-अरुण माहेश्वरी
(‘समालोचन डाट कॉम’ में शमशेर की कविता ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ पर सविता सिंह के लेख के संदर्भ में)
-अरुण माहेश्वरी
आइये, जरा हम शमशेर जी की इस कविता को पंक्ति दर पंक्ति थोड़ा खोल कर पढ़ते हैं । कविता का प्रारंभ होता है कविता की तलाश में कवि के सामने आए बिंबों से । वह वहाँ हैं जहां दरारें हैं, छिद्र और बिखराव हैं, अर्थात्, जहां जो है और जो नहीं है, दोनों मौजूद हैं ।
“टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पाँव के नीचे
पत्तियाँ
मेरी कविता”
कविता की तलाश के साथ ही जुड़ी हुई है शमशेर की खुद की भी एक तलाश । अपनी पहचान का एक रूखा सा चित्र, इसमें भी जो है, वह जैसे अपने से अलग हो रहे केंचुल की तरह है ।
“बाल, झड़े हुए, मैले से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी
चिपके
...कुछ ऐसी मेरी खाल,
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी”
इस आदमी की पसलियाँ शाम के वक्त इंतज़ार करती ठेलागाड़ियों की तरह और शरीर रफू किये जा रहे बोरे की तरह है । जो भी हैं, वह अभी सूना है, रीता है, बस आगत के लिए हैं । अभी के लिए तो बस एक खुद पर मुस्कुराहट है, इसमें ही जो है, उतना सा कुछ सुकून है, कबूतरों की गुटरगू का ही संगीत है । उसमें गंगा भी मरीचिका की झिलमिल ही है, अर्थात् है भी पर नहीं है । ठोस रूप में अपनी उपस्थिति कीचड़ सी लगने पर भी कवि के एक अहम् की चमक ज़रूर कहीं है, पर वह भी अभी दिखाई नहीं देती है ।
“दोपहर-बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ...
ख़ाली बोरे सूजों से रफ़ू किए जा रहे हैं... जो
मेरी आँखों का सूनापन हैं
ठंड भी एक मुसकराहट लिए हुए है
जो कि मेरी दोस्त है.
कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई...
मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफ़िए क्या थे,
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था.
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है.
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
न जाने कहाँ.”
कवि के स्वर उसका जीवन है, दुख से भरा, गीला, छप छप करता । उन स्वरों का सच मृत्यु है । इसमें जीवन तो जैसे कोई ज़हर की दुकान है । और हर उपचार एक कोरा भ्रम ।
इसी रूखी सतह पर गीले कीचड़ के अंधेरे में जैसे अचानक कौंधता है बिजली की तरह एक मांसल प्रेम का अनुभव, बाक़ी सब कुछ कोरौंदता, परे धकेलता हुआ सत्य से साक्षात्कार । उसकी तपिश और आँच की वासना में जैसे पूरी कायनात झूम उठती है ।
“मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार—
जिसके स्वर गीले हो गए हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है...
छप् छप् छप.
वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है.
वह दुकान मैंने खोली है जहाँ ‘प्वाइज़न’ का लेबुल लिए हुए
दवाइयाँ हँसती हैं—
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है.
वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होंठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुंबन की स्पष्ट परछाईं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है.
मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ.
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो—
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फ़ौवारे की तरह नाचो.”
अब तक जो सब अधर में था, वह अब बेपरवाह ओस के सहारे टपकना चाहता है, गुलाब जल की तरह प्रेम की उनींदी आँख की थकन मिटाना चाहता है ।पर शमशेर बेहद सजग और संवेदनशील है । वे जानते है कि प्रेम दो प्राणियों के बीच का व्यापार है ।इसमें कुछ भी एकतरफ़ा नहीं हो सकता है, दोनों का निवेदन ज़रूरी है । दूसरा भी उन संकेतों का ही अनुसरण करे, जो अन्य के अंतर के हर कोने से दिये जा रहे हैं । वह भी उन संकेतों की मौज में विचरे, उसे जीएँ ; उसे किसी फाँस सा न लगे, बल्कि सीने को ठंडक मिले । कवि साँस की तरह उसे पी लेना नहीं चाहता ; बल्कि महबूब अपने वजूद के साथ उससे एकान्वित हो ।
“मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई ख़ुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिंगो सको, मुमकिन है तो.
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाज़े की शर्माती चूलें
सवाल करतीं हैं बार-बार... मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ.
प्रेम की इस कौंध के साथ ही कवि का शुरू का मृत्युबोध कहीं ग़ायब हो जाता है । नए अहसास के उल्लास में वह अपने सारे बिंबों-प्रतिबिंबों को एक उजली किरण में घुला देना चाहता है । वह अब अपने लिए एक नए कथ्य और रूप की माँग करता है । जो मृतप्राय लगता था उसे मार कर अपने को नए बिंबों की ज़िंदगी कहता है । एक नई खिलखिलाते फूलों जैसी सुबह का आगमन होता है । फूल के आलिंगन में ही रात ख़त्म होती है । यह बिना काँटों का फूल, ज़मीन को छूती लंबी ज़ुल्फ़ों का फूल था, जो कवि को लपेटे हुए कुछ ऐसा था कि जिसमें खुद कवि ही दुबक कर समा गया था । यह मांसल प्रेम का एक अकुंठ चित्र है । लिपटा हुआ फूल अपनी ख़ुशबू के पाश में जिस मज़े से सब कुछ जकड़ता चला जा रहा था - यह शरीर की सत्ता के अवलोप और मनुष्य की प्राणीसत्ता के सत्य के आगमन का क्षण था । सब विलीन होता हुआ, बूँद का बूँद में विलय जैसा ।
शमशेर की मानवीयता देखिए, वे यहाँ भी प्रेम के इस लेख में जैसे पेन की नोक जितने दबाव के लिये भी कोई जगह देखना नहीं चाहते ।वह दबाव सिर्फ किसी दु:स्वप्न में ही संभव है । उत्तेजना के इन क्षणों में दिखाई तो कुछ देता नहीं कि कवि महबूबा के पैरों पर ही गिर जाता ।
“आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो.
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो.
आईनो, मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ.
काली, बहुत लंबी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक
साया किए हुए थी... जहाँ मेरे पाँव
खो गए थे.
वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िंदा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा.
और तब मैंने देखा कि सिर्फ़ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गई है.
जो तुम्हारे सीनों में फाँस की तरह ख़ाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी.
मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका,
क्योंकि मेरे झुकते न झुकते
उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर
खो गई थी.”
यह था सत्य से साक्षात्कार का क्षण जिसके बाद बची रह जाती है स्मृतियाँ, सदा अतृप्त बनाए रखने वाली टीस देने वाली स्मृतियाँ, जिन्हें फिर कभी वैसा ही हासिल नहीं किया जा सकता है । बाद में मिलता है तो सिर्फ फटा हुआ लिफाफा । अर्थात् समय ने जिसके मजमुए को ओझल कर दिया है । इसीलिये अब अगर कुछ है तो सिर्फ ज़मीन पर पड़ा हुआ एक ख़ाली लिफ़ाफ़ा है । अहसास के ख़ालीपन का कविता में यह एक नया प्रत्यावर्त्तन है।
यहीं से फिर कवि को विडंबना का एक नया अवबोध घेरने लगता है । वह देखता है कि कैसे सत्य से एक मुठभेड़ भग्न स्मृतियों के रूप में लेखक के लिये महज भुनाने की चीज बन जाती है । उसकी एक पूँजी । उसके अंतर का प्रेम तो मानो फिर किसी नए जन्म तक के लिए स्थगित हो जाता है । उदास पहाड़ अंधेरे में डूब जाता है। अवशिष्ट रहता है प्रेम का व्यापार, दाद का कारोबार ! कविता की वस्तु बन आदमी कवि के हाथ का खिलौना रह जाता है । वह उससे चाहे जैसा सलूक कर सकता है । मज़े की बात यह है कि कविता की यह गुलामी भी अब भाने लगती है । स्मृतियों की ख़ुशबू की भी अपनी यह ख़ास रंगत होती है । यह दूसरा जन्म इसलिये प्यारा होता है क्योंकि इसमें पूरे आदमी का अधूरापन नहीं होता, उसकी कामनाओं की पूरी काया होती है ।
“जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफ़ाफ़ा
तुम्हारे हाथ आया.
