—अरुण माहेश्वरी
आज ही हमने मोदी जी के उस भाषण को देखा जो उन्होंने बीजेपी मुख्यालय में पार्टी के नए अध्यक्ष जे पी नड्डा की स्वागत-सभा में दिया था । इस पूरे भाषण में उनकी भाव-भंगिमाएं अजीब प्रकार से बुझी-बुझी सी दिखाई दे रही थी ।
जो मोदी कल तक हमेशा अपनी संघ के प्रचारक की भूमिका को पीछे रख कर प्रधानमंत्री की गरिमा को खास महत्व देते थे, हमेशा 130 करोड़ भारतवासियों के नाम पर बोला करते थे, इस भाषण में वे पूरी तरह से बीजेपी के कार्यकर्ताओँ, बल्कि अंध भक्तों पर ही अपना पूरा भरोसा जाहिर कर रहे थे ।
सवाल उठता है कि अचानक मोदी 130 करोड़ भारतवासियों से मुंह क्यों चुराने लगे हैं ? क्यों वे सभी भारतवासियों की एक समग्र छवि का आज सामना नहीं कर पा रहे हैं ?
मोदी देश-विदेश में घूम-घूम कर हमेशा अपनी उदार और जनतात्रिक छवि का खूब ढिंढोरा पीटते थे । अपने को नेहरू से बड़ा जनतांत्रिक बताना तो उनका खास शगल था । लेकिन आज न सिर्फ भारत के मीडिया में, बल्कि सारी दुनिया के प्रमुख मीडिया में मोदी को भारत में जनतंत्र के लिये एक बड़े खतरे के रूप में चिन्हित किया जाने लगा है । अपने को हमेशा मीडिया के प्रिय के रूप में पेश करने की कोशिश में रहने वाले मोदी ने इसी भाषण में यह भी कहा कि उन्हें अब मीडिया की कोई जरूरत नहीं है । अर्थात् मीडिया के चेहरे पर लिखे हुए सवालों का मुकाबला करने में भी वे आज अपने को पूरी तरह से असमर्थ पा रहे हैं ।
आखिर आदमी की अपने बारे में कोई धारणा बनती कैसे हैं ? वह अन्यों के माध्यम से ही, अपने चारों ओर के परिवेश के जरिये ही बनती है । लेकिन जब वह अन्य ही उसे अपना शत्रु नजर आने लगता है, तब वास्तव में आदमी का अपना ही पूरा अस्तित्व हिलने लगता है ।
मोदी ने अपने जिन लक्ष्यों की बड़ी-बड़ी बातों से अपने अहम् को दुनिया के सामने रखा था, वह अब नागरिकता संबंधी उनके पैदा किये गये विवाद के कारण ही जैसे पूरी तरह से बिखरने लगा है । अर्थात् 2014 के बाद मोदी के व्यक्तित्व को बनाने वाले सारे पहलू यहां आकर अब तार-तार हो कर इस प्रकार बिखरने लगे हैं जिससे उनके पूरे अस्तित्व पर ही सवाल पैदा हो जा रहे हैं ।
मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले पांच सालों में नोटबंदी की तरह के तुगलकीपन से अपनी तात्विक सचाई का एक परिचय दिया था, लेकिन लोग उसे झेल गये, क्योंकि खुद उन्होंने ही बाद में उसके प्रति एक मौन अपना कर एक प्रकार से उसे अपनी भूल मान लिया । नोटबंदी के प्रति एक क्रमिक उदासीनता, उसके पक्ष के संघी तर्कवागीशों से एक दूरी और अरुण जेटली की तरह के कुतर्की