−अरुण माहेश्वरी
अन्ततः, कर्नाटका के नए मुख्यमंत्री की घोषणा के साथ ही, कह सकते हैं कि कर्नाटका का चुनाव संपन्न हुआ । विजयी कांग्रेस दल के विधायकों की पहली पसंद सिद्दारमैया फिर से एक बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री होंगे और इस शानदार जीत में अपनी मेहनत और निष्ठा के लिए बहुचर्चित नेता डी.के.शिवकुमार उप-मुख्यमंत्री।
एक वाक्य में कहें तो कर्नाटक की यह जीत भारतीय जनतंत्र के अपने तर्क की जीत है । अगर इसे सुसंगत रूप में जीवित रहना है तो यह अपने शरीर में मोदी और बीजेपी की तरह की विजातीय फ़ासिस्ट शक्ति के साथ अधिक दिन तक कायम नहीं रह सकता है । इसे घुमा कर यूं भी कह सकते हैं कि अगर किसी भी तरह भारत के शासन का यह जनतांत्रिक ढांचा कायम रह जाता है तो इसमें आरएसएस-मोदी की तरह के फासिस्ट ज्यादा समय तक बचे नहीं रह सकते हैं । जनतंत्र के स्वास्थ्य की यह एक बुनियादी शर्त है कि इसे सांप्रदायिक फासिस्टों की जकड़ से मुक्त रहना पड़ेगा । शासन में जनतंत्र और आरएसएस लंबे काल तक साथ-साथ नहीं चल सकते हैं । ये ऐसे परस्पर-विरोधी है जिनका सामंजस्य नहीं चल सकता है । मोदी और आरएसएस जनतंत्र के लिए किसी काल से कम नहीं हैं । कर्नाटक में मोदी की हार ने सन् 2024 के आम चुनाव के परिणामों की एक झलक दे दी है । जनतंत्र बनाम फासीवाद का संघर्ष ही इन चुनावों का सबसे निर्णायक संघर्ष साबित होने वाला है । 2024 में जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों की किसी भी प्रकार की गफलत अब सीधे तौर पर हमारे देश की सत्ता को नग्न फासिस्टों के हाथ में सौंपने से कम बड़ी भूल नहीं साबित होगी । मोदी विगत नौ सालों में ही अपने असल खूनी पंजों का परिचय दे चुके हैं ।
जहां तक कर्नाटक के चुनाव का प्रश्न है, इन परिणामों के बाद भी कांग्रेस में विधायक दल के नेता के चयन की जिस जनतांत्रिक प्रक्रिया की दरारों पर मोदी-शाह की गिद्ध दृष्टि थी, जिन दरारों से प्रधानमंत्री मोदी गोदी मीडिया नामक अपनी प्रेत-सेना के कुहराम से अपनी खोई हुई साख को थोड़ा छिपाने की आशा कर रहे थे, उस पूरे शोर ने भी अंततः कांग्रेस की कमी के बजाय उसके अंदर के लचीलेपन की ताकत को ही और जोरदार ढंग से उजागर किया है । उसने यही दिखाया है कि देश की राजनीति में अभी जो कुछ भी हो रहा है उसमें मोदी सत्ता क्रमशः बिल्कुल लाचार और लचर साबित होने लगी है । उसका ईडी-सीबीआई-आइटी का त्रिशूल भी अब सुप्रीम कोर्ट की झिड़कियों का विषय बन चुका है । सुप्रीम कोर्ट में ईडी को कहा गया है कि जांच करो, पर डर पैदा मत करो । ऊपर से, जिस प्रकार किरण रिजिजू और राज्य मंत्री बघेल को हटा कर कानून मंत्रालय की सफाई की गई है, उसे भी कर्नाटक चुनावों का ही परिणाम कहा जा रहा है । मोदी के निर्देशों पर ही पिछले दिन यह मंत्रालय भारत की न्यायपालिका के लिए आंख का कांटा बन चुका था, उसने अब तक मोदी सरकार की ही हालत पतली कर दी है । सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के गैर-कानूनी क्रियाकलापों पर उंगली रखने से किसी भी मामले में चूक नहीं रहा है ।
कर्नाटक चुनाव में मोदी का कितना कुछ दाव पर लगा हुआ था, उसे इस चुनाव के दौरान मोदी की तमाम हरकतों से भी जाना जा सकता है । गौर से देखने पर पता चलता है कि इस चुनाव में अंत तक आते-आते मोदी की दशा किसी विक्षिप्त व्यक्ति की तरह की हो गई थी । विक्षिप्त आदमी ही किसी भी हालत में अपनी शक्ति में जरा भी कमी को नहीं देख सकता है । उसे हमेशा यह सवाल परेशान किया करता है कि आखिर क्यों, किसी दूसरी चीज के लिए, जो उसकी है ही नहीं, उससे बलिदान की मांग की जा रही है ? भारत का जनतंत्र और संविधान होगा किसी के लिए कितना भी मूल्यवान, पर उसके लिए मोदी क्यों कोई कीमत अदा करेंगे ? विक्षिप्त व्यक्ति कुछ इस प्रकार की फैंटेसी में जीता हैं कि यदि कोई उसके रास्ते में फिजूल के रोड़े न अटकाए तो उसके पास तो ईश्वरीय परमतत्त्व को पा लेने जैसी शक्ति है । मोदी ने कांग्रेस-मुक्त भारत के अपने सपने के साथ अगले पचास साल तक भारत पर आरएसएस के राज की फैंटेसी से अपने को जोड़ लिया था । वे हिमाचल के धक्के को तो किसी तरह से झेल गए, लेकिन कर्नाटका का धक्का एकदम नाकाबिले-बर्दाश्त था । अपनी इसी धुन में उन्होंने कर्नाटका के चुनाव में खुले आम कानून और संविधान की धज्जियां उड़ाने और ‘जय बजरंगबली’ की तरह की धार्मिक हुंकारें भरने तक से परहेज नहीं किया ।
मोदी जान गए थे कि कर्नाटका में हार का अर्थ होगा उनके तमाम विश्वासों और मंसूबो का हार जाना । यही उनके सोच की फासिस्ट विकृति है जिसमें वे खुद के अलावा अन्य किसी की उपस्थिति को देख ही नहीं पाते हैं । बेबात, खुद पर ही मुग्ध रहते हैं । हमेशा दिखाते तो ऐसा हैं कि वे बहुत कुछ कर रहे हैं, लेकिन वास्तव में कोरे प्रदर्शनों के सिवाय कुछ भी नया नहीं कर रहे होते हैं । इसीलिए मोदी को आप जब भी उनकी खुद के बारे में की गई फैंटेसी से काट कर देखेंगे, आपको उनका असल तात्विक रूप साफ रूप दिखाई दे जाएगा । यह पता चलने में कोई बाधा नहीं रह जायेगी कि आखिर उनकी प्रेरणाएं क्या हैं ? कैसे वे अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में हिटलर और उसकी नाजी विचारधारा से प्रेरित रहते हैं । इससे कोई भी उनके सभी कामों को परखने का एक सही नजरिया हासिल कर सकता है ।
मनोविश्लेषण की दुनिया में मनोरोगी के सच को परखने का यही सबसे कारगर तरीका है कि उसकी प्राणीसत्ता को उसकी अपनी फैंटेसियों से काट कर देखा जाए । कर्नाटक में मोदी ने उसका खुला प्रदर्शन कर दिया था ।
इस चुनाव ने बीजेपी की क्या दशा की है उसे इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि चुनाव परिणाम के ठीक बाद ही शोक में डूबी बीजेपी ने एक बड़बोले बागेश्वर बाबा की गोद में मुँह छिपा लिया है ।
बहरहाल, हिमाचल के बाद कर्नाटक में भी सत्ता से बीजेपी को हटाने की घटना का आवर्तन अब भारत के जनतंत्र के सामान्य व्यवहार का संकेत दे रहा है । यह बात हर प्रमाता पर, व्यक्ति और व्यक्तियों के समूहों पर समान रूप से लागू होती है । प्रमाता के जो लक्षण उसकी मूल पहचान को दिखाते हैं, उनमें उसके वर्तमान व्यवहार के साथ ही उसकी भविष्य की गति का भी मिश्रण होता है । वह गति कब और किस रूप में अपने को जाहिर करेगी, यह समय और पारिस्थितिकी पर निर्भर करता है । कर्नाटक के चुनाव से यही जाहिर हुआ है कि भारत की मौजूदा परिस्थितियां अब जनतंत्र की अपनी गति को व्यक्त करने के अनुकूल होती जा रही है । इसीलिए इन चुनावों का भारत के राजनीतिक भविष्य के लिए असीम महत्व माना जाना चाहिए ।
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