शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

गाब्रियल गार्सिया मार्केस *

अरुण माहेश्वरी


सारी दुनिया को अपने उपन्यासों से मुग्ध कर देने वाले नोबेलजयी ‘जादूई’ लेखक गाब्रियल गार्सिया मार्केस हमारे बीच नहीं रहे। वे पिछले कुछ दिनों से बीमार थे। हाल ही में नीमोनिया के इलाज के लिये उन्हें मेक्सिको के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 1999 में उनको कैंसर हुआ था, फिर भी उनकी लेखनी कभी बंद नहीं हुई। सन् 2004 में उनका अंतिम उपन्यास ‘मेमरीज आफ माई मेलनकोली व्होर्स’ आया। कल (17 अप्रैल 2014) मेक्सिको स्थित अपने घर में उन्होंने अंतिम सांस ली।
मार्केस की स्मृतियों के प्रति आंतरिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम यहां अपने मित्रों के साथ अपने उस लेख को साझा कर रहे हैं जो लगभग बीस साल पहले उनके जीवन और साहित्य पर पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की पत्रिका ‘धूमकेतु’ के लिये लिखा गया था।



मार्केस परिवार

सन् 1982, जब मार्केस को नोबेल पुरस्कार मिला था, पूरी दुनिया के साहित्य और पाठकों की दुनिया में मार्केस के नाम की एक सुनामी आयी थी। लेकिन लातिन अमेरिका इसके काफी पहले ही इस नाम के रंग में रंग चुका था। यह किसी भी लेखक के लिये सपने से कम नहीं है कि लेखकीय जीवन की थोड़ी सी अवधि में ही उसकी किसी कृति की 25-30 लाख प्रतियां बिक जाए। ‘सियेन एनोस द सोलेदाद’ (वन हन्ड्रेड ईयर्स आफ सालिच्यूड), 1967 में प्रकाशित हुआ, जब मार्केस 40 साल के भी नहीं हुए थे, और जब इसी उपन्यास पर 1982 में उन्हें नोबेल मिला तब तक इसकी कितनी प्रतियां बिक चुकी थी और उसके एक-एक चरित्र पर कितने शोध हो चुके थे, इसकी गिनती नहीं हो सकती थी।
गाब्रियल गार्सिया मार्केस का जन्म लातिन अमेरिकी देश कोलंबिया के उत्तर-पश्चिम हिस्से के एक छोटे से गांव अर्काटिका में सन् 1928 में हुआ था। घने जंगलों के बीच की इस छोटी सी बस्ती के दिन तब से फिरने लगे थे जब 1910 में बहुराष्ट्रीय यूनाइटेड फ्रूट कंपनी ने केलों और फलों के उन सघन बगानों में अपना खूंटा गाड़ा था। गाब्रियल की नानी दीना ट्रैंक्विलीन की स्मृतियों में, तब अनजाने चेहरों का एक भारी तूफान उस क्षेत्र में आया था। केलों की आमदनी से भाग्योदय की ललक ने वहां की सड़कों पर तंबू ताने औरतों-मर्दों के ढेर लगा दिये थे। उस समय इस बस्ती का क्या कहना था ! केले के बगानों के मालिक नोटों से अपने सिगार सुलगाया करते थे। लेकिन, गौर करने लायक बात यह है कि वह भारी तूफान भी इस दुर्गम क्षेत्र और उसके मूल निवासियों को उनके रहस्यमय अतीत और उनके अंतर में बसी मान्यताओं और विश्वासों से मुक्त नहीं कर पाया था।
गाब्रियल का बचपन इसी क्षेत्र के एक सबसे पुराने, सम्मानित परिवार, उनके नाना कर्नल मार्केस के घर में बीता था।
