प्रसंग
: नामवर सिंह और नेल्सन मंडेला
नेल्सन मंडेला और नामवर सिंह के बारे में जगदीश्वर जी की टिप्पणी बेहद दिलचस्प है। इसको उड़ाने के लिये तो इतना भर कह देना काफी होगा कि ‘कहां राजा भोज और कहां भोजवा तेली’ जैसा कि कइयों ने किया भी है।
लेकिन हमारा सवाल है कि जगदीश्वरजी ऐसा क्यों कर रहे हैं? उनके लेख से ही साफ है कि नामवरजी से व्यक्तिगत तौर पर उनका कोई लेना-देना नहीं है, सिवाय इसके कि वे कभी जगदीश्वरजी के गुरू रहे हैं। तो क्या इसे ‘गुरू दक्षिणा’ का मामला मान कर छोड़ दिया जाए, जिसकी भारत में तो एक श्रेष्ठ धनुर्धर द्वारा अपना अंगूठा तक दे देने की परंपरा रही है।
जहां तक मैं जगदीश्वरजी को जानता हूं, टीचर्स डे के दिन वे गुरुओं के प्रति श्रद्धा-भाव की जोरदार वकालत जरूर करते हैं, लेकिन ऐसी ‘गुरू-भक्ति’ के कत्तई कायल नहीं है जिसमें अंध-श्रद्धा के अतिरिक्त और कुछ न हो। नामवर सिंह सहित तमाम ‘गुरुओं’ को वे अपनी तीखी आलोचनात्मक कलम से अक्सर बींधते रहे हैं।
फिर आखिर क्यों, नामवर सिंह और नेल्सन मंडेल!
मुझे यह बात कुछ ज्यादा गंभीर सोच के लिये विवश कर रही है। इससे उन सूरमाओं के भाव से कत्तई नहीं निपटा जा सकता जो हर युग और काल में किसी भी मसले को एक ही तलवार की नोक से तय कर देने पर यकीन रखते हैं।
दरअसल, सन् 1789 (फ्रांसीसी क्रांति) से लेकर 1989 (समाजवाद के पराभव) के इन 200 सालों की दुनिया आज पूरी तरह बदल सी गयी है। जगदीश्वर जी मंडेला और नामवरजी के संदर्भ में जिस मानवाधिकार की बात को बार-बार उठा रहे हैं, वे आज के काल में ‘मानवाधिकारवाद’ की सचाई से अच्छी तरह वाकिफ है। ‘समाजवाद’ का स्थानापन्न, आज के युग का नया ‘धर्म’।
कहते हैं कि उत्पत्ति और अस्तित्व की परिस्थितियों के बारे में विभ्रम का शिकार कोई भी मत कभी-कभी सहसा अपने को किसी ऐसे गंतव्य तक पहुंच गया पाता है जो उसके प्रस्थान बिंदु से बिल्कुल विपरीत होता है। विश्व समाजवाद के बारे में भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ है। लेनिन को अपने देश में उसके अस्तित्व की परिस्थितियों का पूरा अहसास था। उसने NEP को अपनाया, शांति और बिजली को समाजवाद कहा, अमेरिका में उत्पादन की टेलरवादी पद्धति को अपनाने पर जोर दिया आदि। स्तालिन ने इन कदमों की उपलब्धियों और खास तौर पर द्वितीय विश्वयुद्ध में विजय को ‘समाजवाद’ द्वारा मानव-सभ्यता के सर्वोच्च शिखर पर झंडा गाड़ देने और अब उसे अपराजेय, अनुलंघनीय सच मान लिया, जो कत्तई सच नहीं था। स्तालिन की परंपरा के निकृष्टतम उदाहरण चीन की सांस्कृतिक क्रांति, कम्पूचिया मे पोल पौट का शासन और उत्तर कोरिया में आज भी जारी किम इल सुंग की जुचे विचारधारा के शासन में दिखाई दे रहे हैं। अस्तित्व की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में विभ्रमों पर टिके विचारों की इन परिणतियों को देख कर मार्क्स का यह कथन याद आता है कि ‘‘ ‘इतिहास का खेल’ इसीप्रकार निर्ममतापूर्वक भूल सुधार किया करता है।’’
बहरहाल, मानवाधिकार के पूरे प्रसंग को कुछ इसी पृष्ठभूमि में देखने की जरूरत है। इसने निश्चित तौर पर आज की दुनिया के समग्र राजनीतिक विमर्श को गहराई से प्रभावित किया है। कहना न होगा, समाजवाद और मानवाधिकार के विमर्शों की अन्योन्यक्रिया के बीच से ही उस नव-वाम का उदय हो रहा है, जो आज पूरे लातिन अमेरिका का सबसे बड़ा राजनीतिक यथार्थ है। अपने राष्ट्र के विकास की, अस्तित्व की ठोस परिस्थितियों के प्रति जागरूक,
‘उच्चाकांक्षाओं’ के भ्रमों से मुक्त अधिक मानवीय समाज के निर्माण की दिशा में बढ़ने का सच। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेजों में भी कुछ-कुछ इसी यथार्थबोध की अनुगूंज सुनाई देती है।
नेल्सन मंडेला इसी
reconciliation (संगति) का एक क्रांतिकारी नाम है। निश्चित तौर पर वे हर स्तर के विमर्श के नये विन्यास के लिये किसी को भी प्रेरित कर सकते हैं। फिर वह कोई साहित्यिक विमर्श ही क्यों न हो।
नामवर जी के संदर्भ में मंडेला को खींचने के जगदीश्वरजी के आशय को क्या कुछ इस प्रकार नहीं समझा जा सकता है ?
अंत में, फिर एक बार कहूंगा -
डान क्विगजोटिक सूरमा वाले भाव को त्याग कर हमारे समय के नये विमर्श के संधान और विन्यास की जरूरत है। मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ डान क्विगजोट बहुत पहले ही इस गलत समझ का जुर्माना भर चुका है कि मध्ययुग के सूरमा सरदारों जैसा आचरण समाज के सभी आर्थिक रूपों से मेल खा सकता है।’’ (पूंजी, खंड -1)
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