(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)
—अरुण माहेश्वरी
जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)
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जो भी हो, यहां हमारा विषय दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र या क्रांति का विज्ञान भी नहीं है । भारतीय तंत्र की चर्चा यहां अनायास ही मन की समस्याओं की चर्चा के संदर्भ में, एक प्रकार से मंगलाचरण के रूप में ही आई है । इसे कोई यहां प्रयोजन का प्रयोजन भी कह सकता है । तंत्र में चर्चित आत्म ही वह विषय है जिसके अनुसंधानात्मक निरूपण पर पश्चिम के मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) की पूरी इमारत खड़ी है और जिसकी आधुनिक काल में एक बहुत ही पुख्ता नींव तैयार करने वाले और कोई नहीं, आस्ट्रिया के स्नायुतंत्र के प्रसिद्ध विशेषज्ञ सेगमंड फ्रायड (6 मई 1856 — 23 सितंबर 1939) थे । मनोरोगियों से संवाद के जरिये मनोविश्लेषण और मनोचिकित्सा की उनकी पद्धति ने स्वयं में उसी प्रकार के एक शास्त्र की रचना कर दी कि जिसे भारतीय दर्शन की परम अमूर्तनता से उत्पन्न गतिरोध की स्थिति में तंत्र की तरह ही पश्चिमी दर्शनशास्त्र के गतिरोध को तोड़ने के भी एक नये मार्ग का खुलना माना जाता है । यह आधुनिक विज्ञान के युग में गुरू के द्वारा महाजाल के प्रयोग से समस्त अध्वाओं (मन के अंदर की परत-दर-परत बाधाओं, ग्रंथियों और गांठों) के मध्य से 'प्रेत के चित्त' को, फ्रायड के अवचेतन को खींच कर बाहर स्थित करने की एक अनोखी सैद्धांतिकी है ।यद्यपि भारतीय तंत्रशास्त्र को तीन भागों में, आगम, स्पंद और प्रत्यभिज्ञा में बांटा जाता है, जिसमें आगम शैवमत के आचार-विचार से संबंधित ग्रंथ हैं, तो स्पंद में सिद्धांत चर्चा ही प्रमुख है और प्रत्यभिज्ञा इसका दार्शनिक रूप, त्रिक दर्शन कहलाता है । अर्थात जीवन के सिद्धांत और व्यवहार तथा उनके विचारधारात्मक सूक्ष्म निष्कर्षों तक का पूरा दायरा इनमें शामिल है । फिर भी यह मूलतः 'परमशिव' के स्वातंत्र्य पर आधारित होने के कारण चित्त के प्रवाह का दृष्टा, अर्थात् व्याख्याता भर रहा, इसमें मनुष्यों के अपने कर्तृत्त्व के लिये कोई खास जगह नहीं छोड़ी गई थी । यह स्वात्म में विश्रांति के परम भाव से चालित है । ‘स्वात्मनः स्वातमनि स्वात्मक्षेपो वैसर्गिकी स्थितिः’ । (अपने अंदर अपने द्वारा अपना क्षेप ही विसर्ग है ) (श्रीतंत्रालोकः, तृतीयमाहिन्कम्, 141) जबकि पश्चिम का आधुनिक मनोविश्लेषण मनुष्य के चित्त की उस आंतरिक संरचना का अध्ययन है जिसे उसकी सामाजिक क्रियात्मक भूमिका में एक प्रमुख कारक माना जाता है, क्योंकि चित्त का निर्माण मूलतः एक सामाजिक परिघटना ही है ।
यहीं से मनुष्य के क्रियामूलक उपायों का वह रास्ता खुलता है जिसे तंत्र की भाषा में संविद, अर्थात् चेतना शक्ति में प्रवेश का मार्ग कहा जाता है । शैवदर्शन में इस चेतना शक्ति को स्वप्रकाश और कर्ता को प्रकाशित करने वाली शक्ति माना गया है । इसमें अगर प्रकाश नहीं होगा, अंधेरा होगा तो वह मनुष्य की क्रियात्मकता को भी अंधेरे में भर देगी । संवित् के स्वातंत्र्य के अनेक शक्तियों में पर्यवसन को इसमें माना गया है ।
