अरुण माहेश्वरी
क्या दिल्ली चुनाव नरेंद्र मोदी का वाटरलू साबित होने जा रहा है ? केंद्र सरकार को आईबी की रिपोर्ट भी कुछ ऐसा ही संकेत देती है। इस बात के कुछ ठोस कारण और लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं ।
पहला, भाजपा के लिये दिल्ली के ग्रामीण इलाक़ों में कोई भविष्य नहीं बचा है । केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण के बारे में जो अध्यादेश जारी किया है, वह शहरी क्षेत्रों के निकट की ग्रामीण जनता के खिलाफ सीधे तौर पर युद्ध की घोषणा से कम नहीं है ।
दूसरा, दिल्ली के बस्ती इलाक़ों में भाजपा की स्थिति पहले से ही कमज़ोर रही है और अभी तक उसमें कोई सुधार नहीं आया है । कॉलोनियों को रेगुलराईज करने की दिशा में सिर्फ एक घोषणा भर की गयी है, जिसकी कोई क़ानूनी वैधता नहीं है । इस मामले में भाजपा के इरादे आज भी हमेशा की तरह संदेह के घेरे में हैं ।
तीसरा, दिल्ली के अल्प-संख्यकों में अब कोई दुविधा नहीं है । भाजपा और संघ परिवार के नेताओं की धर्म-परिवर्तन और नफ़रत फैलाने की हरकतों तथा गिरजाघरों में आगज़नी की घटनाओं ने अल्पसंख्यकों के सभी समुदायों को भाजपा के खिलाफ दूसरे किसी भी समय की तुलना में कहीं ज्यादा एकजुट कर दिया है । संघ परिवार के लोगों की दंगा भड़काने की साज़िशों का आम आदमी पार्टी के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने जिस बहादुरी से मुक़ाबला किया, उसने इन समुदायों को और भी जागृत किया है ।
चौथा, पेट्रोलियम पदार्थों की अन्तरराष्ट्रीय दरों में भारी गिरावट के बावजूद रोजमर्रे की ज़रूरी चीज़ों के दामों को कम करने में भाजपा सरकार की पूर्ण विफलता ने मध्यवर्ग के तबक़ों का भाजपा के प्रति मोहभंग किया है ।
पांचवा, भ्रष्टाचार के मामले में भाजपा पर पहले भी किसी को कोई भरोसा नहीं था । अब भाजपा के परंपरागत नेताओं को हटा कर किरण बेदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने का फ़ैसला करके खुद भाजपा के सर्वोच्च नेतृत्व ने भी खुले आम दिल्ली की भाजपा के प्रति अविश्वास जाहिर कर दिया है ।
छठा, किरण बेदी एक अक्षम पुलिस अधिकारी रही हैं । उन्हें पुलिस सेवा में भी अराजक व्यवहार और निकम्मेपन की वजह से किसी भी उच्च पदस्थ अधिकारी को स्वाभाविक तौर पर मिलने वाले पदक भी नहीं मिल पाए । इसके अलावा, आम आदमी पार्टी के पूरे आंदोलन में उनकी भूमिका एक तोड़क की भूमिका रही । ऐसे विफल व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करके चुनाव में उतरना भाजपा के परंपरागत मतदाताओं के विश्वास को भी हिला देने के लिये काफी है ।
और सातवां, नरेन्द्र मोदी की सभा में उम्मीद से बेहद कम लोगों का आना और अरविंद केजरीवाल की सभाओं में भारी भीड़ का उमड़ना ही वह प्रमुख कारण रहा है, जिसकी वजह से मोदी जी ने दिल्ली में खुद को दाव पर लगाना मुनासिब नहीं समझा । किरण बेदी की खोज भी इसीलिये की गई है ।