बहुत उसे उलटा-पलटा—उसमें कुछ न था—
तुमने उसे फेंक दिया ׃ तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें ‘मैं’ लगा. तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया. मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था.
मेरी याददाश्त को तुमने गुनाहगार बनाया—और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया. और तब
मैंने कहा—अगले जनम में. मैं इस
तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में
डूबते पहाड़ ग़मगीन मुसकराते हैं.
मेरी कविता की तुमने ख़ूब दाद दी—मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो. तुमने मेरी
कविता की ख़ूब दाद दी.
तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया ׃
और जब लपेट न खुले—तुमने मुझे जला दिया.
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे ׃ और वह
मुझे अच्छा लगता रहा.
एक ख़ुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं-सी
स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी-सी, तिरछी स्पेलिंग.
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है.”
फिर भी, शमशेर एक जीता जागता इंसान है । वे वैरागी नहीं, अनंत कामनाओं की (अतृप्त ही सही) पवित्रता के धारक है । इसीलिये, प्रेम के सत्य से इस उत्तेजक मुठभेड़ की श्रांति के अंत पर भी यही कहते है जो भी हो, अशरीरी तो नहीं रहा जाता है । पर बाक़ी सारी बातों के बाद भी शमशेर अंत में यही कहते हैं कि प्रेम के उस क्षेत्र के बाहर उदास रंगीनियाँ ही होती है फ़क़त । वे मरीचिकाएँ जो मृत्यु की ओर मुख़ातिब होती है । शमशेर की अतृप्तियों का सच ।
“अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता ׃
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ—
तुम्हारी बरकत!
बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए
मुझको लिए, सबके सब. तुमने समझा
कि उनमें तुम थे. नहीं. नहीं, नहीं.
उनमें कोई न था. सिर्फ़ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं. फ़क़त.”
कविता यहीं ख़त्म हो जाती है । हम नहीं जानते यहाँ कहाँ कोई पुरुषवाद है, कहाँ कोई स्त्रीवाद अथवा दूसरी वैसी अहम्मन्यता !
यहाँ शमशेर की इस पूरी कविता को दिया जा रहा है :
टूटी हुई, बिखरी हुई
-शमशेर बहादुर सिंह
टूटी हुई बिखरी हुई चाय
की दली हुई पाँव के नीचे
पत्तियाँ
मेरी कविता
बाल, झड़े हुए, मैले से रूखे, गिरे हुए, गर्दन से फिर भी
चिपके
...कुछ ऐसी मेरी खाल,
मुझसे अलग-सी, मिट्टी में
मिली-सी
दोपहर-बाद की धूप-छाँह में खड़ी इंतज़ार की ठेलेगाड़ियाँ
जैसे मेरी पसलियाँ...
ख़ाली बोरे सूजों से रफ़ू किए जा रहे हैं... जो
मेरी आँखों का सूनापन हैं
ठंड भी एक मुसकराहट लिए हुए है
जो कि मेरी दोस्त है.
कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनाई...
मैं समझ न सका, रदीफ़-क़ाफ़िए क्या थे,
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हलका, इतना मीठा
उनका दर्द था.
आसमान में गंगा की रेत आईने की तरह हिल रही है.
मैं उसी में कीचड़ की तरह सो रहा हूँ
और चमक रहा हूँ कहीं...
न जाने कहाँ.
मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार—
जिसके स्वर गीले हो गए हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है...
छप् छप् छप.
वह पैदा हुआ है जो मेरी मृत्यु को सँवारने वाला है.
वह दुकान मैंने खोली है जहाँ ‘प्वाइज़न’ का लेबुल लिए हुए
दवाइयाँ हँसती हैं—
उनके इंजेक्शन की चिकोटियों में बड़ा प्रेम है.
वह मुझ पर हँस रही है, जो मेरे होंठों पर एक तलुए
के बल खड़ी है
मगर उसके बाल मेरी पीठ के नीचे दबे हुए हैं
और मेरी पीठ को समय के बारीक तारों की तरह
खुरच रहे हैं
उसके एक चुंबन की स्पष्ट परछाईं मुहर बनकर उसके
तलुओं के ठप्पे से मेरे मुँह को कुचल चुकी है
उसका सीना मुझको पीसकर बराबर कर चुका है.
मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ.