के न रहने से उनकी ध्वस्त हो रही छवि को फिर से उभरने में भारी मदद की । कालक्रम में नोटबंदी उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह से परिभाषित करने वाली कोई घटना नहीं रह गई, वे एक स्वाभाविक शासक की छवि में लौट आए । यद्यपि आज तक भी वे आर्थिक मामलों में अपनी कमियों से उबर नहीं पाए हैं, लेकिन उसके मूल में भी नोटबंदी से पैदा हुई परिस्थितियों की बाधा ही काम कर रही है । उनके सामने विकल्प सिकुड़ गये हैं ।
बहरहाल, बड़ी मुश्किल से काबू में आया मोदी का संघी उद्भटता का रोग 2019 के चुनाव के बाद एक बार फिर बुरी तरह से जोर मारने लगा । कश्मीर के प्रति नफरत और अंत में नागरिकता संबंधी सिनाख्तीकरण की उनकी हिटलरी परियोजना ने फिर से एक बार दुनिया के सामने उनके सच को पूरी तरह से खोल कर रख दिया है । ऐसे अस्वाभाविक कदमों को ही मनोरोगियों की वह फिसलन कहते है जिनसे उनका रोग जाहिर हुआ करता है ।
कोई भी मनोविश्लेषक आदमी की ऐसी चूकों, यहां तक कि जुबान की फिसलनों पर अपनी तीखी नजर रखता है और उससे उसके मूल रोग को पकड़ कर जब उसके सामने पेश करता है, आदमी का अस्तित्व हिल जाता है और उसे अपनी छवि के हित का स्मरण कराते हुए सुधार के रास्ते पर लाना संभव होता है ।
मोदी नोटबंदी के बाद तो फिर अपनी काम्य छवि में लौट आएं, लेकिन इस बार, इस नागरिकता के सवाल पर उनकी वापसी के रास्ते की बाधा बहुत बड़ी हो गई है । इसमें 2019 के चुनाव में उनकी अनपेक्षित जीत के अहंकार के अलावा इसमें एक बड़ा कारण सरकार में उनके साथ अमित शाह जैसे पेचीदा साथी का होना है । इससे उनका अहम् उनकी कांक्षित छवि से कहीं ज्यादा भारी हो गया है । अमित शाह उन्हें राज्य सत्ता की दमन की ताकत के बल पर पासा पलट देने का भरोसा दिलाते रहने के लिये काफी है ।
यहां तक कि नागरिकता कानून पर जब असम में शुरू में ही जोरदार प्रतिक्रिया हुई तो अमित शाह ने इस कानून के दायरे से उस क्षेत्र को बाहर रखने की कागजी धोखाधड़ी से चीजों का संभाल लेने का उन्हें भरोसा दिलाया ।
पर धोखा धोखा ही होता है । कई बार वह धोखेबाज के खुद के लिये ही धोखे का रूप ले लेता है । नड्डा को सभापति पद सौंपने के वक्त मोदी ने एक ही सलाह दी कि वे इस ‘टोली’ पर ज्यादा समय जाया न करें । ‘टोली’ से उनका तात्पर्य वह जनता थी जो अभी लाखों की संख्या में देश के हर शहर, कस्बे और गांव में सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरी हुई है । जनतंत्र में जिस जनता को ही माई-बाप माना जाता है, मोदी-शाह अपने नए अध्यक्ष से कहते हैं — उसी की परवाह मत करो !