इसके अलावा, प्रधानमंत्री और उनके पूरे मंत्रिमंडल, पूरी केंद्रीय सरकार का दिल्ली के चुनाव में इस प्रकार भारी आडंबर के साथ कूद पड़ना जनता की नजरों में भाजपा की जीत को संदिग्ध बनाने और उसकी धार को कुंद कर देने का करतब साबित होगा। हम देख चुके हैं कि जब अरविंद केजरीवाल ने जन-लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस की मोलभाव न स्वीकारते हुए मुख्यमंत्री पद को त्याग दिया था, उस समय भगोड़ा-भगोड़ा का शोर मचा कर भाजपा वालों ने दिल्ली के लोगों को एक नकली लड़ाई में उलझाने की कोशिश की थी। आज जब चुनाव आ चुका है तब वे उन्हें जनतंत्र के असली मुद्दों की लड़ाई में उतरने से रोकने की कोशिश कर रहे हैं। वे असली बहस से कन्नी काट रहे हैं। अपने को विचारों से ऊपर बता कर जनमत पर आरोपित करना चाहते हैं। राज्य के शीर्ष पर बैठ कर बीन बजाकर शुद्ध रूप से लोगों को नचाना चाहते हैं। आज तक शायद किसी ने भी आम लोगों की मूढ़ता पर विश्वास करके इससे अधिक मूढ़पन के साथ जुए में दाव नहीं लगाया है।
मोदी सरकार को अभी आठ महीने पूरे हुए हैं। इसी बीच उनकी कूटनीति विफलताओं का जैसे एक संपूर्ण वृत्त पूरा करने जा रही है।
सबसे पहले, अपनी ताजपोशी के समय ही उन्होंने पड़ौसी देशों और सार्क को छुआ था। छ: महीने बीतते न बीतते, उनका उत्साह इतने चरम पर चला गया कि नवंबर 2014 में सार्क के 18वें सम्मेलन में उन्होंने उसका दम ही निकाल दिया। अब यह कहना मुश्किल है कि सार्क का अगला सम्मेलन होगा भी या नहीं। पाकिस्तान के साथ तो बातचीत के रिश्ते भी नहीं बचे।
पड़ौसी देशों के बाद 15-16 जुलाई 2014 में ब्राजील के फोर्टालेज़ा और ब्रासीलिया में भारी जोशो-खरोश के साथ वे ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के) सम्मेलन में गये। चारो देश के नेताओं से गलबहियों में वैसा ही उत्साह था जैसा अभी ओबामा के मामले में दिखाई दे रहा है। ब्रिक्स देशों के सुर में सुर मिलाते हुए 100 बिलियन डालर के कोष के साथ न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनबीडी) के गठन की घोषणा से आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक को चुनौती दी। उसका सदर दफ्तर शंघाई में होगा और पहला अध्यक्ष भारत का। सभी क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाने की औपचारिकता के साथ बात खत्म होगयी।
ब्रिक्स सम्मेलन के दो महीने बाद ही सितंबर में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आएं। बंगलौर गये, गुजरात गये, कुछ वाणिज्यिक संधियां की। लेकिन जब वे भारत में थे, उसी समय लद्दाख की सीमा पर भारतीय और चीनी फौज के बीच तनातनी चल रही थी। आज अब स्थिति यह है कि चीन साफ कह रहा है कि वह पाकिस्तान का दामन नहीं छोड़ सकता है। ब्रिक्स सम्मेलन में प्रधानमंत्री के साथ शी जिनपिंग की गलबहियों से जुड़े विशेष तार टूट गये। चीन ने ओबामा की भारत यात्रा पर छींटाकशी में कोई कोताही नहीं बरती है।
