एक ऐसी टिप्पणी, बल्कि विखंडन, जिसे फेसबुक में देकर सार्वजनिक किया जाए अथवा नहीं, इसे सोचने में सवा महीने से ज्यादा समय लग गया :
कुंठित मन का मतिभ्रम
देखिये 8 दिसंबर, 2013, रविवार के जनसत्ता में ‘मानवाधिकार’ स्तंभ के अंतर्गत शंभुनाथ का लेख - ‘जीने का अधिकार’।
विचारों की यह डगर शुरू होती है एक सामान्य उक्ति से - ‘‘मानव सभ्यता का हजारों साल से विकास हो रहा है।’’ दूसरे वाक्य में ही ‘सभ्यता का विकास’ पश्चिमी जीवन शैली, तकनीक से होते हुए सिर्फ ‘विकास’ बन जाता है। और प्रश्न आता है - ‘‘विकास और मानवाधिकार-हनन, दोनों का ग्राफ एकसाथ ऊपर की ओर कैसे है?’’ अर्थात, प्रश्न सभ्यता के बरक्स मानवाधिकार का नहीं, पश्चिमी जीवन शैली और विकास के बरक्स मानवाधिकार का है। लेकिन, इसके बाद का वाक्य है - ‘‘भारत में प्रत्यक्ष से अधिक परोक्ष रूप से मानव अधिकारों का हनन होता है, जो वर्तमान सभ्यता पर एक प्रश्नचिन्ह है।’’ अर्थात, सभ्यता पर प्रश्न लगता है, मानवाधिकार के हनन के परोक्ष रूप से। ‘प्रत्यक्ष हनन’ तो पश्चिमी जीवनशैली, तकनीक अर्थात विकास से जुड़ा विषय है!
बहरहाल, नया पैरा कुछ इसप्रकार शुरू होता है - ‘‘ आज जितना असुरक्षित और अपमानों से भरा जीवन पहले कभी नहीं था। आज से पहले अप्राकृतिक मौतें इतने बड़े पैमाने पर नहीं होती थी।’’
महामारियों, महायुद्धों तथा इनकी त्रासदियों से भरे मानवता के अतीत में आज जितनी अप्राकृतिक मौतें पहले कभी नहीं हुई!
सचमुच, अब तक के अजाने एक बड़े सच का उन्मोचन!
लेकिन अगले वाक्य से ही पता चल जाता है कि हमारे बुद्धिजीवी मानवता की नहीं, ‘परोक्ष मानवाधिकार-हनन’ वाली भारत भूमि की बात कर रहे हैं। उनका तात्पर्य है - पता नहीं कब ‘मुजफ्फरनगर’ हो जाए, ‘उत्तराखंड’ हो जाए।
अगला पैरा है राजनीति और हिंसा पर। राजनीति पर हिंसा हावी है, इसलिये शांत और सीधे-सादे आदमी की वहां जगह नहीं। वहां तो ‘महत्वाकांक्षी बुद्धिजीवी’ सर झुकाये खड़े रहते हैं। इसपर हमारे विद्वान बुद्धिजीवी पूछते हैं - क्या कहीं भी मनुष्य का आत्म-सम्मान सुरक्षित है?
‘आत्म सम्मान’ का जिक्र आते ही श्रीमान को गोवा की याद आगयी, जहां हाल ही में नारी के आत्म-सम्मान की बलि हुई थी।(तरुण तेजपाल कांड) और तत्काल इस नतीजे पर पंहुच जाते हैं - ‘यदि गोवा में ‘थिंक फेस्टीवल’ होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि थिंकर्स कैसे होगे और क्या घटेगा।’ वैसे पहले भी वे एक टिप्पणी में ऐसे ‘ थिंकर्स ‘ को ‘सांस्कृतिक प्रदूषण के चूहे’ घोषित कर चुके हैं।
बहरहाल, दिल्ली में तो देश में सबसे ज्यादा बलात्कार होते हैं। वहां पर होने वाली गोष्ठियों-सेमिनारों में भाग लेने वाले लोग कैसे होंगे, श्रीमान् के तर्क से कोई भी इसे अच्छी तरह समझ सकता है !
गोवा और उससे जुड़ा स्त्री प्रसंग आया और इसके साथ ही श्रीमानजी का आज के युग के बारे में एक और अभिनव मूल्य निर्णय -
‘‘वैश्वीकरण के युग में विकास अधिक से अधिक निर्बुद्धिपरकता बढ़ा रहा है, जैसे तर्क का अकाल है।’’ और फिर आता है ऐसी सभी ‘युक्तियों’ से निकला हुआ उनका आज के समय के बारे में आप्त वाक्य - ‘‘इस समय में वही छाया हुआ है, जो युक्तिसंगत नहीं है। ’’
इस ‘युक्ति-श्रंखला’ में उनकी आगे की कड़ी है, बाकी दुनिया से अलग एशिया के बारे में - ‘‘एशिया में मानवाधिकार सामुदायिक कट्टरवाद, सेना और बाजार के नियंत्रण में है। ‘‘ लेकिन एशिया से भारत भिन्न है, क्योंकि यहां के ‘‘लोगों में शांति, आत्मसम्मान और सुख के साथ जीने की भूख हमेशा रही है।’’ इसे वे दुनिया में भारत की खास विशेषता बताते हैं।
कहना न होगा, बाकी दुनिया के लोगों में तो अशांति, अपमान और दुख में जीने की लालसा होती है !
आगे हमारे चिंतक जी पश्चिम के विचारकों द्वारा भारत में स्वेच्छाचारी शासकों की चर्चा के प्रसंग में सवाल दागते हैं कि तब क्या ‘‘मानवाधिकार एक पश्चिमी खोज है ?’’ और बताते हैं, नहीं यह कत्तई पश्चिम की खोज नहीं है। इसका प्रमाण -
महाभारत में भारद्वाज भृगु ने जो कह दिया है - ‘‘हम सभी मनुष्यों में इच्छा, क्रोध, भय, दुख, चिंता, भूख और श्रम भावना है, इन मामलों में वर्णभेद कहां है?’’ इसके अलावा, हमारे यहां राजा के बारे में जो कहा गया था कि वह अपने धर्म का पालन करें। यहां ‘‘धर्म का अर्थ तब आज की तरह दैवी अंधास्था, कर्मकांड और दिखावे से भरा भजन-प्रवचन न था।’’
अब कहिये, और क्या प्रमाण चाहिए !
श्रीमान के अनुसार ‘धर्म, राजनीति, संस्कृति, बाजार और जीवन के अर्थ’ सबको भ्रष्ट तो किया है ‘केंद्रवादी सत्ताओं’ ने। उन्होंने ‘उदात्त दृष्टि’ खो दी, और सारी सृष्टि भ्रष्ट होगयी ! दुनिया दृष्टि पर ही तो निर्भर है! और लोकतंत्र !
वह कहां है? होता तो फिर ‘राष्ट्र-नागरिक, विकास-आदिवासी’ आदि-आदि के द्वैत क्यों? लोकतंत्र को तो अद्वैत होना चाहिए ! लोकतंत्र के द्वैत को मूर्त करते हुए महोदय कहते हैं : ‘‘ ऊपर से नीचे तक राष्ट्र लूट की बहुमंजिला इमारत है।‘‘
लूट की ‘बहुमंजिला इमारत’ ही क्यों, एक मंजिला बंगला क्यों नहीं? भारतीय राष्ट्र जिस लुटियन के दिल्ली से काम करता है, वह तो बंगलों का इलाका है!
इसके बाद, एक और महत्वपूर्ण सूत्र - मानवाधिकार की लड़ाई का प्रस्थान बिंदु है सत्तावानों के कत्र्तव्य का पतन। शास्त्रों में राजा दैविक सत्ता का, अर्थात अद्वैत सत्ता का अधिकारी माना गया है। वह ‘राजधर्म’ का पालन करे, कभी कुछ बुरा नहीं होगा।
सारी
समस्या की जड़ है राजा का न होना ! धर्म तो राजा का होता है, द्वैतों से भरे हुए लोकतंत्र का थोड़े ही होता है! इसीलिये मानवाधिकार का सारा पचड़ा भी खड़ा हो जाता है !
इसीप्रकार की उलटबांसियों के साथ हमारे विद्वान आलोचक टिप्पणी के अंत में पहुंच जाते हैं। जाते-जाते पश्चिम को और एक हाथ लगाने के जोश में मलाला युसुफजई का जिक्र करते हैं और कहते है कि चूंकि ओबामा और रानी एलिजाबेथ ने उसकी तारीफ कर दी, इसलिये मलाला भी संदेह के घेरे में आजाती है। क्योंकि, तब सवाल आगया कि मानवाधिकार क्या पश्चिमी अभियान है, जिसने स्वतंत्रता और जनतंत्र के नाम पर ‘ताकत के संक्रामक बिंब’ बनाये हैं। इसके विपरीत भारत को देखिये - हमारे विद्वान बुद्धिजीवी के मुताबिक - ‘सामाजिक मंगल’ और ‘शांतिपूर्ण सहअस्तित्व’ की तीर्थभूमि। इसने कभी किसी पर हमला नहीं किया, बनिस्बत दूसरे आकर यहां बसते चले गये! यह यहां की ‘विशिष्ट पहचान’ है। इसलिये मानवाधिकार के मामले में दुनिया को भारत से सीखना चाहिए!
एक ओर अमेरिका कहता है कि वह सभ्यता का विलयन-पात्र है; उसने आज तक कोई उपनिवेश नहीं बनाया है। दूसरी ओर हिंदी का बुद्धिजीवी कहता है यह भारत की ही विशिष्टता है - सबको अपनाता है, कभी किसी पर हमला नहीं करता।
और दुनिया के बाकी देश ! हमेशा युद्ध में मत्त, ऐसे हैं जिनमें कभी कोई बाहरी आदमी बस ही नहीं पाया !
श्रीमान की टिप्पणी का अंतिम वाक्य है - ‘‘मानव कई बार एक छद्म वेश है, पर व्यक्ति की महान निर्माणात्मक अंत:शक्ति दरअसल मानव होकर जीने में ही छिपी है।’’
कुल जमा यह कि मानवाधिकार, मानवविकास और पर्यावरण आदि तमाम प्रश्नों पर सारी दुनिया में जिस प्रकार के ठोस अध्ययन हो रहे हैं, विभिन्न स्तरों पर जिसप्रकार के आंदोलन और अभियान चलाये जा रहे है तथा नीतियों के प्रश्नों पर पुनर्विचार किया जा रहा है, वे सब हमारे हिंदी के बुद्धिजीवी के लिये शायद कोरी बकवास है।
दरअसल, यह पूरा प्रलाप पश्चिम, गोवा, स्त्री, सत्ता, बहुमंजिली इमारत आदि-आदि को लेकर एक कुंठित मन का मतिभ्रम है और हिंदी पत्रकारिता की बलिहारी है कि ऐसे बिना टांग-पूछ के प्रलाप को ‘मानवाधिकार’ संबंधी स्तंभ के तहत प्रकाशित किया जाता है।
मित्रों की सुविधा के लिये यहां जनसत्ता के 8 दिसंबर 2013, रविवार के अंक का लिंक दिया जा रहा है :
http://epaper.jansatta.com/195615/Jansatta.com/08122013#page/7/1
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