अरुण माहेश्वरी
आज तक चर्चा हमेशा भाषा और मनुष्य की अथवा भाषा और समाज की होती रही है। लेकिन इधर कुछ तबकों से भाषा और बाजार के संबंधों पर चर्चा पर बल दिया जा रहा है। जैसे आदमी के काम में आने वाली हर चीज को एक पण्य, बिकाऊ माल बनाया जा रहा है, प्रकृति से सहज प्राप्त हवा और पानी तक को, श्रम-शक्ति को श्रम के बाजार का पण्य माना ही जाता है वैसे ही क्यों न मनुष्य की तमाम नैसर्गिकताओं को कोरा माल बना कर बेचा जाए! भाषा और बाजार की चर्चा में कहीं न कहीं कुछ इसी प्रकार की समझ काम कर रही होती है -भाषा के पैकेज बना कर उसे बाजार में चलाने की समझ। उसी प्रकार, जैसे वित्तीय उत्पादों के पैकेज, लाइफ स्टाइल अर्थात जीने के तौर तरीकों, स्वास्थ्य-व्यायाम के पैकेज। और, सारे मामले को कुछ इसप्रकार पेश किया जाता है कि यदि हम भाषा को किसी पैकेजबंद बिकने वाले माल का रूप नहीं देते हैं तो उससे भाषा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। अन्य सभी मालों की तरह भाषा भी एक माल है और मालों का चलन निर्भर करता है बाजार पर, इसीलिये भाषा का अस्तित्व भी समाज नहीं बाजार तय करेगा !
इसे ही कहते है माल की और उसके विचरण के क्षेत्र, बाजार की अंधपूजा। मालांधता। माल जो ईश्वर की तरह मनुष्य द्वारा निर्मित लेकिन उसी की तरह सर्व-व्यापी, सर्वशक्तिमान ! और संसार - महज एक बाजार! बाजार का सच यह है कि इसमें हर चीज अपने मूल रूप को गंवा कर सिर्फ नगद-कौड़ी से विनिमय के लायक माल का रूप ले लेती है, उसकी अपनी चारित्रिक-विशेषता का कोई अर्थ नहीं होता। फिर भी मजे की बात यह है कि इसी बाजार को, वस्तु की अपनी चारित्रिक विशेषता का हनन करने वाले तंत्र को भाषा की तरह के मनुष्य की नैसर्गिकता से, अन्य प्राणियों से उसे विशिष्ट बनाने वाले पहलू से जुड़े विषय के विकास का साधन मान कर बाजार की सर्वस्वता का ढिंढोरा पीटा जाता है।
सवाल है कि ऐसा क्यों है और ऐसा कौन करता है ? मनुष्यों के समाज में, सभ्यता के विकास के साथ ही पठन-पाठन के क्षेत्र के पेशेवरों की भी एक फौज हमेशा से रही है। एक काल में तो भाषा-ज्ञान ही सब ज्ञान का मूल माना जाता था और पंडितों की प्रमुख भूमिका विधार्थियों को भाषा ज्ञान कराने की ही होती थी। भाषाओं के विकास के एक लंबे इतिहास में भाषा स्वयं एक अर्जित सचाई है, लेकिन वह आदमी की अपनी आंतरिक, नैसर्गिक, अभिव्यक्ति की जरूरत से जुड़ी सचाई है, उससे बाहर के किसी बाजार की नहीं।
यदि भाषाओं का भविष्य बाजार पर ही निर्भर है, तो यह तय माना जाना चाहिए कि दुनिया की किसी भी भाषा का कोई भविष्य नहीं है। बाजार को भाषाओं के किसी जटिल या विकसित तंत्र की जरूरत नहीं है। वह तो बहुत सीमित चिन्हों, इशारों के बल पर ही अपना काम चला लेता है। जैसे शेयर बाजार और फाटका बाजारों में तो हमेशा उंगलियों के इशारों से सौदे होते रहे हैं। आज सारी दुनिया का बाजार भाषाओं के प्रयोग से पूरी तरह मुक्त, डिजिटल ऐप्स के जरिये संचालित होने की दिशा में बढ़ रहा है।