अबतक की इन सारी कूटनीतिक कसरतों के शीर्ष पर आई है ओबामा की यह भारत यात्रा। इसके पहले नवंबर 2014 में ही मोदी जी अमेरिका घूम आये थे और न्यूयार्क के मैडिसन स्क्वायर पर जो तमाशा किया, उसे याद करते हुए आज भी ओबामा अपने भाषण में हॉलिवुड के नायकों की चर्चा कर रहे थे। ओबामा की भारत यात्रा ही तो वह अंतिम मुकाम था, जहां मोदी जी के अब तक के सारे कूटनीतिक कर्मों को फलीभूत होना था। मोदी जी की कूटनीति के लिये यह कुछ ऐसी ही है, जिसे कहते हैं, अंत भला तो सब भला। अब तक अच्छा-बुरा जो भी क्यों न हुआ हो, अमेरिका अगर मान गया तो फिर भवसागर पार ही समझो। इसीलिये हर प्रोटोकोल और औपचारिकता को बालाएं ताक रख कर उन्होंने खुद अपने हाथों से ओबामा को चाय पिलाई, उन्हें नाम से पुकारा और उनसे अपनी पक्की दोस्ती की बाकायदा घोषणा भी कर दी। तथाकथित परमाणविक संधि, जिसे भूलवश भारतवासियों ने भारत-अमेरिका संबंधों की कुंजी मान लिया है, उसपर अमल की सारी बाधाएं दूर कर दी गयी।
इन सबके बाद भी, अचरज की बात है कि यह सवाल रह गया है - आगे क्या? एक बात साफ हो चुकी है कि परमाणु ऊर्जा संयत्रों की स्थापना तो एक शुद्ध मृग-मरीचिका है। आज के पूरी तरह से बदल चुके ऊर्जा के विश्व-परिदृश्य में भला भारत की ऐसी कौन सी निजी कंपनी होगी, जो अपनी बलि चढ़ाके ऐसे भारी नुकसानदायी प्रकल्पों में अपना हाथ जलायेगी ? रही बात, भारत-अमेरिका आर्थिक संबंधों को सुधारने की, तो यह सिलसिला अपने खुद के तर्कों पर ही सारी दुनिया के देशों के बीच चल रहा है और चलता रहेगा। इसके लिये शायद राष्ट्राध्यक्षों की आपस में गहरी दोस्ती की जरूरत नहीं है।
भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों में भी, हथियारों के उत्पादन और व्यापार को लेकर जो बातें हुई है, उनमें ऐसा नया कुछ नहीं है जो खास तौर पर भारत का ही हित साधता हो। उल्टे, भारत आने के पहले, पाकिस्तान को ओबामा ने जिस प्रकार आश्वस्त सा किया था, उस मनोभाव में किसी प्रकार के परिवर्तन के कोई आसार नहीं दिखाई दिये हैं।
इसमें ग़ौर करने लायक एक बात यह भी है कि ओबामा की भारत यात्रा की ख़बर मिलते ही रूस के राष्ट्रपति पुतिन भारत का एक तूफ़ानी दौरा (13-14 दिसंबर को) कर गये और एक झटके में रक्षा तथा ऊर्जा को लेकर वे सारे समझौते करा ले गये कि आगे ओबामा के साथ करने के लिये बहुत कुछ शेष नहीं रह गया । भारत की धरती से ओबामा का पुतिन के खिलाफ विष वमन, उन्हें दादागिरी न करने की सलाह देना अकारण नहीं था ।
कुल मिला कर, आसानी से इस नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि इन आठ महीनों की मोदी की सारी कूटनीतिक पहलकदमियां उनकी राष्ट्रीय नीतियों की तरह ही थोथे दिखावे की ज्यादा रही है। राष्ट्रीय क्षेत्र में ऐसा दिखावा भी प्रचार माध्यमों की कृपा से कुछ दिनों तक चल जाता है, भ्रम बना रहता है, लेकिन कूटनीति के क्षेत्र में विफलताओं की गूंज तत्काल और बड़ी तेजी से सुनाई देने लगती है। इसीलिये, नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय नीतियों की अवहेलना करते हुए कूटनीतिक सफलताओं के बल पर राष्ट्रीय राजनीति में अपने महत्व को बनाये रखने की जो उल्टी चाल चली है, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को बैठा कर अकेले ही बाजी मार लेने की जो हड़बड़ी दिखाई है, उसके दुष्परिणामों को उन्हें जल्द ही भुगतना पड़ेगा। दिल्ली के चुनाव में ओबामा उनकी रक्षा नहीं करेंगे।
