीछे कुछ बेवक़ूफ़ियाँ ज़रूर काम करती है। वे जिन्हें सामान्य मानदंडों पर बेवक़ूफ़ियाँ माना जा सकता हैं । लेकिन हम जैसे लोग जब जीवन के दूसरे सामाजिक-राजनीतिक प्रसंगों के साथ आपके सामने कुछ सवाल उठाते हैं तो उन सवालों को किसी भी रूप में अनाधिकार मानने के बजाय मार्क्स और फ्रायड के पूर्ण-प्रत्यावर्त्तन के लिये ज़रूरी चीज़ों के खोल को पलट कर देखने की कोशिश की माँग भर समझना चाहिए । अन्यथा हम नहीं जानते कि हम जो कह रहे हैं, वह सब बेईमानों हो कर पता नहीं किस अतल में लुप्त हो जाता है और सुनने वाला उन्हें सुन कर कैसे अमल करता है वह अनिश्चित ही बना रहता है । बमबाजी में फँसा आदमी अपने असबाबोंटय का प्रयोग कैसे करेगा, इसे कोई पहले से तय नहीं कर सकता है ।
इसके लिये ही विमर्शों की निरंतरता का महत्व होता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें