—अरुण माहेश्वरी
यह एक बहुत दिलचस्प प्रसंग है । हमारे मित्र अजय तिवारी ने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई वीर सावरकर के बारे में । शायद उन्हें लगा कि आज के सावरकर की स्तुति के काल में भी उनके प्रति ‘न्याय’ नहीं हो रहा है । इसीलिये चाहते थे कि उनके प्रति न्यायपूर्ण ढंग से विचार हो ! इसी उद्देश्य से उन्होंने सावरकर के प्रारंभिक क्रांतिकारी जीवन, 1857 के स्वतंत्रता समर पर उनकी चर्चित किताब आदि प्रसंगों को खास तौर पर उठाया, यद्यपि पाद टिप्पणी के तौर पर इस ‘वैधानिक चेतावनी’ के साथ कि उन्होंने ‘स्वतंत्रता संघर्ष से पलायन भी किया’ था ।
फेसबुक पर ही अजय जी की टिप्पणी पर अनेक लोगों ने अपने-अपने विचार रखें । उस पर हमारा सवाल था कि, “सावरकर संबंधी तथ्यों को इतिहासकारों ने ख़ूब खंगाला हैं । उनके मूल्यांकन की कोई समस्या भी नहीं है । उन्हें भारत में हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक फासीवाद का जनक साबित करने वाले प्रभूत तथ्य उपलब्ध हैं । भारतीय दंडविधि में भले वे गांधी जी की हत्या के अपराधी न साबित हुए हो, पर आज कई शोधपरक पुस्तकों के ज़रिये वे तमाम तथ्य सामने आ चुके हैं कि इस हत्या के षड़यंत्र में वे निश्चित रूप से शामिल थे । अर्थात् भारत में फासीवाद के सिद्धांतकार के अलावा गुप्त हत्या तथा अन्य सभी क्रियाकलापों के ज़रिये वे इसके एक प्रमुख रणनीतिकार भी रहे हैं । इतिहास में उनका विशिष्ट अवदान इसके अलावा कुछ नहीं रहा है । 1857 वाली किताब भी उस महाविद्रोह पर एक मूल्यनिर्णय के अलावा बहुत प्रारंभिक स्तर की किताब ही कहलायेगी । इसीलिए किसी नए विमर्श के ज़रिये उनकी पुनर्खोज की ज़रूरत क्या है ?”
इस पर अजय जी ने प्रति प्रश्न रखें कि क्या सावरकर क्रांतिकारी नहीं थे ? और साथ ही उन्होंने दलितों के प्रश्न पर उनके नजरिये, अंबेडकर के साथ उनके संपर्क के तथ्यों आदि का भी हवाला दिया ।
हमने अंत में यही कहा कि “मुझे पूरा मामला काफ़ी दिलचस्प लग रहा है । इस पर कुछ अलग से लिखूँगा कि कैसे व्यक्ति किसी एक पहलू पर अटक कर उसके अनुरूप तथ्यों का तुमार बांधने लगता है । यह भाषा के दो अर्थ, अभिधेयार्थ और व्यंजनार्थ में से किसी एक पहलू से चिपक जाने से पैदा होने वाली अटकन की तरह है । इसी के चलते ‘क्रांतिकारी सावरकर’ के साथ ही 1857 पर उनकी किताब से लेकर अंबेडकर से उनके संबंध तक याद आ जाते हैं, पर अंबेडकर भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के प्रवर्तक थे, उनके व्यक्तित्व का वह प्रमुख पहलू गौण हो जाता है जो आज सबसे अधिक प्रासंगिक पहलू है, जब उन्हें गांधी जी के समकक्ष स्थापित करने का काम चल रहा है । बहरहाल, अलग से इस पर आज ही लिखूँगा ।”
इसी बीच मित्र हितेन्द्र पटेल ने इसमें इतिहास के कब्रिस्तान से निकाल कर कुछ और कहानियां जोड़ दी, जिनके संदर्भ में मैंने उन्हें लिखा, “अजय जी की मूल टिप्पणी से इतिहास की जिन नई कहानियों का जन्म हो सकता है, आपकी टिप्पणी उसी का एक उदाहरण है । अब इसके बाद गांधी को सावरकर के समकक्ष रखने में क्या दिक्कत है कि उन्होंने भी एक मुसलमान को एक हिन्दू की हत्या के लिए उकसाया था, जैसे सावरकर ने गोडसे को उकसाया ! इसीलिए किसी भी चीज को देखने के नजरिये का सबसे अधिक महत्व होता है । हर कोण से हर चीज एक सी नहीं दिखाई देती है ।”
अजय जी ने ताना मारा — “चलिए, मैं भी हिंदूवादी, हितेंद्र पटेल भी हिंदूवादी, मैदान में अकेले आप और आशुतोष बचे। इनमें कौन ज़्यादा शुद्ध है, इसका फैसला भी हो जाता तो अज्ञानियों को ज्ञान चक्षु मिल जाते!”