हाल में, विदेश सचिव पद से जिस भद्दे ढंग से सुजाता सिंह को एक झटके में विदा किया गया है, यह बताने के लिये काफी है कि अब तक की सारी कूटनीतिक कसरतों के बाद मोदी जी पर विफलता का अवसाद हावी होना शुरू हो गया है। ठीकरा फोड़ा गया है नौकरशाही पर।
सुजाता सिंह का कार्यकाल पूरा नहीं हुआ था। वे अभी जाने को इच्छुक भी नहीं थी। और तो और, खबरों के अनुसार विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से उनकी संगति बैठ गयी थी। उनके काल में विश्व देवता ओबामा का मोदी जी को पांच बार दर्शन का मौका मिला। चीन, रूस और सारी दुनिया के न जाने कितने देशों के राष्ट्रप्रधानों से मोदी जी की सीधी दोस्ती हुई। लेकिन जिस ओबामा यात्रा का झंडा उठा कर मोदी जी दिल्ली का चुनाव जीतने उतरे हुए हैं, उसी के पूरा होते न होते, इस यज्ञ के प्रमुख होता का ही पत्ता साफ कर दिया गया। ओबामा गये और उसके दो दिन बाद ही विदेश सचिव भी गयी। उनकी जगह अमेरिका में वर्तमान राजदूत एस. जयशंकर को ले आया गया है।
सुजाता सिंह ने जाते-जाते एक छोटा सा नोट लिखा है, जिसके बारे में कहते हैं - देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर। अपने इस नोट में उन्होंने लिखा है कि विदेश मंत्रालय एक संस्थान है जिसमें व्यक्ति की नहीं, संस्थान की भूमिका प्रमुख होती है। पिछले दिनों इस संस्थान को जो भी काम सुपुर्द किये गये, उनका पूरी मुस्तैदी के साथ पालन किया गया।
सुजाता सिंह के इस कथन से ही साफ है कि नौकरशाही की जिम्मेदारी नीतियों पर अमल की होती है, नीतियां बनाने की नहीं। नीतियों की सफलता-विफलता का दायित्व राजनीतिक नेतृत्व का है। उन्हें जो करने के लिये कहा गया, उन कामों को उन्होंने सफलता से किया। जाहिर है कि मोदी जी ने विदेश नीति के जरिये स्वदेश को साधने का जो उल्टा रास्ता पकड़ा है, उसके औंधे मूंह गिरने की जिम्मेदारी विदेश मंत्रालय क्यों लेगा। सुजाता सिंह का नोट यही कहता है। भारतीय राजनीति का यह एक बड़ा सबक है कि जिसने भी विदेश नीति को केंद्र में रख कर राष्ट्रीय राजनीति पर निर्णय लिये है, उसके पास सिवाय मूंह के बल गिरने के कोई दूसरा चारा नहीं रहता। खास तौर पर अमेरिका के साथ संबंधों के मसले पर तो और भी नहीं।
सचमुच, जो चीज आसानी से हाथ में आती है, उतनी ही आसानी से चली भी जाती है। दिल्ली से अब उस तूफान के खत्म होने का सिलसिला शुरू हुआ है, जिसने आठ महीने पहले बेखबरी की स्थिति में इस देश को पकड़ लिया था। अब घृणित मध्ययुगीन सांप्रदायिक राजनीति, भूमि अधिग्रहण संबंधी सबसे निकृष्ट अध्यादेश और कॉरपोरेट को सब कुछ सौंप देने की इनकी बदहवासी ने मात्र आठ महीनों में ही इनके सारे उल्लास को अवसाद में बदलना शुरू कर दिया है। दिल्ली चुनाव में इनकी भाव-भंगिमाओं से ऐसा ही प्रतीत होता है।
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