-अरुण माहेश्वरी
ऐसा लगता है कि मोदी कश्मीर के लॉक डाउन को कम से कम दो साल तक चलाना चाहते हैं । उन्हें आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे सख़्त और साहसी प्रशासक का ख़िताब हासिल करना है और वह इंदिरा गाँधी के 19 महीने के आपातकाल को मात दिये बिना कैसे संभव होगा ! साहसी दिखने का जो फ़ितूर उन्हें नेशनल जोगरफी की डाक्यूमेंट्री तक ले गया, वही इंदिरा गांधी की प्रतिद्वंद्विता में भी खींच ले रहा है । कोई भी मनमाना विध्वंसक कदम उठा कर उसे कुछ काल के लिये भूल जाने के लिये विदेश यात्राओं पर निकल पड़ना मोदी जी की कार्यशैली की पहचान बन चुका है । जुनूनी मनोरोगी इसी प्रकार अपने ग़ुरूर में जीया करता है ।
लेकिन कश्मीर का मसला कोई नोटबंदी या जीएसटी की तरह का पूरी तरह से भारत का आंतरिक मामला नहीं है । उन मामलों में आप मरे या जीए, दुनिया को परवाह नहीं थी । कश्मीर और धारा 370 को भारत का अपना विषय कहने मात्र से वह ‘अपना’ हो नहीं जाता है । इस पर पहले भी पाकिस्तान के साथ संधियाँ हो चुकी है और दोनों देशों के बीच सीमा का मसला कभी भी समाप्त नहीं हुआ है । ऊपर से, इसी में चीन का भी अपना दावा जुड़ गया है ।कश्मीर से लगे अक्साई चीन के इलाक़े में वह अभी अपनी पूरी ताक़त के साथ मौजूद है ।
भारत में एक दीर्घ जनतांत्रिक प्रक्रिया के बीच से जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सफलता के साथ मज़बूत किया गया है, कश्मीर भी भारतीय राज्य के उसी प्रकल्प का हिस्सा रहा है । कश्मीर में उग्रवाद का मुक़ाबला सिर्फ सेना-पुलिस के बल पर नहीं बल्कि कश्मीर के लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी के ज़रिये कहीं ज्यादा हुआ है । यही वजह रही कि कश्मीर की एक विभाजनवादी पार्टी के साथ मिल कर वहाँ बीजेपी तक ने अपनी सरकार बनाने से गुरेज़ नहीं किया था ।
लेकिन 2019 के चुनाव में मोदी जी की भारी जीत ने जैसे पूरे दृश्यपटल को बदल दिया । मोदी जी की आरएसएस की बौद्धिकी की सीखें कुलाँचे भरने लगी। ऊपर से दुस्साहसी अमित शाह का साथ मिल गया। बिना आगे-पीछे सोचे, वे कश्मीर पर टूट पड़े और जुनूनियत में अपनी जहनियत के सही साबित होने के वक़्त का इंतज़ार करने लगे कि जिस सोच को सारी उम्र सहेजे हुए थे, वह सेना, पुलिस की ताकत से लैस होकर खुद ही अपने औचित्य को प्रमाणित करने का रास्ता बना लेगी ।
इसमें इधर इसराइल के साथ मोदी जी की बढ़ती हुई रब्त-ज़ब्त ने भी सरकार को इस विषय में और उलझा दिया है । इसराइल ने जिस प्रकार शुद्ध सैनिक शक्ति के बल पर फिलिस्तीनियों को उजाड़ने और जॉर्डन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़माने का जो उदाहरण पेश किया है, आरएसएस वालों के लिये उसका एक नये आदर्श के रूप में उभरना स्वाभाविक है । ताकत की अंधता के चलते इनका न भूगोल का, और न ही इतिहास का कोई बोध बचा है !
