( भूटान यात्रा वृत्तांत )
-अरुण माहेश्वरी
अभी सुबह-सुबह कोलकाता हवाई अड्डे से हम एक ऐसी यात्रा पर निकल रहे हैं जो सिर्फ़ भौगोलिक नहीं, आंतरिक भी है।
एक बेलगाम दौर में बेमतलब के शोर और बेइंतहा रोशनी से डरे हम उस देश की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ कहते हैं शांति शायद अब भी एक जीवित भाषा है ।
भूटान एक मौन, एक पर्वत, एक शरण — बुद्धम् शरणम् …।
यह यात्रा विश्राम के साथ ही एकांत और उसमें कुछ ठहर कर सोचने, अपनी गति को पाने की है, जहाँ दृश्य, मौन और मन शायद बहुत कुछ अवांछित को विस्मृत करा सकें ।
यात्रा का अर्थ हमेशा कहीं पहुँचना नहीं, स्वयं में लौटना भी हो ही सकता है !
(2)
एवरेस्टः मौन का सर्वोच्च आसन
फ्लाइट की खिड़की से दिखता एवरेस्ट। लगता है मानो आकाश ने अपने भीतर की एक चुप्पी को आकार दे दिया हो।
एवरेस्ट हो या गौरीशंकर, कंचनजंगा या कोई और चोटी , एयरलाइंस की मैगज़ीन KUZU ZANGPO ने इन्हें सही पारो के मार्ग में दिखती प्रकृति की वास्तुकला कहा है ।
एवरेस्ट धरती की सबसे ऊँची जगह, इसलिए हमारी नज़र में ध्यान का सर्वोच्च आसन। यहाँ हवा हतबंब होकर बोलना भूल जाती है, क्योंकि उससे कोई टकराता नहीं। हरीश जी ने तो धोरों की धरती पर आसन बिछा कर भैरवी को साधा था । वहाँ उन्हें भी कुछ ऐसी ही सांय सांय की गूँज का मौन मिला होगा ।
जॉक लकान कहते हैं कि प्रमाता की लालसा अन्य की कामना में बसती है। पर जहाँ अन्य ही न हो, वहाँ लालसा कैसी, कामना कैसी? प्रमाता तो अन्य से ही परिभाषित, भाषित और रूपायित होता है।
यहाँ, इस ऊँचाई पर, शायद प्रमाता भी अन्यविहीन मौन में बदल जाता है।
विज्ञान कहता है, जब ऊँचाई बढ़ती है, अणुओं के बीच की दूरी बढ़ जाती है, और ठंडक उनके कंपन को धीमा कर देती है। इसलिए यहाँ ध्वनि अस्थिर, धीमी, मानो किसी मूल आदिम गूँज का अवशेष हो, बस एक नाद ! इसे हमारे यहाँ वैदिक ध्वनि कहा गया है और वैयाकरणों ने परा-ध्वनि । भाषा-चेतना के स्फोट का स्पंद-स्थल।
यह ध्वनि अपने कारणों से ही दूर नहीं जाती । इसका आवास स्वयं प्रमाता का अंतर है।सचमुच, एवरेस्ट जैसी ऊँचाई पर हवा है, पर हवा की आवाज़ नहीं।
यहां का मौन रिक्त नहीं, कह सकते हैं कि अल्प-घनत्व का संगीत है।ध्वनि वहाँ नहीं रुकती, क्योंकि वहाँ हवा बहुत हल्की है, और मौन इसलिए जम कर बैठ पाता है ।
कहते हैं पारो एयरपोर्ट दुनिया के सबसे कठिन एयरपोर्ट्स में एक है। पर हमारी नज़र में तो यह आपको एक मौन की घाटी मे उतारता, इसीलिए शायद सबसे कठिन होता है।
हम पारो एयरपोर्ट से पा-छू नदी के साथ-साथ थिम्पू की ओर रवाना हुए । भूटानी भाषा में छू यानी नदी, और पा, पारो की पहचान । एक नदी के भूगोल के गीत की भाँति इन दो पदों से पा-छू बना है ।
(3)
थिम्पू : शैलानियत और मौन का द्वंद्व
थिम्पू में दूसरे दिन हम पर्यटन धर्म निभाते हुए दर्शनीय स्थलों को देखने निकल पड़े। हमारे यहाँ धर्म में एक हमारा अभिप्रेत भी शामिल होता है ।
शैलानी का अभिप्रेत सिर्फ़ देखना, और देख कर अपनी स्मृतियों में कुछ नई पर्तों को जोड़ना होता है । इसके अतिरिक्त, विश्लेषण की तरह की चीज़ें तो हमारी अपनी ख़ब्त होती है। वह ख़ब्त जो शायद देखने को विशिष्ट बनाती है, उसे सिर्फ दृश्य नहीं रहने देती, बल्कि अर्थ की खोज का रूप देती है।
बहरहाल, हमने इस यात्रा के प्रस्थान की प्रस्तावना में ही मौन और शांति की तलाश को जोड़कर इसे शुद्ध पर्यटन-धर्म के विरुद्ध खड़ा करके खुद के लिए ही एक हंगामा तैयार कर लिया है । अब चिंता यह है कि कहीं यह हंगामा बहुत कुछ देखे गए को ओझल तो नहीं कर दे रहा है !
विचारधारा की विडंबना यही है कि वह अक्सर आदमी के लिए घोड़े का चश्मा बन जाती है, उसे बायें -दायें देखने ही नहीं देती ।
पर यह भी सच है कि दृश्य ही अदृश्य की दीवार बनता है । अनुभव की दुहाई सच से इंकार के लिए हर रोज दी जाती है ।
इसीलिए अपनी खब्तों की वजह से ही जो हमारे लिए दृष्टिगत नहीं होगा, उसकी कहानी हमसे छूटती जाएगी, यह तय है । पर हम इस वृत्तांत में अपनी इस क्षति से समझौता करते हुए ही बढ़ेंगे । अपनी खब्त का इतना सा हर्जाना भरना घाटे का सौदा नहीं है । हासिल बहुत बड़ा, अनदेखे को देखने का हो सकता है !
आइये, देखते हैं पर्यटन से स्वात्म-परामर्श की यह यात्रा हमें किन पड़ावों का दर्शन करा पाती है और क्या-क्या देख कर भी छूटता चला जाता है !
जैसे, थिम्पू का जू, वहाँ का राष्ट्रीय पशु टाकिन, राजमहल, पार्लियामेंट और उनके साथ ही मौजूद भिक्षुओं का आवास आदि कई ऐसी चीज़ें रहीं जो हमारे दृश्य की परिधि में आ कर भी हमारे सोच के बाहर ही रह गयी हैं ।
पर इस पहले दिन की यात्रा में दो जगहों ने जरूर हमें थोड़ा ठिठक कर सोचने को मजबूर किया ।
सबसे पहली जगह थी बुद्धा पॉइंट पर आसमान से बात करती की बुद्ध प्रतिमा और उसके विशालकाय अहाते में बुद्ध की मूर्ति की स्वर्णिम आभा का फैलाव। वहाँ सूरज की रोशनी ही सुनहरी हो गई लगती थी ।
हमने उस मूर्ति को देख लिखा :
जिस बुद्ध ने घने जंगल में
हिंस्र पशुओं के बीच
पीपल के गाछ तले
अपनी हड्डियों तक को सुखा दिया था
आज सोने की चमक में लिपटे
घाटी के सबसे शांत
शीतल और मनोरम स्थल पर
आसमान की ऊँचाई से
बस निहार रहे हैं !
सचमुच,
विचार के आख्यान
कितने शानदार होते हैं !
तर्क का ठोस आकार
धरती पर न समाए
उतना विशाल
भव्य होता है !
ऐसे ही
जगत के सारे रहस्यों के स्रोत
परा-जगत के
मिथक बना करते हैं ।
पर सरला की राय थी -
“बुद्ध की इतनी भव्य ,सोने जैसी चमकती अप्रतिम मूर्तियाँ !
लेकिन जो चमक रहा है वो सोना नहीं वो बुद्ध है ,
ज्ञान,करुणा, मानवता का सौम्य प्रकाश !”