कहना न होगा, मनोरोग इसी पर्यवसन, प्रकाश में अंधेरे के कोनों की उपज है । पश्चिमी मनोविश्लेषण ने मन के इस अंधेरे के असंख्य रूपों के अपने विवेचन के सर्वकालिक सिद्धांतों की खोज की । इसमें तमाम प्रकार के स्फोटों, अर्थात चमत्कारों और आकस्मिकताओँ की संभावनाओँ को समझते हुए उनके संयोगों को भी पकड़ने के सूक्ष्मतर विवेचन का रास्ता खोला । एक वाक्य में कहे तो कह सकते हैं कि इसने भारतीय तंत्रशास्त्र के कामों को आधुनिक काल में एक नई भौतिक ऊंचाई प्रदान की और तंत्र को भी अद्वैतवादी पर्यवसन से निकाल कर उसके मूल द्वैताद्वैतवादी, भेदाभेद पर आधारित परा-अपरा-परापरा के ढांचे में विवेचन के विकास से जोड़ने का आधार तैयार किया है । तंत्रशास्त्र मूलतः अपने इसी भेदाभेदमूलक आधार की वजह से ही बौद्ध, वेदांती और वैयाकरणी सामग्री से भिन्न और पूरी तरह से स्वतंत्र और दो कदम आगे भी रहा है । लेकिन भारतीय दर्शन में अद्वैतवाद के बोलबाले ने अंत में इसे दबा देने में सफलता पाई, और तंत्रशास्त्र आधुनिक मनोवैज्ञानिक दर्शन का आधार नहीं बन सका । वह कोरा कर्मकांड, पंचमकार जैसी व्यक्तिमूलक विकृतियों में भटक गया ।
ऐलेन बाद्यू (17 जनवरी 1937)
बहरहाल, फ्रायड की परंपरा को ही आगे बढ़ाते हुए फ्रांस में मनोविश्लेषण की दुनिया में जॉक लकान (13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981), जिनका उल्लेख ऊपर आया है, के रूप में एक और ऐसे व्यक्तित्व का उदय हुआ जिसके साथ आज की दुनिया के ऐलेन बाद्यू और स्लावोय जिजेक के स्तर के सर्वाधिक चर्चित और दर्शनशास्त्र की दुनिया के अंधेरे में एक नई रोशनी के साथ आगे बढ़ने का रास्ता दिखाने वाले मार्क्सवादी दार्शनिक अपने को जोड़ कर गौरवान्वित महसूस करते हैं ।
तंत्र में आगम, स्पंद और दर्शन के योग के संदर्भ की तरह ही अभी पश्चिम में मनोविश्लेषण, दर्शन और गणित के बीच के संबंधों के बारे में एक सघन विमर्श चल रहा है । ऐलेन बाद्यू इस धारा के एक प्रमुख व्यक्तित्व हैं । आज के दर्शनशास्त्री खुद को मनोविश्लेषक भी बताने से परहेज नहीं करते । इसी प्रकार वे दर्शन और मनोविश्लेषण की नियति को गणितीय नियमों में भी देखते हैं । स्लावोय जिजेक और एलेन बाद्यू इसीके सबसे ज्वलंत उदाहरण है ।
जॉक लकान ने खुद अपने एक सेमिनार में मनोविश्लेषण के ऐतिहासिक विकास की चर्चा करते हुए इसे वस्तु के साथ, हेतु, जीवन के लक्ष्य (object) के साथ आदमी के संबंध का विषय बताया था । फ्रायड के हवाले से वे कहते हैं कि यह विश्लेषण विश्लेषण में मौजूद दो व्यक्तियों, विवेच्य(analysand) और विवेचक (analyst) के बीच के संबंधों के एक जटिल ढांचे में सम्पन्न होता है । इसी में वे अपने सेमिनारों के उन तीन साल के विषयों का क्रमवार जिक्र करते हैं जिनमें पहले साल उन्होंने मनोचिकित्सा के तकनीकी प्रबंधों की बातों को बताया था, दूसरा साल फ्रायड के अनुभवों और अवचेतन की उनकी खोज की बुनियाद पर केंद्रित किया था जिसके चलते फ्रायड ने अपने उन सिद्धांतों के बिल्कुल विपरीत सिद्धांतों को पेश किया जो उनकी पुस्तक 'Beyond the Pleasure Principle' में रखे गये थे । यह फ्रायड की आनंदवाद से, चित्त के उद्वेलन (jouissance) के आत्मवाद से निकल कर 'अन्य' के साथ संबंध (अर्थात् सामाजिक संबंधों के ताने-बाने के परिप्रेक्ष्य) के विषय पर आधारित अवचेतन की द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत की ओर यात्रा थी । लकान ने अपने सेमिनार के अंतिम तीसरे साल में चित्त के तमाम प्रतीकात्मक तंतुओं, प्रतीकवाद (symbolism) से उनके संकेतक (signifier) तत्वों को, लक्षणों को अलग करके देखने की सबसे बड़ी जरूरत को पेश किया था ताकि “मनोरोग की अवस्था में मन में जो भी भयजनित बाधा या गांठ हो, उसे समझा जा सके ।” (The seminar of Jacques Lacan, Book IV, Edited by Jacques-Alain Miller, The object Relation 1956-1957, Page – 1-2)
यह कुछ वैसी ही बात है जिसका तंत्र के संदर्भ में हमने ऊपर भी जिक्र किया है — 'महाजाल के प्रयोग से समस्त अध्वाओं के मध्य से 'प्रेत के चित्त' को खींच कर बाहर स्थित करने की पद्धति' । (क्रमशः)
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