हमारा प्रत्युत्तर था — “यहाँ हमें कुछ साबित नहीं करना है । हमारा इशारा सिर्फ़ यही है कि कैसे कभी-कभी हमारे अंदर एक अलग सी गूंग पैदा हो जाती है, विचार किसी बिंदु पर अटक जाते हैं और अनायास ही हम विषय का एक अनभिप्रेत वितान तैयार कर जाते हैं । हितेन्द्र कुछ भी कहें, उनका अपना ‘न्याय’ का एक एजेंडा है ।”
मैं नहीं जानता कि आशुतोष जी ने क्या लिखा था । जहां तक अतीत की किसी भी घटना और वर्तमान से उसके संबंधों का सवाल है, मैं बहुत स्पष्ट हूँ कि अतीत में ही किसी चीज के मौजूद रहने पर परोक्ष रूप में वर्तमान में भी उसकी मौजूदगी सिद्ध होने पर भी इसका अर्थ यह भी है कि वह आज किसी विशेष अर्थ में प्रासंगिक नहीं हैं । अतीत की वस्तु अतीत में ही बनी हुई अतीतकालिक होती हैं । उन्हें कब्र से निकाल कर जब आज भी प्रासंगिक बनाने की कोशिश होती है तो उसके पीछे हमेशा एक एजेंडा होता है । अन्यथा संभावनामूलक मंतव्यों का अंत तो अतीत में ही हो जाया करता है, उन्हें वर्तमान में यूं ही नहीं घसीटा जाता हैं ।
अभिनवगुप्त ने इसी ‘संभाव्यता’ अर्थात् ‘यदि ऐसा होता’ वाले पहलू का बहुत शानदार जवाब दिया था कि “इस शरीर के भीतर जो वस्तुएँ विद्यमान है, वे यदि बाहर होतीं तो यह सारा संसार डंडा लेकर कुत्तों तथा कौओं को भगाता रहता; क्योंकि शरीर के भीतर तो माँस, मज्जा, हड्डी इत्यादि भरे हैं; और पिशिताशी कुत्ते और कौए आदि उसको खाने के लिए उस पर टूटते रहते । यह तो परमात्मा की कृपा है कि उसने इस शरीर को चमड़े से ढँक दिया है ।” (ध्वन्यालोक, प्रथम उद्योत, पृष्ठ – 11)
अर्थात्, ‘यदि ऐसा होता’ वाली अप्रासंगिक चर्चा से कोई लाभ नहीं होता है ।
इसके अलावा हम और एक बात कहना चाहेंगे कि कभी भी ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व संभव नहीं है, जिसका विकल्प संभव न हो, बल्कि विकल्पों का होना ही संभव है । जो अतीत में था, उसका निस्संदेह विकल्प भी रहा होगा, उसका एक अन्य ब्यौरा भी रहा होगा । जो कहते हैं कि मध्ययुग में एकमात्र धर्म ही सर्वेसर्वा था, उसके बाहर कुछ नहीं था, वे उस युग में मौजूद विकल्पों को देखने में असमर्थ होते हैं, प्रचलित धारणाओं के भ्रमों के शिकार होते हैं ।
बहरहाल, यहां हमारा मकसद सावरकर प्रसंग को आगे बढ़ाने का जरा भी नहीं है । उस पर तमाम कोनों से यूं ही कम चर्चा नहीं चल रही है । हम इतिहास के कोई ऐसे पारंगत शोधकर्ता नहीं है जो सावरकर के बारे में किन्हीं नये प्रसंगों का उत्खनन कर सकें, जिनसे यह साबित हो जाए कि वे हिंदुत्व की विचारधारा और उसकी राजनीति के प्रवर्तक नहीं थे, प्रकृत ब्रिटिश-विरोधी क्रांतिकारी ही थे । और, बेवजह उस फासीवादी विचारधारा के प्रवर्तक के बारे में पुरानी बातों को ही दोहराना एक हद तक उबाऊ काम भी होता है । सावरकर को लेकर अगर हमारा अपना कोई नया एजेंडा हो तो जरूर उन तथ्यों को दोहराया भी जा सकता है ।
यहां हमारा कुल मकसद उस ‘गूंग’ के प्रसंग की चर्चा करने का है जिसका हमने अजय जी को अपने जवाब में उल्लेख किया था कि “कैसे कभी-कभी हमारे अंदर एक अलग सी गूंग पैदा हो जाती है, विचार किसी बिंदु पर अटक जाते हैं और अनायास ही हम विषय का एक अनभिप्रेत वितान तैयार कर जाते हैं” ।
‘गूंग’, अर्थात् एक ऐसी मनःस्थिति जहां आदमी अटक जाता है, उसका सोच रुक सा जाता है, उसकी बोली अटकने लगती है, यहां तक कि बंद भी हो जाती है । मनोविश्लेषण की भाषा में इसे Aphasia कहते हैं ।
जाहिर है कि यह गूंग स्नावयिक रोग नहीं है । इसकी व्युत्पति का कारण आदमी के प्रतीकात्मक जगत, उसके यथार्थ बोध और उसके परिवेश से निर्मित उसके चित्त में पैदा होने वाली विश्रृंखला से है । मनोविश्लेषक जॉक लकान मनुष्य के चित्त की संरचना को भाषा की संरचना के समरूप देखते थे, इस पर हमारी पुस्तक ‘अथातो चित्त जिज्ञासा’ में काफी विस्तार से चर्चा है । मनुष्य में पैदा होने वाली गूंग को समझने के लिए भी उन्होंने भाषाशास्त्र के ही उपकरणों का सहारा लिया था । इस मामले में उन्होंने खास तौर पर अलग से प्रसिद्ध भाषाशास्त्री सौस्योर और जैकोबसन का ऋण भी स्वीकार किया था ।
जैसे हमारे यहां भाषाशास्त्रियों ने शब्दार्थ के दो रूपों के तौर पर अभिधा और व्यंजना की बात की हैं, वैसे ही लकान भी इसकी दो धुरियों की चर्चा करते हैं — vertical (लंबवत) और horizontal (क्षैतिज) । शब्दार्थ के अभिधा और व्यंजना रूपों की तरह ही हमारे यहां आनंदवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ में किसी भी कथन/पाठ के भी दो रूपों का जिक्र आता है — विवक्षित वाच्य और अविवक्षित वाच्य । अर्थात् अभिप्रेत और अनभिप्रेत पाठ । लकान कहते हैं कि अर्थ ग्रहण करने की प्रक्रिया में प्रमाता में इन दोनों, लंबवत और क्षैतिज धुरियों के बीच एक अन्तरक्रिया चला करती है । उनके शब्दों में —
“There is, in effect, no signifying chain that does not have, as if attached to the punctuation of its units, a whole articulation of relevant contexts suspended vertically as it were, from that point.” (Ecrits, p. 154)
(दरअसल, ऐसी कोई संकेतक श्रृंखला नहीं होती है, जिसकी इकाइयों के विरामबिंदु से मानो चिपके हुए ही, प्रासंगिक संदर्भों का अपना एक पूर्ण रूप जो उस बिंदु पर लंबवत टंगा हुआ नहीं होता है ।)
इसे यदि हम अपनी भाषा में और खोल कर समझे तो कहेंगे कि हर कथन की प्रत्येक कड़ी, प्रत्येक शब्द के साथ अनिवार्यतः उसका एक अभिधेयार्थ लंबवत जुड़ा होता है ।
शब्द के अभिधेयार्थ के बारे में हमारे अभिनवगुप्त कहते हैं कि “कोई भी शब्द किसी अर्थ का प्रतिपादन उसके संकेत की सापेक्षता में ही करता है । यह संकेतितार्थ ही वाच्यार्थ कहलाता है । जब भी शब्द का वाच्यार्थ से भिन्न कोई अर्थ होगा तो वह भी अभिधावृत्ति से शब्द द्वारा अवगत अर्थ के द्वारा आक्षिप्त होगा, अर्थात उसमें अभिधेयार्थ का संस्पर्श या स्पंदन होगा । यह संभव नहीं है कि पाठ का न वाच्यार्थ हो और न ही वह अभिधेयार्थ से आक्षिप्त, फिर भी वह कुछ कहता हो, अर्थात् वाणी के द्वारा उक्त हो, अर्थपूर्ण कथन हो ।” अभिनवगुप्त कहते हैं कि ऐसे अर्थ की कल्पना करना वैसा ही है जैसे कोई कुमारियों से पति के सुख को जानना चाहे । जिन्हें इसका ज्ञान ही नहीं होगा, उनसे इसके अनुभव के बारे में चर्चा करना ही अप्रासंगिक है ।(ध्वन्यालोक, प्रथम उद्योत, पृ. 11)
लकान उपरोक्त कथन में शब्दों से चिपके हुए प्रासंगिक संदर्भों के जिस पूर्ण रूप के लंबवत टंगे होने की बात कह रहे हैं, वह यही अभिधेयार्थ की आक्षिप्ति है । लकान कहते हैं कि प्रमाता में पहली गूंग इसी लंबवत धुरी से जुड़ी होती है । इससे भाषा की प्रतीकात्मक अथवा रूपकात्मक क्रिया में एक विश्रृंखला पैदा होती है, जब भाषा की कथन की भूमिका तो बरकरार रहती है पर वह क्षैतिज धुरी, व्यंजना से स्पंदित होने के बजाय उसके साथ-साथ, समानांतर रूप में चलती है । इससे प्रमाता चीजों के लाक्षणिक संबंधों को तो देख पाता है, पर उसके ही अन्य रूप (substitution) को देखने की क्षमता को खो देता है । इसके उदाहरण के तौर पर लकान कहते हैं कि वह कप और तश्तरी को तो देख लेता है, लेकिन कप को ही पीने के बर्तन की तरह नहीं देख पाता है ।
इस प्रकार की विश्रृंखला में प्रमाता की बातों का प्रवाह तो बना रहता है, लेकिन उन्हें यह पता नहीं चलता है कि वे जो कह रहे हैं, उसका कोई मायने भी होता है या नहीं ।
मसलन्, सावरकर संबंधी विवेचन में जब कोई सावरकर को ‘क्रांतिकारी’ बता कर अपनी बात का प्रारंभ करता है तो स्वाभाविक तौर पर यह खतरा होता है कि वह उस ‘क्रांतिकारी’ शब्द के अभिधेयार्थ से चिपक कर सावरकर के फासीवादी विचारों के प्रवर्तक रूप से एक दूरी कायम कर ले । उसे ‘क्रांतिकारी सावरकर’ के सारूप्य 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का उनका विश्लेषण, उसमें मुस्लिम चरित्रों के प्रति विद्वेष का अभाव और अंबेडकर के साथ उनके संपर्क आदि के लाक्षणिक संपर्क तो दिखाई देने लगते हैं, लेकिन सावरकर होने का एक भिन्न, बल्कि असली अर्थ, ब्रिटिश सरकार से माफी मांग कर उसकी सेवा में लगे हुए हिंदुत्व के फासीवादी विचारों के प्रवर्तक वाला अर्थ वास्तव में उससे छूटने लगता है । बल्कि उससे अपने को अलग करना ही प्रकारांतर से उसका मकसद बन जाता है । लकानियन विश्लेषण के अनुसार यह क्षैतिज धुरी के समानांतर लंबवत धुरी से ही चिपके रहने से उत्पन्न एक प्रकार की गूंग ही है । ‘क्रांतिकारी सावरकर’ के अभिधेयार्थ से चिपकने की वजह से उनके भिन्न, असली रूप के बयान के मामले में पैदा हुई असमर्थता की गूंग ।