गाब्रियल गार्सिया के पिता थे - गाब्रियल इलीजियो गार्सिया। आर्थिक तंगी ने उन्हें कार्तागेना विश्वविद्यालय में डाक्टरी की पढ़ाई छोड़ कर एक टेलिग्राफ ऑपरेटर के रूप में अर्काटका आने के लिये मजबूर किया। कहते हैं कि इस शहर में आने के बाद इलीजियो गार्सिया को अनायास ही कर्नल मार्केस की बेटी लुइसा भा गयी। शहर की दूसरी लड़कियों से ज्यादा गंभीर, संजीदा और सुंदर लुइसा शहर के सबसे सम्मानित परिवार की बेटी भी थी। इलीजियो ने लुइसा से बिना कोई बात किये सीधे उसके पिता कर्नल मार्केस के सामने लुइसा से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। एक अजनबी के इस औचक प्रस्ताव से अचंभित कर्नल मार्केस को यह अपनी खानदानी शान और शोहरत की हेठी लगा। उन्होंने इलीजिया के प्रस्ताव को फौरन ठुकरा कर लुसिया को दूसरे तटवर्ती शहरों की लंबी यात्रा पर भेज दिया ताकि इलीजिया उससे कोई संपर्क न साध सके। लेकिन इलीजिया, तारघर का कर्मचारी, शहर दर शहर लुइसा को अपने संदेश भेजता रहा। अन्तत: इलीजिया की जिद ने कर्नल मार्केस को हार मनवा ही ली।
शहर के सर्वजनप्रिय और सम्मानित व्यक्ति कर्नल मार्केस ने जवानी के दिनों में बड़े-बड़े सामंतों, चर्च और और अपनी एक नियमित सेना द्वारा समर्थित कोलंबिया की संरक्षणवादी सरकार के खिलाफ संघवादी उदारपंथियों और स्वतंत्रचेता लोगों के गृहयुद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 1899-1902 के इस युद्ध में सैकड़ों लोग मारे गये थे। गैरिबाल्डी और फ्रांसीसी प्रगतिशीलों की परंपरा में नौजवान उदारपंथियों की एक पूरी पीढ़ी ने लाल कमीज और झंडों के साथ इस लड़ाई में हिस्सा लिया था और भारी कुर्बानियां दी थी। तटवर्ती क्षेत्रों में चली इस लड़ाई के लिये कर्नल मार्केस को कई खिताब मिलें। उदारवादी कमांडर जैनरल रैफेल उराइब के नेतृत्व में लड़ी गयी इस लड़ाई में कर्नल मार्केस की भूमिका ने अर्काटका के इस सबसे पुराने परिवार की ख्याति को और भी बढ़ा दिया था।

रैफेल उराइब

जब गाब्रियल इलीजियो गार्सिया और लुइसा के पहले बेटे गाब्रियल गार्सिया मार्केस का जन्म हुआ तो अपने पुराने पारिवारिक रिश्तों को फिर से पटरी पर लाने के लिये ही उन्होंने उसे लालन-पालन के लिये नाना कर्नल मार्केस के घर पर ही रख देने का निर्णय लिया। और, यही वह जगह थी जहां गाब्रियल गार्सिया मार्केस अर्काटका शहर के अतीत के साथ गहराई से जुड़े एक परिवार के परिवेश में संस्कारित हुए। मार्केस जब सिर्फ आठ साल के थे, तभी नाना की मृत्यु होगयी, वे अपने पिता के परिवार में वापस चले गये। फिर भी, खुद मार्केस स्वीकारते हैं, और उनका पूरा साहित्य भी इस बात का गवाह है कि शुरू के इन आठ सालों में ही उनमें जो संस्कार पड़ें, वे सारी उम्र उनके मानस के गठन में एक अहम भूमिका अदा करते रहे।
एक समृद्ध अतीत की परंपराओं से आच्छादित कर्नल मार्केस के परिवार में साठ की उम्र को पार कर चुके कर्नल मार्केस और उनके नाती गाब्रियल के अलावा सब औरतें ही औरतें थीं - नानी, मौसी, ताई। गाब्रियल पर बूढ़े नाना का साया रहता था। औरतें घर के काम-काज में लगी रहती। नानी हर रोज भूत-प्रेत की अजीबोगरीब कहानियां सुनाया करती थी। उस बूढ़ी औरत के लिये जैसे जीवित और मृत लोगों के बीच कोई फर्क ही नहीं था। जिंदगी के अंतिम दिनों में उनकी आंखों की रोशनी कम हो गयी थी। मार्केस कहते हैं कि आंखों के बढ़ते धुंधलके ने इस फर्क को और भी धुंधला कर दिया था। वे अक्सर मृतात्माओं से बतियाती रहती। हर रात गाब्रियल को अपने पास बैठा कर इन मृतात्माओं की कहानियां सुनाती। कभी इस घर में चाचा लेजारो और चाची पेत्रा हुआ करते थे, जो काफी पहले ही चल बसे थे। नानी गाब्रियल से कहती थी, ‘‘तुम अगर उठे तो पेत्रा और लेजारो अपने कमरों से बाहर आजायेंगे। ’’