जो भी हो, हमें यहीं लगता है कि थिम्पू के इस विशाल सुनहरे बुद्ध में शांति का नहीं, शांति के विस्थापन का दृश्य है। यहाँ ध्यान कोई प्रक्रिया नहीं, एक स्थापत्य है, मानो विचार ने अपने शरीर से बाहर निकल कर एक चमकती धातु में शरण ले ली है।
बौद्ध शून्यवाद के नज़रिये से यह स्थिरता शून्य की नहीं, स्पंद की जड़ता है जहाँ विचार का प्रवाह थम कर रूप बन जाता है। अर्थात्, जब ध्यान मूर्त हो जाता है, तो मौन सोने में मढ़ जाता है ! यहां बुद्ध वह नहीं जो देखता है, बल्कि वह है जो हमें अपने मौन से देखता हुआ दिखता है। यह देखने के बजाय देखे जाने के दृश्य की संरचना है।
इस दूसरे दिन की यात्रा में हमारे आकर्षण का दूसरा केंद्र रहा “सिम्पली भूटान” शीर्षक भूटानी जीवन का एक अनोखा संग्रहालय । कह सकते हैं, क्रमशः व्यतीत हो रहे जीवन की स्मृतियों का प्रदर्शन । बल्कि अभिनवगुप्त की भाषा का प्रयोग करें तो अस्मिता की शेषता के नाद से उसकी ही पुनर्रचना की असंभव कोशिश।
यह एक अजायबघर जैसा है। स्मृतियों का अजायबधर । जॉन बर्जर की museumised memory ।
इसके प्रवेश कक्ष में ही हमारी नज़र 1958 में नेहरू जी की भूटान यात्रा की ऐतिहासिक तस्वीर पर पड़ी । तब हमारे राष्ट्रीय नेताओं में पड़ौसियों पर प्रभुता के प्रदर्शन की लेश मात्र लालसा नहीं थी । यह तस्वीर दो स्वतंत्र राष्ट्रों की भौगोलिक सीमाओं से परे सांस्कृतिक नातेदारी की साक्षी है। भूटान के दिल में भ्रातृत्व और विश्वास की जो ज़मीन नेहरू जी ने तैयार की, वह हमें आज भी इस देश के सौम्य स्वभाव, उसके शांत और विनम्र स्वरूप में दिखाई देती है।
खैर, राजनीतिक सिद्धांतों के अपने प्रिय क्षेत्र और शग़ल में हमें भटकना नहीं है । वर्ना, बाकी सब किनारे लग जायेगा, हम अपने इस प्रिय जगत में रमते हुए उसी में मगन हो जायेंगे !
संग्रहालय के भीतर रसोई के बर्तनों, मकई और सुर्ख लाल मिर्च के वंदनवारों की दीवार, तांत्रिक प्रतीकों के चित्र और मूर्तियां । लकड़ी के खरल में कूटे जाते अनाज, छतों से झूलती मकई की बालियाँ, और मुस्कुराते भूटानी आमजन, जो परंपरा को दिखाने के साथ-साथ उसे जीने की कोशिश भी कर रहे हैं। यहाँ लोक-संस्कृति के तत्व अपनी पारंपरिक लय में स्थिर नहीं, बल्कि आधुनिकता के सम्मुख स्वयं को पुनः पहचानने की प्रक्रिया में दिखाई देते हैं ।
यह सब यही प्रश्न उठाते हैं कि क्या हम जो देख रहे हैं वह जीवन है या उसका प्रदर्शन ? यहाँ देखना किसी तात्कालिक अनुभव का नाम नहीं, बल्कि एक विशेष सामाजिक प्रक्रिया है, जिसके फ़ौरी और दूरगामी, बहुत से अर्थ हो सकते हैं। क्या भूटान यहाँ अपने को देखे जाने की माँग कर रहा है या धीमी गति से खोते हुए जीवन के बचे हुए उल्लास को सहेज रहा है !
बहरहाल, जो सहज रहा है उसे यहां सजाया गया है; जो घर के अंदर था, उसे बाहर दिखाया जा गया है। भूटान भी अपने लिए आधुनिक समय के कैमरे में जगह बनाने की वासना रखता है !
इसमें और एक चीज खास तौर पर खींचती है, वह है यहां फालिक प्रतीक का प्रदर्शन । इसे यहां फर्टिलिटी गॉड कहते हैं । कुछ हमारे शिव लिंग की तरह ही ।
शिव जो सृष्टि, स्थिति, संहार, अनुग्रह और तिरोभाव की पांच शक्तियों का प्रतीक है, उसी तरह भूटानी तंत्रवाद में यह फर्टिलिटी गॉड सृजन और संरक्षण का चिन्ह माना जाता है । शिश्न के प्रतीक चिह्नों की तस्वीरों, इसके नाना प्रकार के स्मृति चिह्नों, चाबी के छल्लों आदि से यहाँ का बाज़ार पटा हुआ है ।
कुछ लोग इसे भूटान की आत्मा का जटिल, पर जीवंत पक्ष कहते हैं, तो कुछ भक्ति और खिलंदड़ी का संगम भी। पर ये सवाल हमारे शिवलिंग पर क्यों कोई नहीं उठाता ?
दरअसल, यथार्थ का कला रूप जिस सहजता से पारमार्थिक अर्थों को अपने में समाहित कर लेता है, उसका प्राकृतिक रूप अक्सर आध्यात्मिकता का प्रहसन बन कर रह जाता है।
इसीलिए यहां जो दिखाई देता है, वह यदि लोक के प्रकृत पक्ष की विडंबना है, तो शायद खुल कर जीने का साहस भी ।
जो जितना प्रकट होता है, उसका मनुष्य के उल्लासोद्वेलन का स्रोत बनना उतना ही मुश्किल होता है । इसीलिए फालिक प्रतीकों की पूजा थोड़े से अल्पज्ञात समाजों तक सीमित है। पर भारत में तमाम दार्शनिक, पारमार्थिक अर्थों से भरे शिवलिंग के कला रूप की महत्ता कहीं से कम नहीं होती दिखती है । वह लकान की कामना की वस्तु, आब्जेक्ट पेतित ए बना हुआ है जो न कभी पूरी तरह मिलता है, न पूरी तरह खोता है, और जो हमारी देखने की इच्छा को बनाए रखता है।
कुल मिला कर, थिम्पू के दर्शनीय स्थलों में गुज़रा यह पहला दिन अनायास ही जैसे मौन से स्मृति तक के जीवन के दो छोर, आदि से अंत के अवशेषों तक फैला हुआ प्रतीत होता है ।
एक ओर बुद्धा पॉइंट का मौन, और दूसरी ओर सिम्पली भूटान का स्मृति-संवाद। पहले में ध्यान का स्थापत्य, जहाँ विचार ने ध्वनि से परे जाकर स्वयं को चमकीली धातु में रूपांतरित कर लिया है; दूसरे में स्मृति का जीवन, जहाँ परंपरा ने अपने को दृश्य में ढाल लिया था।
पर दोनों में एक गूँज समान रूप से सुनाई देती है, जीवन को बचाने की कामना की गूँज । बुद्धा पॉइंट का मौन उस तड़प का शाश्वत रूप है, जहाँ शांति के भीतर शून्य की ध्वनि है । और सिम्पली भूटान उसी शून्य को भरने की मानवीय कोशिश । यहां मौन को आकार दिया गया है, भक्ति को दृश्य, और स्मृति को जीवन, उल्लास के नाद को भाषा।
(4)
भूटान: पुनाखा वाया दोचुला पास
-अरुण माहेश्वरी
तीसरे दिन हम थिम्पू से भूटान की पुरानी राजधानी, भूटानी जीवन के अंतर की लय कहे जाने वाले पुनाखा की यात्रा पर गए ।
यह एक संगम स्थल है - फो छू (पुरुष नदी) और मो छू (स्त्री नदी) का संगम-स्थल जहां से पुना छू नदी की धारा शुरू होती है ।
फो छू की उफनती हुई कलकल धारा ऊपर से आती है और मो छू नीचे बहती हुई अपेक्षाकृत एक शांत और सौम्य नदी है । यहां के धान के खेतों से ही भूटान की उर्वर घाटियाँ का आरंभ होता है । यह क्षेत्र भूटान के पोषण का प्रतीक है ।
पुनाखा भूटान का मध्य बिंदु है जहाँ पहाड़ों की ऊँचाई और घाटियों की नमी, दोनों एक-दूसरे को पूरा करते हैं। यही वह संतुलन है, जो भूटानी जीवन में संतोष और संवेदना का सामंजस्य बैठाता है ।
बहरहाल पुनाखा के रास्ते में ऊँचाई पर दोचुला पास पड़ता है । पास अर्थात् दर्रा । दर्रा जो हर भारतीय को सबसे पहले खैबर की याद दिलाता है । वह रास्ता जिससे न जाने कितनी सभ्यताएँ आईं, कितना रक्तपात, कितना व्यापार, कितना विचारों का आदान-प्रदान हुआ और भारत के इतिहास में न जाने कितने नए पन्ने जुड़े ।
इतिहास में हर दर्रा संस्कृतियों के पारगमन का स्थल होता है । हर दर्रा एक पर्दे की तरह है जो एक दृश्य से दूसरे दृश्य के बीच झूलता है; जब चेतना के दो तल एक-दूसरे के लिए खुलते हैं। विचारों के संक्रमण का स्थल; विच्छेद और क्रम की एकता का प्रतीक ।
इसी ‘पास’ शब्द ने अनायास ही हमें मनोविश्लेषण में जॉक लकान के खास योगदान की याद दिला दी । विश्लेषण विश्लेषक और विश्लेष्य का निजी विषय नहीं होता । उन्होंने हर विश्लेषण को एक ‘pass’ का रूप दिया । विश्लेषण उपचारमूलक गंतव्य नहीं, एक अनुभव को आगे बढ़ाने का सेतु, एक चेतना से दूसरी चेतना में प्रवेश का पथ है। इसी तरह लकान ने psycho-analysis को हमारे तंत्र की भांति ग़ैर-दार्शनिक दर्शन की एक पूर्ण विकसित सर्वाधुनिक चिंतन पद्धति का रूप दिया ।
बहरहाल, ‘दोचुला पास’ कोई चित्त की जटिलता या विश्लेषण की ऊँचाइयों का विषय नहीं है । एक भूगोल से दूसरे भूगोल तक पारगमन का स्थल ज़रूर है ।
यहाँ 108 स्तूप बने हुए हैं जिन्हें द्रुक वांग्याल छोर्टन कहते हैं। ये सन् 2003 में उल्फा वालों के साथ भूटान में भारत सीमा पर हुए संघर्ष में शहीद भूटान के सैनिकों की स्मृति में निर्मित 108 स्तूप हैं।
बौद्ध तंत्र साधना में 108 एक प्रकार की संपूर्णता का प्रतीक है। मृतक की पूर्ण मुक्ति का प्रतीक । इच्छा, द्वेष और मोह के 36-36 प्रकार के तीन क्लेशों से मुक्ति का प्रतीक । जैसे कश्मीरी शैव दर्शन में विश्व के समस्त प्रपंच को परम शिव के उल्लास के कुल 36 शुद्ध , शुद्धाशुद्ध और अशुद्ध अध्वाओं में प्रसारित और संकुचित बताया गया है, वैसे ही यहाँ 36-36 प्रकार के क्लेशों का जिक्र करते हुए संसार के बंधनों की संख्या 108 गिनी गई है।
पर, जैसे हर दर्शन अपने लोक में कुछ नया, बल्कि विपरीत रूप ले लिया करता है, भूटानी जन-जीवन में भी संपूर्ण मुक्ति रे प्रतीक स्तूपों का अर्थ कुछ और ही हो गया है।
हमारे ड्राइवर ट्रिंग्स ने बताया कि मृत्यु के बाद तीन दिनों तक होने वाले क्रियाकर्म के अनुष्ठानों में ऐसे चार-चार उँगली के 108 स्तूपों की स्थापना अगले जन्म में 108 वर्षों की दीर्घायु की कामना के लिए की जाती है। जो बुद्ध पुनर्जन्म पर जरा भी यकीन नहीं करते थे, उनके अनुयायी लामा गण नए जन्म में लंबी उम्र की कामना के अनुष्ठान करवाते हैं ; मृतक के किसी पशु-पक्षी की योनि में जन्म न लेने की गारंटी भी देते हैं ! इन अनुष्ठानों में हजारों रुपये फूँक दिए जाते हैं !
बहरहाल, दोचुला पास पर हवा में झरते सूखे पत्ते, दूर तक फैला हिमालय, और 108 स्तूपों की श्वेत पंक्तियाँ, सब हमें एक ही बात कह रही थी कि मुक्ति न भविष्य की प्रतीक्षा है, न किसी अन्य जन्म की प्राप्ति; वह इसी क्षण के शांत स्पंद में निहित विसर्जन भर है ।
हम ऊपर पुनाखा के लंबे हैंगिंग ब्रिज के अनुभव का जिक्र करना भूल गए । दो पहाड़ों के बीच झूलते इस पुल पर कदम रखना ऐसा था कि जैसे जान बूझ कर पांव के नीचे की ठोस जमीन को खो देना । इस पर शुरू में हर कदम एक झटके की तरह था, पर शीघ्र ही मन का इस कंपन से ताल बैठ गया । फिर भी स्थिरता कभी नहीं आई । यह किसी विश्लेषण की प्रक्रिया में प्रवेश के क्षण जैसा था जिसमें ठहरना असंभव होता है; आगे बढ़ना अनिवार्यता ।
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रॉयल बोटैनिकल गार्डन : वृक्षों का मौन लोक
पुनाखा से थिम्पू वापसी के रास्ते में एक और अविस्मरणीय पड़ाव आया रॉयल बोटैनिकल गार्डन का।
वृक्षों और वनस्पतियों का यह एक ऐसा संसार है जहाँ हवा मनुष्यों से नहीं, केवल पत्तों से बात करती है।
यहाँ की खामोशी में रिक्तता नहीं, पत्तों की सरसराहट से बुना हुआ एक जीवित संगीत है।हर शाख पर जैसे एक गहरी साँस टंगी थी । लगता था जैसे प्रकृति स्वयं ध्यानमग्न हो।
बोटेनिकल गार्डन की निस्तब्धता में चलते हुए लग रहा था जैसे हम मौन में नहीं, मौन हमारे भीतर उतर रहा है। अपने सहमे कदमों की आहट भी अपराध-सी लग रही थी । लग रहा था कि हम अनायास निजता के किसी निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं ।
यहाँ आसमान तक फैले वृक्षों की अपनी ऐसी घाटियाँ हैं कि उनके साये में बोलने की इच्छा भी काँप जाती है। शब्द पत्तों की भाषा में बदलने को व्याकुल हो उठते हैं ।
वैसे तो यह पिकनिक की भी एक जगह है, पर भूटान की छोटी सी आबादी ने पिकनिक के हुड़दंग से शायद इसे कुछ हद तक बचा रखा है।
6
बारिश में बोलते मौन पर क्षण भर
भूटान में अंतिम तीन दिन हमने पारो में बिताए। तीनों दिन लगातार बारिश होती रही । पर यह किसी धूसर आसमान की बारिश नहीं थी। बरसता हुआ एक स्वच्छ नीला आसमान था, सफेद झक तैरते हुए बादल और उनके निर्मल और पारदर्शी तल से झांकते पहाड़ । धूसर आसमान तो शहरों की धूल से बनता है । यहाँ की बारिश में धूल नहीं, एक उजली ताजगी थी, जैसे प्रकृति अपनी आत्मा को धोकर चमका रही हो।
हम इसी में छाता ताने इस दुकान, उस दुकान, इस कैफ़े, उस कैफे में भटकते रहे। अभिभूत होकर वहाँ के ऐतिहासिक अजायबघर को देखा, पर पर्यटकों के आकर्षण के कई स्थल छूट भी गए। सबसे अधिक खेद टाइगर नेस्ट, अर्थात् उस ऊंचाई तक न जा पाने का रहा जहां से बर्फीली पहाड़ियों की गहन शृंखलाएं मानो शून्य में प्रवेश करती दिखाई देती है। पर वहाँ पहुँचने के लिए घंटे भर की कठिन चढ़ाई थी, और हम उस चढ़ाई के लिए मन से तैयार भी नहीं थे।
यही वह क्षण था जब हमने महसूस किया कि हर कोई हर चीज़ नहीं देख सकता, पर जो कुछ अनदेखा रह जाता है, वह अस्तित्व से मिट नहीं जाता। ऐलेन बाद्यू की भाषा का इस्तेमाल करें तो इस संसार के सत्य सर्वकालिक ठोस अपवादों (universal concrete exceptions) के रूप में होते हैं । इसीलिए अनदेखा रह जाना भी होने का एक रूप है।
बारिश में नहाती प्रकृति पारो की गलियों को एक नई ताजगी दे रही थी। दुकानें रंगीन, पर सजग थीं । छोटे-छोटे बुद्ध, प्रार्थना चक्र, रेशमी थंका चित्र, और बौद्ध नीति-नैतिकताओं के मिथकीय कला-रूप जिनमें करुणा, जन्म-पुनर्जन्म और शांति के विचार दृश्य के साथ ही वस्तु बन जाते हैं। ये दुकानें सिर्फ व्यापारिक स्थल नहीं लगती, कला और विश्वास के संग्रहालय भी लगती है । हर वस्तु किसी कथानक का प्रतीक, और हर रंग किसी नैतिक उपदेश का रूपक था। और पारंपरिक मिथकीय आकृतियाँ बौद्ध मोनेस्ट्रीज से उपजी अजीबोगरीब रूप-कथाओँ से घिरी विशेष जीवन शैली का प्रदर्शन लगती है । इसे ही कहते हैं जीवन में दर्शन और संस्कृति की सत्तर्क उपस्थिति (Logos) का आख्यानों के जरिए मिथकों (Mythos) में रूपांतरण । तर्क और भाषा का संसार विश्वास, कल्पना और स्वप्निल प्रतीकों में बदल जाता है ।
पता नहीं क्यों, हमें भूटान या शायद बौद्ध संस्कृति के बाजार की ये कलाकृतियाँ जीवन में उस संक्रमण की सजीव मिसाल लगते हैं, जो अभिनवगुप्त की भाषा में भाषा की सद्विकल्पता के परे प्रमाता को दुर्विकल्पता के अँधेरे में डालते हैं, जहां अर्थ गतिशील नहीं, स्थिर और निर्विकल्प हो जाते हैं । सब कुछ कहीं अटक सा गया जान पड़ता है ।
दरअसल, इस चाक्षुष मिथकीयता की अपनी विडंबना है । यह जितनी सुंदर लगती है उतनी ही दुर्बोध भी होती है। यह अनुभव नहीं, उसकी प्रतिकृति रह जाता है। और जब हम इस सारे विषय को आलोचकीय नजर से देखते हैं तो लगता है कि शायद यही ‘सत्तर्कता का अभाव’ भूटान के जीवन में बहुत गहराई तक पसरे मौन को भी एक हद तक परिभाषित करता है । एक ऐसा मौन जो आलोचना से कोसों दूर समर्पण से पैदा होता है ! यहाँ सिर्फ प्रार्थना-ध्वज लहराते हैं, पर कहीं से कोई प्रश्न हवा में नहीं उठता । क्या यही है राजशाही के सामने नत-मस्तक जनतंत्र का मूल मंत्र !
जो भी हो, बरसात से धुली गलियाँ, लकड़ी के घरों की खिड़कियों से झाँकते लाल और पीले प्रार्थना झंडे, खास भुटानी, बल्कि सरकारी पोशाकों (घो और किरा) में चलते फिरते लोग, सब कुछ किसी ध्यानस्थ, पोस्टकार्ड-चित्र की तरह सौम्य, सुंदर और स्थिर लग रहा था।
बहरहाल, हम भूटान के जीवन में गहराई तक पसरे मौन की चर्चा कर रहे थे । कोई भी मौन तो पूरी तरह से रिक्त नहीं होता। उसमें निश्चित तौर पर भीतर, बहुत गहरे में ही सही, कुछ गूंजता जरूर है, अन्यथा भूटान का मौन हमें इस कदर बेहद लुभाता नहीं ! यह सुख और संतोष में निहित स्वातंत्र्य है; आधुनिक जीवन की अतृप्त लालसा से जुड़े उल्लासोद्वेलन (जुएसॉंस) के स्वातंत्र्य के भैरव भाव के बजाय पूर्व-आधुनिक संपन्न जीवन का भरिततनु स्वातंत्रय्-भाव ! जैसे बारिश की हर बूँद स्वच्छ, नीले आसमान से सीधे धरती की गोद में गिरते हुए अपने होने के अर्थ को पा ले रही हो !
भूटान के बाज़ारों में भटकते हुए हमें स्थानीय जीवन को थोड़ा जानने का अवसर मिला। एक बात स्पष्ट थी कि भूटान का समाज शिक्षा और स्वास्थ्य की सार्वजनिक सुविधाओं से संपन्न, शरीर और मस्तिष्क दोनों से एक स्वस्थ समाज है। पढ़-लिख कर यहां के लोग बाहर जाते हैं, काम करते और पैसे कमाते हैं, और फिर लौट आते हैं, अपने देश के मौन की ओर । यह लौटना किसी कर्तव्य के चलते नहीं, स्वच्छंदता और स्वातंत्र्य की स्वात्म-चेतना के चलते होता है।
हमने थिम्पू की सड़कों पर अनेक कराओके (karaoke) बार के साइनबोर्ड देखें । पर उनके अंदर के शोर और उद्दाम भाव को वहां की सड़कों पर कहीं नहीं देखा । वहां खूब शराब पी जाती है, संभवतः ठंडे प्रदेश के कारण भी, पर कहीं सामाजिक जीवन में उसका असंयम नहीं दिखाई दिया। उल्टे थिम्पू की ‘सिम्पली भूटान’ प्रदर्शनी में आगंतुकों का स्वागत ही स्थानीय व्हाइट वाईन से करते पाया ।
इसीलिए बार-बार यही कहने की इच्छा करती है कि भूटान का मौन सिर्फ अनुशासन का नहीं, आत्म-विश्वास का मौन है, जिसमें एक विकसित भाषा खामोशी को अपना लिया करती है ।
दरअसल, मौन और मौन में भी काफी फर्क होता है । कमज़ोर की चुप्पी उसके सुरक्षा का कवच होती है, जबकि मज़बूत की चुप्पी अन्य से स्वतंत्रता का प्रकाश। भूटान का मौन शायद इस दूसरी श्रेणी में आता है । यह अपनी स्वायत्तता से उत्पन्न चुप्पी है, जो अन्य की स्वीकृति की मोहताज नहीं।
इसमें कुछ अंश अगर हमारे कवि विनोद कुमार शुक्ल के आत्म- साक्षात्कार की चुप्पी का है तो एक बड़ा अंश हमारे प्रिय कवि शमशेर बहादुर सिंह के सधे हुए मुखर मौन का भी है । विनोद कुमार शुक्ल जैसे कहने की आवश्यकता से ही मुक्त होकर कहते हैं, विचार के भीतर के मौन को सुनते दिखाई देते हैं, वहीं शमशेर कहने को ज़रूरी मानते अनोखे सौन्दर्य का रचाव करते हुए ज़ुबान खोलते थे । शमशेर का मौन कभी स्थायी नहीं था, वह भीतर के सघन चिंतन की तपिश का परिणाम था । वह प्रतीक्षा का मौन मौक़े पर संगीत की तरह फूटता था ।
उसी तरह भूटान के लोग अपने मौन के भीतर जीते हैं, गाते और नाचते है, अपनी प्रकृति की रक्षा करते हुए खुद की प्रकृति को रचते हैं। सचमुच, मौन केवल न बोलना नहीं, स्वयं को इस तरह साधते रहना है कि जीवन के सत्य के सामने बोलने की कलाबाज़ियों का कोई मूल्य न बचे; बोलने की आवश्यकता ही न रह जाए।
भूटान के प्राकृतिक सौंदर्य, आम जीवन की सरलता और सौम्यता को हमने अपनी इस यात्रा में स्वातंत्र्यपूर्ण मौन के भूगोल में ढलते देखा । ख़ुशियों का देश कहे जा रहे इस क्षेत्र से हम तन और मन, दोनों को तरोताज़ा कर वापस लौटे हैं।
1 नवंबर 2025