इस सिलसिले में हम यहां एक और दिलचस्प विषय का जिक्र करना चाहेंगे । वह है शब्द के अभिधेयार्थ के साथ भक्ति के संबंध का विषय । यह कहने की जरूरत नहीं है कि हमारे अभिनवगुप्त भी लकान की तरह भाषा के विषयों को मूलतः मनुष्य के भावों के पहलुओं से जोड़ कर देखते थे । उनकी ध्वन्यालोक की टीका की हर टिप्पणी इसे साबित करती है । आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में ध्वनिविरोधियों के तर्कों को एक-एक कर गिनाते हुए यह बताया था कि ध्वनिविरोधी आचार्यगण ध्वनि को भाक्त अर्थात् गौण बतलाते हैं । अभिनवगुप्त ने इस सिलसिले में अपनी व्याख्या में इन भाक्तत्ववादियों की अपने प्रकार से खूब खबर ली है । उन्होंने ध्वनि-विरोधियों, अर्थात् ध्वनि के अभाववादियों की सभी आपत्तियों को क्रमवार बताने के बाद कहा कि इन सबकी प्रकृति संभावनापरक है कि ऐसा हो सकता है, ऐसा नहीं हो सकता है आदि (अभाववादस्य सम्भावनाप्राणत्वेन भूतत्वमुक्तम्), अतएव ध्वन्यालोकार ने उसके लिए ‘जगदुः’ शब्द का प्रयोग करके उसके भूतत्व का प्रतिपादन किया है । और, किसी भी विमर्श में संभावनामय मंतव्यों की अप्रासंगिकता के बारे में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं जिसमें अभिनवगुप्त ने यह उदाहरण दिया था कि ‘अगर शरीर के भीतर जो कुछ है, वह सब बाहर होता तो क्या होता ! हर आदमी डंडा लेकर कुत्तों और कौवों के पीछे दौड़ता होता ।’
बहरहाल, अभिनवगुप्त ने भाक्तवादियों की खबर लेते हुए सबसे पहले भाक्त शब्द की व्युत्पति के विषय को लिया । इसके उन्होंने तीन अर्थ बताए, जिनमें पहला है — भज्यते सेव्यते । भज् सेवा की धातु है, अतएव भज्यते का अर्थ है सेव्यते । इसे आगे व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं कि “जो मुख्यतः अभिधेयार्थ के द्वारा उत्प्रेक्षित होता है, उसे भक्ति कहते हैं ।”(पदार्थेन प्रसिद्धतयोत्प्रेक्ष्यत इति भक्ति धर्मो) । और भक्ति से आया हुआ अर्थ भाक्त कहलाता है । उन्होंने इसके पांच लक्षणों, 1. समीप्य 2. सारूप्य 3. समवाय 4. वैपरीत्य तथा 5. क्रिया योग को गिनाते हुए कहा कि इस प्रकार के एक गुणसमुदाय के अर्थ का जो तैक्षण्य आदि रूप, अर्थात् सबसे तीक्ष्ण रूप से सामने आने वाला भाग होता है, वही ‘भक्ति’ है । अर्थात् भक्ति का भाव शब्द के अभिधेयार्थ से उत्प्रेक्षित लाक्षणिकता का वह रूप होता है जो समीप्यादि कारणों से सबसे तीक्ष्ण रूप में सामने आता है । जैसे ‘क्रांतिकारी सावरकर’ के समीप है उनकी 1857 के महासमर वाली किताब, उनके अंबेडकर से संबंध आदि की बातें । वे ही यहां सबसे तीक्ष्ण रूप में सामने आते हैं और जो भक्ति कहलाती है ।
यह भक्ति स्वयं में कैसे एक प्रकार की गूंग होती है, उसे यहां समझने की जरूरत है । इससे यह भी पता चलेगा कि कैसे कोई एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक बड़ा समुदाय भी इस भक्ति की गूंग में अटका रहता है । वह बोलता हुआ गूंगा होता है ।