दूसरी ओर पाकिस्तान है, जिसके लिये कश्मीर उसके अस्तित्व के औचित्य से जुड़ा एक महत्वपूर्ण विषय रहा है । मोदी सरकार यदि कश्मीर पर इसराइल-फ़िलिस्तीन के इतिहास को दोहराने की झूठी कल्पना कर रही है तो पाकिस्तान इसमें बांग्लादेश के प्रतिशोध की पूरी संभावना देख रहा है । उसके पास यदि चीन का खुला समर्थन है, तो इससे भी बड़ी बात यह है कि उसके इरादों पर दुनिया के किसी भी देश का विरोध नहीं है ।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप तो अजीब तरीक़े से बार-बार कश्मीर में मध्यस्थता की ज़िद कर रहे हैं । मोदी उनके प्रस्ताव से क़तरा रहे हैं, लेकिन वे ट्रंप को बार-बार इसे उठाने से रोक नहीं पा रहे हैं । इसके साथ ही ट्रंप ने भारत पर दबाव बढ़ाने की दूसरी तैयारियाँ भी शुरू कर दी है । जिस समय मोदी ह्युस्टन में ‘हाउडी मोदी’ के शोर से आसमान को सर पर उठाए हुए थे, ऐन उसी समय अमेरिकी सिनेटरों के एक समूह ने सीनेट की कमेटी के सामने कश्मीर पर रिपोर्ट पेश की जिसमें कश्मीर को एक विश्व मानवीय चिंता का विषय बताते हुए भारत सरकार पर दबाव डाल कर कश्मीरियों पर लगी सभी पाबंदियों को ख़त्म कराने और हाल में गिरफ्तार किये गये सभी लोगों को रिहा कराने की बात कही गई है । चंद रोज़ बाद ही वहाँ की सीनेट कमेटी में 2020 के लिये विदेश नीति के प्रकल्पों का विधेयक तैयार होगा, उसमें कश्मीर को शामिल करने की बात कही गई है । यह खुद में कश्मीर में अमेरिकी हस्तक्षेप की बड़ी तैयारी का संकेत है ।
इस विषय में कुल मिला कर आज की स्थिति यह है कि मोदी कश्मीर के लॉकडाउन को दो साल तक खींचना चाहते हैं और अमेरिका ने 2020 में ही इस विषय में कूद जाने की तैयारियाँ शुरू कर दी है । मोदी का ट्रंप के प्रस्ताव पर कन्नी काटना भी ट्रंप को उकसाने का एक सबब बन सकता है । ट्रंप और मोदी की इस न समझ में आने वाली जुगलबंदी का अंतिम परिणाम क्या होगा, कहना मुश्किल है । लेकिन इस बार मोदी ने जो खेल खेला है वह पाकिस्तान या कश्मीर का भले कुछ न बिगाड़ पाए पर भारत के लिये बहुत ज्यादा महँगा साबित हो सकता है । कहना न होगा, आज की दुनिया में कश्मीर के विषय पर भारत पूरी तरह से अलग-थलग हो गया दिखाई पड़ रहा है ।
ऐसा लगता है कि मोदी कश्मीर के लॉक डाउन को कम से कम दो साल तक चलाना चाहते हैं । उन्हें आज़ाद भारत के इतिहास में सबसे सख़्त और साहसी प्रशासक का ख़िताब हासिल करना है और वह इंदिरा गाँधी के 19 महीने के आपातकाल को मात दिये बिना कैसे संभव होगा ! साहसी दिखने का जो फ़ितूर उन्हें नेशनल जोगरफी की डाक्यूमेंट्री तक ले गया, वही इंदिरा गांधी की प्रतिद्वंद्विता में भी खींच ले रहा है । कोई भी मनमाना विध्वंसक कदम उठा कर उसे कुछ काल के लिये भूल जाने के लिये विदेश यात्राओं पर निकल पड़ना मोदी जी की कार्यशैली की पहचान बन चुका है । जुनूनी मनोरोगी इसी प्रकार अपने ग़ुरूर में जीया करता है ।
लेकिन कश्मीर का मसला कोई नोटबंदी या जीएसटी की तरह का पूरी तरह से भारत का आंतरिक मामला नहीं है । उन मामलों में आप मरे या जीए, दुनिया को परवाह नहीं थी । कश्मीर और धारा 370 को भारत का अपना विषय कहने मात्र से वह ‘अपना’ हो नहीं जाता है । इस पर पहले भी पाकिस्तान के साथ संधियाँ हो चुकी है और दोनों देशों के बीच सीमा का मसला कभी भी समाप्त नहीं हुआ है । ऊपर से, इसी में चीन का भी अपना दावा जुड़ गया है ।कश्मीर से लगे अक्साई चीन के इलाक़े में वह अभी अपनी पूरी ताक़त के साथ मौजूद है ।
