—अरुण माहेश्वरी
दो दिन पहले ही इलाहाबाद से प्रकाशित ‘प्रयाग पथ’ पत्रिका का आठवां अंक मिला । जितना आकार में भारी-भरकम पर सुरुचिपूर्ण, उतना ही सामग्री के लिहाज से भी गंभीर और आकर्षक ।
आज इस अंक को उलट-पुलट ही रहा था कि अंक के प्रारंभ की कुमार अंबुज की दस कविताओं से सामना हो गया । बल्कि कहा जाए, उनमें ही अटक गया । ‘संबंध’ कविता से लेकर अंतिम ‘क्षमा किए जाने की प्रतीक्षा में’ तक, दसों कविताओं को एक के बाद एक, एक सांस में पढ़ता चला गया । मौत और रात के अंधेरे में अपने को बचाने, तेज रोशनी की अंधता से जीवन और स्मृतियों को सहेजने और जीवन के बर्फीले पानी में कुछ बेहद प्रिय और पवित्र भावों की मौत और बीत रहे जीवन की नियति को स्वीकारते जाने के पीछे आदमी के डर, उसके पैरानोउअ के स्थायी भाव से उपजी इन कविताओं ने काफी देर तक अपने में घेर कर रख लिया ।
उनकी पहली कविता है — संबंध । आदमी से आदमी का संबंध, वस्तु से आदमी का संबंध और वस्तु का वस्तु से संबंध । यह मूलतः संबंधों के मरने की कविता है । जो संबंध आजीवन चलते हैं वे भी यहां जीवन के बने रहने तक ही जिंदा हैं, क्योंकि जीवन के बाद बने रहने वाले संबंध कविता में नहीं है । ये एक आयुष्य वाले जीवन से बंधे संबंध हैं । कह सकते हैं — दुनियावी संबंध । वह नहीं जो जगत के सनातन चक्र की तरह हो । ये वे संबंध है जो हमारे पास होते हैं, हमारी पहुंच में, इतनी बड़ी दुनिया में हमारे हाथ में होते हैं । हमारी ही दुनिया के अंग । वे जब हमसे छूट कर कहीं लुप्त होते हैं, कहना न होगा, इनके साथ ही हम कुछ अपना खोते हैं, बल्कि हम ही मरते हैं, भले किसी आगत के लिये जगह बनाने की खातिर ही क्यों न हो, मर कर जीने के लिये ही क्यों न हो । पर मरना मात्र यदि कोई त्रासदी है तो कह सकते हैं, हम ऐसी त्रासदियों में ही जीने के लिये अभिशप्त है । कुमार अंबुज लिखते हैं — “कुछ दुर्घटऩाओं में मारे जाते हैं अकाल / ...कुछ बारिश में, कुछ शीतलहर में, कुछ प्रेम की कमी से, / ज्यादातर प्रेम की अधिकता से ।”
दूसरी कविता है — ‘मैं रात का प्रशंसक हूँ’ । दिन में पहाड़ की चढ़ाई समान सपनो की थकान से घिरी होती है रात, जैसे हो आदमी के आत्म-साक्षात्कार की बात । डूबता हुआ आदमी चांद की रोशनी से ताकत ले उस थकान को चुनौती देता है और रात पार कर लेता है । इस रात में आदमी कुछ नया होता है, दिन की कड़ी धूप के बाद इसके प्रेम की शीतल छाया में उसकी वासनाओं का वास होता है । रात आदमी की शरण स्थली, वैसी ही जैसे जीवन और सभ्यता में कहीं होती है कला की अपनी जगह । इसीलिये कवि रात का प्रशंसक है ।
“वह रात है जो, हर उस आदमी को / जिसे रात में ही बितानी पड़ती है जिंदगी की रात, / अपने भीतर जगह बनाने के लिये देती है कुछ जगह / और इस तरह भी जीवन और सभ्यताओं में / कलाएँ अपनी जगह बनाती चली जाती है ।”
तीसरी कविता है — ‘दूसरी कोई रोक-टोक नहीं है’ । इस कविता की पहली पंक्ति है — ‘हर चीज होती जा रही है किसी न किसी की निजी संपत्ति’ । कवि को तलाश है उस अचिन्हे छोड़ दिये गये कोने की जो आज भी इस सर्व-व्यापी मिल्कियत के बाहर है । आदमी की उम्मीद और सहनशीलता के बीच की दरार में फंसी उसकी अनसुनी बुदबुदाहट, उसकी दबी हुई वासना, वही कविता में जगह पाती है । कविता में उसे आने से कोई नहीं रोक सकता है ।
