— अरुण माहेश्वरी
बंगाल का चुनाव अब भी एक टेढ़ी खीर ही बना हुआ है । हमारी नजर में इसकी सबसे बड़ी वजह है — बंगाल और वामपंथ के साथ उसके संबंधों का सच ।
बंगाल का वामपंथ बांग्ला रैनेसांस की एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया के ऐतिहासिक उत्तरण की तरह है । यह बंगाल की पहचान है, अर्थात् इसमें बंगाल की आत्मा बसती है । जिसे बंगालीपन कहते हैं, उसके तमाम तत्त्वों के समुच्चय में यही एक तत्त्व उसे एक निश्चित रंग प्रदान करता है, उसके चरित्र का निर्णायक तत्त्व है ।
सन् 2011 में 34 साल की वामपंथी सरकार पराजित हुई थी, पर वामपंथ परास्त नहीं हुआ था । कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी के रूप में उसने एक नए रूप को प्राप्त किया था, स्वयं को पुनर्अर्जित किया था । ममता पूंजीवाद का दूत बन कर पूंजी के घोड़े पर सवार हो कर नहीँ आई थी । वह ‘टाटा बाबू’ के खिलाफ किसानों की जमीन की रक्षा की एक दुर्धर्ष लड़ाई के साथ, नंदीग्राम और सिंगूर के संघर्ष के बीच से आई थी । तब अगर कोई पूंजी के रथ पर सवार नजर आ रहा था तो वह वाम मोर्चा था, उसकी औद्योगीकरण की योजनाएं थी । अभी भी जब ममता के शासन के दस साल पूरे हो रहे हैं, जब उसके शासन पर भ्रष्टाचार और स्वेच्छाचार के कई आरोप लगते हैं, तब भी सचेत रूप में लगता है जैसे वह अपनी उसी जुझारू छवि को अटूट रखना चाहती है । आज भी अगर उसकी कोई शक्ति है तो वही, जनता के मुद्दों पर उसका जुझारूपन ही है । आज भी किसानों की जमीन के मुद्दों पर वह संवेदनशील रहती है, राज्य के संघीय ढांचे के लिए आवाज उठाती है और सांप्रदायिकता के खिलाफ सक्रिय है ।
ऐसे में बंगाल के इतिहास और चरित्र के अनुसार, उसकी आत्मा की आवाज को सुना जाए तो, यहां ममता बनर्जी को कोई भी वास्तविक चुनौती बेरोजगारी और किसानों के सवालों को लेकर जुझारू संघर्षों में सक्रिय एक उन्नततर वाम की बंगालियत के द्वारा ही मिल सकती है । बंगाल के अंतर की इसी ‘बंगालियत’ का जैसे कहीं खोया हुआ, अटका हुआ अंश, जिसके अंतर-बाह्य की असली धुरी पर ही बंगाल असल में जो और जैसा है, और जैसे होना चाहता है, वह सब टिका हुआ है, इसे ही इस आगामी चुनाव में जैसे एक महाजाल के जरिए सामने निकाल कर बंगाल के आगे का सही रास्ता तैयार करना है । यही बंगालियत आज के बंगाल के नाना रूपी विकासमान यथार्थ का मूल तत्त्व है । यह कोई संकीर्ण प्रादेशिकतावाद नहीं है और न ही किसी एक दल की बपौती । यह एक संपूर्ण सभ्यता, एक संस्कृति है । बुद्धि-विवेक और मानव-केंद्रिकता के मूल्यों की धारक-वाहक एक खास जीवन धारा । जैसे कहते हैं कि बंगाल की रूह में विवेकानंद-रवीन्द्रनाथ है, वैसे ही यह कहना गलत नहीं है कि वामपंथ भी बंगाल की रूह है ।