गाब्रियल ने लिखा है कि नानी की उन कहानियों का उनपर इतना असर है कि पचास साल बाद, अब भी जब वे रोम या बैंकाक के किसी होटल में अकेले आधी रात में जग जाते हैं तो एक क्षण के लिये बचपन का वह डर, अंधेरे में भटकते मृत परिजनों का डर दिमाग में कौंध जाता है।
ऐसे परिवार में, पांच साल की उम्र में ही गाब्रियल की अपने बूढ़े नाना से अनोखी दोस्ती सी होगयी थी। गाब्रियल अब भी उन दिनों की प्रिय स्मृतियों को अपने अंदर बड़े चाव से संजोये हुए हैं। नाना के गृहयुद्ध के किस्से आज भी उनके लिये ताजा है। नाना अपने नाती को वे सारी कहानियां बड़े धैर्य से सुनाया करते और एक-एक सवाल का जवाब देते थे। कभी किसी सवाल का जवाब न सूझने पर कहते - ‘‘आओ देखे, शब्द-कोश में इसके बारे में क्या कहा गया है।’’ यहीं से गाब्रियल में इतनी सारी पहेलियों को बुझाने वाली इस धूल से सनी मोटी पुस्तक (शब्दकोश) के प्रति गहरे सम्मान के संस्कार पड़ गये।
गाब्रियल जब आठ साल के थे, नाना की मृत्यु होगयी। इसके साथ ही गाब्रियल के बचपन का अंत होगया। अर्काटका से भी नाता टूट गया। 22 साल बाद मां के साथ अर्काटका आयें अपने नाना के घर को बेचने के लिये।
गाब्रियल को 13 साल की उम्र में पढ़ाई के लिये सुदूर राजधानी शहर आल्तीप्लानो भेज दिया गया था। नौका और रेल की आठ दिनों की लंबी यात्रा के बाद गाब्रियल जब आल्तीप्लानो पंहुचे, वह उनके लिये एक बिल्कुल दूसरी दुनिया थी। कैरेबियन के इस किशोर के लिये ‘‘स्कूल एक सजा और वह बर्फीला शहर किसी यातना से कम नहीं था।’’ संतोष की सिर्फ एक जगह थी - पढ़ाई। इर्द-गिर्द के निराशाजनक यथार्थ से भाग कर गाब्रियल किताबों की दुनिया में खोने लगा। उसका सौभाग्य रहा कि उसे साहित्यिक मित्रों की एक अच्छी सोहबत मिली। उसकी इस मंडली में नौजवान कोलंबियन कवि रूबेन दारिओ, फ्वान रेमोन फिमेन्स शामिल थे। पेरू के पाब्लो नेरुदा से प्रभावित होकर उन्होंने ‘‘पियेद्रा या सेलो’’ नामक एक मंडली का गठन किया। सभी रोमांटिक और पुरातनपंथियों के लिये चुनौती बन चुकी यह मंडली उनका जम कर मजाक उड़ाया करती थी। मार्केस उसके बारे में कहते हैं, ‘‘वे उस वक्त के आतंकवादी थे, लेकिन उनसे यदि न मिला होता तो मैं लेखक बन पाता, यह निश्चय के साथ नहीं कह सकता हूं।’’


बोगोता
माध्यमिक की पढ़ाई के बाद गाब्रियल कानून की पढ़ाई के लिये बागोता के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में भर्ती हुए, लेकिन कविता का चस्का नहीं छूटा। कानून की धाराओं के बजाय कविता, कविता और सिर्फ कविता पढ़ा करते थे। उपन्यासों में रुचि तब पैदा हुई जब एक रात उन्होंने काफ्का का ‘मेटामॉरफोसिस’ पढ़ा। इसके दूसरे दिन ही उन्होंने अपनी पहली कहानी लिखी। कानून की पढ़ाई पीछे छूटने लगी। पिता की इच्छा थी कि बेटा विश्वविद्यालय की डिग्री ले ले, लेकिन उन्होंने जल्द ही यह कह कर हथियार डाल दिये कि ऐसे बेटे से कोई उम्मीद करना व्यर्थ है।
न दाढ़ी की परवाह, न कपड़ों का होश - गाब्रियल आवारागर्दों की तरह कहवाघरों में भटकने लगे। अब कविताएं नहीं, उपन्यास चाटा करते थे - दास्तोवस्की, टालस्टाय, डिकेन्स, 19वीं सदी के फ्रांसीसी लेखक फ्लाबर्ट, स्टेंघल, बाल्जाक, जोला - सबको घोट डाला।