‘रोशनी में छिपी चीजें’ — रोशनी एक ओट है जो उजागर नहीं, छिपाती है, छोटे-छोटे सितारों का अवलोप करती है । हर अंधेरा कोना, रोशनी से ही बनता है । “अंधेरी सड़कों, गलियों और पिछवाड़ों में / अनगिन तकलीफजदा मनुष्यों का भी (जीवन) / जो दूसरी चकाचौंध में उसी तरह दिखाई नहीं देते / जैसे आसमान में होते हुए भी अनेक सितारे ।” इस अवलोप के बाद ही स्मृतियों की भूमिका सामने आती है, जिनका दोहराव तो वास्तव में एक असंभव बात है । यह खोई हुई चीज को फिर से हूबहू पाने की एक निरर्थक कोशिश होती है । इसीलिये, पुन: रोशनी से मुक्ति ही मानो जीवन का प्रमुख संघर्ष बन जाता है । “ फिर यह जीवन / अंधा कर देनेवाली तेज रोशनियों से / निजात पाने की कोशिश होता चला जाता है ।”
पांचवी कविता है — ‘यदि तुम नहीं मांगोगे न्याय’। एक छोटी सी साफ संदेश देती कविता । न्याय की आवाज नहीं उठाओगे तो और अन्याय प्रबल होगा ।
छठी कविता फिर स्मृति से जुड़ी कविता है — ‘वह किताब जो तुम ले गए थे’ । एक हाथ से गई हुई किताब को हासिल न पाना । उसकी कसक अपनी जगह है, पर यदि वह कभी मिल भी जाती, तो सवाल है कि क्या वह वहीं होती, जिसे आपने आठ साल पहले अन्य को सौंपा था ! यह उम्मीद की ताबूत पर किसी आखिरी कील की तरह होता है । “धीरे धीरे गुजर गए इतने लंबे अर्से के बाद / अब उस किताब के बारे में तुमसे कुछ भी पूछना / मुझे ध्वस्त ही कर देगा ।”
‘जुगनुओं पर फिल्म — जुगनू की तलाश, अर्थात्, एक क्षण की किसी कौंध को पकड़ कर रख लेने की असंभव वासना, आदमी की मरीचिका । वह मरीचिका जब साकार होगी तो वह महज एक नया अवबोध ही होगा, कला की वस्तु जो सिर्फ शब्दों में ही आकार ले सकता है । “मुझे भटका रही है / यह भूख, यह प्यास, यही मरीचिका ।”
अंतिम कविताएं, ‘पुश्तैनी मकान’ और ‘पहला प्रेम’ — भव्य और पवित्र विस्मृत क्षणों को हृदय में सहेजने के उन भयजनित भावों के रूपक हैं, जिन्हें इस स्वार्थपूर्ण समय के बर्फीले पानी में डुबो कर मार दिया जा रहा है ।
और इस प्रकार, कुमार अंबुज की इन कविताओं से हम स्मृतियों के अंधेरे में अपना रास्ता खोजते अकेले आदमी की व्यग्रता की अनुभूति से जब निकलते हैं, ‘प्रयाग-पथ’ के इस अंक के मुखपृष्ठ पर काली पृष्ठभूमि में लाल दहकते गोले के कोरोना पर रखे सेव को फिर से देखते हैं — मनुष्य का पहला पाप याद आ जाता है, जब सब कुछ जल सा रहा था, उसी पाप से एक स्वस्ति का भाव पैदा होता है ।
‘प्रयाग पथ’ के 260 पृष्ठों के इस अंक में और भी ढेर सारी ऐसी सामग्री है, जो आपका ध्यान खींच सकती है । हिंदी जाति और नवजागरण के विषय में विजय बहादुर सिंह का साक्षात्कार और अजय तिवारी का लेख है, जिन्हें पढ़ा नहीं है, पर समझ सकता हूं कि अपनी पहचान की हमारी यह मशक्कत भले किसी को बहुत पुरानी लगे, पर इसी में तो हमारी अकादमिक दुनिया की रूह बसती है ।
इस अंक में हमारा भी एक लेख है मनुष्य के आत्म-अलगाव के बारे में, मार्क्स के अतिचर्चित, पर सबसे कम समझे गए तत्त्व पर — हमारी अपनी आज की चिंताओं के साथ ।
पूरे अंक में लगभग पचास के करीब लेखकों का योगदान है ।
कुल मिला कर यह एक अच्छा अंक है, जिससे शायद विचारोत्तेजक बहुत कुछ पाया जा सकता है ।
संपादक महोदय हितेश कुमार सिंह को इसके लिए बधाई और हमें यह अंक उपलब्ध कराने के लिए आभार ।