सिगमंड फ्रायड कहते थे कि विक्षिप्त आदमी सबसे पहले अपने ऊपर नजरदारी रखने वाले पिता को मृत मान कर चलता है । वह अपने मालिक की मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि उसे पहले ही मृत मान लेता है । वह एक प्रकार से निश्चेष्ट सोया हुआ अपने को दिलासा देता रहता है कि मैं अपने नित्य कर्मों का, पूजा-अर्चना के सारे कामों का पूरी निष्ठा से पालन करता हूं, दूसरे सभी कामुक पचड़ों से दूर हूं ! उसकी दशा उस सैनिक की तरह की होती है जो वास्तविक मृत्यु से बचने के लिए युद्ध के मैदान में मृत पड़े होने का अभिनय किया करता है । जॉक लकान के अनुसार, मृत्यु से इस प्रकार के धोखे का मतलब ही है खुद जड़ीभूत हो जाना, जिंदा रहते हुए मर जाना । जुनून में यह जड़ता एक आम लक्षण है ।
आज अमित शाह को अपने बगल में पा कर मोदी संघी विक्षिप्तता की इसी जड़ता के शिकार जान पड़ते हैं । वे किसी की सुनने के लिये तैयार नहीं है । न जनता की न व्यापक अन्तरराष्ट्रीय जनमत को प्रतिबिंबित करने वाले मीडिया की । उनकी छवि दुनिया के सामने एक डरावनी संवेदनशून्य लाश की तरह की होती जा रही है ।
हम नहीं जानते वे उनके संपूर्ण अस्तित्व को ललकारने वाली इन परिस्थितियों का कैसे मुकाबला करेंगे । उनके विचलन की गूंज-अनुगूंज चारों दिशाओं से सुनाई देने लगी है । जिन चीजों से वे अपने व्यक्तित्व को साध रहे थे वे सब अब तार-तार हो कर उनकी पूरी छवि को खत्म कर देने का खतरा पैदा करने लगे हैं । वे जिन महान लक्ष्यों की बात किया करते थे, जो किसी न किसी रूप में उनके अहम् में भी बोला करता था, वे सब बिखर से गये हैं । यह उनके ही तनावों, अस्वाभाविक व्यवहारों, असमंजस, और संकट से निकल जाने की उनकी आधारहीन कल्पनाओँ से बार-बार जाहिर होता है । चारों ओर से उन्हें ललकारा जा रहा है ।
कहना न होगा, यही जन-दबाव न सिर्फ आज देश के सामने पैदा किये जा रहे संकट का अंतिम इलाज है, बल्कि यदि मोदी कंपनी इसे सकारात्मक रूप में ले तो यह उनका खुद का भी इलाज साबित हो सकता है । वैसे अभी तो उनका मर्ज लाइलाज नजर आता है । देश जरूर इस प्रक्रिया में अपने पर भूत बन कर मंडरा रहे इस विभाजनकारी संघी खतरे से निकलने का राजनीतिक रास्ता पा लेगा । भारत किसी विक्षिप्त तानाशाह की जगह नहीं है, यह स्वतंत्र, जनतांत्रिक और सेकुलर उसूलों पर दृढ़ता से चलने वालों की ही जगह है, यह भी फिर से एक बार साबित होगा ।
आज ही हमने मोदी जी के उस भाषण को देखा जो उन्होंने बीजेपी मुख्यालय में पार्टी के नए अध्यक्ष जे पी नड्डा की स्वागत-सभा में दिया था । इस पूरे भाषण में उनकी भाव-भंगिमाएं अजीब प्रकार से बुझी-बुझी सी दिखाई दे रही थी ।
जो मोदी कल तक हमेशा अपनी संघ के प्रचारक की भूमिका को पीछे रख कर प्रधानमंत्री की गरिमा को खास महत्व देते थे, हमेशा 130 करोड़ भारतवासियों के नाम पर बोला करते थे, इस भाषण में वे पूरी तरह से बीजेपी के कार्यकर्ताओँ, बल्कि अंध भक्तों पर ही अपना पूरा भरोसा जाहिर कर रहे थे ।
सवाल उठता है कि अचानक मोदी 130 करोड़ भारतवासियों से मुंह क्यों चुराने लगे हैं ? क्यों वे सभी भारतवासियों की एक समग्र छवि का आज सामना नहीं कर पा रहे हैं ?