बागोता से 20 साल की उम्र में गाब्रियल तटीय शहर कार्तागेना लौटे। फिर एक बार कैरेबियन की हवा और धूप को अपने में महसूस किया और कार्तागेना से निकल रहे अखबार ‘अल यूनिवर्सल’ के धूलसने दफ्तर में उप-संपादक की नौकरी करने लगे। बागोता के अनोखे स्वच्छंद जीवन में गाब्रियल को बहुत कुछ जानने, लिखने का मौका मिला। यहीं वे युनानी साहित्य से, खास तौर पर सोफोकल्स से परिचित हुए। किर्केगार्द और क्लाडेल को जाना। युनानी साहित्य के बाद अंग्रेजी साहित्य के सफे भी उनके सामने खुलने लगे। ज्वायस, वर्जीनिया वुल्फ और विलियम फाकनर। कार्तागेना के बाद एक और तटवर्ती शहर बैरनकिल्ला में साहित्य के पागल लोगों की संगत में उनके साहित्य को पढ़ा, जाना।
गाब्रियल मार्केस कहते हैं :
‘‘यह उनके जीवन का एक पूरी तरह से अनोखा काल था, ऐसा काल जिसमें न सिर्फ साहित्य की बल्कि जिंदगी की भी मैंने खोज की। हर रोज हम सुबह होने तक पीते रहते और साहित्य पर बातें करते रहते। हर रात मुझे कम से कम दस ऐसी किताबों का पता चलता जिन्हें मैंने नहीं पढ़ा था। अगले दिन ही वे किताबें मुझे उपलब्ध भी हो जाती थी।’’
इन ढेर सारे अनुभवों के बाद जब मार्केस अपनी मां के साथ अर्काटका आएं, तब उनके पास न सिर्फ कहने के लिये बेशुमार सामग्री हो गयी थी बल्कि किशोर वय से लेकर तब तक जिन लेखकों के साथ उन्होंने अकेले में अपने दिन गुजारे थे, उनसे यह भी सीख लिया था कि इन अनुभवों का बयान कैसे किया जाए।
मार्केस की नानी ने केले के मुनाफे से भाग्योदय करने के लिये आये अर्काटका में मनुष्य रूपी जिस कूड़े के तूफान का जिक्र किया था, वही बिंब उड़ते पत्तों के तूफान ‘ला लो जारस्का’ (लीफ स्टार्म) के रूप में उनके पहले उपन्यास का आधार बना। यह उपन्यास अर्काटका से लौट कर बैरनकिल्ला में ‘अल हेराल्डो’ के संपादकीय कार्यालय में एक प्रकार के मौन उन्माद के साथ कई रातें जग कर एक रौ में लिखा गया था। पहला उपन्यास लेकिन उनके आगे के सोपानों के सारे संकेतों को समेटे हुए। ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ में जिस मैकोन्डो के अलग-थलगपन की स्मृतियां है, उसकी अच्छी-खासी झलक इस पहले उपन्यास में ही मिल चुकी थी। लेकिन लेखक की पहचान बनी इस पांचवे उपन्यास के प्रकाशन के बाद, जब बाजार में इसकी प्रतियां जोर-शोर से बिकने लगी। पहले लातिन अमेरिका में और फिर सारी दुनिया में।

लेकिन, प्रसिद्धी के पहले का, अर्थात पांचवे उपन्यास तक पहुंचने का सफर मार्केस के लिये उतना ही कष्टदायी रहा, जैसा आम तौर पर सभी लेखकों का जीवन सफर हुआ करता है। ‘लीफ स्टार्म’ को प्रकाशित कराने में पांच साल लगे थे। अव्वल तो प्रकाशक छापने को ही तैयार नहीं होता, ऊपर से अजीबोगरीब नुक्ताचीनी। ‘लीफ स्टार्म’ को खारिज करते हुए स्पैनिश आलोचक ग्वीलेमों द तोरे ने उस पर तीखी टिप्पणी की कि उन्हें इस उपन्यास में सिवाय एक काव्यात्मक निवेदन के कुछ भी ऐसा नजर नहीं आता जिसके लिये इसे प्रकाशित करने की सिफारिश की जाए। लेखक को उनकी मुफ्त सलाह थी कि वह लेखन के बजाय किसी और पेशे को चुन ले तो उसके लिये भला होगा। मजबूरन, 1955 में मार्केस को अपने दोस्तों की मदद से बोगातो के एक छोटे से प्रैस से उसे खुद को छपाना पड़ा। स्थानीय पत्रिकाओं में उपन्यास की प्रशंसा हुई।
एक पत्रकार के रूप में मार्केस की पहचान बनने लगी थी। ‘अल एसपेक्टाडोर’ के पृष्ठों पर मार्केस की समाचार-कहानियों और टिप्पणियों की ओर लोगों का ध्यान जाने लगा था। इसी सिलसिले में उन्होंने यूरोप के कई देशों की यात्राएं की। मार्केस का वैचारिक रूझान समाजवादी था। कोलम्बिया के तानाशाह रीजस पिन्लि्ला ने ‘अल एसपेक्टाडोर’ पर प्रतिबंध लगा दिया। तब मार्केस पैरिस में रह रहे थे। कोलम्बिया से चेक आने बंद होगये तो पैरिस प्रवास अखरने लगा। मार्केस ने गरीबी बैरनकिल्ला में भी देखी थी, लेकिन वहां बहुत सारे दोस्त और शुभाकांक्षी थे। लेकिन पैरिस! बेहद निर्दयी! मार्केस का दूसरा उपन्यास ‘अल कोरोनेल नो टियेन क्विसन लॉ एस्क्रिबा’ ( नो वन राइट्स टू द कर्नल) इसी काल के अनुभवों की उपज है, जो 1961 में प्रकाशित हुआ।


पैरिस के बाद पत्रकार मार्केस काराकस गये। हर रात लिखने का सिलसिला चलता रहा। वहीं ‘ल्यूनेरल्स द लॉ ग्रांडे’ (बिग मामाज फ्यूनरल) लिखा। वहां से बोगोतॉ, क्यूबा की न्यूज एजेंसी ‘प्रेंसालातिला’ के कार्यालय में काम करने गये। बोगातॉ की एक साहित्यिक पत्रिका में ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल’ प्रकाशित हुआ। पत्रिका के संपादक महोदय ने इसके प्रकाशन के लिये लेखक से न तो अनुमति ली और न ही उसके एवज में मानदेय के तौर पर कुछ दिया। कई प्रकाशकों द्वारा अस्वीकृत पांडुलिपि को प्रकाशित करके उसने लेखक पर भारी अहसान किया था ! स्थानीय समीक्षकों ने इस कृति की प्रशंसा की। बागोतॉ में एक और उपन्यास लिखा - ‘लॉ माला होरा’ (इन ईविल अवर)। इस उपन्यास को एक तेल कंपनी, एस्सो कोलंबिया द्वारा दिया जाने वाला राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
मार्केस की यह सफलता बहुत मामूली सफलता थी। पुस्तक की थोड़ी सी प्रतियां प्रकाशित हुई थी और मामूली सी रॉयल्टी मिली थी। किताब थोड़े से पाठकों तक पहुंच पायी थी। कोलंबिया के बाहर तो दूर की बात, कोलंबिया में ही करीब के मित्रों के अलावा उनके बारे कोई भी अधिक कुछ नहीं जानता था। उन्हें एक प्रकार का आंचलिकतावादी लेखक समझा जाता था। बोगोतॉ का कुलीन तबका लोगों को उनके खानदान और पहनावे के आधार पर स्वीकृति दिया करता था। मार्केस जब उन्हीं की तरह के अच्छे होटलों में रहने और देश-विदेश घूमने की हैसियत वाले होगये, तभी इस कुलीन, बुर्जआ के घरों के दरवाजे उनके लिये खुल पाये थे और तब उन्हें ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ के वामपंथी विचारों, फिदेल कास्त्रो से मार्केस की मित्रता पर भी कोई ऐतराज नहीं रह गया।
यूनिवर्सिटी आफ वेराक्रुज प्रैस ने मेक्सिको में 1962 में उनका उपन्यास ‘बिग मामाज फ्यूनरल’ प्रकाशित किया। ‘प्रेन्सा लातिना’ ने संवाददाता के रूप में गाब्रियल को न्यूयार्क भेज दिया। दिन में एक संवाददाता और रात में लेखक के तौर पर उनकी दोहरी जिंदगी जारी रही। उसी समय क्यूबा में हुए फेर-बदल के चलते ‘प्रेन्सा लातिना’ सी इस्तीफा दे दिया। अपनी पत्नी और बेटे के साथ, जेब में सिर्फ सौ डालर लिये, वे न्यूयार्क से मेक्सिको रवाना हो गये। मेक्सिको में महिलाओं की एक पत्रिका के उप-संपादक की जिस दिन उन्हें नौकरी मिली, उस दिन उनकी हालत यह थी कि उनके जूते का सोल घिस कर गिर रहा था।
