शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

कविता में सत्य की भूमिका

सरला को जन्मदिन की बधाई 


कल सरला का जन्मदिन है । उसके साथ बिताये जीवन पर चर्चा करने के बजाय आज कुछ दूसरे प्रकार की चर्चा करना चाहता हूं । इसके पहले भी इस मौके पर मैं फेसबुक की अपनी वाल की सजावट में उसकी कविताओं के योगदान की चर्चा कर चुका हूं । लेकिन आज विषय कुछ अन्य प्रकार से दिमाग को मथ रहा है ।

लगभग हर दिन मैं किसी न किसी समकालीन विषय पर टिप्पणी के तौर पर ही सरला की किसी न किसी कविता को अपनी वाल पर देता रहता हूं । इसका सर्वप्रमुख कारण तो यह है कि वह मेरे पास सबसे सहजता से उपलब्ध होती है । एक क्लिक से लगा पाता हूं । उस विषय पर और खोज करने या अलग से अपनी टिप्पणी देने की मेहनत से बच जाता हूं, जैसा अन्य भी दूसरों की उद्धृतियों या कविताओं आदि के जरिये किया करते हैं ।

लेकिन हमारे लिये अभी इससे भी बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण बात है नित नयी घटनाओं पर इन कविताओं को चस्पा करने में हमारा सफल होना । ऐसा भी हुआ है कि एक ही कविता को तीन-चार मौकों पर, हर बार नई तस्वीरों के साथ छोटी सी टिप्पणी दे कर मैं उसे लगा पाया हूं ।

यह जो नये-नये संदर्भों में कविता का दोहराव है, वह भी इतने सामयिक विशेष संदर्भों में लिखी गई कविताओं का दोहराव — यह आज कविता की सामयिकता और सर्वकालिकता के बारे में हमारे सामने एक अनोखे नये आयाम को खोल रहा है । साहित्य के मानदंडों में यह एक प्रचलित कथन है कि जो समकालीन नहीं, वह सर्वकालिक भी नहीं होता है । लेकिन साहित्य, खास तौर पर कविता में अक्सर सनातन, अनंत, सर्वकालिक को साधने पर ही बल दिया जाता है । कविता में सामयिक आख्यानों के बारे में कुछ ऐसी धारणा होती है मानो वे उसकी सनातनता और सर्वकालिकता को व्याहत करते हैं ।
“साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।”

और सार क्या है ? जो सार्वलौकिक है, जो अनंत है ।

फिर भी, साहित्य का इतिहास गवाह है कि कविता और आख्यानों का संबंध आज के गद्य-लेखन के काल में भी टूटा नहीं है । उपन्यास को आधुनिक समय का महाकाव्य कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि कविता के ढांचे में घटनाओं के आख्यान के लिये स्थान नहीं बचा है । अथवा, बार-बार दोहराये जाने के बावजूद यह कोई स्थापित सत्य नहीं है कि कविता की सार्वलौकिकता उसकी समकालीनता के संदर्भों से आहत होती है । एक ही कविता को अलग-अलग ठोस घटनाओं के संदर्भ में अलग-अलग प्रस्तुत करने का क्या तात्पर्य हैं ?

दरअसल, आखिरकार कविता एक भाषाई संरचना ही है । इसीलिये सवाल उठता है कि कविता का पाठकों पर प्रभाव, अर्थात उसका मनोवैज्ञानिक परिणाम क्या भाषा मात्र पर निर्भर करता है ? अथवा क्या वह आदमी के अवचेतन मात्र पर ही निर्भर है ? अर्थात्, कविता का प्रभावी सत्य क्या रचनाकार में ही अंतरनिहित है ?

यहां हम इस विषय को बिल्कुल अलग नजरिये से देखना चाहते हैं । हम जानना चाहते हैं कि आखिर पाठक क्यों किसी चीज से प्रभावित होता है ? कवि के अंतर के सत्य से या किसी अन्य चीज से ।

फ्रायड ने अपने अनुभव के आधार पर कहा था कि आदमी में किसी लक्षण के विश्लेषण मात्र से वे लक्षण खत्म नहीं होते हैं, वे वैसे के वैसे बने रह जाते हैं । वे कहते हैं कि मुझे लगता है कि हर जीव में एक ऐसी मौन शक्ति होती है, जिसका रूझान आत्म-ध्वंस की ओर होता है । वह आदमी को लगातार कष्ट देने के लिये ही होती है । अर्थात्, आदमी मजबूरन किसी चीज को दोहराते जाने के लिये अभिशप्त होता है । जो भूल आदमी को दुख देती है, पीड़ा देती है, आदमी क्यों जीवन भर उसे ही दोहराता रहता है ? अतीत के अनुभवों से कोई शिक्षा क्यों नहीं लेता ? ऐसा लगता है जैसे इस प्रकार दुखी होने में ही उसका हित है । इस प्रकार वेदना का सुख भोगने वाले का कोई मनोवैज्ञानिक निदान मुमकिन नहीं हो पाता है ।

