'आप’ से आज ही अपनी सारी नीतियों के खुलासे की मांग ग्राम्शी की शब्दावली में ‘आदिम बचकानापन’ (Primitive Inafntilism) है
मार्क्सवादी दर्शन में पदार्थ और चेतना के संबंधों की तर्ज पर ही सामाजिक आधार (अर्थ-व्यवस्था) और अधिरचना (सांस्कृतिक-बौद्धिक जीवन से जुड़े तमाम प्रसंग) की पदावली में काफी विमर्श हुआ है। चूंकि मार्क्स ने मुख्यत: राजनीतिक अर्थशास्त्र पर काम किया, साहित्य, संस्कृति और विचारधारा की तरह के विषयों पर सुसंगत रूप में काम करने की उनकी तमन्ना तमन्ना ही रह गयी, इसीलिये शुरू से मार्क्सवाद को लेकर कुछ इस प्रकार का भ्रम बना रहा मानो इस चिंतन प्रणाली में आर्थिक प्रश्न ही इतिहास की गति को तय करने के मामले में सर्वप्रमुख हैं और मनुष्य और समाज के आत्मिक जीवन, उनके इतिहास और संस्कृति से जुड़े मुद्दे बिल्कुल गौण और महत्वहीन। मार्क्सवाद के बारे में इस यांत्रिक समझ के संकट को समझ कर मार्क्स के बाद के शुरू के दिनों में ही एंगेल्स ने इस बात को बल देकर यह स्पष्ट किया था कि आधार और अधिरचना के बीच जटिल द्वंद्वात्मक संबंध होते है। इसमें आधार को प्रमुख मानना और अधिरचना को आधार की महज उत्पत्ति बताना कोरी यांत्रिकता है।
इसके बावजूद आज तक मार्क्सवादी हलकों में सिद्धांतकारों की ऐसी एक पूरी फौज देखी जा सकती है जो राजनीति की हर छोटी से छोटी घटना के पीछे उसके वर्गीय उत्स की तलाश में अजीब प्रकार की भौंडी व्याख्याओं का कूड़ा इकट्ठा करते हैं। वे हर सामाजिक घटनाक्रम के पीछे आर्थिक-स्वार्थों की तलाश में ऐसी अंतर्विरोधी बातें एक सुर में कहते पाए जाते हैं मानो राजनीति का संचालन हमेशा निश्चित आर्थिक हितों को साधने के लिये प्रभु वर्गों के इशारों पर ही किया जाता है। किसी भी सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया की ऐसी सरलीकृत समझ इन घोंघा बसंतों को राजनीतिक परिदृश्य की समझ के मामले में बिल्कुल मूर्ख साबित कर देती है - वे राजनीति के क्षेत्र के कुछ दुर्लभ और आत्मलीन प्राणी नजर आने लगते हैं।
उल्लेखनीय है कि ग्राम्शी का अपने काल में ऐसे वर्ग-स्रोत-संधानी पंडितों से पाला पड़ा था और उन्हीं से मार्क्सवाद को मुक्त रखने के लिये उन्होंने कहा था : ‘‘ इस दावे को कि राजनीति और विचारधारा में हर फरबदल को आधार की फौरी अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत और व्याख्यायित किया जा सकता है, आदिम बचकानापन कहा जाना चाहिए।’’
गाम्शी अपनी ‘प्रिजन नोटबुक’ के ‘Hegemny, Relations of Force, Historical Bloc’ अध्याय में उपरोक्त कथन के संदर्भ में ही बताते हैं कि किसी भी समय में अर्थ-व्यवस्था की कोई स्थिर तस्वीर (फोटाग्राफिक तस्वीर) पेश करना कठिन है। इसमें नाना प्रकार की प्रवृत्तियां सक्रिय रहती है, लेकिन जरूरी नहीं कि प्रगट रूप में वे सभी दिखाई दें। और, राजनीति किसी भी समय में इन प्रगट और अप्रगट प्रवृत्तियों के अंश को ही प्रतिबिम्बित करती है।
इसी आधार पर ग्राम्शी राजनीति में प्रभुत्वशाली वर्गों के नेतृत्व की भूमिका और उनकी राजनीतिक भूलों और गलतियों की भूमिका को भी समान महत्व देते हैं। कोई भी राजनीतिक संकट अनिवार्यत: अर्थ-व्यवस्था के संकट का परिणाम नहीं होता। परिस्थिति के आकलन में नेता का गलत या सही होना इसीलिये एक जटिल लेकिन तात्पर्यपूर्ण मामला है।
ग्राम्शी यह भी बताते हैं कि बहुत सारी राजनीतिक कार्रवाइयां किसी भी संगठन के अपने चरित्र की अंदुरूनी जरूरतों के चलते भी की जाती है। इस मामले में उन्होंने कैथोलिक चर्च के इतिहास का जिक्र किया है। वे बताते हैं कि चर्च के अन्दर हर विचारधारात्मक संघर्ष के पीछे कोई यदि अर्थनीतिगत कारण ढूंढने लगे तो वह चक्कर में पड़ जायेगा। सचाई यही है कि इनमें से अधिकांश बहसें सीमित और नितांत सांगठनिक जरूरतों के लिये चलाई गयी है। मसलन्, रोम और बाइजैंतियम के बीच ‘पवित्र आत्मा’ के जुलूस के बारे में चली बहस कि पूर्वी यूरोप में यह सिर्फ पिता के यहां से चलती है और पश्चिम में पिता और बेटे के यहां से। ग्राम्शी कहते हैं - इसमें किसी आर्थिक बात को खोजना हास्यास्पद है।
आज जो लोग ‘आप’ के वर्गीय चरित्र की खोज में सर गड़ाये हुए हैं, इसके पीछे शासक वर्ग की ‘चालाकियों’ के संधान में हैं, ऐसे ‘सिद्धांत-वीरों’ के लिये तो सचमुच राजनीति हमेशा एक टेढ़ी खीर ही बनी रहेगी। वे न अर्थ-व्यवस्था के गतिशील रूप का और न ही राजनीतिक परिस्थितियों की गतिशीलता का आकलन कर सकते हैं। ‘आप’ जैसे एक उदीयमान आंदोलन से, जिसने संसदीय चुनावों को देखते हुए भले ही आज एक पार्टी का रूप ले लिया हो, अभी और तत्काल अपनी नीतियों के पूरे खाके को साफ रूप में रखने की मांग करना वही है जिसे ग्राम्शी ने ‘आदिम बचकानेपन’ की संज्ञा दी थी।
ग्राम्शी की शब्दावली में ही कहे तो जरूरत इस बात की है कि ‘‘किसी भी जन-उभार में एक क्रांतिकारी पार्टी की भूमिका समाज के दूसरे तबकों और सर्वहारा वर्ग के बची एक प्रभुत्वशाली गठबंधन कायम करने की होनी चाहिए और उसे निश्चित तौर पर ‘बौद्धिक और नैतिक जागरण’ की प्रक्रिया को एक रूप देने में सहायक की भूमिका अदा करनी चाहिए। तभी कोई पार्टी अपने को मात्र गिने-चुने काडरों का संगठन बनने से, नौकरशाही उपकरण में अधोपतन
(degenerate) से खुद को बचा सकती है।’’
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