दो दिन पहले ही इलाहाबाद से प्रकाशित ‘प्रयाग पथ’ पत्रिका का आठवां अंक मिला । जितना आकार में भारी-भरकम पर सुरुचिपूर्ण, उतना ही सामग्री के लिहाज से भी गंभीर और आकर्षक ।
आज इस अंक को उलट-पुलट ही रहा था कि अंक के प्रारंभ की कुमार अंबुज की दस कविताओं से सामना हो गया । बल्कि कहा जाए, उनमें ही अटक गया । ‘संबंध’ कविता से लेकर अंतिम ‘क्षमा किए जाने की प्रतीक्षा में’ तक, दसों कविताओं को एक के बाद एक, एक सांस में पढ़ता चला गया । मौत और रात के अंधेरे में अपने को बचाने, तेज रोशनी की अंधता से जीवन और स्मृतियों को सहेजने और जीवन के बर्फीले पानी में कुछ बेहद प्रिय और पवित्र भावों की मौत और बीत रहे जीवन की नियति को स्वीकारते जाने के पीछे आदमी के डर, उसके पैरानोउअ के स्थायी भाव से उपजी इन कविताओं ने काफी देर तक अपने में घेर कर रख लिया ।
उनकी पहली कविता है — संबंध । आदमी से आदमी का संबंध, वस्तु से आदमी का संबंध और वस्तु का वस्तु से संबंध । यह मूलतः संबंधों के मरने की कविता है । जो संबंध आजीवन चलते हैं वे भी यहां जीवन के बने रहने तक ही जिंदा हैं, क्योंकि जीवन के बाद बने रहने वाले संबंध कविता में नहीं है । ये एक आयुष्य वाले जीवन से बंधे संबंध हैं । कह सकते हैं — दुनियावी संबंध । वह नहीं जो जगत के सनातन चक्र की तरह हो । ये वे संबंध है जो हमारे पास होते हैं, हमारी पहुंच में, इतनी बड़ी दुनिया में हमारे हाथ में होते हैं । हमारी ही दुनिया के अंग । वे जब हमसे छूट कर कहीं लुप्त होते हैं, कहना न होगा, इनके साथ ही हम कुछ अपना खोते हैं, बल्कि हम ही मरते हैं, भले किसी आगत के लिये जगह बनाने की खातिर ही क्यों न हो, मर कर जीने के लिये ही क्यों न हो । पर मरना मात्र यदि कोई त्रासदी है तो कह सकते हैं, हम ऐसी त्रासदियों में ही जीने के लिये अभिशप्त है । कुमार अंबुज लिखते हैं — “कुछ दुर्घटऩाओं में मारे जाते हैं अकाल / ...कुछ बारिश में, कुछ शीतलहर में, कुछ प्रेम की कमी से, / ज्यादातर प्रेम की अधिकता से ।”
दूसरी कविता है — ‘मैं रात का प्रशंसक हूँ’ । दिन में पहाड़ की चढ़ाई समान सपनो की थकान से घिरी होती है रात, जैसे हो आदमी के आत्म-साक्षात्कार की बात । डूबता हुआ आदमी चांद की रोशनी से ताकत ले उस थकान को चुनौती देता है और रात पार कर लेता है । इस रात में आदमी कुछ नया होता है, दिन की कड़ी धूप के बाद इसके प्रेम की शीतल छाया में उसकी वासनाओं का वास होता है । रात आदमी की शरण स्थली, वैसी ही जैसे जीवन और सभ्यता में कहीं होती है कला की अपनी जगह । इसीलिये कवि रात का प्रशंसक है ।
“वह रात है जो, हर उस आदमी को / जिसे रात में ही बितानी पड़ती है जिंदगी की रात, / अपने भीतर जगह बनाने के लिये देती है कुछ जगह / और इस तरह भी जीवन और सभ्यताओं में / कलाएँ अपनी जगह बनाती चली जाती है ।”
तीसरी कविता है — ‘दूसरी कोई रोक-टोक नहीं है’ । इस कविता की पहली पंक्ति है — ‘हर चीज होती जा रही है किसी न किसी की निजी संपत्ति’ । कवि को तलाश है उस अचिन्हे छोड़ दिये गये कोने की जो आज भी इस सर्व-व्यापी मिल्कियत के बाहर है । आदमी की उम्मीद और सहनशीलता के बीच की दरार में फंसी उसकी अनसुनी बुदबुदाहट, उसकी दबी हुई वासना, वही कविता में जगह पाती है । कविता में उसे आने से कोई नहीं रोक सकता है ।