मुझको सूरज की किरनों में जलने दो—
ताकि उसकी आँच और लपट में तुम
फ़ौवारे की तरह नाचो.
मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई ख़ुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिंगो सको, मुमकिन है तो.
हाँ, तुम मुझसे बोलो, जैसे मेरे दरवाज़े की शर्माती चूलें
सवाल करतीं हैं बार-बार... मेरे दिल के
अनगिनती कमरों से
हाँ, तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मछलियाँ लहरों से करती हैं
...जिनमें वह फँसने नहीं आतीं,
जैसे हवाएँ मेरे सीने से करती हैं
जिसको वह गहराई तक दबा नहीं पातीं,
तुम मुझसे प्रेम करो जैसे मैं तुमसे करता हूँ.
आईनो, रोशनाई में घुल जाओ और आसमान में
मुझे लिखो और मुझे पढ़ो.
आईनो, मुसकराओ और मुझे मार डालो.
आईनो, मैं तुम्हारी ज़िंदगी हूँ.
काली, बहुत लंबी ज़ुल्फ़ थी जो ज़मीन तक
साया किए हुए थी... जहाँ मेरे पाँव
खो गए थे.
वह गुल मोतियों को चबाता हुआ सितारों को
अपनी कनखियों में घुलाता हुआ, मुझ पर
एक ज़िंदा इत्रपाश बनकर बरस पड़ा.
और तब मैंने देखा कि सिर्फ़ एक साँस हूँ जो उसकी
बूँदों में बस गई है.
जो तुम्हारे सीनों में फाँस की तरह ख़ाब में
अटकती होगी, बुरी तरह खटकती होगी.
मैं उसके पाँवों पर कोई सिजदा न बन सका,
क्योंकि मेरे झुकते न झुकते
उसके पाँवों की दिशा मेरी आँखों को लेकर
खो गई थी.
जब तुम मुझे मिले, एक खुला फटा हुआ लिफ़ाफ़ा
तुम्हारे हाथ आया.
बहुत उसे उलटा-पलटा—उसमें कुछ न था—
तुमने उसे फेंक दिया ׃ तभी जाकर मैं नीचे
पड़ा हुआ तुम्हें ‘मैं’ लगा. तुम उसे
उठाने के लिए झुके भी, पर फिर कुछ सोचकर
मुझे वहीं छोड़ दिया. मैं तुमसे
यों ही मिल लिया था.
मेरी याददाश्त को तुमने गुनाहगार बनाया—और उसका
सूद बहुत बढ़ाकर मुझसे वसूल किया. और तब
मैंने कहा—अगले जनम में. मैं इस
तरह मुसकराया जैसे शाम के पानी में
डूबते पहाड़ ग़मगीन मुसकराते हैं.
मेरी कविता की तुमने ख़ूब दाद दी—मैंने समझा
तुम अपनी ही बातें सुना रहे हो. तुमने मेरी
कविता की ख़ूब दाद दी.
तुमने मुझे जिस रंग में लपेटा, मैं लिपटता गया ׃
और जब लपेट न खुले—तुमने मुझे जला दिया.
मुझे, जलते हुए को भी तुम देखते रहे ׃ और वह
मुझे अच्छा लगता रहा.
एक ख़ुशबू जो मेरी पलकों में इशारों की तरह
बस गई है, जैसे तुम्हारे नाम की नन्हीं-सी
स्पेलिंग हो, छोटी-सी प्यारी-सी, तिरछी स्पेलिंग.
आह, तुम्हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक
उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,
आज तक मेरी नींद में गड़ती है.
अगर मुझे किसी से ईर्ष्या होती तो मैं
दूसरा जन्म बार-बार हर घंटे लेता जाता ׃
पर मैं तो जैसे इसी शरीर से अमर हूँ—
तुम्हारी बरकत!
बहुत-से तीर बहुत-सी नावें, बहुत-से पर इधर
उड़ते हुए आए, घूमते हुए गुज़र गए
मुझको लिए, सबके सब. तुमने समझा
कि उनमें तुम थे. नहीं. नहीं, नहीं.
उनमें कोई न था. सिर्फ़ बीती हुई
अनहोनी और होनी की उदास
रंगीनियाँ थीं. फ़क़त.
(१९५४)
https://samalochan.blogspot.com/2020/08/blog-post_2.html
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें