अरुण माहेश्वरी
लेखकों और विवेकवान बुद्धिजीवियों पर लगातार जानलेवा हमलों के प्रतिवाद में उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया। इसका हिंदी के व्यापक लेखक समुदाय को जहां गर्व है तो वहीं कुछ बुरी तरह आहत। उनकी प्रतिक्रियाओं से लगता है जैसे किसी सुंदर औरत को देखकर अचानक ही कोई चीखने लगे - देखो वह कितनी बेशर्म है, अपने कपड़ों के पीछे पूरी नंगी है!
इस बारे में हमारा इशारा खास तौर हंसी और कोप के स्थायी भाव में रहने वाले क्रमश: सुधीश पचौरी और विष्णु खरे की टिप्पणियों की ओर है।
हम जानते हैं कि इनकी प्रतिक्रियाओं के पीछे शायद ही कोई निजी संदर्भ होगा। लेकिन यह इनकी एक खास तात्विक समस्या है। तथाकथित विचारधाराविहीनता के युग की तात्विक समस्या। विचारधाराओं की अनेक अतियों से उत्पन्न आदर्शहीनता की समस्या।
वे हर चीज पर हंसना चाहते हैं, हर आदर्श को दुत्कारना चाहते हैं। क्योंकि यह मान कर चलते हैं कि आदर्शों के प्रति अति-निष्ठा ही सर्वाधिकारवाद की, सारी अनैतिकताओं की जननी है।
लेकिन भूल जाते हैं इसके विलोम को। यदि अति-आदर्श-निष्ठा अनैतिकता की धात्री है तो अति-अनैतिकता-भोग किस आदर्श की धात्री है ? क्या वह पाप पर टिके आदर्श की, यथास्थितिवादी अनैतिकता की जननी नहीं है। क्योंकि, अपने मूल से रूपांतरण तो हर अति का होता है।
सच कहा जाए तो इनकी हंसी, इनका कोप यथास्थितिवाद की जड़ता से पैदा होने वाली हंसी और कोप है। यह पाप पर टिके आज के नैतिक-नायक, ‘उपभोक्ता मनुष्य’ की हंसी और कोप है। वे इतराते हैं अपनी जड़ता पर, यथास्थिति से जुड़ी अपनी अनैतिक शक्तिशाली अस्मिता पर।
अगर हम ध्यान से देखे तो पायेंगे कि किसी भी रचनात्मक अस्मिता की पहचान कहीं से कुछ ‘तुड़े-मुड़े’ होने में ही होती है, जो स्वाभाविक तौर पर हंसोड़ों की हंसी का विषय भी हो सकता है। लेकिन जब भी कोई प्राणी अपने इस अलग रूप को गंवा कर सामान्य हो जाता है, उसी समय सचाई यह है कि वह शून्य में विलीन हो जाता है, या किसी नये विशेष, जड़-रूप को धारण कर लेता है।
‘खमा अन्नदाता’ की गुहार के साथ जीवन के आनंद में डूबना रचनात्मक शून्यता है। वैचारिक क्षेत्र में ऐसे ‘शून्यों’ की शक्ति उनके विचारों से नहीं, इतर स्रोतों से आती है। ‘गंभीरता झूठ को छिपाने का उपाय है’, इसीलिये ये गंभीरता का भान भी नहीं करते। और सच कहा जाए तो ये दूसरे भी किसी से यह उम्मीद नहीं करते कि उन्हें या उनकी कही बातों को गंभीरता से लिया जाए।
इसीलिये हम कहते हैं कि इनकी शक्ति इनके विचारों में नहीं, इनकी शक्तिशाली सामाजिक स्थिति, तिकड़मबाजियों, शुद्ध रूप से विचारों के बाहर की चीज में, किसी वैचारिक हिंसा अथवा लोभ-लालच के काम में निहित है। माक्र्स विचारधारात्मक बंधनों से प्रेरित लोगों के बारे में कहते थे - ‘वे नहीं जानते, लेकिन कर रहे है।’ लेकिन इन विचारधाराहीनों के बारे में हम कहेंगे - ‘वे जानते हैं, वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं।’
उनकी हंसी या उनका कोप एक नाचीज लेखक पर शक्तिशालियों की हंसी और शक्तिशालियों का कोप है। हर शक्तिशाली चाहता है कि कोई उसकी हंसी या कोप को गंभीरता से न ले। ‘जीवन में खुशी और गम तो लगे ही रहते हैं!’ लेकिन फिर भी सच यह है कि जो उनके हंसने-रोने को जितनी ज्यादा गंभीरता से लेता है, वही यथास्थिति की तानाशाही के लिये सबसे बड़ा सरदर्द और खतरा होता है। जैसे आज उदयप्रकाश बन गये हैं। एक बेचारा लेखक! नाचीज ! अपनी पूरी मर्यादा और साहस के साथ उतर पड़ा है ऐसी चीज का विरोध करने जो उसके वश में नहीं है, उससे कहीं ज्यादा बड़ी और डरावनी है !
आज का असली नायक तो वह है जो अंबर्तो इको की शब्दावली में, अपनी कैद में हंसा करता है। एक ईमानदार कायर, जो भूलवश नायक हो गया है। वह मर कर भी नहीं मरता, मार कर भी नहीं मारता। बस चुप्पी साधे रहता है। दूसरे उसे भय, श्रद्धा और कामना का ‘रहस्य’ बना देते हैं।
और, जो भले लोग खास प्रकार की तटस्थता, ‘ब्रह्मांडीय संतुलन’ बनाये रखने की जिम्मेदारियों को ओढ़े हुए हैं, वे भी ‘नाचीज’ से अलग प्रकार की दूरी बना कर चलने के आभिजात्य के उदाहरण पेश करते हैं।
सुधीश पचौरी कहते है, उदयप्रकाश ने ऐसा करके अपना ‘पाप प्रक्षालन’ किया है। जब रवीन्द्रनाथ ने नाइट की पदवी लौटायी, तब भी कई राज-भक्तों ने इसी पाप-प्रक्षालन के मंत्र का जाप किया था !
बहरहाल, कुल मिला कर लगता है, रघुवीर सहाय ने इन्हें देख कर ही शायद कहा था - ‘‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हंसे/सबके सब है भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे/ कितने आप सुरक्षित हैं जब मैं लगी सोचने/सहसा मुझे अकेला पाकर, फिर से आप हंसे।’’
लेखकों और विवेकवान बुद्धिजीवियों पर लगातार जानलेवा हमलों के प्रतिवाद में उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया। इसका हिंदी के व्यापक लेखक समुदाय को जहां गर्व है तो वहीं कुछ बुरी तरह आहत। उनकी प्रतिक्रियाओं से लगता है जैसे किसी सुंदर औरत को देखकर अचानक ही कोई चीखने लगे - देखो वह कितनी बेशर्म है, अपने कपड़ों के पीछे पूरी नंगी है!
इस बारे में हमारा इशारा खास तौर हंसी और कोप के स्थायी भाव में रहने वाले क्रमश: सुधीश पचौरी और विष्णु खरे की टिप्पणियों की ओर है।
हम जानते हैं कि इनकी प्रतिक्रियाओं के पीछे शायद ही कोई निजी संदर्भ होगा। लेकिन यह इनकी एक खास तात्विक समस्या है। तथाकथित विचारधाराविहीनता के युग की तात्विक समस्या। विचारधाराओं की अनेक अतियों से उत्पन्न आदर्शहीनता की समस्या।
वे हर चीज पर हंसना चाहते हैं, हर आदर्श को दुत्कारना चाहते हैं। क्योंकि यह मान कर चलते हैं कि आदर्शों के प्रति अति-निष्ठा ही सर्वाधिकारवाद की, सारी अनैतिकताओं की जननी है।
लेकिन भूल जाते हैं इसके विलोम को। यदि अति-आदर्श-निष्ठा अनैतिकता की धात्री है तो अति-अनैतिकता-भोग किस आदर्श की धात्री है ? क्या वह पाप पर टिके आदर्श की, यथास्थितिवादी अनैतिकता की जननी नहीं है। क्योंकि, अपने मूल से रूपांतरण तो हर अति का होता है।
सच कहा जाए तो इनकी हंसी, इनका कोप यथास्थितिवाद की जड़ता से पैदा होने वाली हंसी और कोप है। यह पाप पर टिके आज के नैतिक-नायक, ‘उपभोक्ता मनुष्य’ की हंसी और कोप है। वे इतराते हैं अपनी जड़ता पर, यथास्थिति से जुड़ी अपनी अनैतिक शक्तिशाली अस्मिता पर।
अगर हम ध्यान से देखे तो पायेंगे कि किसी भी रचनात्मक अस्मिता की पहचान कहीं से कुछ ‘तुड़े-मुड़े’ होने में ही होती है, जो स्वाभाविक तौर पर हंसोड़ों की हंसी का विषय भी हो सकता है। लेकिन जब भी कोई प्राणी अपने इस अलग रूप को गंवा कर सामान्य हो जाता है, उसी समय सचाई यह है कि वह शून्य में विलीन हो जाता है, या किसी नये विशेष, जड़-रूप को धारण कर लेता है।
‘खमा अन्नदाता’ की गुहार के साथ जीवन के आनंद में डूबना रचनात्मक शून्यता है। वैचारिक क्षेत्र में ऐसे ‘शून्यों’ की शक्ति उनके विचारों से नहीं, इतर स्रोतों से आती है। ‘गंभीरता झूठ को छिपाने का उपाय है’, इसीलिये ये गंभीरता का भान भी नहीं करते। और सच कहा जाए तो ये दूसरे भी किसी से यह उम्मीद नहीं करते कि उन्हें या उनकी कही बातों को गंभीरता से लिया जाए।
इसीलिये हम कहते हैं कि इनकी शक्ति इनके विचारों में नहीं, इनकी शक्तिशाली सामाजिक स्थिति, तिकड़मबाजियों, शुद्ध रूप से विचारों के बाहर की चीज में, किसी वैचारिक हिंसा अथवा लोभ-लालच के काम में निहित है। माक्र्स विचारधारात्मक बंधनों से प्रेरित लोगों के बारे में कहते थे - ‘वे नहीं जानते, लेकिन कर रहे है।’ लेकिन इन विचारधाराहीनों के बारे में हम कहेंगे - ‘वे जानते हैं, वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं।’
उनकी हंसी या उनका कोप एक नाचीज लेखक पर शक्तिशालियों की हंसी और शक्तिशालियों का कोप है। हर शक्तिशाली चाहता है कि कोई उसकी हंसी या कोप को गंभीरता से न ले। ‘जीवन में खुशी और गम तो लगे ही रहते हैं!’ लेकिन फिर भी सच यह है कि जो उनके हंसने-रोने को जितनी ज्यादा गंभीरता से लेता है, वही यथास्थिति की तानाशाही के लिये सबसे बड़ा सरदर्द और खतरा होता है। जैसे आज उदयप्रकाश बन गये हैं। एक बेचारा लेखक! नाचीज ! अपनी पूरी मर्यादा और साहस के साथ उतर पड़ा है ऐसी चीज का विरोध करने जो उसके वश में नहीं है, उससे कहीं ज्यादा बड़ी और डरावनी है !
आज का असली नायक तो वह है जो अंबर्तो इको की शब्दावली में, अपनी कैद में हंसा करता है। एक ईमानदार कायर, जो भूलवश नायक हो गया है। वह मर कर भी नहीं मरता, मार कर भी नहीं मारता। बस चुप्पी साधे रहता है। दूसरे उसे भय, श्रद्धा और कामना का ‘रहस्य’ बना देते हैं।
और, जो भले लोग खास प्रकार की तटस्थता, ‘ब्रह्मांडीय संतुलन’ बनाये रखने की जिम्मेदारियों को ओढ़े हुए हैं, वे भी ‘नाचीज’ से अलग प्रकार की दूरी बना कर चलने के आभिजात्य के उदाहरण पेश करते हैं।
सुधीश पचौरी कहते है, उदयप्रकाश ने ऐसा करके अपना ‘पाप प्रक्षालन’ किया है। जब रवीन्द्रनाथ ने नाइट की पदवी लौटायी, तब भी कई राज-भक्तों ने इसी पाप-प्रक्षालन के मंत्र का जाप किया था !
बहरहाल, कुल मिला कर लगता है, रघुवीर सहाय ने इन्हें देख कर ही शायद कहा था - ‘‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हंसे/सबके सब है भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे/ कितने आप सुरक्षित हैं जब मैं लगी सोचने/सहसा मुझे अकेला पाकर, फिर से आप हंसे।’’
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