‘रोशनी में छिपी चीजें’ — रोशनी एक ओट है जो उजागर नहीं, छिपाती है, छोटे-छोटे सितारों का अवलोप करती है । हर अंधेरा कोना, रोशनी से ही बनता है । “अंधेरी सड़कों, गलियों और पिछवाड़ों में / अनगिन तकलीफजदा मनुष्यों का भी (जीवन) / जो दूसरी चकाचौंध में उसी तरह दिखाई नहीं देते / जैसे आसमान में होते हुए भी अनेक सितारे ।” इस अवलोप के बाद ही स्मृतियों की भूमिका सामने आती है, जिनका दोहराव तो वास्तव में एक असंभव बात है । यह खोई हुई चीज को फिर से हूबहू पाने की एक निरर्थक कोशिश होती है । इसीलिये, पुन: रोशनी से मुक्ति ही मानो जीवन का प्रमुख संघर्ष बन जाता है । “ फिर यह जीवन / अंधा कर देनेवाली तेज रोशनियों से / निजात पाने की कोशिश होता चला जाता है ।”
पांचवी कविता है — ‘यदि तुम नहीं मांगोगे न्याय’। एक छोटी सी साफ संदेश देती कविता । न्याय की आवाज नहीं उठाओगे तो और अन्याय प्रबल होगा ।
छठी कविता फिर स्मृति से जुड़ी कविता है — ‘वह किताब जो तुम ले गए थे’ । एक हाथ से गई हुई किताब को हासिल न पाना । उसकी कसक अपनी जगह है, पर यदि वह कभी मिल भी जाती, तो सवाल है कि क्या वह वहीं होती, जिसे आपने आठ साल पहले अन्य को सौंपा था ! यह उम्मीद की ताबूत पर किसी आखिरी कील की तरह होता है । “धीरे धीरे गुजर गए इतने लंबे अर्से के बाद / अब उस किताब के बारे में तुमसे कुछ भी पूछना / मुझे ध्वस्त ही कर देगा ।”
‘जुगनुओं पर फिल्म — जुगनू की तलाश, अर्थात्, एक क्षण की किसी कौंध को पकड़ कर रख लेने की असंभव वासना, आदमी की मरीचिका । वह मरीचिका जब साकार होगी तो वह महज एक नया अवबोध ही होगा, कला की वस्तु जो सिर्फ शब्दों में ही आकार ले सकता है । “मुझे भटका रही है / यह भूख, यह प्यास, यही मरीचिका ।”
अंतिम कविताएं, ‘पुश्तैनी मकान’ और ‘पहला प्रेम’ — भव्य और पवित्र विस्मृत क्षणों को हृदय में सहेजने के उन भयजनित भावों के रूपक हैं, जिन्हें इस स्वार्थपूर्ण समय के बर्फीले पानी में डुबो कर मार दिया जा रहा है ।
और इस प्रकार, कुमार अंबुज की इन कविताओं से हम स्मृतियों के अंधेरे में अपना रास्ता खोजते अकेले आदमी की व्यग्रता की अनुभूति से जब निकलते हैं, ‘प्रयाग-पथ’ के इस अंक के मुखपृष्ठ पर काली पृष्ठभूमि में लाल दहकते गोले के कोरोना पर रखे सेव को फिर से देखते हैं — मनुष्य का पहला पाप याद आ जाता है, जब सब कुछ जल सा रहा था, उसी पाप से एक स्वस्ति का भाव पैदा होता है ।
‘प्रयाग पथ’ के 260 पृष्ठों के इस अंक में और भी ढेर सारी ऐसी सामग्री है, जो आपका ध्यान खींच सकती है । हिंदी जाति और नवजागरण के विषय में विजय बहादुर सिंह का साक्षात्कार और अजय तिवारी का लेख है, जिन्हें पढ़ा नहीं है, पर समझ सकता हूं कि अपनी पहचान की हमारी यह मशक्कत भले किसी को बहुत पुरानी लगे, पर इसी में तो हमारी अकादमिक दुनिया की रूह बसती है ।
इस अंक में हमारा भी एक लेख है मनुष्य के आत्म-अलगाव के बारे में, मार्क्स के अतिचर्चित, पर सबसे कम समझे गए तत्त्व पर — हमारी अपनी आज की चिंताओं के साथ ।
पूरे अंक में लगभग पचास के करीब लेखकों का योगदान है ।
कुल मिला कर यह एक अच्छा अंक है, जिससे शायद विचारोत्तेजक बहुत कुछ पाया जा सकता है ।
संपादक महोदय हितेश कुमार सिंह को इसके लिए बधाई और हमें यह अंक उपलब्ध कराने के लिए आभार ।
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