मेक्सिको प्रवास के दौरान उन्होंने अपने मित्र प्लिनियो मेंडोजा को बताया कि वे एक उपन्यास पर काम कर रहे है, जो ‘बोलेरो’ की तरह है। बोलेरो एक लातिन अमेरिकी संगीत का नाम है जिसमें अत्यधिक भावुकता के साथ ही एक प्रकार का तीखापन भी होता है। ‘‘इसकी अतिशयोक्ति में एक प्रकार के विनोद को गूंथा गया है, यह कुछ ऐसा है जिसे सिर्फ हम लातिन अमरीका के लोग ही समझ सकते हैं - ‘बातों को बिल्कुल अक्षरश: न लिया जाना‘।’’ मेंडोजा ने लिखा है कि मेज पर अपनी उंगलियों को सरकाते हुए मार्केस ने कहा था, ‘‘ अब तक अपने उपन्यासों में मैंने बिल्कुल सुरक्षित रास्ता अपनाया था। मैंने कोई जोखिम नहीं उठायी थी । अब मुझे लगता है कि मुझे बिल्कुल धार पर चलना है।... फिर उन्होंने उपन्यास के उस अंश को सुनाया जिसमें एक चरित्र जब अपने को गोली मार लेता है तब उसके खुन की पतली धार जब तक मृतक की मां तक नहीं पहुंच जाती अनेक आड़े-तिरछे रास्तों से होकर पूरा शहर घूम लेती है। पूरी किताब उदात्तता और कुत्सितपन के ठीक बीच तलवार की धार पर चलता है, जैसे बोलेरो।...उसने कहा ‘यह पुस्तक या तो मेरी एक बड़ी उपलब्धि होगी या फिर इससे मेरा दिमाग फटकर बाहर आ जायेगा।’’
यही वह पुस्तक थी - ‘‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’’, जिसने सच कहा जाए तो मार्केस की सालों की तपस्या को पूरा किया। मेंडोजा के शब्दों में - 15 साल पहले ‘लीफ स्टार्म’ लिखते वक्त गाब्रियल जिस उषाकाल के उदय की ओर ताका करते थे, लंबी प्रतीक्षा के बाद उसका उदय संभव हुआ।
इस अभूतपूर्व सफलता ने मार्केस के जीवन के ढर्रे को बदल दिया। गरीबी के अभिशाप से वे मुक्त हुए। जिन्दगी ज्यादा अनुशासित होगयी। बोहेमियनपन जाता रहा। मिलने की इच्छा रखने वालों को महीनों प्रतीक्षा करना पड़ता। फिर भी, मेंडोजा का कहना है कि यह सारी प्रसिद्धी कभी भी उनके सर पर चढ़ कर नहीं बोली। अपने मित्रों के लिये वे अब भी वहीं ‘गैबो’, ‘गैबिता’ ही है। पत्नी मर्सीडीज के साथ धनिष्ठता और भी प्रगाढ़ हुई है। दो बेटे हैं, जिनका अपने बाप के साथ अनोखा रिश्ता है। पिता ने उन्हें बिल्कुल बराबरी पर रखा है। मार्केस के काम के औजार है - आधा दर्जन शब्द कोश, ढेर सारे ज्ञान कोश (जिनमें उड्डयन के बारे में कोश भी शामिल है), एक फोटो कापी की मशीन, एक अच्छा सा बिजली का टाइपराइटर और हमेशा पास रहने वाले पांच सौ सादे पन्ने। गरीबी के दिनों की तरह अब वे रात को नहीं लिखते। सुबह नौ से दोपहर के तीन बजे तक नियमित लिखते हैं। अधिकांश समय मेक्सिकों में रहने पर भी घुमक्कड़ी का भारी शौक है।
मेंडोजा लिखते हैं कि गाब्रियल यूरोपीय बुद्धिजीवियों की तरह सैद्धांतिक बयानबाजी नहीं करते। किस्सागोई उनका शगल है। इसीलिये फ्रांसीसी टेलिविजन में साक्षात्कार देने से कतराते हैं क्योंकि वहां अक्सर ‘साहित्य क्या है?’ की तरह के सैद्धांतिक, अमूर्त किस्म के सवाल किये जाते हैं।