उपनिषदों के भाष्यकार शंकराचार्य भी उपनिषदों को ज्ञानियों की चीज बताते हुए वैदिक कर्मकांड, अनुष्ठानादि करने वालों को निम्न स्तर का मानते हैं, पर यह सच है कि उन्होंने व्यक्ति के ऐसे मनोभावों के कारणों की पड़ताल की कोई जरूरत महसूस नहीं की । यह काम अभिनवगुप्त ने किया । मनुष्य के चित्त के गठन में भाषा की अभिन्न स्थिति को समझते हुए ही उन्होंने इसे शब्द के अभिधेयार्थ से ही चिपकने से पैदा हुए भक्ति भाव से जोड़ा ।
लकान कहते हैं कि प्रमाता की पहली गूंग/अटकन उसी लंबवत धुरी, अभिधेयार्थ से या उसके समरूप संदर्भ अथवा संदर्भों में से उसके चयन से जुड़ी होती है । उन्होंने बहुत साफ कहा है कि अभिधेयार्थ में अटके हुए प्रमाता की जुबान पूरी तरह से बंद नहीं होती है, उसकी बातों का प्रवाह अनर्गल रूप में जारी रहता है, पर वह कह क्या रहा है या उसकी बात का कोई अर्थ भी है या नहीं, इसका उसे अनुमान नहीं होता है । उसकी भाषा के प्रतीकात्मक क्षेत्र में गड़बड़ी पैदा हो जाती है । अभिधेयार्थ की लंबवत धुरी से अटकी हुआ मनोदशा क्षैतिज धुरी (व्यंजना) से स्पंदित होने के बजाय उसके समानांतर चलती रहती है, जिससे प्रमाता लाक्षणिक संबंध तो देख पाता है, लेकिन वस्तु को स्वयं में देखने की शक्ति खो देता है । (Associations slide along the horizontal axis, hence subjects are able to make metonymic associations (‘Cup’-‘saucer’), but lose the capacity to substitution (‘cup’-‘drinking vessel’)
अभिनव की भाषा में कहे तो यह है अभिधेयार्थ के पांच प्रकार के लक्षणों में से तीक्ष्ण रूप में सामने आने वाले भक्ति के भाग को अपनाने का परिणाम । ‘क्रांतिकारी सावरकर’ के भाव से उनकी 1857 वाली किताब और अंबेडकर आदि तो सहज याद आ जाते हैं, पर उनके चरित्र के एक समग्र हिंदुत्व के प्रवर्तक का रूप गौण हो जाता है ।
अभिनव इस संदर्भ में एक वाक्य का उदाहरण देते हैं — सिंहो माणवक । चूंकि माणवक (बालक) सिंह नहीं हो सकता है, इसीलिये यहां पर सिंह और माणवक की एकार्थता खारिज हो जाती है । एकार्थता के खारिज होने का अर्थ है कि सिंह के जो गुण है, उसी तरह का तीक्ष्ण गुण बालक में भी है । इस तरह अर्थ को बतलाने के लिए यहां पर लाक्षणिक वाक्य का प्रयोग किया गया है । “सिंह तथा बालक में गुण की समरूपता के कारण लक्ष्यार्थ का अभिधेयार्थ के साथ सारूप्य संबंध है । सिंहो माणवकः में प्रतिपाद्य तैक्षण्य रूप अर्थ में श्रद्धा का अतिशय रूप भक्ति है ।” (ध्वन्यालोक, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम उद्योत, पृ.-29)
यही बात ‘क्रांतिकारी सावरकर’ पर लागू होती है । ‘क्रांतिकारी सावरकर’ या ‘हिंदुत्ववादी सावरकर’ — अभिनव की भाषा में कहे तो यह एक प्रकार से ‘काव्य के प्रस्थान’ का मामला है । प्रस्थान, अर्थात् ‘प्रतिष्ठन्ते परमपरया व्यवहरन्ति येन मार्गेण तत्प्रस्थानम्’, अर्थात् प्रतिष्ठित लोग परंपरा से प्राप्त जिस मार्ग से व्यवहार करते हैं, उसको प्रस्थान कहते हैं । ‘क्रांतिकारी सावरकर’ से प्रस्थान सावरकर के प्रति भक्ति भाव की दिशा में ले जाने का स्वाभाविक कारण बन ही सकता था, जैसा कि ‘वैधानिक चेतावनी’ की पाद-टिप्पणी के बावजूद अजय जी के लेखन के ओज में दिखाई देता है ।
कहना नहीं चाहता, फिर भी कह देता हूँ कि इस प्रकार विषय के अभिधेयार्थ से चिपक कर पूरे भक्ति भाव से एक दिशा में बढ़ जाना डा. रामविलास शर्मा के लेखन की भी विशेष शैली रही है जिससे उन्होंने हिंदी जाति की धारणा और उसके अनेक देवताओं को तो गढ़ दिया, पर जिसे बौद्धिक जगत में औपनिषदिक जिज्ञासा और शंका से जुड़ी कष्ट-साध्य ज्ञान मीमांसा कहते हैं, उसे कोई बल नहीं मिला, उल्टे उसकी क्षति ही हुई । हिंदी के मार्क्सवादी विचार जगत में हिंदी जाति संबंधी भक्ति भाव बलवती हुआ ।
जॉक लकान ने प्रमाता में अभिधेयार्थ की लंबवत धुरी से चिपकने से उत्पन्न गूंग के अलावा एक दूसरी गूंग की भी चर्चा की है जिसकी व्युत्पति को उन्होंने क्षैतिज धुरी अर्थात् व्यंजना से, घंटी की गूंज की तरह चिंतन के दीर्घ नैरंतर्य से जोड़ा है । इसके भी बौद्धिक उलझनों के अपने पहलू हैं जिनमें प्रमाता भाषा की कथन शक्ति को ही गंवा देने का अनुभव कर सकता है । इसमें भाषा की रूपकात्मक क्रिया तो बनी रहती है, पर लाक्षणिक क्रिया से संपर्क टूट जाता है । ऐसे लोग धाराप्रवाह बात करने के बजाय सही शब्द के चयन में भटकने लगते हैं । इसमें उनकी जुबान के ही बंद हो जाने अर्थात् पूरी तरह से विकल हो जाने का खतरा रहता है, उनके लिए उपयुक्त शब्द खोजना या एक से दूसरे शब्द पर जाना ही कठिन हो जाता है । इसमें आंशिक रूप से विकल होने पर वह जैसे तार की कूट भाषा में बोलने लगता है । लकान बताते हैं कि वह भिन्न अर्थों वाले समरूप शब्दों को बकने लगता है । sale की जगह sail, muscle की जगह mussel । इसमें जहां नैरंतर्य टूटता, या क्षतिग्रस्त होता है, वहीं उपमाओं और रूपकालंकारों का रास्ता बना रहता है और प्रमाता शब्दों के पर्यायवाची खोज सकता है ।
इस प्रकार लकान के पूरे विश्लेषणात्मक काम में भाषा की इन दो धुरियों के तमाम संदर्भ मिलते हैं । अपने सेमिनार-III में लकान ने सौस्योर की भाषा के प्रवाह की सरलरेखीय (अर्थात् दिशाहीन) धारणा की हल्की सी आलोचना भी की है : “यह कहना पूरी तरह से सही नहीं है कि यह एक सीधी रेखा है, इसे कई सीधी रेखाओं का समुच्चय, एक छंद कहना ज्यादा सही होगा ।”(Ecrits, p.54) यद्यपि बाद में वे सौस्योर की धारणा में एक कलना (alogrithm) की बात भी करने लगे थे । इसी प्रकार लकान ने जैकोबसन की प्रमुख कृति ‘The Fundamentals of Language’ की भी तारीफ की । प्रमाता के बारे में लकान की पूरी सैद्धांतिकी में भाषा की दो धुरियों वाली अवधारणा पूरी तरह से घुल-मिल गई थी । कहना न होगा, किसी भी पाठ के विश्लेषण में भाषा के इन औजारों के प्रयोग से उसकी बहुत सी गांठे खुल सकती है ।