इसीलिये, किसी भी भाषा का अस्तित्व, उसका भविष्य कत्तई बाजार के साथ जुड़ी हुई सचाई नहीं है। उसका भविष्य ठीक इसके उल्टे, मनुष्य के अस्तित्व की इस सचाई में निहित है कि आदमी हमेशा एक उपभोक्ता नहीं होता। जीवन में वह हमेशा स्वार्थों और तात्कालिक प्रयोजनों के द्वारा चालित नहीं होता। वह हमेशा बहुत कुछ ऐसा करता होता है, जिसके पीछे कोरे स्वार्थ नहीं होते, कोई तात्कालिक प्रयोजन नहीं होता।
मसलन्, साहित्य को ही लिया जाए। आदमी साहित्य किसी स्वार्थवश नहीं पढ़ता। वह सिर्फ अपनी आत्मिक जरूरतों से, मनुष्य होने की अपनी नैसर्गिकता के कारण पढ़ता है। और सच कहा जाए तो यही वह बिंदु है जहां से भाषा का असली और सबसे गहरा संबंध होता है। भाषा किसी राजा या प्रशासन या शिक्षाशास्त्री के आदेशों की मुहताज नहीं होती। वह सिर्फ संवेदनशील होती है साहित्य के इशारों के प्रति।
हिंदी को ही देख लीजिये। डा. रघुवंश अथवा सरकारी राजभाषा विभाग हिंदी का भाग्य निर्धारित नहीं कर पाये हैं, जबकि इनके प्रकल्पों पर अब तक अरबों रुपये खर्च हो गये हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों से हिंदी भाषा का रत्ती भर भी लाभ हुआ है, कोई नहीं मानेगा। इसके विपरीत, हिंदी कविता की धारा छायावाद को लेते हैं। छायावादियों की भाषा में बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जो आज भी आम बोलचाल की भाषा में दाखिल नहीं हो पाया है, लेकिन जो साहित्य पर विश्वास करते हैं वे भाषा के इस रूप के प्रति तब से लेकर आज तक, समान रूप से उत्साहित है। वही हिंदी भाषी जनता की आधुनिक जरूरतों को पूरा करती है, देश की दूसरी अधिकांश जातीय भाषाओं से उसका एक सहजात रिश्ता कायम करती है; भारत की राष्ट्रीय एकता का आधार तैयार करती है।
इसीलिये कहना न होगा, जब भी भाषा और बाजार के रिश्तों पर अतिरिक्त बल दिया जाता है, तब वह और कुछ नहीं, भाषाओं के खासप्रकार के पेशेवरों की एक मुहिम का हिस्सा होता है।
हम यहां फिर से दोहराना चाहेंगे कि भाषा आदमी की नैसर्गिकता है, अन्य प्राणियों से उसे अलगाने वाली, बुद्धि का सबसे प्रमुख अंग। बल्कि अनेक अर्थों में खुद मनुष्य। और बाजार है मनुष्य की, उसके समाज की एक निर्मिति। इसीलिये भाषा के साथ बाजार के संबंध का विषय मनुष्य के साथ उसकी निर्मिति के संबंध का विषय है। फिर भी मजे की बात यह है कि आज के दौर में, हमारा व्यवहार हमेशा कुछ ऐसा रहता है कि जैसे बाजार को मनुष्य नहीं बल्कि मनुष्य को बाजार तैयार कर रहा है। ज्ञान के स्तर पर इस बात को जानते हुए भी कि बाजार को आदमी ने अपने आर्थिक विनिमय की जरूरतों को पूरा करने के लिये तैयार किया है, व्यवहार के स्तर पर बाजार के प्रति हमारे अंदर एक ऐसी अंधता छायी रहती है मानो आदमी ने अपने सोचने-समझने और निर्णय लेने की सारी क्षमताओं को खुद के बाहर की, बाजार की शक्ति के हवाले कर दिया है। कहना न होगा, हमारा यह सामाजिक व्यवहार एक भ्रम का शिकार होता है, जिसके मूल में हमारा ज्ञान नहीं बल्कि शुद्ध व्यवहार होता है।
सामान्यतया यह माना जाता है कि आदमी की आस्था और विश्वास उसके आत्मिक विषय है, और ज्ञान बाहरी, अर्थात ऐसा विषय जिसे बाहरी उपायों से जांचा-परखा जा सकता है। लेकिन बाजार की प्रमुखता के इस दौर में हमारी आस्था और विश्वास भी हमसे बाहर की वस्तु बन जाते हैं। हम नहीं सोचते, हमारे लिये बाजार सोचता है। बाजार की आस्था और विश्वास प्रमुख हो जाता है, हमारी अपनी आस्था और विश्वास नहीं। जैसे बौद्ध मठों में प्रार्थना का घूमता हुआ चक्र होता है। उस घूमते हुए बेलनाकार डिब्बे में कागज के टुकड़े पर प्रार्थना को लिख कर डाल कर यह मान लिया जाता है कि वह डब्बा प्रार्थना के स्वरों को स्वत: चारों दिशाओं में तरंगित कर दे रहा है। जैसे मनुष्यों का समूह गान, जिसमें शामिल आदमी अपना स्वर जब चाहे मिलाये और जब चाहे थक कर रुक जाए, गान की तान नहीं टूटती।
जाहिर है, भाषा, संगीत या साधना के किसी भी रूप में कर्मकांडी कार्यों का योगदान खुद में एक कोरा भ्रम है, हमारे सामाजिक यथार्थ में निहित भ्रम। इनसे न भाषा का, न मनुष्य की दूसरी किसी नैसर्गिकता का वास्तविक संरक्षण या संबद्र्धन होता है।
हम हिंदी के संदर्भ में ही बाजार की चर्चा करें। भाषाई सर्वेक्षणों पर लगातार काम करने वाले डा. जयंती प्रसाद नौटियाल के अनुसार, आज हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के द्वारा बोली और समझे जाने वाली भाषा है। दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा इसे समझता है, जबकि चीनी भाषा मैंडरीन को समझने वालों की संख्या 15.27 प्रतिशत और अंग्रेजी समझने वालों की संख्या 13.85 प्रतिशत बताया गया है। इस बारे में और ज्यादा तथ्यों पर विस्तार से जाने के बजाय यह अकेला तथ्य ही यह बताने के लिये काफी है कि भाषा का संपर्क यदि मनुष्यों की नैसर्गिकता से है तो हिंदी भाषा के अस्तित्व पर किसी प्रकार के खतरे का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है।
लेकिन जब भी हम बाजार को मनुष्य के भाग्य का अंतिम नियंता मान लेंगे तो मामला उलट जाता है। असली बात यह है कि तब सवाल भाषा की रक्षा या विकास का नहीं, बाजार पर हिंदी भाषी लोगों के वर्चस्व का, एक प्रकार के हिंदी अंध-राष्ट्रवाद का हो जाता है। इसका भाषा के अस्तित्व और विकास से कोई संबंध नहीं होता। जैसा कि हमने पहले ही कहा, बाजार को भाषाओं के विकास से कोई मतलब नहीं है। समाज यदि कोरा बाजार होगा तो हिंदी क्या, शायद किसी भी भाषा की जरूरत शेष नहीं रहेगी। मनुष्य ऐप्स का प्रयोग करने वाला ‘एप’ (बंदर) भर होगा। भाषा संबंधी बाजार-चेतना एक प्रकार का पागलपन है। झूठे भय पर टिका पागलपन।