मोदी देश-विदेश में घूम-घूम कर हमेशा अपनी उदार और जनतात्रिक छवि का खूब ढिंढोरा पीटते थे । अपने को नेहरू से बड़ा जनतांत्रिक बताना तो उनका खास शगल था । लेकिन आज न सिर्फ भारत के मीडिया में, बल्कि सारी दुनिया के प्रमुख मीडिया में मोदी को भारत में जनतंत्र के लिये एक बड़े खतरे के रूप में चिन्हित किया जाने लगा है । अपने को हमेशा मीडिया के प्रिय के रूप में पेश करने की कोशिश में रहने वाले मोदी ने इसी भाषण में यह भी कहा कि उन्हें अब मीडिया की कोई जरूरत नहीं है । अर्थात् मीडिया के चेहरे पर लिखे हुए सवालों का मुकाबला करने में भी वे आज अपने को पूरी तरह से असमर्थ पा रहे हैं ।
आखिर आदमी की अपने बारे में कोई धारणा बनती कैसे हैं ? वह अन्यों के माध्यम से ही, अपने चारों ओर के परिवेश के जरिये ही बनती है । लेकिन जब वह अन्य ही उसे अपना शत्रु नजर आने लगता है, तब वास्तव में आदमी का अपना ही पूरा अस्तित्व हिलने लगता है ।
मोदी ने अपने जिन लक्ष्यों की बड़ी-बड़ी बातों से अपने अहम् को दुनिया के सामने रखा था, वह अब नागरिकता संबंधी उनके पैदा किये गये विवाद के कारण ही जैसे पूरी तरह से बिखरने लगा है । अर्थात् 2014 के बाद मोदी के व्यक्तित्व को बनाने वाले सारे पहलू यहां आकर अब तार-तार हो कर इस प्रकार बिखरने लगे हैं जिससे उनके पूरे अस्तित्व पर ही सवाल पैदा हो जा रहे हैं ।
मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले पांच सालों में नोटबंदी की तरह के तुगलकीपन से अपनी तात्विक सचाई का एक परिचय दिया था, लेकिन लोग उसे झेल गये, क्योंकि खुद उन्होंने ही बाद में उसके प्रति एक मौन अपना कर एक प्रकार से उसे अपनी भूल मान लिया । नोटबंदी के प्रति एक क्रमिक उदासीनता, उसके पक्ष के संघी तर्कवागीशों से एक दूरी और अरुण जेटली की तरह के कुतर्की के न रहने से उनकी ध्वस्त हो रही छवि को फिर से उभरने में भारी मदद की । कालक्रम में नोटबंदी उनके व्यक्तित्व को पूरी तरह से परिभाषित करने वाली कोई घटना नहीं रह गई, वे एक स्वाभाविक शासक की छवि में लौट आए । यद्यपि आज तक भी वे आर्थिक मामलों में अपनी कमियों से उबर नहीं पाए हैं, लेकिन उसके मूल में भी नोटबंदी से पैदा हुई परिस्थितियों की बाधा ही काम कर रही है । उनके सामने विकल्प सिकुड़ गये हैं ।
बहरहाल, बड़ी मुश्किल से काबू में आया मोदी का संघी उद्भटता का रोग 2019 के चुनाव के बाद एक बार फिर बुरी तरह से जोर मारने लगा । कश्मीर के प्रति नफरत और अंत में नागरिकता संबंधी सिनाख्तीकरण की उनकी हिटलरी परियोजना ने फिर से एक बार दुनिया के सामने उनके सच को पूरी तरह से खोल कर रख दिया है । ऐसे अस्वाभाविक कदमों को ही मनोरोगियों की वह फिसलन कहते है जिनसे उनका रोग जाहिर हुआ करता है ।
कोई भी मनोविश्लेषक आदमी की ऐसी चूकों, यहां तक कि जुबान की फिसलनों पर अपनी तीखी नजर रखता है और उससे उसके मूल रोग को पकड़ कर जब उसके सामने पेश करता है, आदमी का अस्तित्व हिल जाता है और उसे अपनी छवि के हित का स्मरण कराते हुए सुधार के रास्ते पर लाना संभव होता है ।
मोदी नोटबंदी के बाद तो फिर अपनी काम्य छवि में लौट आएं, लेकिन इस बार, इस नागरिकता के सवाल पर उनकी वापसी के रास्ते की बाधा बहुत बड़ी हो गई है । इसमें 2019 के चुनाव में उनकी अनपेक्षित जीत के अहंकार के अलावा इसमें एक बड़ा कारण सरकार में उनके साथ अमित शाह जैसे पेचीदा साथी का होना है । इससे उनका अहम् उनकी कांक्षित छवि से कहीं ज्यादा भारी हो गया है । अमित शाह उन्हें राज्य सत्ता की दमन की ताकत के बल पर पासा पलट देने का भरोसा दिलाते रहने के लिये काफी है ।
यहां तक कि नागरिकता कानून पर जब असम में शुरू में ही जोरदार प्रतिक्रिया हुई तो अमित शाह ने इस कानून के दायरे से उस क्षेत्र को बाहर रखने की कागजी धोखाधड़ी से चीजों का संभाल लेने का उन्हें भरोसा दिलाया ।
पर धोखा धोखा ही होता है । कई बार वह धोखेबाज के खुद के लिये ही धोखे का रूप ले लेता है । नड्डा को सभापति पद सौंपने के वक्त मोदी ने एक ही सलाह दी कि वे इस ‘टोली’ पर ज्यादा समय जाया न करें । ‘टोली’ से उनका तात्पर्य वह जनता थी जो अभी लाखों की संख्या में देश के हर शहर, कस्बे और गांव में सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरी हुई है । जनतंत्र में जिस जनता को ही माई-बाप माना जाता है, मोदी-शाह अपने नए अध्यक्ष से कहते हैं — उसी की परवाह मत करो !
