-अरुण माहेश्वरी
‘अपना टाइम आयेगा’ - जुनून की नैतिकता का आप्त कथन । प्रमाद ग्रस्त आदमी विद्रोह के जरिये सामान्य नैतिकता को चुनौती देता है और जुनूनी अपनी आत्मलीनता से सामान्य के प्रति उदासीन होकर उससे इंकार करता है । दोनों ही राजनीतिक सठीकपन के विरुद्ध रचनाशीलता की उड़ान की जमीन भी तैयार करते हैं । राजनीतिक सठीकपन यथास्थिति है तो विद्रोह और जुनून बदलाव । उत्पीड़ित जनों की मुक्ति का पथ। जैसे होता है प्रेम का अपना मुक्त संसार ।
आज हमने जोया अख़्तर की बहुचर्चित फिल्म ‘गली ब्वाय’ देखी । मुंबई के धारावी के नर्क में पलते प्रेम और जुनून की फिल्म । मुराद (रणवीर सिंह) और सोफिया (आलिया भट्ट) के प्रेम के मुक्त जगत के साथ ही मुराद के रैप संगीत के जुनून की फिल्म । दोनों ने ही धारावी के परिवेश के दबाव से पिस रहे चरित्रों की अनोखी भूमिका अदा की है । आदमी की दमित कामनाओं की जुनूनी शक्ति को मूर्त कर दिया है । जुनून से व्यक्तित्वों के रूपांतरण को बखूबी उकेरा है ।
इस बेहतरीन फिल्म के जिस पहलू ने वास्तव में हमारा मन मोह लिया वह था - जीवन में कविता और संगीत की एक अदम्य लालसा का पहलू । रैप के उदय की प्रक्रिया को खोल कर यथार्थ और कविता के बीच के रिश्तों के जैसे एक बिल्कुल नये आयाम को रखा गया है । कविता पर कवियों की बपौती के सिद्धांत की धज्जियाँ उड़ाते हुए इससे पद्य में ही तमाम गद्य की गति का एक गहरा संदेश दिया गया है । न कविता कवि कहलाने वाले लोगों की और न ही संगीत किसी एकांतिक साधक की इजारेदारी का क्षेत्र है । जीवन के आनंद की खोज में कविता और संगीत के सोते तमाम बाधाओं के बीच भी स्वत: फूट पड़ते हैं ।
इस फिल्म में रैप से पता चलता है कि क्यों पठनीयता बनाये रखने के लिये ही हर पाठ का काव्यमूलक कायांतरण ज़रूरी हेता है । क्यों कविता रचना में जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति की एक सर्वप्रमुख माँग है ।
जॉक लकान ने लिखा है कि यथार्थ का स्वरूप कितना भी प्रगट क्यों न हो जाए, उसका सबसे मुख्य मौलिक अंश साधारणत: छिपा रहता है । पर्दे के पीछे छिपे उस अंश को देखने के लिये ही आनंदवाद के सिद्धांत की, गुनने-समझने अर्थात केंद्रित होने की जरूरत होती है ।
वास्तव में यह यथार्थ से मुठभेड़ का खास क्षण होता है । रैप इस यथार्थ पर पड़े पर्दे को नोच फेंकने वाला संगीत है । यह एक झटके में जैसे आपको यथार्थ की भंवर में ठेल देता है । सत्य से साक्षात्कार का यही क्षण बताता है कि जिंदगी कोई सपना नहीं है, जैसा कि अक्सर कुछ लोग कहा करते है ।
“और यह तो आप जानते ही होंगे
पर मेरा दुर्भाग्य कि मैंने इतनी देर से
और बस अभी-अभी जाना
कि मेरे समय के सबसे महान चित्र
पिकासो ने नहीं
मेरी गली के एक बूढ़े रंगरेज ने
बनाये थे ।”
कहना न होगा, इस सुगठित फिल्म के एक-एक फ्रेम अनायास ही सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, विमल राय और श्याम बेनेगल की फ़िल्मों की याद दिलाते हैं । श्रेष्ठ फिल्में अन्तरनिहित यथार्थ के संगीत से निर्मित कविताओं की तरह होती है तो बाज़ारू फ़िल्में अध्यापकीय और अफ़सरान कवियों की कविताओं की अश्लीलताओं की तरह । यह फिल्म जोया अख्तर को हमारे समय के श्रेष्ठ फिल्म निदेशकों की कतार में खड़ा कर देती है ।
‘गली ब्वाय’ में रचे गये रैप के प्रतिवाद के स्वरों का काव्य शास्त्र इस फिल्म को हमारे लिये बहुत विशेष बना देता है ।
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