भारत में एक दीर्घ जनतांत्रिक प्रक्रिया के बीच से जिस प्रकार राष्ट्रीय एकता और अखंडता को सफलता के साथ मज़बूत किया गया है, कश्मीर भी भारतीय राज्य के उसी प्रकल्प का हिस्सा रहा है । कश्मीर में उग्रवाद का मुक़ाबला सिर्फ सेना-पुलिस के बल पर नहीं बल्कि कश्मीर के लोगों के नागरिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी के ज़रिये कहीं ज्यादा हुआ है । यही वजह रही कि कश्मीर की एक विभाजनवादी पार्टी के साथ मिल कर वहाँ बीजेपी तक ने अपनी सरकार बनाने से गुरेज़ नहीं किया था ।
लेकिन 2019 के चुनाव में मोदी जी की भारी जीत ने जैसे पूरे दृश्यपटल को बदल दिया । मोदी जी की आरएसएस की बौद्धिकी की सीखें कुलाँचे भरने लगी। ऊपर से दुस्साहसी अमित शाह का साथ मिल गया। बिना आगे-पीछे सोचे, वे कश्मीर पर टूट पड़े और जुनूनियत में अपनी जहनियत के सही साबित होने के वक़्त का इंतज़ार करने लगे कि जिस सोच को सारी उम्र सहेजे हुए थे, वह सेना, पुलिस की ताकत से लैस होकर खुद ही अपने औचित्य को प्रमाणित करने का रास्ता बना लेगी ।
इसमें इधर इसराइल के साथ मोदी जी की बढ़ती हुई रब्त-ज़ब्त ने भी सरकार को इस विषय में और उलझा दिया है । इसराइल ने जिस प्रकार शुद्ध सैनिक शक्ति के बल पर फिलिस्तीनियों को उजाड़ने और जॉर्डन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा ज़माने का जो उदाहरण पेश किया है, आरएसएस वालों के लिये उसका एक नये आदर्श के रूप में उभरना स्वाभाविक है । ताकत की अंधता के चलते इनका न भूगोल का, और न ही इतिहास का कोई बोध बचा है !
दूसरी ओर पाकिस्तान है, जिसके लिये कश्मीर उसके अस्तित्व के औचित्य से जुड़ा एक महत्वपूर्ण विषय रहा है । मोदी सरकार यदि कश्मीर पर इसराइल-फ़िलिस्तीन के इतिहास को दोहराने की झूठी कल्पना कर रही है तो पाकिस्तान इसमें बांग्लादेश के प्रतिशोध की पूरी संभावना देख रहा है । उसके पास यदि चीन का खुला समर्थन है, तो इससे भी बड़ी बात यह है कि उसके इरादों पर दुनिया के किसी भी देश का विरोध नहीं है ।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप तो अजीब तरीक़े से बार-बार कश्मीर में मध्यस्थता की ज़िद कर रहे हैं । मोदी उनके प्रस्ताव से क़तरा रहे हैं, लेकिन वे ट्रंप को बार-बार इसे उठाने से रोक नहीं पा रहे हैं । इसके साथ ही ट्रंप ने भारत पर दबाव बढ़ाने की दूसरी तैयारियाँ भी शुरू कर दी है । जिस समय मोदी ह्युस्टन में ‘हाउडी मोदी’ के शोर से आसमान को सर पर उठाए हुए थे, ऐन उसी समय अमेरिकी सिनेटरों के एक समूह ने सीनेट की कमेटी के सामने कश्मीर पर रिपोर्ट पेश की जिसमें कश्मीर को एक विश्व मानवीय चिंता का विषय बताते हुए भारत सरकार पर दबाव डाल कर कश्मीरियों पर लगी सभी पाबंदियों को ख़त्म कराने और हाल में गिरफ्तार किये गये सभी लोगों को रिहा कराने की बात कही गई है । चंद रोज़ बाद ही वहाँ की सीनेट कमेटी में 2020 के लिये विदेश नीति के प्रकल्पों का विधेयक तैयार होगा, उसमें कश्मीर को शामिल करने की बात कही गई है । यह खुद में कश्मीर में अमेरिकी हस्तक्षेप की बड़ी तैयारी का संकेत है ।
बर्नी सैन्डर्स
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