सिगमंड फ्रायड कहते थे कि विक्षिप्त आदमी सबसे पहले अपने ऊपर नजरदारी रखने वाले पिता को मृत मान कर चलता है । वह अपने मालिक की मृत्यु की प्रतीक्षा नहीं करता, बल्कि उसे पहले ही मृत मान लेता है । वह एक प्रकार से निश्चेष्ट सोया हुआ अपने को दिलासा देता रहता है कि मैं अपने नित्य कर्मों का, पूजा-अर्चना के सारे कामों का पूरी निष्ठा से पालन करता हूं, दूसरे सभी कामुक पचड़ों से दूर हूं ! उसकी दशा उस सैनिक की तरह की होती है जो वास्तविक मृत्यु से बचने के लिए युद्ध के मैदान में मृत पड़े होने का अभिनय किया करता है । जॉक लकान के अनुसार, मृत्यु से इस प्रकार के धोखे का मतलब ही है खुद जड़ीभूत हो जाना, जिंदा रहते हुए मर जाना । जुनून में यह जड़ता एक आम लक्षण है ।
आज अमित शाह को अपने बगल में पा कर मोदी संघी विक्षिप्तता की इसी जड़ता के शिकार जान पड़ते हैं । वे किसी की सुनने के लिये तैयार नहीं है । न जनता की न व्यापक अन्तरराष्ट्रीय जनमत को प्रतिबिंबित करने वाले मीडिया की । उनकी छवि दुनिया के सामने एक डरावनी संवेदनशून्य लाश की तरह की होती जा रही है ।
हम नहीं जानते वे उनके संपूर्ण अस्तित्व को ललकारने वाली इन परिस्थितियों का कैसे मुकाबला करेंगे । उनके विचलन की गूंज-अनुगूंज चारों दिशाओं से सुनाई देने लगी है । जिन चीजों से वे अपने व्यक्तित्व को साध रहे थे वे सब अब तार-तार हो कर उनकी पूरी छवि को खत्म कर देने का खतरा पैदा करने लगे हैं । वे जिन महान लक्ष्यों की बात किया करते थे, जो किसी न किसी रूप में उनके अहम् में भी बोला करता था, वे सब बिखर से गये हैं । यह उनके ही तनावों, अस्वाभाविक व्यवहारों, असमंजस, और संकट से निकल जाने की उनकी आधारहीन कल्पनाओँ से बार-बार जाहिर होता है । चारों ओर से उन्हें ललकारा जा रहा है ।
कहना न होगा, यही जन-दबाव न सिर्फ आज देश के सामने पैदा किये जा रहे संकट का अंतिम इलाज है, बल्कि यदि मोदी कंपनी इसे सकारात्मक रूप में ले तो यह उनका खुद का भी इलाज साबित हो सकता है । वैसे अभी तो उनका मर्ज लाइलाज नजर आता है । देश जरूर इस प्रक्रिया में अपने पर भूत बन कर मंडरा रहे इस विभाजनकारी संघी खतरे से निकलने का राजनीतिक रास्ता पा लेगा । भारत किसी विक्षिप्त तानाशाह की जगह नहीं है, यह स्वतंत्र, जनतांत्रिक और सेकुलर उसूलों पर दृढ़ता से चलने वालों की ही जगह है, यह भी फिर से एक बार साबित होगा ।
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