इसीलिये भाषाओं के विकास की असली गारंटी साहित्य के विकास में है। जैसे सामाजिक विकास की भी असली गारंटी बाजार से मुक्ति और मनुष्यों के समतापूर्ण समाज के विकास में है। भाषा का पण्यीकरण सिर्फ एक सीमित समुदाय, भाषा के पेशेवरों के हितों को साधने का साधन हो सकता है। इससे भाषा के अपने विकास का कोई संबंध नहीं है।
यह बाजारंधता एक प्रकार का उन्माद है। मनोविश्लेषक इसप्रकार के उन्माद के लिए एक ऐसे पागल का चुटकुला सुनाते हैं, जो यह मान लेता है कि वह मनुष्य नहीं, मक्के की एक दाना भर है। पागलखाने में इलाज के बाद जब वह समझ जाता है कि वह मक्के का दाना नहीं बल्कि मनुष्य है, तो उसे पागलखाने से छोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत जल्द ही वह, बाहर एक मुर्गे को देखकर इतना डर जाता है कि फिर पागलखाने में आजाता है। डाक्टरों ने जब उससे पूछा कि तुम तो जानते हो कि तुम मनुष्य हो, फिर किस बात का डर है? तो वह कहता है, मैं तो जानता हूं कि मैं मनुष्य हूं, लेकिन वह मुर्गा इस बात को नहीं जानता। यह है मुर्गे का, अर्थात बाहर के बाजार का आतंक ! निष्ठा आंतरिक विषय नहीं, बाहरी विषय हो जाती है।
कहना न होगा, मनुष्य अगर कोरा उपभोक्ता पशु होगा तो उसको भाषा की कोई प्रयोजनीयता नहीं रहेगी, किसी भी भाषा की नहीं। लेकिन, मनुष्य अपनी अस्मिता के लिये हर क्षण जूझने वाला प्राणी है। यही उसका असली प्राणी-सत्य है। और इसी में भाषा का भविष्य भी सुरक्षित है। किसी बाजार का पण्य बनने में कदापि नहीं ।
आज तक चर्चा हमेशा भाषा और मनुष्य की अथवा भाषा और समाज की होती रही है। लेकिन इधर कुछ तबकों से भाषा और बाजार के संबंधों पर चर्चा पर बल दिया जा रहा है। जैसे आदमी के काम में आने वाली हर चीज को एक पण्य, बिकाऊ माल बनाया जा रहा है, प्रकृति से सहज प्राप्त हवा और पानी तक को, श्रम-शक्ति को श्रम के बाजार का पण्य माना ही जाता है वैसे ही क्यों न मनुष्य की तमाम नैसर्गिकताओं को कोरा माल बना कर बेचा जाए! भाषा और बाजार की चर्चा में कहीं न कहीं कुछ इसी प्रकार की समझ काम कर रही होती है -भाषा के पैकेज बना कर उसे बाजार में चलाने की समझ। उसी प्रकार, जैसे वित्तीय उत्पादों के पैकेज, लाइफ स्टाइल अर्थात जीने के तौर तरीकों, स्वास्थ्य-व्यायाम के पैकेज। और, सारे मामले को कुछ इसप्रकार पेश किया जाता है कि यदि हम भाषा को किसी पैकेजबंद बिकने वाले माल का रूप नहीं देते हैं तो उससे भाषा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। अन्य सभी मालों की तरह भाषा भी एक माल है और मालों का चलन निर्भर करता है बाजार पर, इसीलिये भाषा का अस्तित्व भी समाज नहीं बाजार तय करेगा !
