-अरुण माहेश्वरी
नाटक हमेशा चरित्र की प्रवृत्तियों की अन्तर्निहित संभावनाओं के चरम रूपों का प्रदर्शन होता है । इसीलिये इसमें अनिवार्य तौर पर हरचरित्र जैसे अपनी प्रवृत्ति के अंत की दिशा में छलांग मारते दिखाई देते हैं । मृत्यु-छलांग, फ्रायड की शब्दावली में death drive काप्रदर्शन करते हुए । ऐसे में किसी भी प्रकार के चरम अपराध में लिप्त चरित्र के इसमें बचे रहने की कोई गुंजाइश नहीं होती है । उनसबका मरना तय होता है । यही वह बुनियादी कारण है जिसमें माफिया के लोगों, अपराधी राजनीतिज्ञों और सेक्स की विकृतियों सेग्रसित चरित्रों को लेकर तैयार होने वाले नाटक में हिंसा और मांसल कामुकता अपने चरमतम रूप में व्यक्त हुआ करती है । इसमेंअपराधी की मानवीयता या प्रेमी की कामुकता का कोई स्थान नहीं होता । यहीं चरित्र के उस सार को उलीच कर रख देने के नाटकों केअपने संरचनात्मक विन्यास की अनिवार्यता है, जिस सार में उसका अंत होता है । इसमें जिसे सामान्य या स्वाभाविक कहा जाता है, उसके लिये कोई खास जगह नहीं हो सकती है । नाटक में सामान्य और स्वाभाविक को हमेशा हाशिये पर ही रहना होता है, दुबक करकिसी उपेक्षित अंधेरे कोने में अप्रकाशित।
इन्हीं कारणों से जो लोग मिरजापुर जैसे ड्रामा में अतिशय हिंसा और कामुकता के नग्न प्रदर्शन पर नाक-भौं सिकोड़ते हुए अपने पवित्र-पावन आचरण का और मंगलकामनाओं से लबालब भावों का प्रदर्शन करते हैं, वे खुद भी वास्तव में शुद्ध मिथ्याचार का प्रदर्शन करनेवाले चरित्रों का नाटक कर रहे होते हैं । वे किसी नाटक के सचेत दर्शक कत्तई नहीं होते हैं ।
सच यही है कि अपराधी माफिया-राजनीतिज्ञों-पुलिस-नौकरशाही की धुरी पर टिका कोई भी ड्रामा ऐसा ही हो सकता है, जैसा मिरजापुरहै । इस ड्रामा के सारे प्रमुख चरित्रों का अंत तक मर जाना और किसी स्वान संगी के साथ एक धर्मराज के बचे रहने के बजाय मिरजापुर( हस्तिनापुर) की गद्दी पर ही एक प्रतिशोधी स्वान का बैठ जाना इस हिंसक नाटक का स्वाभाविक प्रहसनात्मक पटाक्षेप हो सकता था, जो इसमें हुआ है।
निस्संदेह हिंदी के टीवी ड्रामा के इतिहास में मिर्ज़ापुर हमें एक महत्वपूर्ण मोड़ का सूचक लगा ।
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