ऐसे में, आज यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आगामी चुनावों में बंगाल की आत्मा के इन तारों की वीणा को साध पाने में कौन सफल होगा ? अगर सामान्य समय होता तो यह सवाल कत्तई नहीं उठता । जब तक वाम मोर्चा के साथ तृणमूल की प्रतिद्वंद्विता थी, बंगालीपन का सवाल शायद ही कभी उठा होगा । लेकिन अभी बंगाल में जो चल रहा है, उसमें क्रमशः यह सवाल ही सबसे प्रमुख बनता चला जा रहा है । इसकी वजह है कि आज बंगाल में भाजपा के रूप में एक ऐसी शक्ति धन और केंद्रीय सत्ता के राक्षसी बल पर इस प्रकार मचल कर यहां की सत्ता को हथियाने के लिए उतर पड़ी है जो इस बंगालीपन की वीणा को साधने को नहीं, बल्कि इसे पैरों तले रौंद कर धूलिसात कर देने पर तुली हुई है ।
आज कोलकाता में भाजपा के देश भर के अमित शाह से लेकर कैलाश विजयवर्गीय के स्तर के तमाम नेताओं ने जिस प्रकार डेरा जमा रखा है और अरबों रुपये खर्च करके जिस प्रकार प्रदेश के एक कोने से दूसरे कोने तक को वे रौंद रहे हैं, वह सब इतना अश्लील है जैसे लगता है किसी विदेशी ताकत ने बंगाल पर कब्जा करने का जबर्दस्त युद्ध छेड़ दिया है । आज के अखबार के अनुसार बीजेपी ने कोलकाता में बाकायदा पूरे एक फाइव स्टार होटल सहित और भी कई बड़े आलीशान होटलों के कमरों को लंबे काल के लिए किराये पर बुक करा लिया है, जहां उसके सारे नेताओं की फौज को टिकाया जाएगा, उसके कमांड आफिस और मीडिया सेल के दफ्तर तैयार किए जाएंगे ।
बीजेपी के बड़े-बड़े नेताओं की वास्तविक मानसिकता तो यह है कि वे बंगाल के मनीषियों के नामों को फुटबाल की तरह उछालते तो हैं, पर उनका सही उच्चारण भी नहीं कर पाते हैं । इनका अध्यक्ष नड्ढा, धड़ल्ले से विवेकानंद को विवेकानंद ठाकुर बोल जाता है तो संसद में इनका सांसद रवीन्द्रनाथ के साथ ठाकुर जोड़ने से इंकार करता है । यहां इनके पोस्टरों में मोदी की आदमकद तस्वीर के पैरो तले इन तमाम मनीषियों के सर पड़े हुए दिखाई देते हैं । ये इस हद तक ‘बहिरागत’ है कि इनके साथ बंगाल के नवजागरण की धारा का कहीं से कोई सूत्र नहीं जुड़ पाता है । ये शुद्ध रूप में विवेकहीन सांप्रदायिक प्रचार के आश्रित है । पर, आज ये ही यहां तृणमूल के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं !
जनतंत्र में चुनाव के अपने कुछ खास तर्क होते हैं । मतदाताओं में एक महत्वपूर्ण श्रेणी सरकार-विरोधी मतों की श्रेणी हुआ करती है । पिछले दस साल से यहां तृणमूल का शासन है । इसकी अगर कुछ उपलब्धियां है तो विफलताएँ भी कम नहीं है । और इसीलिए मतदाताओं के एक हिस्से में सरकार-विरोधी रुझान भी कम नहीं है । बंगाल की अपनी सांस्कृतिक-राजनीतिक परंपरा के अनुसार इस सरकार-विरोधी रुझान का पूरा लाभ यहां बन चुके वाम और कांग्रेस के गठबंधन को ही मिलना चाहिए । इस गठबंधन ने इसी बीच संघर्षों के मैदान में भी अपनी एकता को मजबूत करना शुरू कर दिया है । कांग्रेस ने केंद्रीय स्तर पर जिस खुले मन से किसानों के आंदोलन का समर्थन किया है, बिहार में वह जिस प्रकार महागठबंधन का हिस्सा थी, वही इस गठबंधन को औचित्य और अतिरिक्त बल भी दे रहा है । आज यहां वाम-कांग्रेस की सभाओं में पहले की तुलना में बड़ा संख्या में लोग शामिल होते दिखाई देते हैं । इसके बावजूद, जब यह संशय रह जाता है कि तृणमूल और भाजपा के बीच गर्जन-तर्जन वाले भारी घमासान में वाम-कांग्रेस गठबंधन किस हद तक अपनी ताकत को दिखा पाएगा, तभी लगता है जैस यह चुनाव अब तक एक टेढ़ी खीर ही है । अर्थात्, पूरा मसला लगता है जैसे कहीं न कहीं अभी तक चुनावी लड़ाई के संसाधनों के सवाल पर अटक गया है । तृणमूल और भाजपा के पास अपने सत्ता-बल के कारण संसाधनों की पहले से ही कोई कमी नहीं है । पर वाम-कांग्रेस के पास संसाधनों का सवाल पूरी तरह से चुनावी प्रचार में उसके बढ़ाव की परिस्थितियों पर निर्भर करता है । इसका असली अनुमान इनकी प्रस्तावित ब्रिगेड परेड ग्राउंड की सभा के बाद ही पता चल पाएगा ।
पर इस चुनाव में बंगाल के मतदाताओं का जो भी हिस्सा धोखे में या समझ-बूझ कर भाजपा के पक्ष में मतदान करेगा, वह प्रकृत अर्थों में खुद के ही विरुद्ध, अर्थात् अपने बंगाली होने के विरुद्ध ही वोट करेगा । एक समय में रवीन्द्रनाथ ने ही ‘बंगालीपन’ का मजाक उड़ाया था और मनुष्यत्व की बात की थी । लेकिन वह एक भिन्न परिप्रेक्ष्य था। स्वयं रवीन्द्रनाथ ने अपने साहित्य और कामों से तब के बंगालीपन को एक नए अर्थ से, एक उन्नत भावबोध से समृद्ध किया और बंगाल ने उसी के बल पर राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की थी । आज का बंगालीपन रवीन्द्रचेतना और मेहनतकशों की लंबी संघर्ष चेतना से निर्मित एक आधुनिक जनतांत्रिक वामपंथी भाव बोध का दूसरा नाम है । इसमें घूसे की ताकत से बोलने वाले सांप्रदायिक फासिस्ट हुंड तत्त्वों के लिए कैसे कोई स्थान हो सकता है ! यह सचमुच एक गंभीरता से विचार का विषय है ।
ममता बनर्जी ने पिछले दिनों भाजपाई नेताओं की बंगाल पर चढ़ाई को ‘बहिरागतों का हमला’ कहा था । उनकी यह प्रतिक्रिया बिल्कुल स्वाभाविक थी । पर इस पर वामपंथी नेताओं की प्रतिक्रिया में स्वाभाविकता नहीं, कोरी कृत्रिमता थी । वे अपने ‘सार्वदेशिक मनुष्यत्व’ के जोम में बंगालीपन के साथ जुड़े भद्रता, बुद्धि, विवेक, मानवीयता, शिक्षा और न्याय के मूल्यों के महत्व को कम कर रहे थे । वे खुद जिन मूल्यों के सच्चे वारिस है, नादानी में उसी मूल्यवान विरासत को ठुकरा रहे थे, जो पूरी तरह से अकारण था । बंगाल में वामपंथ की सांस्कृतिक परंपरा की अवहेलना करके यदि कोई वामपंथी सोचता है कि बेरोजगारी और किसानी के मुद्दों पर ही उसकी नैया पार हो जाएगी तो वह अनायास ही खुद की मजबूत जमीन को त्यागने की नादानी का दोषी होगा । बंगालियत की परिभाषा वामपंथ से ही होती है । उसे दक्षिणपंथी फासिस्टों को रौंदने देना वामपंथ की सबसे बड़ी चुनावी भूल साबित होगा, दक्षिणपंथियों को खुद को ही रौंद डालने का अधिकार देना कहलायेगा ।
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