इसे ही कहते है माल की और उसके विचरण के क्षेत्र, बाजार की अंधपूजा। मालांधता। माल जो ईश्वर की तरह मनुष्य द्वारा निर्मित लेकिन उसी की तरह सर्व-व्यापी, सर्वशक्तिमान ! और संसार - महज एक बाजार! बाजार का सच यह है कि इसमें हर चीज अपने मूल रूप को गंवा कर सिर्फ नगद-कौड़ी से विनिमय के लायक माल का रूप ले लेती है, उसकी अपनी चारित्रिक-विशेषता का कोई अर्थ नहीं होता। फिर भी मजे की बात यह है कि इसी बाजार को, वस्तु की अपनी चारित्रिक विशेषता का हनन करने वाले तंत्र को भाषा की तरह के मनुष्य की नैसर्गिकता से, अन्य प्राणियों से उसे विशिष्ट बनाने वाले पहलू से जुड़े विषय के विकास का साधन मान कर बाजार की सर्वस्वता का ढिंढोरा पीटा जाता है।
सवाल है कि ऐसा क्यों है और ऐसा कौन करता है ? मनुष्यों के समाज में, सभ्यता के विकास के साथ ही पठन-पाठन के क्षेत्र के पेशेवरों की भी एक फौज हमेशा से रही है। एक काल में तो भाषा-ज्ञान ही सब ज्ञान का मूल माना जाता था और पंडितों की प्रमुख भूमिका विधार्थियों को भाषा ज्ञान कराने की ही होती थी। भाषाओं के विकास के एक लंबे इतिहास में भाषा स्वयं एक अर्जित सचाई है, लेकिन वह आदमी की अपनी आंतरिक, नैसर्गिक, अभिव्यक्ति की जरूरत से जुड़ी सचाई है, उससे बाहर के किसी बाजार की नहीं।
यदि भाषाओं का भविष्य बाजार पर ही निर्भर है, तो यह तय माना जाना चाहिए कि दुनिया की किसी भी भाषा का कोई भविष्य नहीं है। बाजार को भाषाओं के किसी जटिल या विकसित तंत्र की जरूरत नहीं है। वह तो बहुत सीमित चिन्हों, इशारों के बल पर ही अपना काम चला लेता है। जैसे शेयर बाजार और फाटका बाजारों में तो हमेशा उंगलियों के इशारों से सौदे होते रहे हैं। आज सारी दुनिया का बाजार भाषाओं के प्रयोग से पूरी तरह मुक्त, डिजिटल ऐप्स के जरिये संचालित होने की दिशा में बढ़ रहा है।
इसीलिये, किसी भी भाषा का अस्तित्व, उसका भविष्य कत्तई बाजार के साथ जुड़ी हुई सचाई नहीं है। उसका भविष्य ठीक इसके उल्टे, मनुष्य के अस्तित्व की इस सचाई में निहित है कि आदमी हमेशा एक उपभोक्ता नहीं होता। जीवन में वह हमेशा स्वार्थों और तात्कालिक प्रयोजनों के द्वारा चालित नहीं होता। वह हमेशा बहुत कुछ ऐसा करता होता है, जिसके पीछे कोरे स्वार्थ नहीं होते, कोई तात्कालिक प्रयोजन नहीं होता।
मसलन्, साहित्य को ही लिया जाए। आदमी साहित्य किसी स्वार्थवश नहीं पढ़ता। वह सिर्फ अपनी आत्मिक जरूरतों से, मनुष्य होने की अपनी नैसर्गिकता के कारण पढ़ता है। और सच कहा जाए तो यही वह बिंदु है जहां से भाषा का असली और सबसे गहरा संबंध होता है। भाषा किसी राजा या प्रशासन या शिक्षाशास्त्री के आदेशों की मुहताज नहीं होती। वह सिर्फ संवेदनशील होती है साहित्य के इशारों के प्रति।