मेंडोजा के अनुसार फिदेल कास्त्रो के साथ गाब्रियल की मित्रता के मूल में भी कैरेबियन की भौगोलिक पृष्ठभूमि से जुड़ी हुई जीवन को देखने की खास भाषा और समझ की काफी भूमिका है। अपने क्षेत्र की सामाजिक-जनतंत्रवादी प्रवृत्तियों और प्रगतिशील उदारतावाद से उनका हमेशा घनिष्ठ संबंध रहा है। इसीलिये लातिन अमेरिका के दक्षिणपंथी उनके प्रति शत्रुता की भावना रखते हैं। वे उन्हें कास्त्रो का खतरनाक एजेंट समझते हैं। कहते है, क्यों नहीं वह अपनी सारी संपत्ति गरीबों में बांट देता है। मार्केस को मिली सुख-सुविधाओं पर वे अक्सर छींटाकशी करते रहते हैं। सच्चाई यह है कि ‘‘पैसों के मामले में मार्केस बहुत उदार है क्योंकि इसे उन्होंनें किसी के शोषण से नहीं, अपने टाइपराइटर के बल पर अर्जित किया है।’’
मेंडोजा मार्केस की रचनाओं में एकाकीपन के स्थायी भाव का उल्लेख करते हुए कहते हैं, यह एकाकीपन अर्काटका में नाना के घर बिताये बचपन, पैसे न होने से बोगोतॉ की ट्रामों में कविता के साथ बिताये गये रविवार के दिन, रहने की और कोई जगह न होने पर बैरनकिल्ला की वेश्याओं के कोठों पर गुजारे दिनों के एक नौजवान के लंबे अनुभवों से उनके पीछे लगा हुआ है। विश्व-प्रसिद्ध हो जाने पर भी अब तक यह एकाकीपन उनसे चिपका हुआ है। पार्टियों की शामों में वे अक्सर अकेले हो जाते हैं। मेंडोजा लिखते है, ‘‘कर्नल आर्तियानों बुवेन्दिया (वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड का एक केंद्रीय चरित्र - अ.मा.) जिन बत्तीस लड़ाइयों में पराजित हो गया था, उसने उन्हें तो जीत लिया, लेकिन बुवेन्दियाओं की तमाम पीढि़यां जिस अटल प्रारब्ध से अभिशप्त है, मार्केस आज भी उससे बंधे हुए हैं।’’


मार्केस की रचनाशीलता में उनके परिवार की स्मृतियों की काफी बड़ी भूमिका रही है। मां के साथ अपने संबंधों को वे बहुत ही गंभीर किस्म का बताते हैं। वे कहते हैं कि मैं अपनी मां को हर बात कह सकता हूं। मेरे तमाम चरित्रों की रूह को मां से अच्छी तरह कोई नहीं पहचानता। ‘वन हन्ड्रेड ईयर्स ऑफ सालिच्यूड’ की उर्सूला में वे अपनी मां की कई विशेषताओं की झलक की बात कहते हैं। उर्सूला के बारे में उनका कहना है कि उर्सुला मेरे लिये एक आदर्श नारी पात्र है, इस अर्थ में कि एक नारी के बारे में मैं जो सोचता हूं, उसमें वे सारी चीजें मौजूद है। मेंडोजा से अपनी बात-चीत में वे कहते हैं कि मरेी मां की उम्र जितनी बढ़ रही है, वह जैसे उतनी ही ज्यादा उर्सुला में ढलती जा रही है। नाना के घर पर अनेकों स्त्रियों के बीच बिताये बचपन के कारण मार्केस अभी भी औरतों के मध्य ही स्वयं को अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं।’’
मार्केस अक्सर लोगों से अपनी मां की कठोर गरीबी भरी पुरस्कार-विहीन जिंदगी की चर्चा किया करते हैं। मां के चरित्र को उन्होंने अपने उपन्यास ‘क्रानिकल ऑफ अ डेथ फोरटोल्ड’ में लिया है। हमेशा मां की बातें करते रहने पर एक बार पिता ने मजाक में अपने एक मित्र से कहा था कि ‘‘वह एक ऐसा चूजा है जिसकी पैदाइश में मुर्गे की कोई भूमिका नहीं है।’’ गाब्रियल कहते हैं कि दरअसल पिता को उन्होंने कभी जाना ही नहीं। नाना के घर से आठ साल की उम्र में जब मां-बाप के साथ रहने आया तो मेरे मस्तिष्क पर नाना छाये हुए थे। पिता की प्रकृति नाना से बिल्कुल विपरीत थी। नाना उदारपंथी थे, पिता संरक्षणवादी। दोनों के व्यक्तित्व, दुनिया के प्रति नजरिया, बच्चों के साथ संबंध बिल्कुल अलग-अलग थे। उसी वक्त पिता से मन में जो दूरी बन गयी, वह कभी पट नहीं पायी, यद्यपि पिता से कभी किसी बात पर झगड़ा भी नहीं हुआ।
मार्केस की पत्नी मर्सीडीज सकर कस्बे की है जहां दोनों परिवार कई वर्ष रह चुके थे। मार्केस जब छुट्टियों में घर आते थे, अक्सर मर्सीडीज से मुलाकात हुआ करती थी। तेरह साल की उम्र में ही खेल-खेल में मार्केस ने उससे शादी की बात कह दी थी। मर्सीडीज से अपनी शादी को वे एक खयाली पुलाव के धीरे-धीरे यथार्थ में बदलने की स्वाभाविक घटना मानते हैं। मेंडोजा ने अपनी पुस्तक में मार्केस से जो अन्तिम प्रश्न किया है कि आपको अपनी जिंदगी में कौन सबसे दिलचस्प व्यक्ति लगता है तो मार्केस का जवाब था - मेरी पत्नी मर्सीडीज।
नाना के उदारतावादी विचारों के संस्कार ने मार्केस में विद्रोही विचारों के बीज डालें। स्कूल में ऐेसे शिक्षक मिले जो मार्क्सवादी रूझान के थे। ‘‘बीजगणित के शिक्षक घंटी बजने के बाद ऐतिहासिक भौतिकवाद पढ़ाया करते थे, रसायनशास्त्र के शिक्षक लेनिन की किताबें पढ़ने दिया करते थे और इतिहास के शिक्षक वर्ग संघर्ष के बारे में बताया करते थे।’’ मार्केस कहते हैं कि जब स्कूल से निकला तो मुझे ‘‘उत्तर और दक्षिण का ज्ञान नहीं था, लेकिन मुझमें दो गहरे विश्वास थे। एक यह कि अच्छज्ञ उपन्यास यथार्थ का काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण होता है, तथा दूसरा यह कि मानवता का फौरी भविष्य समाजवाद में है।’’
बाद के दिनों में मार्केस कुछ दिनों तक कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े भी रहे। उन्होंने कभी भी क्यूबा को सोवियत-नक्षत्र नहीं माना, जो इस अमेरिकी महादेश में सबसे ज्यादा प्रचारित बात थी। उनकी मान्यता रही है कि अमेरिका के शत्रुतापूर्ण और बैरी रुख के कारण लंबे अर्से तक क्यूबा की क्रांति को आपात स्थिति में रहना पड़ा है। अमेरिका के फ्लोरिडा तट से मात्र 90 मील की दूरी पर किसी वैकल्पिक प्रशासन व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन ’’लातिन अमेरिका का भविष्य लातिन अमेरिका में ही निर्धारित होगा, कहीं और नहीं। इसके अलावा और कुछ भी सोचना एक यूरोपियन जिद है।’’


मार्केस का फिदेल कास्त्रो से बहुत दोस्ताना संबंध है। फिदेल उनके उपन्यासों के अच्छे पाठकों में एक हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति मितेरां से भी मार्केस के दोस्ताना संबंध है।
राजनीति के विभिन्न संदर्भों में बात करते हुए अंत में मेंडोजा जब उनसे पूछते हैं कि आप अपने देश में कौन सी सरकार देखना पसंद करेंगे तो मार्केस का दो-टूक जवाब था -‘‘ ऐसी सरकार जो गरीबों को खुशहाल कर सके।’’

* गाब्रियल गार्सिया मार्केस का यह जीवन-परिचय प्लिनियो अपुलेमो मेंडोजा की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फ्रैगरेंस ऑफ गुआवा’ (अमरूद की सुगंध) के आधार पर लिखा गया है। यह पश्चिमबंग हिंदी अकादमी की पत्रिका ‘धूमकेतु’ के जनवरी-मार्च 1992 के अंक में प्रकाशित हुआ था। मेंडोजा ने अपनी पुस्तक मार्केस से जुड़े संस्मरणों, स्वतंत्र गवेषणा और उनसे हुई बातचीत के आधार पर तैयार की थी।

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