अरुण माहेश्वरी
राजनीतिक पार्टी व्यक्ति नहीं, व्यक्तियों का समूह है। उन लोगों का समूह जो एक मान्य विचारधारा के अनुसार पूरे समाज को ढालने के लिये एकत्रित हुए हैं। उनका लक्ष्य होता है कि यह पार्टी क्रमश: फैलते-फैलते पूरे समाज या पूरी जनता का रूप ले लें। पार्टी का जनता में पूरी तरह से लोप ही पार्टी का अंतिम गंतव्य है। जनहित और पार्टी-हित अभिन्न, और हमेशा के लिये एकाकार हो जाते हैं। कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक तौर पर पार्टी का कोई अंतिम रूप नहीं होता, बल्कि जनता में उसका विलोपन होता है। इस अंत तक पहुंचने की अंतहीन प्रक्रिया में संक्रमण के कई पड़ाव आते हैं, ऐतिहासिक तौर पर संभव नये-नये तत्वों, व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों को यह अपने में आत्मसात करती है।
लेकिन जब तक कोई पार्टी अपने इस अंत तक नहीं पहुंचती, वह पार्टी ही रहती है, समाज या जन नहीं हो पाती। उसे संपूर्ण समाज या जनता नहीं माना जा सकता। इसीलिये यह जरूरी नहीं होता कि पार्टी-हित और जन-हित हमेशा एक और अभिन्न हो। यद्यपि, कुछ ऐतिहासिक संधि-क्षणों में जब जन-हित और पार्टी-हित एक समान हो जाते हैं, तब पार्टी वास्तव अर्थों में जन-आंदोलन का रूप लेकर सामने आती है।
अब हम आज के भारत पर आते हैं। आज धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक भारत के हित में है कि नरेन्द्र मोदी जैसे एक सांप्रदायिक और तानाशाह व्यक्ति को विजयी न होने दिया जाए। लेकिन इस जनहित के आधार पर ही यदि कोई यह सोचे कि भारत की सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों के बीच कोई पूर्ण एकता कायम हो जायेगी तो वह पूरी तरह से शेखचिल्ली का सपना होगा। उल्टे सचाई यह है कि कोई भी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक पार्टी इस लक्ष्य के लिये अपने पार्टी-हित की बलि देने के लिये तैयार नहीं है। इसीलिये अनेक जगहों पर स्वाभाविक तौर से धर्म-निरेपेक्ष पार्टियों के बीच आपस में भारी टकराहटें होना तय है।
इसमें वामपंथियों की और भी अतिरिक्त समस्या है। उन्हें सिर्फ धर्म-निरपेक्षता और जनतंत्र की लड़ाई ही नहीं लड़नी है, नव-उदारवाद को भी पराजित करना है। यह अलग बात है कि नव-उदारवाद के बेहतर वामपंथी विकल्प की ठोस सूरत बताने में वह अभी सफल नहीं है।
बहरहाल, जो समस्या पार्टियों और उनके पार्टी-हितों की है, वे धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक व्यक्ति और नागरिक की नहीं है। शायद यही कारण है कि कोई स्वतंत्र व्यक्ति या नागरिक जितनी आसानी से अपने समय के जन-हित के विषयों के साथ खुद को एकात्म कर लेता है, पार्टियां नहीं कर पाती है - इस प्रकार की तमाम उदात्त घोषणाओं के बावजूद कि जनहित से अलग पार्टी-हित कुछ भी नहीं होता है। इसके अलावा इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पार्टियों के अंदर का गैर-जनतांत्रिक नौकरशाही ढांचा व्यक्ति की पहलकदमियों को बनाये रखने के लिये बेहद घातक साबित होता है।
शायद यही वे बुनियादी कारण हैं कि प्रकृत बुद्धिजीवी अपनी पार्टी-अस्मिता के प्रति आग्रहशील नहीं होता हैं। वृहत्तर उद्देश्यों के लिये व्यक्ति का विलय जितना आसान है, पार्टी या किसी गिरोह का नहीं।
राजनीतिक पार्टी व्यक्ति नहीं, व्यक्तियों का समूह है। उन लोगों का समूह जो एक मान्य विचारधारा के अनुसार पूरे समाज को ढालने के लिये एकत्रित हुए हैं। उनका लक्ष्य होता है कि यह पार्टी क्रमश: फैलते-फैलते पूरे समाज या पूरी जनता का रूप ले लें। पार्टी का जनता में पूरी तरह से लोप ही पार्टी का अंतिम गंतव्य है। जनहित और पार्टी-हित अभिन्न, और हमेशा के लिये एकाकार हो जाते हैं। कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक तौर पर पार्टी का कोई अंतिम रूप नहीं होता, बल्कि जनता में उसका विलोपन होता है। इस अंत तक पहुंचने की अंतहीन प्रक्रिया में संक्रमण के कई पड़ाव आते हैं, ऐतिहासिक तौर पर संभव नये-नये तत्वों, व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों को यह अपने में आत्मसात करती है।
लेकिन जब तक कोई पार्टी अपने इस अंत तक नहीं पहुंचती, वह पार्टी ही रहती है, समाज या जन नहीं हो पाती। उसे संपूर्ण समाज या जनता नहीं माना जा सकता। इसीलिये यह जरूरी नहीं होता कि पार्टी-हित और जन-हित हमेशा एक और अभिन्न हो। यद्यपि, कुछ ऐतिहासिक संधि-क्षणों में जब जन-हित और पार्टी-हित एक समान हो जाते हैं, तब पार्टी वास्तव अर्थों में जन-आंदोलन का रूप लेकर सामने आती है।
अब हम आज के भारत पर आते हैं। आज धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक भारत के हित में है कि नरेन्द्र मोदी जैसे एक सांप्रदायिक और तानाशाह व्यक्ति को विजयी न होने दिया जाए। लेकिन इस जनहित के आधार पर ही यदि कोई यह सोचे कि भारत की सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों के बीच कोई पूर्ण एकता कायम हो जायेगी तो वह पूरी तरह से शेखचिल्ली का सपना होगा। उल्टे सचाई यह है कि कोई भी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक पार्टी इस लक्ष्य के लिये अपने पार्टी-हित की बलि देने के लिये तैयार नहीं है। इसीलिये अनेक जगहों पर स्वाभाविक तौर से धर्म-निरेपेक्ष पार्टियों के बीच आपस में भारी टकराहटें होना तय है।
इसमें वामपंथियों की और भी अतिरिक्त समस्या है। उन्हें सिर्फ धर्म-निरपेक्षता और जनतंत्र की लड़ाई ही नहीं लड़नी है, नव-उदारवाद को भी पराजित करना है। यह अलग बात है कि नव-उदारवाद के बेहतर वामपंथी विकल्प की ठोस सूरत बताने में वह अभी सफल नहीं है।
बहरहाल, जो समस्या पार्टियों और उनके पार्टी-हितों की है, वे धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक व्यक्ति और नागरिक की नहीं है। शायद यही कारण है कि कोई स्वतंत्र व्यक्ति या नागरिक जितनी आसानी से अपने समय के जन-हित के विषयों के साथ खुद को एकात्म कर लेता है, पार्टियां नहीं कर पाती है - इस प्रकार की तमाम उदात्त घोषणाओं के बावजूद कि जनहित से अलग पार्टी-हित कुछ भी नहीं होता है। इसके अलावा इस सच से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पार्टियों के अंदर का गैर-जनतांत्रिक नौकरशाही ढांचा व्यक्ति की पहलकदमियों को बनाये रखने के लिये बेहद घातक साबित होता है।
शायद यही वे बुनियादी कारण हैं कि प्रकृत बुद्धिजीवी अपनी पार्टी-अस्मिता के प्रति आग्रहशील नहीं होता हैं। वृहत्तर उद्देश्यों के लिये व्यक्ति का विलय जितना आसान है, पार्टी या किसी गिरोह का नहीं।
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