सोमवार, 31 मार्च 2014

जगदीश्वर चतुर्वेदी का लेखन


अरुण माहेश्वरी

आज जगदीश्वर चतुर्वेदी जी ने अपनी चार किताबें भेंट की -इंटरनेट साहित्यालोचना और जनतंत्र, नरेन्द्रमोदी और फासीवादी प्रचारकला, लोकतंत्र और सोशल मीडिया, तथा डिजिटल कैपिटलिज्म, फेसबुक संस्कृति और मानवाधिकार।
अब मेरे पुस्तकालय में जगदीश्वर जी की लगभग 30 भारी-भरकम किताबें हो गयी है। इन पुस्तकों के अलावा, उनकी जिन पुस्तकों के बारे में मेरी जानकारी है, उनकी संख्या 20 से कम नहीं होगी। मतलब जितनी उनकी उम्र हुई है, लगभग उतनी ही किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।
जो लेखक अभी भी युवा और प्रौढ़ता के संधि-वय में हो, उसका इतना विराट, वैविध्यपूर्ण और सार्थक लेखन किसी के लिये भी विस्मय और साथ ही ईष्‍र्या का विषय भी हो सकता है।
जगदीश्वर जी कोलकाता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर है। ‘हिंदी का अध्यापक’ - ‘तारे जमीं पर’ के हिंदी अध्यापक की रूढ़ छवि - दकियानूस, कूपमंडुक! उत्कट जातिवादी, गोटीबाज! उदयप्रकाश के व्यंग्य-वाणों का एक स्थायी लक्ष्य! लेकिन उनमें नामवर जी, शिवकुमार मिश्र जैसे भी रहे हैं, और साथ ही है जगदीश्वर जी। सामान्य की पुष्टि करने वाले अपवाद!
संस्कृत और ज्योतिष की पृष्ठभूमि, लेकिन वामपंथियों की संगत ने पता नहीं कैसे जगदीश्वर जी के तार उत्तर-आधुनिकता के विमर्श से जोड़ दिये। इसीकी उंगली थाम कर वे इसके बाई-प्रोडक्ट से दिखते मीडिया की ओर कुछ उसी प्रकार बढ़ गये जैसे सुधीश पचौरी। सुधीश पचौरी मीडिया के अखबारी स्तंभकार होगये, और जगदीश्वर जी मीडिया-पंडित।
मीडिया उत्तर-आधुनिकता का बाई-प्रोडक्ट कहलायेगा या उत्तर-आधुनिकता का प्रमुख संघटक तत्व, इसपर बहस होसकती है। आधार और अधिरचना की द्वंद्वात्मकता का आलम यही है कि ‘मुर्गी पहले या पहले अंडा’ वाली असमाधेय सी दिखती समस्या सामने आजाती है।
बहरहाल, मीडिया हमारे समय के तमाम विमर्शों को जिसप्रकार नये सिरे से परिभाषित सा कर रहा है, संस्कृतिमात्र का माध्यमीकरण अर्थात वास्तविक दुनिया का आभासित दुनिया से एकप्रकार का विस्थापन जिस गति और विस्तार के साथ जारी है, उसमें मीडिया के संदर्भ में जीवन के सभी व्यापारों पर सोचना बिल्कुल स्वाभाविक लगता है। जगदीश्वर जी के लेखन के जैसे बिजली की गति से विस्तृत हो रहे फलक के पीछे दिख रही उनकी व्यग्रता और उत्कंठा से भी इस असंभव गति से फैल रही सर्वव्यापी, सर्व-ग्रासी, परम शक्तिवान माया का एक अनुमान मिलता है।
इस अकेले लेखक ने हिंदी में मेतलार्द, बोर्दिओ, मैकलुहान, एडवर्ड सईद, बौद्रिलार्द, दरीदा, जीजेक, इको आदि न जाने कितने गैर-कम्युनिस्ट मार्क्सवादियों और स्वतंत्र चिंतकों के बारे में जितनी सामग्री मुहैय्या करायी है, पीसी, लैपटॉप, टैबलेट, इंटरनेट, ईमेल, फेसबुक, टीवी, कैबल टीवी जैसे आज के युग के तकनीकी उपकरणों और उनके प्रयोग की विधियों से जुड़े विमर्शों को जिस प्रकार प्रस्तुत किया है, वह सचमुच चौंकाने वाला है। इंटरनेट और उससे जुड़े आधुनिक उद्योगों के नाना प्रकार के उत्पादों तक को उन्होंने अपनी आंखों से ओझल नहीं होने दिया है।
जगदीश्वरजी का यह सारा काम कुछ ऐसी गति से चल रहा है कि किसी भी साधारण पाठक के लिये उसके साथ अपनी संगति कायम करना कठिन है, और जो थोड़ा ठहर कर इस विशाल काम के मूल्यांकन के लिहाज से इसे उलटना-पुलटना चाहते हैं, उनके लिये तो साल में चार-छ:-दस-बारह की रफ्तार से आने वाली किताबें किसी बमबारी से कम नहीं है।
मीडिया के साथ ही जुड़ा हुआ है राजनीति का विषय। शायद जगदीश्वर जी को पश्चिम बंगाल की एक ऐसी देन जिसने उनके मीडिया विमर्श को निश्चित तौर पर एक धार देने की भूमिका अदा की है। पश्चिम बंगाल प्रवास ने उन्हें वामपंथी राजनीति के आंतरिक विन्यास, उसकी अन्दुरूनी गतिशीलता और जड़ता का एक प्रत्यक्ष अनुभव प्रदान किया है। और, संभवत: इसी अनुभव ने इस ज्योतिषाचार्य, हिंदी के अध्यापक को दुनिया के गैर-कम्युनिस्ट मार्क्सवादी और जनतांत्रिक विमर्श की कुछ पुख्ता समझ पाने का सलीका भी दिया।
मुझे लगता है कि जगदीश्वर जी के तेजी से फैल रहे लेखन के आयतन का एक समग्र मूल्यांकन किसी के लिये भी लगभग नामुमकिन सा काम है। लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि यह सब कोरा सार-संग्रहवादी नहीं है। बारीकी से देखने पर इसमें एक खास प्रकार की एकसूत्रता, उत्तर-आधुनिक तरह की ही असामंजस्य के सामंजस्य वाली विचार-प्रणाली को देखा जा सकता है।
अपने लेखन से हमें लगातार परिचित कराने के लिये हम उनके प्रति आभारी हैं और उनके लेखन की इसी गति के बने रहने की कामना करते हैं।
29.03.2014

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