मंगलवार, 19 नवंबर 2024

भाषा विज्ञान और मनुष्य की भाषाई संरचना

 

-अरुण माहेश्वरी 



कल (10 नवंबर 2024) अनायास ही ‘टेलिग्राफ’ में प्रकाशित एक दिलचस्प रिपोर्ताज के संदर्भ में फेसबुक पर हमारी वाल पर जॉक लकान के संकेतन सिद्धांत की संक्षिप्त चर्चा हो गई ।* उसमें संरचनावादी विचारक फर्दिनांद सौस्योर के लेखन से निकले सूत्र S/s का भी जॉक लकान के हवाले से जिक्र आया जिसमें  S का अर्थ है Signifier (संकेतक), और s से मतलब है signified(संकेतित)। इस सूत्र में संकेतित (s) के सर पर एक पसरे हुए डंडे के अंतराल पर संकेतक (S) बैठा हुआ है । जॉक लकान ने इस सूत्र को आधुनिक भाषा विज्ञान का सबसे मूलभूत सूत्र कहा था । जैसे अभिनवगुप्त ने ‘तंत्रालोक’ में संकेत को ही परामर्श चिंतन, अर्थात् विचार का स्रोत कहा; कोरा शब्द तो परम ब्रह्म है जिसकी साधना (शब्द निष्ठा) को उन्होंने निरर्थक बताया; जगत की शंकाएँ (द्वैत) ही तर्क के द्वारा विमर्श का विषय बनती है । इसी प्रकार संकेतित भी शुद्ध रूप में स्वयं में ब्रह्म समान होता है, जो खुद किसी विमर्श का माध्यम नहीं बनता, उस पर लदा हुआ संकेतक ही किसी विमर्श को तैयार करता है । 1  


लकान कहते हैं कि “जैसे हर विज्ञान के मूल में किसी एक मूलभूत सूत्र की कलना (algorithm) काम करती है, वैसे ही S/s भाषा विज्ञान का मूलभूत सूत्र है –जिसकी कलना पर आधुनिक अर्थ में समूचा भाषा विज्ञान विकसित हुआ है । (emergence of the discipline of linguistics, as in the case of every science in modern sense, (it) consists in the constitutive movement of a algorithm that grounds it. The algorithm is : S/s.) 

इस प्रकार, उनके अनुसार, मूलतः इसी मूलभूत सूत्र से आधुनिक भाषा विज्ञान का जन्म हुआ है।2

यहां गौर करने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जॉक लकान ने इस सूत्र का प्रयोग मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के भी मूलभूत सूत्र के रूप में किया, क्योंकि मनोविश्लेषण के इतिहास में वे ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मनुष्य के अवचेतन की संरचना को भाषा की संरचना के सदृश्य देखा था । मनोविश्लेषण के इतिहास में उनके इस योगदान को  युगांतकारी माना जाता है । 



जॉक लकान का एक बहुत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण लेख है – ‘फ्रायड के उपरांत अवचेतन अथवा विवेक में अक्षर का अवस्थान’ (The Instance of the letter in the unconscious or Reason since Freud) । इस लेख को उन्होंने 9 मई 1957 के दिन सोरबोन के देकार्त एंपीथियेटर में पैरिस के छात्र फेडरेशन (Federation des etudiants es lettres) के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों से एक वार्ता में पेश किया था ।

अपनी इस वार्ता में लकान छात्रों से कहते हैं कि “उन्होंने इस वार्ता के निमंत्रण को महज इसलिये स्वीकारा क्योंकि उनके और छात्रों की रुचि के विषय, दोनों की एक साझा साहित्यिक पृष्ठभूमि है, जिसके प्रति इस आलेख के शीर्षक में ही मैंने अपना सम्मान व्यक्त किया है । फ्रायड हमेशा कहते थे कि विश्लेषकों के प्रशिक्षण के लिए उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि का होना नितांत जरूरी है । वे साहित्य के पुरातन विश्वविद्यालयों को इस काम के सबसे उपयुक्त स्थान मानते थे ।”3 

लकान ने इस संदर्भ के जरिये बता दिया था कि उनका वह लेख किन लोगों को संबोधित है, और किनको नहीं है । वे कहते हैं कि यह उन लोगों के लिए कत्तई नहीं है जो किसी भी कारणवश क्यों न हो, मनोविश्लेषण के क्षेत्र में कुछ झूठी पहचानों को लाभ उठाने की अनुमति देते हैं । लकान के अनुसार, यह एक बुरी आदत है और दिमाग पर इसका कुछ ऐसा असर पड़ता है कि इस क्षेत्र की असली पहचान ही महज एक और भटकाव की तरह प्रतीत होने लगती है । उन्होंने यह उम्मीद जताई कि यह मिथ्याचार कितनी ही कुशलता से क्यों न पेश किया जाए, पारखी नजरों से वह बच नहीं सकती है ।4 



