(राहुल गांधी की यात्राओं में जन समुद्र की परिघटना का एक विश्लेषण)
−अरुण माहेश्वरी
राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा और उसमें हर जगह पर उमड़ती हुई भीड़, खास तौर पर पिछड़े, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों के नौजवानों का उच्छवसित भाव, पटना के गांधी मैदान में जन-सैलाब और लालू यादव के प्रति बिहार के आम लोगों के लगाव का क्रमशः उनके बेटे तेजस्वी यादव के प्रति स्नेह में बदलते हुए देखना – हमारी आँखों के सामने उभरता हुआ यह समूचा दृश्य एक ऐसी नई परिघटना के रूप में सामने आ रहा है जो सामान्य टीका-टिप्पणी से आगे जाकर कहीं ज्यादा गंभीर विश्लेषण की अपेक्षा रखता है ।
यह घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि उत्तर भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति आम लोगों का आग्रह फिर से एक बार धीरे-धीरे जड़ पकड़ने लगा है । लगातार साठ साल के कांग्रेस के शासन में छीजते-छीजते कांग्रेस दल 2014 तक ऐसी दशा में पहुंच गया था कि नरेन्द्र मोदी और आरएसएस ने बेहिचक कांग्रेस-मुक्त भारत के निर्माण के लक्ष्य का ऐलान कर दिया। इस प्रकार, प्रकारांतर से उन्होंने कांग्रेस की मृत्यु का ही ऐलान कर दिया था ।
इस सचाई से इंकार भी नहीं किया जा सकता है कि 2014 तक अनेक प्रदेशों से कांग्रेस के संगठन का लगभग सफाया हो चुका था । कांग्रेस भारत की राजनीति में एक दूरस्थ विचार बनती जा रही थी ।
हम सब जानते हैं कि राजनीति में होना विचार में होना मात्र नहीं होता, इस होने में संगठन नामक एक ठोस शरीर का होना अनिवार्य होता है । और, कांग्रेस उस शरीर को ही खो चुकी थी ! भारत में राजनीति की एक प्रमुख जरूरत के ही लगभग बाहर जाती हुई दिखाई देने लगी थी ।
ऐसी स्थिति में, आज फिर से कांग्रेस का हमारी राजनीति की कथित प्रमुख जरूरत, सांगठनिक ताने-बाने के के क्षेत्र क बाहर से ही उभरना और क्रमशः राजनीति के मंच के केंद्र में आते हुए दिखाई देना, किस बात का द्योतक है ?
यह स्वयं में एक ऐसी परिघटना है जिसे मनोविश्लेषण में प्रेम की मांग की निःशर्त स्थिति (unconditionality of the demand for love) से जुड़ी एक अलग परिघटना बताया गया है । इसमें जिस प्रेम को कभी खत्म मान कर आगे बढ़ जाने का फैसला कर लिया जाता है, वही प्रेम फिर किसी मोड़ पर, आदमी की जरूरत के दायरे के बाहर के क्षेत्र में फिर से खड़ा दिखाई देने लगता है और आदमी के दिलो-दिमाग पर छा जाता है ।
जब भारत के लोगों ने कांग्रेस के प्रति अपने आग्रह को झटक कर उसके विपरीत छोर, मोदी की तरह की एक घनघोर सांप्रदायिक शक्ति का दामन थाम लिया, इसके बाद आज निराशा के एक नए दौर में लोगों में अपने उस ठुकरा दिये गये प्रेम की निश्छल स्मृतियां बिल्कुल अलग से, उनकी जरूरत और स्वार्थ के दायरे के बाहर के क्षेत्र में खड़ी दिखाई देने लगी है । मजे की बात यही है कि भारत के लोगों के उस पुराने प्रेम के नये आग्रह के रूप में इस पुनर्वतार में भी प्रेम के लिए जरूरी निःस्वार्थता का ढांचा अन्तर्निहित है, जो इसे तूफ़ानी शक्ति प्रदान कर रहा है ; कांग्रेस शासन के पिछले कई सालों का नकारात्मक आख्यान इसमें कहीं से आड़े नहीं आ रहा ।
यही वजह है कि कांग्रेस के प्रति जनता के आग्रह की इस वापसी को ‘नकार का नकार’ (negation of negation) भर कह कर शायद विश्लेषित नहीं किया जा सकता है ।
जॉक लकान ने इसे किसी खोई हुई वस्तु की शक्ति (power of pure loss) कहा था । यह शक्ति हमेशा राख से चिंगारी की तरह भड़क कर सामने आया करती है । हमारी जो प्रिय वस्तु खो जाती है, वह जब हमारे पास होती है, यह उससे कहीं ज्यादा लुभावनी हो उठती है। अब उसके होने में हमारी जरूरत के बजाय उसके प्रति निःशर्त लगाव की भूमिका कहीं ज्यादा प्रमुख होती है ।
कहना न होगा, राजनीति में असंभव की तमाम संभावनाओं का यह भी एक प्रमुख स्रोत है – खोई हुई वस्तु की शक्ति ।
यह सच है कि राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्राओं से कांग्रेस के उस रूप को पुनर्जीवित करने के निश्चय को दोहरा रहे हैं जो हमेशा से भारत में सभी उत्पीड़ित जनों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए आश्वस्तिदायक रहा है । जिसके चलते उनके जीवन में वास्तव में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं । यह भारतीय राजनीति में लोक कल्याण, समानता, न्याय, धर्म-निरपेक्षता और संघवाद की तरह के मजबूत आधार स्तंभों पर टिका एक गहरा विश्वास भी है ।
साठ सालों के शासन में कांग्रेस ने जितना अपने को उस भूमिका से अलग किया, उसी अनुपात में भारत की व्यापक पीड़ित-वंचित जनता से उसका नाता टूटा ।
आज राहुल गांधी ने फिर से कांग्रेस की पुरानी भूमिका को पुनर्जीवित करने के आश्वासन के साथ सभी वंचित समुदायों में कांग्रेस के प्रति पुराने अनुराग की राख को हवा देना शुरू किया है । खास तौर पर इन वंचित समुदायों के नौजवान तबकों को उनकी इस नई राजनीति में उस मोहब्बत की खुशबू आने लगी है जो उन्हें शुद्ध रूप से अपने स्वार्थ से जुड़े जातिवाद के बजाय राष्ट्र के समतापूर्ण, न्यायपूर्ण विकास के संविधान-सम्मत निश्छल भाव से अनुप्रेरित और उत्साहित करती है ।
जॉक लकान कहते हैं कि निःस्वार्थ
मांग के कारण आदमी की चाहत ही उसके लिए परम हो जाती है । (For
the unconditionality of demand, desire substitutes the “absolute” condition) प्रेम को प्रमाण की जरूरत नहीं रहती । इसमें पड़ा मनुष्य स्वार्थ और जरूरत की पूर्ति के तत्त्व से विद्रोह करता है । लकान ने इसे आदमी में पड़ने वाली दरार की ऐसी परिघटना बताया था जो अनायास अंतर की एक छिपी हुई शक्ति को प्रबलतम शक्ति का रूप दे देती है । लकान ने इसका इस प्रकार सूत्रबद्ध किया था :
“चाहत न संतुष्टि की भूख है और न प्रेम की मांग, बल्कि संतुष्टि की भूख में से प्रेम की मांग को घटा देने पर जो बचता है, आदमी में उस दरार की परिघटना है ।” (“This is why desire is neither the appetite for satisfaction nor the demand for love, but the difference that results forom the subtraction of the first from the second, the very phenomenon of their splitting.” -Ecrits, page. 691)
आज भारत के पिछड़े समुदाय, दलितों और मुसलमानों में तेजी के साथ एक नई दरार पैदा हो रही है । वही परिघटना राहुल गांधी की यात्राओं में सामने आ रहे जन-आलोड़न से मुखरित होती है । यह समूचा वंचित समुदाय धीरे-धीरे अपने फ़ौरी पाँच किलो अनाज के स्वार्थ के पाश से मुक्त हो, अपनी अकुंठ चाहत की पार्टी की तलाश में उतर रहा है । राहुल गांधी में उन्हें आजादी की लड़ाई के गांधी-नेहरू दिखाई देने लगे हैं । वे उनमें पूंजीपतियों की दलाल सत्ता के खिलाफ पूरी बुलंदी से वंचितों के उत्थान की आवाज को उठाने वाला वीर योद्धा देखने लगे हैं ।
कहना न होगा, जन मानस में उभर रही यह नई दरार साफ तौर पर एक गहरे बदलाव का संकेत है । आगामी चुनाव में वह अनेक रूपों में सामने आयेगा ।
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