ध्यान रखिये, हम यहां एक ही कविता को अलग-अलग समान घटनाओं के संदर्भ में दोहराये जाने के तात्पर्य के विषय पर यहां चर्चा कर रहे हैं ।

फ्रायड की बात से ही यह सवाल उठता है कि आदमी आखिर अपनी वेदना से कैसे आनंद लेता है ?

दरअसल, यह मनुष्य के चित्त का विषय है । आदमी का चित्त, जो कविता, अर्थात् किसी खास भाषाई संरचना के प्रभाव को ग्रहण करता है, उस पर सिर्फ भाषा का ही प्रभुत्व नहीं होता है । इसमें व्यक्ति और भाषा के अलावा एक तीसरी चीज और शामिल होती है । वह चीज है — सत्य । व्यक्ति की संवेदना के केंद्र में उपस्थित ऐसा सत्य, जो किसी भी अर्थ और स्वरूप के दायरे के बाहर होता है । आदमी की अपनी इच्छा, ज्ञान और क्रिया से स्वतंत्र, स्वयंसिद्ध । मनुष्य की देह और उसकी भाषा से बिल्कुल बाहर की उपस्थिति । आदमी की वेदना के आनंद का क्रियाशील, स्वतंत्र तत्त्व — यथार्थ का सत्य ।

और जैसे ही हम इस सत्य के पहलू पर आते हैं, कविता की भाषाई संरचना से जुड़े दूसरे सभी पहलू, आख्यनात्मक या सुक्तिनुमा या कुछ और, सब गौण हो जाते हैं । भाषा के साथ सत्य से संबद्ध आदमी की संवेदना का पहलू केंद्रीय हो जाता है । तब कविता का आख्यान या सार नहीं, पाठक की संवेदना का सत्य अपने को दोहराने लगता है ।

जैसे वह एक ही भूल को बार-बार करने के लिये मजबूर होता है, वैसे ही एक ही रचना से वह बार-बार अलग-अलग संदर्भों में एक ही प्रभाव भी  ग्रहण करता है ।

जॉक लकान कहते हैं कि चित्त में सत्य की अपनी छवियों का भी एक संसार निर्मित होता रहता है । यही छवि पाठक को एक समान, लेकिन हर नई घटना से जोड़ता है, और अन्य को दूर भी रखता है । जब तक इस छवि के साथ आदमी का रिश्ता बना रहता है, वह उससे मुक्त नहीं हो सकता है । अगर आदमी को उससे मुक्त ही करना हो तो वह उस छवि को तोड़ कर ही संभव है । अन्यथा वह लगातार, खामोशी से अपनी भूमिका अदा करती रहती है । विध्वंस में, और हमारे अनुसार निर्माण में भी । चूंकि मनोविश्लेषक मनोरोगी के विषय पर काम करता है, इसलिये उसके सामने इस प्रकार के दोहराव की सूरत आत्म-विध्वंसकारी की होती है, लेकिन रचनाकार के लिये, यह आत्म-निर्माणकारी होती है ।

सत्य के इस प्रकार बार-बार उपस्थित होने या दोहराए जाने की प्रक्रिया ही किसी प्रवृत्ति के चित्त पर पूरी तरह से छा जाने की प्रक्रिया है । मनोरोगी जुनूनी आदमी में यह खामोशी से अपने अंधेरे क्षेत्र से निकल कर उसके पूरे मस्तिष्क पर अधिकार जमा लेती है, उसकी नींद उड़ा देती है, उसे आतंकित किये रहती है, उसे उत्पीड़न के विचार से भर देती है । आतंकित मनुष्य की संवेदना हमेशा उसके बाहर के दबाव से जुड़ी होती है । वह किसी अन्य के, किसी बाहरी शक्ति के दबाव को देखता रहता है । और तब उत्पीड़ित होने के अहसास में फंसा रहता है ।

क्या वही प्रक्रिया सामयिक विषय पर लिखी गई कविता के बार-बार दोहराव और उसके प्रभाव पर भी लागू नहीं होती है ?

बहरहाल, एक ऐसे बहके से आत्म-निवेदन के साथ ही मैं सरला को सार्वजनिक तौर पर जन्मदिन की बधाई देता हूं : 
           

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