विदेश सचिव पद से जिस भद्दे ढंग से सुजाता सिंह को एक झटके में विदा किया गया है, यह बताने के लिये काफी है कि अब तक की सारी कूटनीतिक कसरतों के बाद मोदी जी पर विफलता का अवसाद हावी होना शुरू हो गया है। ठीकरा फोड़ा गया है नौकरशाही पर।
सुजाता सिंह का कार्यकाल पूरा नहीं हुआ था। वे अभी जाने को इच्छुक भी नहीं थी। और तो और, खबरों के अनुसार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से उनकी संगति बैठ गयी थी। उनके काल में विश्व देवता ओबामा का मोदी जी का पांच बार दर्शन का मौका मिला। चीन, रूस और सारी दुनिया के न जाने कितने देशों के राष्ट्रप्रधानों से मोदी जी की सीधी दोस्ती हुई। लेकिन जिस ओबामा यात्रा का झंडा उठा कर मोदी जी दिल्ली का चुनाव जीतने उतरे हुए हैं, उसी के पूरा होते न होते, इस यज्ञ के प्रमुख होता का ही पत्ता साफ कर दिया गया। ओबामा गये और उसके दो दिन बाद ही विदेश सचिव भी गयी। उनकी जगह अमेरिका में वर्तमान राजदूत एस. जयशंकर को ले आया गया है।
सुजाता सिंह ने जाते-जाते एक छोटा सा नोट लिखा है, जिसके बारे में कहते हैं - देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर। अपने इस नोट में उन्होंने लिखा है कि विदेश मंत्रालय एक संस्थान है जिसमें व्यक्ति की नहीं, संस्थान की भूमिका प्रमुख होती है। पिछले दिनों इस संस्थान को जो भी काम सुपुर्द किये गये, उनका पूरी मुस्तैदी के साथ पालन किया गया।
सुजाता सिंह के इस कथन से ही साफ है कि नौकरशाही की जिम्मेदारी नीतियों पर अमल की होती है, नीतियां बनाने की नहीं। नीतियों की सफलता-विफलता का दायित्व राजनीतिक नेतृत्व का है। उन्हें जो करने के लिये कहा गया, उन कामों को उन्होंने सफलता से किया।
जाहिर है कि मोदी जी ने विदेश नीति के जरिये स्वदेश को साधने का जो उल्टा रास्ता पकड़ा है, उसके औंधे मूंह गिरने की जिम्मेदारी विदेश मंत्रालय क्यों लेगा। सुजाता सिंह का नोट यही कहता है।
भारतीय राजनीति का यह एक बड़ा सबक है कि जिसने भी विदेश नीति को केंद्र में रख कर राष्ट्रीय राजनीति पर निर्णय लिये है, उसके पास सिवाय मूंह के बल गिरने के कोई दूसरा चारा नहीं रहता। खास तौर पर अमेरिका के साथ संबंधों के मसले पर तो और भी नहीं।
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