हिंदी को ही देख लीजिये। डा. रघुवंश अथवा सरकारी राजभाषा विभाग हिंदी का भाग्य निर्धारित नहीं कर पाये हैं, जबकि इनके प्रकल्पों पर अब तक अरबों रुपये खर्च हो गये हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों से हिंदी भाषा का रत्ती भर भी लाभ हुआ है, कोई नहीं मानेगा। इसके विपरीत, हिंदी कविता की धारा छायावाद को लेते हैं। छायावादियों की भाषा में बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जो आज भी आम बोलचाल की भाषा में दाखिल नहीं हो पाया है, लेकिन जो साहित्य पर विश्वास करते हैं वे भाषा के इस रूप के प्रति तब से लेकर आज तक, समान रूप से उत्साहित है। वही हिंदी भाषी जनता की आधुनिक जरूरतों को पूरा करती है, देश की दूसरी अधिकांश जातीय भाषाओं से उसका एक सहजात रिश्ता कायम करती है; भारत की राष्ट्रीय एकता का आधार तैयार करती है।
इसीलिये कहना न होगा, जब भी भाषा और बाजार के रिश्तों पर अतिरिक्त बल दिया जाता है, तब वह और कुछ नहीं, भाषाओं के खासप्रकार के पेशेवरों की एक मुहिम का हिस्सा होता है।
हम यहां फिर से दोहराना चाहेंगे कि भाषा आदमी की नैसर्गिकता है, अन्य प्राणियों से उसे अलगाने वाली, बुद्धि का सबसे प्रमुख अंग। बल्कि अनेक अर्थों में खुद मनुष्य। और बाजार है मनुष्य की, उसके समाज की एक निर्मिति। इसीलिये भाषा के साथ बाजार के संबंध का विषय मनुष्य के साथ उसकी निर्मिति के संबंध का विषय है। फिर भी मजे की बात यह है कि आज के दौर में, हमारा व्यवहार हमेशा कुछ ऐसा रहता है कि जैसे बाजार को मनुष्य नहीं बल्कि मनुष्य को बाजार तैयार कर रहा है। ज्ञान के स्तर पर इस बात को जानते हुए भी कि बाजार को आदमी ने अपने आर्थिक विनिमय की जरूरतों को पूरा करने के लिये तैयार किया है, व्यवहार के स्तर पर बाजार के प्रति हमारे अंदर एक ऐसी अंधता छायी रहती है मानो आदमी ने अपने सोचने-समझने और निर्णय लेने की सारी क्षमताओं को खुद के बाहर की, बाजार की शक्ति के हवाले कर दिया है। कहना न होगा, हमारा यह सामाजिक व्यवहार एक भ्रम का शिकार होता है, जिसके मूल में हमारा ज्ञान नहीं बल्कि शुद्ध व्यवहार होता है।
सामान्यतया यह माना जाता है कि आदमी की आस्था और विश्वास उसके आत्मिक विषय है, और ज्ञान बाहरी, अर्थात ऐसा विषय जिसे बाहरी उपायों से जांचा-परखा जा सकता है। लेकिन बाजार की प्रमुखता के इस दौर में हमारी आस्था और विश्वास भी हमसे बाहर की वस्तु बन जाते हैं। हम नहीं सोचते, हमारे लिये बाजार सोचता है। बाजार की आस्था और विश्वास प्रमुख हो जाता है, हमारी अपनी आस्था और विश्वास नहीं। जैसे बौद्ध मठों में प्रार्थना का घूमता हुआ चक्र होता है। उस घूमते हुए बेलनाकार डिब्बे में कागज के टुकड़े पर प्रार्थना को लिख कर डाल कर यह मान लिया जाता है कि वह डब्बा प्रार्थना के स्वरों को स्वत: चारों दिशाओं में तरंगित कर दे रहा है। जैसे मनुष्यों का समूह गान, जिसमें शामिल आदमी अपना स्वर जब चाहे मिलाये और जब चाहे थक कर रुक जाए, गान की तान नहीं टूटती।
जाहिर है, भाषा, संगीत या साधना के किसी भी रूप में कर्मकांडी कार्यों का योगदान खुद में एक कोरा भ्रम है, हमारे सामाजिक यथार्थ में निहित भ्रम। इनसे न भाषा का, न मनुष्य की दूसरी किसी नैसर्गिकता का वास्तविक संरक्षण या संबद्र्धन होता है।
हम हिंदी के संदर्भ में ही बाजार की चर्चा करें। भाषाई सर्वेक्षणों पर लगातार काम करने वाले डा. जयंती प्रसाद नौटियाल के अनुसार, आज हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के द्वारा बोली और समझे जाने वाली भाषा है। दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा इसे समझता है, जबकि चीनी भाषा मैंडरीन को समझने वालों की संख्या 15.27 प्रतिशत और अंग्रेजी समझने वालों की संख्या 13.85 प्रतिशत बताया गया है। इस बारे में और ज्यादा तथ्यों पर विस्तार से जाने के बजाय यह अकेला तथ्य ही यह बताने के लिये काफी है कि भाषा का संपर्क यदि मनुष्यों की नैसर्गिकता से है तो हिंदी भाषा के अस्तित्व पर किसी प्रकार के खतरे का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है।
लेकिन जब भी हम बाजार को मनुष्य के भाग्य का अंतिम नियंता मान लेंगे तो मामला उलट जाता है। असली बात यह है कि तब सवाल भाषा की रक्षा या विकास का नहीं, बाजार पर हिंदी भाषी लोगों के वर्चस्व का, एक प्रकार के हिंदी अंध-राष्ट्रवाद का हो जाता है। इसका भाषा के अस्तित्व और विकास से कोई संबंध नहीं होता। जैसा कि हमने पहले ही कहा, बाजार को भाषाओं के विकास से कोई मतलब नहीं है। समाज यदि कोरा बाजार होगा तो हिंदी क्या, शायद किसी भी भाषा की जरूरत शेष नहीं रहेगी। मनुष्य ऐप्स का प्रयोग करने वाला ‘एप’ (बंदर) भर होगा। भाषा संबंधी बाजार-चेतना एक प्रकार का पागलपन है। झूठे भय पर टिका पागलपन।
इसीलिये भाषाओं के विकास की असली गारंटी साहित्य के विकास में है। जैसे सामाजिक विकास की भी असली गारंटी बाजार से मुक्ति और मनुष्यों के समतापूर्ण समाज के विकास में है। भाषा का पण्यीकरण सिर्फ एक सीमित समुदाय, भाषा के पेशेवरों के हितों को साधने का साधन हो सकता है। इससे भाषा के अपने विकास का कोई संबंध नहीं है।
यह बाजारंधता एक प्रकार का उन्माद है। मनोविश्लेषक इसप्रकार के उन्माद के लिए एक ऐसे पागल का चुटकुला सुनाते हैं, जो यह मान लेता है कि वह मनुष्य नहीं, मक्के की एक दाना भर है। पागलखाने में इलाज के बाद जब वह समझ जाता है कि वह मक्के का दाना नहीं बल्कि मनुष्य है, तो उसे पागलखाने से छोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत जल्द ही वह, बाहर एक मुर्गे को देखकर इतना डर जाता है कि फिर पागलखाने में आजाता है। डाक्टरों ने जब उससे पूछा कि तुम तो जानते हो कि तुम मनुष्य हो, फिर किस बात का डर है? तो वह कहता है, मैं तो जानता हूं कि मैं मनुष्य हूं, लेकिन वह मुर्गा इस बात को नहीं जानता। यह है मुर्गे का, अर्थात बाहर के बाजार का आतंक ! निष्ठा आंतरिक विषय नहीं, बाहरी विषय हो जाती है।
कहना न होगा, मनुष्य अगर कोरा उपभोक्ता पशु होगा तो उसको भाषा की कोई प्रयोजनीयता नहीं रहेगी, किसी भी भाषा की नहीं। लेकिन, मनुष्य अपनी अस्मिता के लिये हर क्षण जूझने वाला प्राणी है। यही उसका असली प्राणी-सत्य है। और इसी में भाषा का भविष्य भी सुरक्षित है। किसी बाजार का पण्य बनने में कदापि नहीं ।
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