इस प्रकार की एक छोटी सी भूमिका के साथ लकान इस लेख में ‘अक्षर’ का अर्थ बताते हुए अपने मूल वक्तव्य की ओर प्रस्थान करते हैं । वे कहते हैं कि “ मेरे लेख के शीर्षक से ही यह साफ है कि मनोविश्लेषणात्मक अनुभव अवचेतन में भाषा की पूरी संरचना को देखता है । जो लोग अवचेतन को मनुष्यों की मूल वृत्तियों की जगह मानते हैं कि लकान ने उनसे कहा कि उन्हें अपने इस सोच पर पुनर्विचार करना होगा ।”5 

बहरहाल, यहां मार्के की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि जो बात भाषा की संरचना पर लागू होती है, लकान के अनुसार वही बात मनुष्य के अवचेतन की संरचना पर भी लागू होती है । 

फेसबुक पर अपनी पोस्ट में जब हमने ‘टेलिग्राफ’ में अनुसूया बसु के रिपोर्ताज के सिलसिले में दो संकेतकों के योग से रूपक के निर्माण की बात कही थी, तो हमारे विद्वान मित्र श्री राजेन्द्र चतुर्वेदी जी ने अनायास ही भारतीय काव्य शास्त्र के हवाले से ‘संकेतित’ और ‘संकेतक’ के लिए काव्य शास्त्र के ‘उपमेय’ और ‘उपमान’ पदों का जिक्र किया और उपमेय में अभेद उपमान के आरोपण से रूपकालंकार की सृष्टि के काव्य शास्त्र के सिद्धांत की बात की ।6 

राजेन्द्र रंजन जी के कथन के संदर्भ में ही हम कहना चाहेंगे कि काव्य शास्त्र में काव्यालंकार के संदर्भ के अलावा, हमारे आनंदवर्धन ने अपने ‘ध्वन्यालोक’ में काव्य की आत्मा के, जिससे काव्य का आस्वादन किया जाता है, दो भेद बताए हैं – वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ । काव्यालंकार में उपमेय और उपमान और काव्य के आस्वादन में वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ में भी संकेतित और संकेतक जैसी ही सदृश्यता दिखाई देती है जिनका उल्लेख भाषा विज्ञान के संदर्भ में लकान ने किया था । 

S/s के सूत्र में जैसे संकेतित संकेतक के तले होता है, उसी प्रकार आनंदवर्धन प्रतीयमानार्थ को ही ध्वनि स्वरूप ( ध्वनिस्वरूपे प्रतीयमानाख्ये निरूपयितव्ये ) कहते हैं, जिसका काव्य में वाच्यार्थ की भूमि पर निरूपण किया जाता है । “वाच्यार्थ की भूमि पर अतिरिक्त प्रतीयमान अर्थ का आलींगन किया जा सकता है ।”7 



आनंदवर्धन कहते हैं कि वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ, इन दोनों प्रकार के अर्थों में जो ‘विशेषता’ होती है, वही अर्थ का ‘प्रतीयमान’ भाग है । इस प्रकार किसी भी अर्थ की विशेषता की कुंजी उसकी प्रतीयमानता में है, जिसे लकानियन मनोविश्लेषण के सिद्धांत में संकेतक का पर्याय कहा जा सकता है । हमेशा अर्थ की ‘विशेषता’ से ही विमर्श तैयार होते हैं ।

इस पूरे प्रसंग में जिस बात ने हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया वह यह है कि काव्य का अलंकार शास्त्र हो या काव्य के आस्वादन का ध्वनि सिद्धांत, (उपमेय, उपमान अथवा वाच्यार्थ, प्रतीयमानार्थ से जुड़ा) यह पूरा विवेचन मूलतः काव्य-आधारित होने के कारण सिर्फ एक प्रकार के विवक्षित पाठ (अभिप्रेत) से जुड़े हुए हैं । उन्हें यदि मनुष्य के मानस से जोड़ कर देखें तो वे उसके चेतन की भाषा के विषय कहलायेंगे । यद्यपि ‘ध्वन्यालोक’ के तृतीय उद्योत में आनंदवर्धन ने अविवक्षितवाच्य ध्वनि की भी बात की थी जो अनभिप्रेत कथन का कारक बनती है, और यह भी कहा था कि उसमें भी प्रतीति पूर्वक अर्थान्तर का प्रकाशन होने के कारण नियमानुसार एक क्रम होता है ।8  

जाहिर है कि इस अनभिप्रेत कथन की भाषा को मनुष्य के संदर्भ में सहज ही अवचेतन की भाषा से जोड़ कर देखा जा सकता है । लेकिन अलंकारवाद और आनंदवर्धन के ध्वनिवाद में भाषा को काव्य का विषय तो माना गया (अधिक से अधिक कह सकते हैं कि मनुष्य की अभिव्यक्ति का विषय), पर वह मानव प्रमाता की संरचना के प्रमुख संघटक तत्त्व के रूप में शायद ही कहीं विवेचित हुई है। मानव शरीर की तरह ही भाषा भी मानव प्रमाता के संघटन का एक अभिन्न जैविक तत्त्व है, हमारे यहां इस ओर ध्यान नहीं गया है । 

इसी वजह से हमें लगता है कि भारतीय भाषा चिंतन में काव्यादि नाना पाठों में भाषा के विशद और सूक्ष्म वर्गीकरण के तमाम अनोखे उदाहरण मौजूद होने के बावजूद, उनसे मनुष्य मात्र के चित्त की गति के सूक्ष्म अध्ययन के संकेत प्राप्त नहीं किए गए । शायद इसीलिए पाणिनी के शब्दानुशासन से लेकर काव्य शास्त्र में काव्यालंकार और ध्वनि सिद्धांत तक का पारंपरिक भारतीय भाषा चिंतन अपने खुद के भुवन की स्वरूपता के प्रति निष्ठा में अभूतपूर्व रूप से सिद्ध साबित होने पर भी, अभिनवगुप्त के आने के पहले तक उससे किसी प्रकार की सामान्य  मनोविश्लेषणात्मक धारा के विकास का कोई संकेत नहीं मिलता है, अर्थात् भाषा-चिंतन एक गहन मानवशास्त्रीय चिंतन का अंग है और उससे मनुष्य मात्र की आंतरिक संरचना का भी कोई संबंध है, उस दिशा में किसी ने कोई कदम नहीं बढ़ाया । 



इस अर्थ में, अभिनवगुप्त भारतीय चिंतन की परंपरा में अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के गहन पारायण से जहां मनुष्य की आंगिक क्रियाओं के शास्त्र का एक गहन ज्ञान अर्जित किया; आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक से भाषा संबंधी तमाम सूक्ष्मताओं, वक्रोक्तियों, वाच्यार्थ और प्रतीयमानार्थ, रस सिंद्धांत और विभाव-अनुभाव-संचारी भाव के साथ ही युग के स्थायी भाव की भूमिका आदि को आत्मसात किया; और इस प्रकार उन्होंने मनुष्य की आंगिक क्रियाओं के साथ ही उसकी भाषाई अभिव्यक्तियों की एक संशलिष्ट समझ हासिल की; वहीं उन्होंने उसे अपने ‘इश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी’, ‘परमार्थसार’, तथा ‘सिद्धित्रयी’ जैसे ग्रंथों में उत्पलदेव के ईश्वरप्रत्यभिज्ञादर्शन की पृष्ठभूमि में उतार कर शैव दर्शन की दीर्ध परंपरा को बिल्कुल नया आयाम दिया; और अंत में अपने ‘तंत्रालोक’ शीर्षक उस महान और बृहद ग्रंथ की रचना की जिसे हम मानव चित्त के अध्ययन की आधुनिक मनोविश्लेषण की धारा का सारी दुनिया में एक आधारभूत ग्रंथ कह सकते हैं । अभिनवगुप्त ने इस ‘तंत्रालोक’ में ज्ञान संबंधी दर्शनशास्त्रीय विमर्श से शुरू करके ज्ञान-इच्छा-क्रिया के उपायों से चित्त संबंधी विषयों के जरिए ‘विवेक’ अर्थात् मनुष्य के ‘स्वात्मपरामर्श’ की प्रक्रिया पर दीर्घ विमर्श के बीच से अपनी तंत्रविद्या को जिस प्रकार “महाजाल के प्रयोग के द्वारा समस्त अध्वाओं के मध्य से (प्रेत के) चित्त को खींच कर स्थित करने की, शरीर की प्राणशक्ति को प्रबुद्ध करने की विधि”9 के रूप में विकसित किया, इस विधि के नाना प्रयोगों का वर्णन किया, उसे आधुनिक मनोविश्लेषण के सिद्धांतों और उपचार के उपायों के एक आदिम ग्रंथ के रूप में देखना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा ।              

जब हमने विगत एक सदी से ज्यादा के विश्व राजनीति के अनुभवों,  मनुष्य के चित्त की अभावित गति के संधान में मार्क्सवादी राजनीति की कमियों से उपजी चिंताओं के संदर्भ में अपने ‘अथातो चित्त जिज्ञासा’ पर काम शुरू किया तो हमारा ध्यान आधुनिक मनोविश्लेषण के सिद्धांतों की ओर गया था। हमने पाया कि सिगमंड फ्रायड और जॉक लकान का मनोविश्लेषण का सिद्धांत मनुष्य को महज शरीर नहीं, शरीर के साथ ही भाषा की भी एक जैविक इकाई के रूप में देखता है । प्राणी जगत में भाषा-प्रदत्त विशिष्ट अर्थ से ही जीवन के तमाम विमर्शों का केंद्र मानव प्रमाता का गठन होता है ।  

हमने पाया कि जैसे मार्क्स ने अपने कामों के बीच से सामाजिक परिवर्तन के लक्षणों की पहचान की एक विधि तैयार की थी, वैसे ही फ्रायड और खास तौर पर जॉक लकान (जो अपने को फख्र के साथ फ्रायड का अनुयायी कहते हैं, यद्यपि उनकी अधिकांश स्थापनाएँ फ्रायड के सिद्धांतों के खंडन पर आधारित है ) ने मानव के व्यवहार के लक्षणों की पहचान के सिद्धांत को विकसित किया । और इसी सिलसिले में भाषा संबंधी विमर्श का एक बिल्कुल नया आयाम खुला जो भाषाओं के गठन के वैयाकरणीय और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग मनुष्य के जैविक गठन की समस्याओं पर केंद्रित है । यहां तक कि आज नोम चोमश्की के कामों से भाषा के सवाल को जैविक प्रणाली (biological system) से देखने (आभ्यांतरित ज्ञान को पाने की I-language, internalized language) का जो पहलू सामने आता है10

जिसमें वे इस विषय को मस्तिष्क की रासायनिक क्रियाओं के साथ जोड़ कर भी देखते हैं, उनमें किया गया तकनीकी विवेचन अनिवार्य रूप से ऐसे किसी भी विमर्श को नियतिवाद की ओर ले जाता है;  कहीं न कहीं उसकी मानव-केंद्रिकता कमजोर होती है । 

चोमश्की के यहां यह बात गौण हो जाती है कि जैसे मनुष्य का अवचेतन सिर्फ उसके अंतर की चीज नहीं है, वह मनुष्य की चेतना के पहले से सामाजिक मान्यताओं और निषेधों आदि के तौर पर किसी न किसी रूप में मौजूद रहती है, वैसे ही भाषा भी मनुष्य के अंतर-बाह्य की वस्तु है, मनुष्य तभी चेतन होता है जब उसका भाषा से साक्षात्कार होता है । जॉक लकान ने इसी सत्य पर तत्त्व मीमांसक दृष्टि से विचार करते हुए अपने मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के जिस नये गैर-दार्शनिक दर्शन को तैयार किया, चोमश्की के कामों का कभी वैसा कोई अभीष्ट नहीं जान पड़ता है । उन्होंने भाषा को मनुष्य की जैविकता से जोड़ कर देखने पर भी मनुष्य को भाषा से अनिवार्यतः अभिन्न, ज्ञान-इच्छा-क्रिया की उसकी क्रियात्मकता के प्रमुख कारक के रूप में शायद नहीं देखा । 

बहरहाल, ऐसे तमाम संदर्भों के साथ ही हमने आधिभौतिक भारतीय चिंतन की परतों में उतरना शुरू किया और उसमें हुए भाषा चिंतन और काव्य शास्त्र की समृद्ध परंपरा को खंगाला । इसमें भाषा संबंधी विस्मयकारी विश्लेषणों का एक लंबा सिलसिला मिलने पर भी इसके केंद्र में मनुष्य तब तक नहीं आता है जब तक अभिनवगुप्त ने तंत्र की हजारों साल की दीर्घ भारतीय परंपरा को भाषा संबंधी चिंतन से नहीं  जोड़ा; जब तक परा-अपरा-परापरा, अद्वय-द्वय-द्वयाद्वय, भेद-भेदाभेद-अभेद के ज्ञान संबंधी त्रिक दर्शन के साथ शांभवोपाय, शाक्तोपाय और आणवोपाय की तरह के मनुष्य के आत्म विकास और उसमें स्वातंत्र्य की भूमिका के मानवशास्त्रीय पहलुओं को गहराई से प्रकाशित नहीं किया; जब तक अभिनवगुप्त ने स्वातंत्र्य को ही मोक्ष मान कर उसे ही मनुष्य के परम विकास के एक सर्वोच्च साधन के रूप में स्थापित नहीं किया । 

यही वजह है कि हमने भारत की प्राचीन चिंतन परंपरा में अभिनवगुप्त को जिस श्रेष्ठतम स्थान पर पाया वहाँ और किसी भी भारतीय चिंतक को नहीं देखते हैं । भारतीय चिंतन परंपरा में वे अद्वितीय और अतुलनीय है। इसीलिए जब माननीय राधावल्लभ त्रिपाठी ने चिंतक के बजाय अभिनवगुप्त के कवि रूप पर विचार को कहीं ज़्यादा महत्व देने की बात कही तो उससे यही संकेत मिला कि उन्होंने पूजा भाव से अभिनवगुप्त की भाषा के ‘अद्वैत’ को तो देखा, पर उसकी उस मानवशास्त्रीय ज़मीन पर उनकी नज़र नहीं पड़ी जिससे असल में उन्हें अद्वितीय बनाने वाले विमर्श की सृष्टि होती है। यह मामला सिर्फ़ राधावल्लभ जी का नहीं, अभिनवगुप्त पर विशेषज्ञता रखने वाले अन्य तमाम विद्वानों का भी समान रूप से है । 11

कहना न होगा, अभिनवगुप्त के ‘तंत्रालोक’ की उपेक्षा के चलते ही हमारे यहाँ भाषा संबंधी चिंतन की बेहद समृद्ध परंपरा मौजूद रहने के बावजूद मनोविश्लेषण की वैसी कोई आधुनिक धारा विकसित नहीं हुई जो पश्चिम में फ्रायड के बाद जॉक लकान के ज़रिए मनुष्य और भाषा के बीच के द्वंद्वात्मक संबंधों की समझ की एक सर्वथा नई धारा के रूप में आज दिखाई देती है और सामाजिक परिवर्तन में आधार (base) तथा अधिरचना (superstructure) की द्वंद्वात्मकता की तरह ही मानव प्राणी की क्रियात्मकता में चेतन और अवचेतन के संबंधों का एक नया सिद्धांत पेश करती है । 


संदर्भः 

*  https://chaturdik.blogspot.com/2024/11/blog-post_21.html?m=1

1. संङ्केतानादरे शब्दनिष्ठमामर्शनं पठिः ।

तदातरे तदार्थस्तु चिन्तेति परिचर्च्याताम् ।।

तदद्वयायां संवित्तावभ्यासोऽनुपयोगवान् ।

केवलं द्वैतमालिन्यशंङ्कनिर्मूलनाय सः ।।

द्वैतशङ्काश्र्च तर्केण तर्क्यन्त इति वर्णितम् ।

सत्तर्कसाधनायास्तु यमादेरप्युपायता ।। (तंत्रालोक, चतुर्थमाह्निकम्, 103-104-105)


2. Ecrits, page-497

3.Ecrits, page-494

4. वही, पृष्ठ 494)

5. Ecrits, page- 494-95

6. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

बहुत बढ़िया

भारत के काव्यशास्त्र में शब्द दूसरे हैं

उपमेय और अपमान

अभेद आरोप वहां भी हैं।


7.”तत्पृष्टेऽधिकप्रतीयमानांशोल्लिङ्गनात्” (ध्वन्यालोकः, संपादक शिवप्रसाद द्विवेदी, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पृ.39

8. (तत्राविवक्षितवाच्यत्वादेव वाच्येन सह व्यङ्ग्यस्य क्रमप्रतीतिविचारो न कृतः) (ध्वन्यालोकः, संपादक शिवप्रसाद द्विवेदी, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, पृ.500) 

9. तंत्रालोक, वही, एकविंशमाह्निकम्, 25

10. देखें नोम चोमश्की की पुस्तकें − New Horizons in the study of Language and Mind, (2000), On Nature and Language ( 2002) और Language and Mind (2005


11. https://chaturdik.blogspot.com/2017/11/blog-post_12.html?m=1








   


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें