अरुण माहेश्वरी
3 नवंबर 2006। लगभग नौ साल पूरे हो रहे हैं। इसी तारीख को दर्ज करके कम्प्यूटर पर रवीन्द्रनाथ पर लिखने का बीड़ा उठाया था। मोटे तौर पर एक खाका तैयार था। हिंदी में उन पर अब तक जो भी देखा, इतना कम लगता था कि क्षोभ होता था। तय किया, इस कमी को पूरा किया जायेगा ; अधिकतम विस्तार के साथ उस जीवन और कृतित्व को समेटा जायेगा। अलग से एक रैक पर रवीन्द्र रचनावली के भारी-भरकम सोलह खंड, प्रभात कुमार मुखोपाध्याय के ‘रवीन्द्रजीवन’ के चार खंड, प्रशांतकुमार पाल के ‘रविजीवन’ के नौ खंड, नेपाल मजुमदार के ‘भारते जातीयता उ अन्तरजातीयता एवं रवीन्द्रनाथ’ के पांच खंड, साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी में प्रकाशित रवीन्द्रनाथ की रचनाओं, अन्नदाशंकर राय, शंखो घोष आदि-आदि की लगभग एक सौ किताबों को सजा लिया।
अपने प्रकल्प के मंगलाचरण के तौर पर मजरूह की गजल के एक बंद ‘‘ मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर/लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया’’ और खुद रवीन्द्रनाथ के एक गीत को लिखा - बाहर से न देखो ऐसे मुझे,/मत देखो मुझे बाहर/न मिलूंगा अपने दुख और सुख में,/न खोजो मेरी पीड़ा मेरे हृदय में,/नहीं देख पाओंगे मुझे मेरे चेहरे में,/हे कवि खोजते जहां वहां नहीं रे।/ जो-मैं मूरत सपनों की लुकछिप करता,/जो-मैं अपने को समझने में नहीं समझता, /अपने ही गीतों से खुद हारता,/मैं वह कवि, कौन पकड़ सकता मुझे।/मनुष्य आकार में जो बंधे चौखट में,/हर पल गिरते भू पर,/कांपते जो स्तुति-निंदा के ज्वर से,/हे कवि नहीं मिलेगा उनके जीवनचरित में।‘‘
अपने सिर्फ एक सवाल की नौका के साथ रवीन्द्र साहित्य के इस विशाल समंदर में उतर पड़ा कि आखिर ‘‘एक ऐसे अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट और वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में निर्माण संभव कैसे हुआ ?
भारी उत्साह से काम शुरू किया। कुल-गोत्र की कहानी कहने के साथ ही दो पीढ़ी पहले के पूर्वजों का किस्सा शुरू होगया। उनसे अभिन्न बांग्ला नवजागरण का विशाल इतिहास। राज राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, यंग बंगाल, ब्रह्मो समाज और फैलता हुआ ठाकुर परिवार। परिवार क्या, खुद में एक इतिहास, कई पीढि़यों के अपने काल के दक्काक लोगों का एक भारी जमावड़ा। इन सारे महानों को पार करके रवीन्द्रनाथ तक पहुंचने के पहले ही सांसों को और दम की जरूरत महसूस होने लगी। आगे 12 साल की उम्र से लेकर 80 साल की उम्र तक तमाम प्रकार की विधाओं में उनके लगातार लेखन, एक संगीतकार, चित्रकार और नाटकों के अभिनेता-निदेशक के रूप में बिना किसी ओर-छोर वाला उनका अभावनीय सम्मोहक जीवन भी दिख रहा था। कहना न होगा, इस समंदर की यात्रा में उतरने के उत्साह के ज्वार में उतनी ही तेजी से भाटा आने में देर न लगी। देखते-देखते उसे निहारते हुए ही नौ साल बीत गये। जो दो-चार सौ पन्ने लिखे, उसमें अब तक उनके पूर्वजों की देहरी पार कर रवीन्द्रनाथ के अपने घर तक ही नहीं पहुंच पाया। पता चल गया कि क्यों बांग्ला में सैकड़ों ऐसे शोधकर्ता हैं जिन्होंने अपने जीवन में सिर्फ और सिर्फ रवीन्द्रनाथ पर ही काम किया और प्रशांतकुमार पाल की तरह अपनी लंबी जिन्दगी के अंत तक काम को पूरा न कर पाने की गहरी पीड़ा के साथ विदा होगये।
जिस किसी ने रवीन्द्रनाथ की बौद्धिक संरचना के तंतुओं को समग्रता में पकड़ने की कोशिश की, प्राय: सबकी एक ही दशा रही। सत्यजीत राय ने उनपर एक डाक्यूमेंट्री बनाई, जो बनने का नाम ही नहीं ले रही थी। नियत समय से दुगुना समय बीत गया। अंत में हार कर, कमियों की बिना परवाह किये, उन्होंने उसे पूरा किया और उस काम से मुक्त हुए। अपनी इस डाक्यूमेंट्री के बारे में उन्होंने कहा कि तीन कथा चित्रों को बनाने में मुझे जितनी मेहनत लगती, उतनी इस एक वृत्त चित्र के निर्माण में लगी है।
बिल्कुल ताजा प्रसंग है सुधीर कक्कड़ का। उन्होंने बीड़ा उठाया रवीन्द्रनाथ की मनोवैज्ञानिक जीवनी लिखने का। उनके जीवन के कुछ विशेष सूत्रों ने, खास तौर पर रवीन्द्रनाथ की भाभी कादम्बरी देवी के साथ उनके संबंधों की गूढ़ता ने इस मनोविश्लेषक को आकर्षित किया था। लेकिन शीघ्र ही अपने काम को ‘युवा रवीन्द्रनाथ’ तक सीमित रखते हुए उन्होंने रोडिन के लिये रिल्के के शब्दों को दोहराते हुए किसी प्रकार पूरा किया कि ‘‘यह किसी जलप्रपात में एक प्याले को लेकर खड़े होने के समान था।’’ अपनी मुश्किल का बयान करते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘ 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के ब्रिटिश शासन के बंगाल में एक ऐसे ऊंची जाति के ब्राह्मण परिवार में रवि का बचपन तैयार हुआ जो कहीं से पुरातनपंथी नहीं था, बल्कि हिंदू परंपरा और पश्चिम से प्रेरित आधुनिकता के बीच की दरार को जी रहा था। बाल मनोवैज्ञानिक रेले स्पिज के एक कथन में कहूंगा, बालक रवि बिना किसी इतिहास के पैदा हुआ था; बहुत जल्द ही उसके पूर्वज और कलकत्ता के जोड़ासांको का ठाकुर परिवार उसे अपना इतिहास देने वाला था।’’
और जिसकी बौद्धिक आकृति को पूरा नहीं जाना, तो उसकी रचनात्मकता की सही पहचान कैसे हो !
हिंदी में कथित रूप से आलोचना की एक ‘दूसरी परंपरा’ की धारा लाने वाले हजारीप्रसाद द्विवेदी शांतिनिकेतन में लगभग बीस साल तक रहे। खुद रवीन्द्रनाथ के साथ उन्होंने ग्यारह साल बिताये। उन्हें बहुत ही करीब से देखा। लेकिन ‘मृत्युंजय रवीन्द्रनाथ’ में उनके बारे में जो और जब भी लिखा, उस प्रगट ‘विराट’ की सिर्फ आरती ही उतारते रह गये। न उन्होंने बांग्ला नवजागरण को छुआ, न रवीन्द्रनाथ के परिवार को और न ही उनके कर्ममय विशाल जीवन को। कवि की बौद्धिक आकृति को जानने की कोई जरूरत ही नहीं महसूस की। गुरुदेव के न रहने पर उन्होंने क्या गंवाया उसका यह चित्र देखिये :
‘‘गुरुदेव उत्सव स्थल पर पधारते थे। शंखध्वनि से वायुमंडल मुखरित हो उठता था। मैं वेद मंत्रों से गुरुदेव का स्वागत करता था। आचार्य नन्दलाल बोस और उनके शिष्यों द्वारा रचित मनोहर आलम्पिन से सजा हुआ सभा स्थल मांगल्यगान से गूंज उठता था और गुरुदेव स्मित हास्य के साथ आसन ग्रहण करते। उनकी उपस्थिति में अपूर्व परिपूर्णता थी। जहां वे उपस्थित होते वहां सब कुछ भरा-भरा लगता। जब ‘‘शतकाण्डो दुश्चयवनो’’ मंत्र के पाठ के बाद उनके दूर्वादल बांधता तो वे बड़े स्नेह से हाथ बढ़ा देते - मेरा यह परम सौभाग्य आज विलुप्त होगया है।’’
रवीन्द्रनाथ पर उनके विश्लेषणात्मक नजरिये की हद यही थी - ‘‘रवीन्द्रनाथ महामानव थे। दीर्घकालीन तपस्या के बाद मनुष्य ने जिन महनीय गुणों को पाया है, उनमें एकत्र सुलभ थे। उनका हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। वे युग गुरू थे।’’
निस्संदेह, रवीन्द्रनाथ का युग महामानवों की उत्पत्ति का युग था। यह वह युग था जब वारेन हेस्टिंग्स और सर विलियम जोन्स के प्राच्यवाद के चलते कर्मकांडों में डूबे एक समाज के घरों में पड़ी पांडुलिपियों ने न सिर्फ पश्चिमी दुनिया को प्राचीन भारत के दर्शन से आश्चर्यचकित कर दिया था, बल्कि खुद भारतवासियों को उनके हत-भाग्य से निकाल कर एक नये गौरव का अहसास कराया। यह भारतीय साहित्य के एक नये युग का अवतरण था। अचानक ही पुरानी दरबारी दुनिया की सीमाएं टूट गई, नयी दुनिया की चमक के साथ दरबारी जमाने के प्रेत गायब होगये। यह एक नई दुनिया की खोज थी। नये व्यापार और वाणिज्य के जरिए भारत की एक नई आर्थिक अखंडता की जमीन तैयार हुई। बंगाल का नया साहित्य प्राचीन क्लासिकल युग का प्रतिबिंब बना। भारत का यह युग महामानवों की मांग करता था और इसने चिंतनशक्ति में, आवेग एवं चरित्र में, बहुज्ञता एवं विद्या में महामानवों को जन्म दिया। यह भारतीय पूंजीवाद के जन्म की कहानी का भी प्रारंभबिंदु था। राजा राममोहन राय, द्वारकानाथ ठाकुर की तरह इसके अग्रदूतों में पूंजीवाद की सीमाओं से परे अपने युग की साहसिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। देश-देश की यात्रा करने वाले, अनेक भाषाओं में पारंगत, अनेक क्षेत्रों में ख्यातिलब्ध। उस युग के नायक अभी तक ‘उत्तरवर्तियों’ की तरह श्रम-विभाजन की दासता से नहीं बंधे थे। उसके एकांगीपन और संकुचनकारी प्रभावों से अछूते थे। समकालीन आंदोलनों और व्यवहारिक संघर्षों के बीच ही प्राय: उन सभी का जीवन और दूसरे क्रियाकलाप चला करते थे। वे किसी न किसी पक्ष के लिए लड़ते थे। किताबी कीड़े बहुत कम पाये जाते थे।
रवीन्द्रनाथ भी ऐसे ही एक युगीन महामानव थे। लेकिन कत्तई ऐसे महामानव नहीं जो आलोचना की किसी नई धारा के जनक के लिए सिर्फ निहारने और पूजा करने की वस्तु बनें, जैसा कि द्विवेदी जी के लेखन में दिखाई देता है। रवीन्द्रनाथ के शांतिनिकेतन में वे मुख्यत: मंत्रोच्चार के काम में लगे हुए एक पुजारी थे, और वहां से हिंदी आलोचना में वे साहित्य द्वारा संस्कारित श्रद्धा और सम्मान से भरे ‘स्तुति-भाव’ के साथ, परमेश के प्रति सर्वात्मना विसर्जन के भाव के साथ आएं। थकाने वाली दूसरी किसी भी कवायद से बचते हुए भक्ति की विश्रान्ति का मार्ग तलाशने वाले आलोचना शास्त्र के साथ। साहित्य और आलोचना में भगवान और भक्त के रिश्तों वाली, शिक्षा जगत में गुरु और शिष्य वाली, विधि-विधान वाली उत्सवमुखी आलोचना की ‘दूसरी परंपरा’ के साथ। संकुचित ‘उत्तरवर्तियों’ के एक ऐसे आलोचना-शास्त्र के साथ, जिससे ‘कवि ने यह कहा है’, ‘लेखक यह कहना चाहता है’ वाली गद्य-पद्य की व्याख्या वाली बिल्कुल खास शैली की, जिसे आज ‘अध्यापकीय शैली’ कहा जा सकता है, नींव पड़ी। साहित्य के बारे में काव्यशास्त्री आनंदवर्द्धन के मंत्र ‘सहृदयहृदयाह्लदिशब्दार्थमयत्वमेव काव्यलक्षणम्’, अर्थात सहृदय के हृदय को आह्लाद का अनुभव कराने की ध्वजा लहराते हुए।
द्विवेदी जी ने रवीन्द्रनाथ के जीवन को कभी भी अपने चिंतन का विषय नहीं बनाया। उनका भक्तिभाव गुरुदेव के जीवन के प्रति किसी यथार्थ चेतना से नहीं पैदा होता है। उनके इस भाव की अपनी खुद की एक द्वंद्वात्मकता है, एक सचाई है जो एक अलग प्रकार की साहित्य चेतना पैदा करती है। यह एक खास साहित्य-संस्कार है, जो ‘सहृदयों’ के बीच अपना सामाजिक चरित्र ग्रहण करता है। इसीलिये चेतन-अवचेतन, किसी भी रूप में क्यों न हो, यह कोई कोरी कल्पना नहीं है। आदमी इसकी ओर किसी आलोचना-भाव से नहीं, श्रद्धा, भय और कामना के भाव के चलते आकर्षित होता है और अपनाता है। इसके विपरीत, विषय के प्रति जैसे ही आपमें यथार्थ चेतना पैदा होती है, भक्ति के भाव की यह द्वंद्वात्मक शक्ति खत्म हो जाती है। और, रचना की यथार्थ चेतना ही आलोचना है, जिसका सहृदयों को आह्लादित करने वाले भाव से वैसा ही संबंध है जो बर्फ का आग से संबंध होता है। यह सिर्फ एक साहित्य-संस्कार नहीं है।
दरअसल, उत्तरवर्तियों के, लकीर पीटने वालों के सारे शास्त्रों की कुछ ऐसी ही खास विडंबनाएं होती हैं। कार्ल मार्क्स ने जर्मनी में पूंजीवाद के विलंबित विकास की विडंबनाओं पर ‘पूंजी’ में एक बहुत सटीक टिप्पणी की है। वे लिखते हैं -‘‘जर्मनी में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली उस वक्त सामने आई, जब उसका विरोधी स्वरूप इंगलैंड और फ्रांस में भीषण संघर्ष में अपने को पहले ही प्रकट कर चुका था। इसके अलावा इसी बीच जर्मन सर्वहारा वर्ग ने जर्मन बुर्जुआ वर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट वर्ग-चेतना प्राप्त कर ली थी। इसप्रकार, जब आखिर वह घड़ी आई कि जर्मनी में राजनीतिक अर्थशास्त्र का बुर्जुआ विज्ञान संभव प्रतीत हुआ, ठीक उसी समय वह वास्तव में असंभव होगया।’’
बांग्ला नवजागरण के संदर्भ में हिंदी नवजागरण की और उससे जुड़े दूसरे सभी सामाजिक-सांस्कृतिक उपादानों की भी ऐसी ही प्रमुख विडंबना से नजर चुरा कर हम इसके बारे में शायद एक कदम भी आगे नहीं जा सकते हैं।
जिस समय रवीन्द्रनाथ विश्व साहित्य पर छाये हुए थे, भारत की राष्ट्रीय सांस्कृतिक अस्मिता उनके कर्मोद्दम से मूर्तिमान हो रही थी और शांतिनिकेतन में उनकी एक-एक रचना के पीछे का इतिहास लिखा जा रहा था, उसी समय हिंदी आलोचना के प्रवर्त्तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के बारे में फतवा दे रहे थे कि ‘‘वे अधिकतर ‘पाश्चात्य ढांचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थी।’’ वे ‘‘ईसाई संतों के छायाभास (फैंटासमाटा) तथा योरोपीय काव्यशास्त्र में प्रवर्त्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची’’ गई छायावादी रचनाएं है और इस रास्ते पर चलने के लिये वे हिंदी के ‘कुछ नए’ कवियों को फटकार रहे थे कि ‘‘यह अपना क्रमश: बनाया हुआ रास्ता नहीं था। इनका दूसरे साहित्य क्षेत्र में प्रकट होना, कई कवियों का इसपर एक साथ चल पड़ना और कुछ दिनों तक इसके भीतर अंग्रेजी और बंगला की पदावली का जगह-जगह ज्यों का त्यों अनुवाद रखा जाना, ये बातें मार्ग की स्वतंत्र उद्भावना नहीं सूचित करती।’’
शुक्ल जी आगे और कहते हैं -‘‘रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तु विन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मान लिया गया। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही।’’
रवीन्द्रनाथ में ‘पाश्चात्य ढांचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद’, ‘ईसाई संतों का छायाभास’ ! शुक्ल जी की ये ‘अभिनव खोज’ हिंदी आलोचना की एक ऐसी मूल्यवान विरासत है, जिसे छोड़ना उसे शायद कभी गंवारा नहीं हुआ। (अपवाद - डा. नामवर सिंह) क्योंकि बिना इसके वह रवीन्द्रनाथ के ‘रहस्यवाद’ से दो-दो हाथ कैसे करती, कैसे अपनी श्रेष्ठता का बखान करती। क्योंकि, जो डा.रामविलास शर्मा खुद वैदिक साहित्य, उपनिषदों से लेकर भक्ति साहित्य के रहस्यवाद के कट्टर झंडाबरदार रहे हैं, वे रवीन्द्रनाथ के रहस्यवाद में ‘पाश्चात्य आध्यात्मिकता’ और ‘ईसाईयत’ की इस चर्चा के बिना कैसे उन्हें अस्वीकारते !
बहरहाल, रवीन्द्रनाथ और डा. रामविलास शर्मा पर हम बाद में आयेंगे। रवीन्द्रनाथ के प्रति उनके विकर्षण-आकर्षण की कुछ अलग ही कहानी है। अभी इतना ही कि हिंदी आलोचना की पहली परंपरा ने रवीन्द्रनाथ को अस्वीकारा क्योंकि उसे छायावादियों की ‘रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तु विन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना’ को ठुकराना था। और दूसरी परंपरा ने अपने इस ‘सावधान पंडित’ की बातों पर कान न देते हुए भी उन्हें अपनाया तो इसलिए क्योंकि वे भगवान-स्वरूप थे, परमेश, श्रद्धा, भय और कामना के विषय थे। चमत्कार को नमस्कार।
जहां तक शुक्ल जी का संबंध है, उनकी इतिहास-दृष्टि के साथ कोई निश्चित विश्व-दृष्टि जुड़ी हुई थी, यह दावा तो उनके बड़े से बड़े प्रशंसक भी नहीं करते। डा. शर्मा की किताब ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ में शुक्ल जी के लेखन के साथ उनके व्यक्तित्व के संपर्क की शायद ही कोई कहानी हो, क्योंकि सामान्यत: ‘नवजागरण’ से जुड़े ‘महामानवीय व्यक्तित्व’ की धारणा की जरा भी झलक उनके व्यक्तित्व में दिखाई नहीं देती।
फिर भी वे हिंदी ‘नवजागरण’ के अग्रदूत है ! इसके चलते इस पूरे विवेचन में सिद्धांत-चिंतन की ऐसी बड़ी-बड़ी खाइयां पैदा हो गयी है कि आसानी से उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मसलन्, वीरभारत तलवार के ‘वामपंथी अवसरवाद’ को लताड़ने और शुक्ल जी को सामंती दृष्टि से मुक्त बताने के लिये डा. शर्मा सामंतवाद की भी ऐसी अलग-अलग श्रेणियां गढ़ लेते हैं, जो ‘गुणात्मक रूप में भिन्न है’। 1 ‘अंग्रेजों के पहले का सामंतवाद’ और ‘अंग्रेजों के बाद का सामंतवाद’। हमारा बुनियादी सवाल है कि जो चीजें ‘गुणात्मक रूप से भिन्न’ हो, तर्कशास्त्र का ऐसा कौन सा तकाजा है कि उन्हें एक श्रेणी में ही रखा जाए ? यह किसी ढांचे में दरार बताने वाली कोरी लाक्षणिकताओं की बात नहीं है। जब ढांचा उस दरार को पाट कर पूर्ववत टिका रहता है तो फिर ‘गुणात्मक रूप से भिन्नता’ पैदा नहीं हो सकती।
शुक्ल जी के बारे में डा.शर्मा के लेखन की शैली देखिये :
‘‘शुक्ल जी ने धार्मिक कर्मकांड, वर्ण-भेद आदि की आलोचना को अंशत: नहीं माना है, लेकिन सच्चे लोक-कल्याणकारी कार्यों का विरोध करने के कारण उस आलोचना को आदर्श नहीं माना।‘‘
‘यह सच है फिर भी...’ वाली शैली सच को झुठलाने की शैली होती है। नरेन्द्र मोदी ने 2002 का जन-संहार कराया, यह सच है फिर भी उसने गुजरात का विकास किया। यह प्रकारांतर से मोदी के 2002 के कुकृत्य का समर्थन है। ऐसे ही शुक्ल जी ने धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना को नहीं माना, यह सच है फिर भी इसलिए नहीं माना क्योंकि वह ‘सच्चे लोक-कल्याण’ का विरोधी था। यह शुक्ल जी के कर्मकांडी और वर्णवादी नजरिये का समर्थन है।
और, छायावाद ! बांग्ला में तो कविता की ऐसी धारा का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया है। हिंदी में जिन चार कवियों, प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी के नाम से छायावाद जाना जाता है, वे रवीन्द्रनाथ की तरह महामानव नहीं थे। नवजागरण से जुड़े व्यक्तित्वों के चरित्र, चिंतनशक्ति, आवेग, बहुज्ञता और समकालीन आंदोलनों तथा व्यवहारिक संघर्षों में भागीदारी, किसी न किसी पक्ष को लेकर लड़ने वाले जुझारूपन का उनमें कोई उदाहरण नहीं मिलता।
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, जो प्रसादजी को बहुत करीब से जानते थे, वे भी जब प्रसाद जी के व्यक्तित्व पर लिखते हैं तो उनके ‘बनारसी रंग’ की बात करते हैं। कहते हैं - ‘‘प्रसाद जी के पतले ओठों में सरल आत्मीय मुस्कान खूब फबती थी। पान का हल्का रंग उनके ओठों को ताजगी और चमक दिए रहता था। प्रसादजी घर पर प्राय: खद्दर के कुर्ते और धोती में रहा करते थे; परंतु बाहर निकलने पर रेशमी कुर्ता, रेशमी गांधी टोपी, महीन खद्दर की धोती, रेशमी चादर या दुपट्टा, फुल स्लीपर जूते और एक छड़ी हाथ में रहती थी।‘‘ और, जहां तक प्रसादजी के बारे में एक ‘नये साहित्य-युग के निर्माता’, ‘नव्य दर्शन के उद्भावक’, ‘भविष्यद्रष्टा’ ‘आगम के विधायक कलाकार’ वाली बातें हैं, ये सब एक साधक की अन्त:प्रज्ञा की उपज है, नवजागरण के व्यक्तित्वों से जुड़े किसी सामाजिक कर्मोद्दम की नहीं !
आचार्य वाजपेयी को यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होती है कि ‘‘छायावाद के संबंध में लिखता हुआ मैं संभवत: एक भी आतंककारिणी बात न कह सकूंगा। संसार की परम प्रसिद्ध आध्यात्मिक जागृतियों के साथ हिंदी की नवीन काव्य-प्रगति की तुलना करने और साधारण-से-साधारण कवियों को उमर खैयाम अथवा रवीन्द्रनाथ सिद्ध करने के लिए एक दूसरे प्रकार की लेखनी, एक दूसरे प्रकार के उत्साह की आवश्यकता है। मुझसे ऐसी आशा करना व्यर्थ होगा।’’
आचार्य वाजपेयी को जिस ‘आतंककारी उत्साह’ से परहेज था, डा. रामविलास शर्मा में वही उत्साह कूट-कूट कर भरा हुआ था। उन्होंने मान लिया था कि नवजागरण तो चंद लेखकों की प्रयोगशाला से तैयार होने वाली वस्तु है। शिवनाथ शास्त्री, रमेशचंद्र दत्त, प्रभात कुमार मुखोपाध्याय आदि से लेकर सुशोभन सरकार, सुकुमार सेन, निहार रंजन रे आदि की तरह के कुछ बड़े शोधकर्ताओं और अन्य लेखकों की एक फौज ने तुमार बांधा और बांग्ला रिनेसांस तैयार होगया ! इसीलिए पूरे उत्साह से वे खुद भी ग्रंथों का पहाड़ तैयार करके हिंदी नवजागरण को पैदा करने के काम में जुट गये। लगभग पूरा जीवन खपा दिया। फिर भी, यह सच है कि ‘निराला की साहित्य साधना’ के तीन खंड भी निरालाजी को एक बड़े और महत्वपूर्ण कवि के अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े किसी बहुज्ञ, चिंतनशील नवजागरणकालीन व्यक्तित्व का रूप नहीं दे पायें। न अपने साथ या अपने पीछे हिंदी नवजागरण का ढोल पीटने वालों की कोई फौज तैयार कर पाये।
उनका यह कहना कि ‘‘राममोहन राय को विधवाओं की प्राणरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ा, इसी तरह विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती को संघर्ष करना पड़ा और साहित्यकारों में द्विज और शूद्र का भेद मिटाने के लिए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को संघर्ष करना पड़ा’’ निराला की प्रशंसा नहीं बल्कि परिहास लगता है। जिस छायावाद को उन्होंने ‘साम्राज्य विरोधी चेतना के निखार का साहित्य’ कहा था, उसी सांस में यह भी लिखा कि ‘‘ ‘छायावादी’ साहित्य पढ़ते समय साम्राज्य विरोधी चेतना, सामंत विरोधी मूल्य जैसी चीजें अप्रासंगिक मालूम होती है।’’ इसके बाद ‘किंतु’ के साथ वे इतना और जोड़ देते हैं कि ‘‘जहां छायावादी कलाकार, पत्रकारिता वाले गद्य की ठोस धरती पर पांव रोपे हुए, साधारण पाठकों से बात करते हैं, वहां साम्राज्य विरोधी चेतना और सामन्त विरोधी मूल्य जैसी चीजें निहायत प्रासंगिक ही नहीं, इतनी प्रासंगिक मालूम होती है कि उनके बिना उस गद्य का विवेचन हो ही नहीं सकता।’’
निरालाजी कवियों के लिये ‘महाप्राण’ होगये, और सदा रहेंगे भी, लेकिन हिंदी समाज के लिये अब तक वे सिर्फ ‘वर दे वीणा वादिनी’ के रचयिता, पाठ्य पुस्तकों के कवि है।
और जहां तक डा. शर्मा के ‘हिंदी नवजागरण’ प्रकल्प का सवाल है, मृत्यु के साल भर पहले उनके ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ शीर्षक से आए दो भारी-भरकम खंडों में अगर कुछ सबसे ज्यादा उपेक्षित, बल्कि कहा जाए अनाथ छोड़ दिया गया विषय है तो, वह ‘हिंदी नवजागरण’ का विषय ही है। भारतेंदु, निराला के साहित्य की चर्चा उसी प्रकार हुई है जिसप्रकार रवीन्द्रनाथ, सुब्रह्मण्यम भारती की - उनके साहित्य में जातीय (भारतीय) चेतना के संदर्भ में।
इस पूरे उपक्रम का दुखद पक्ष यह रहा कि डा. शर्मा की साहित्य संबंधी चिंताएं बेठौर होगई। छायावादी कवियों के बड़े साहित्यिक अवदान को सही ढंग से रेखांकित करने में वे असमर्थ साबित हुए। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बांग्ला भाषा के नये संस्कार का जो काम रवीन्द्रनाथ के साहित्य के जरिये संपन्न हुआ, हिंदी के चार छायावादी कवियों की सारी सीमाओं, ‘‘शैली की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रहने के’’ शुक्ल जी के सारे कोप वचनों के बावजूद इन्हीं के जरिये हिंदी भाषा के नये संस्कार का काम पूरा हुआ और छायावाद हिंदी साहित्य की एक घटना बन गया।
कोई भी बात तभी किसी घटना का रूप लेती है जब वह उसके कारण की, कर्ता की सीमाओं का अतिक्रमण करके उससे बहुत व्यापक प्रभाव उत्पन्न करती है। हिंदी साहित्य में छायावाद के साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ।
साहित्य की एक सबसे प्रमुख भूमिका भाषा की सामूहिक विरासत को जीवंत बनाये रखने में है। भाषा न किसी राजनेता के और न ही किसी शिक्षाशास्त्री के आदेश-निर्देश की मुहताज होती है। वह संवेदनशील होती है साहित्य के इशारों के प्रति। छायावादियों की भाषा में बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जो आज भी आम बोलचाल की भाषा में दाखिल नहीं हो पाया है, लेकिन जो साहित्य पर विश्वास करते हैं वे भाषा के इस रूप के प्रति तब से लेकर आज तक, समान रूप से उत्साहित है। यह हिंदी भाषी जनता की आधुनिक जरूरतों को पूरा करती है, देश की दूसरी अधिकांश जातीय भाषाओं से उसका एक सहजात रिश्ता कायम करती है; भारत की राष्ट्रीय एकता का आधार तैयार करती है। नामवर सिंह ने बिल्कुल सही छायावादी काव्य-सौंदर्य को उसकी सामाजिक भूमिका संबंधी विवेचन के केंद्र में रखने पर जोर दिया था।
और जहां तक डा. शर्मा के इतिहास लेखन का प्रश्न है, आज के काल में इतिहास लेखन जिसप्रकार इतिवृत्तात्मकता, पुरातत्व, भाषाशास्त्र और समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र आदि का एक साझा उपक्रम है, डा. शर्मा उसे भी अपने ग्रंथों की प्रयोगशाला से उसी प्रकार गढ़ देना चाहते थे, जैसे वे हिन्दी नवजागरण को पैदा करना चाहते थे। इसमें महत्व किसी शोध की प्रामाणिकता का नहीं, अपने पूर्वाग्रह को प्रमाणित करने का होता है।
याद आती है पंचतंत्र की कहानियों का मूल संस्कृत से अनुवाद करने वाले कृष्णदत्त शर्मा की लंबी भूमिका की जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पंचतंत्र : मानव जीवन का ज्ञानकोष’ के प्रारंभ में दिया है। इस भूमिका में वे इन कहानियों के पीछे के प्रयोजन की एक कहानी सुनाते हैं। लिखते हैं -
‘‘दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक एक नगर था। यहां अमर सिंह नामका एक राजा राज्य करता था। उसका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था। वह स्वयं विभिन्न कलाओं में निपुण था और विद्वानों का आदर करता था। उसके तीन पुत्र थे - बहु शक्ति, उग्र शक्ति और अनंत शक्ति। ये तीनों के तीनों अत्यंत उद्दंड और विद्या-विमुख थे। अधिक संपत्ति से संतान बिगड़ जाती है। ...राजकार्य में व्यस्त रहने के कारण राजा पहले तो राजपुत्रों पर विशेष ध्यान नहीं दे पाया। फिर जब उसका ध्यान गया और उसे समस्या की गंभीरता का अहसास हुआ तब तक बहुत देरी हो चुकी थी। ...ऐसे पुत्रों को गद्दी का वारिस नहीं बनाया जा सकता था। ...तब एक दिन उसने अपने मंत्रियों और राज्याश्रित विद्वानों की एक सभा बुलाई और उनके सामने अपनी समस्या रखी। ...ऐसे पुत्र से क्या लाभ...अपने पुत्रों के बारे में यह टिप्पणी करने के बाद राजा ने आगे कहा, ‘‘जैसे भी इन राजकुमारों की बुद्धि का विकास हो वैसा उपाय आप लोग करें।’’
‘‘...राजा के इन शब्दों को सुन कर सभा में निस्तब्धता छा गई। अधिकांश मंत्री और विद्वान राजपुत्रों की उद्दण्डता और विद्या-विमुखता से परिचित थे। तब एक पंडित ने मौन तोड़ते हुए कहा, ‘‘राजन बारह वर्ष तो व्याकरणशास्त्र के अध्ययन में लगते हैं, चाणक्य आदि के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन आदि के कामशास्त्र का अध्ययन करना होगा। इसप्रकार धर्म, अर्थ और कामशास्त्र के ज्ञान के बाद कहीं जाकर बुद्धि जागती है। ’’
‘‘उस सभा में सुमति नामका एक मंत्री बैठा था। उसने कहा, ‘‘मनुष्य का जीवन अनित्य है। इन राजकुमारों के लिए तो किसी संक्षिप्त शास्त्र पर विचार कीजिए। कहा भी गया है, व्याकरणशास्त्र का कोई वार-पार नहीं। अवस्था थोड़ी और विघ्न बहुत है। इसलिए हंस के नीर-क्षीर विवेक की तरह हमें असार को त्याग कर सार को ग्रहण करना चाहिए।’’
‘‘अपना सुझाव देते हुए सुमति ने आगे कहा : ‘‘इस सभा में समस्त शास्त्रों में निष्णात छात्रों के बीच यशस्वी विष्णु शर्मा नामक विद्वान है। आप इन पुत्रों को उन्हें सौंप दीजिए। वे उन्हें जल्द ही प्रबुद्ध बना देंगे।
‘‘यह सुन कर राजा ने विष्णु शर्मा को बुला कर कहा : भगवन ! कृपा करके मेरे इन पुत्रों को जैसे भी संभव हो वैसे अनुपम विद्वान बना दीजिए। इसके बदले में आपको सौ ग्रामों का मालिक बना दूंगा।
‘‘यह सुन कर विष्णु शर्मा ने राजा से कहा : ‘देव ! आप तथ्य की बात सुने। सौ गांव लेकर भी मैं विद्या को बेचूंगा नहीं। फिर भी यदि मैंने आपके पुत्रों को छ: महीने के अन्दर-अन्दर नीति शास्त्र में पारंगत नहीं बना दिया तो मैं अपना नाम बदल दूंगा। ...यदि मैं छ: महीने के अंदर आपके पुत्रों को नीति शास्त्र का अप्रतिम ज्ञाता न बना दूं तो ईश्वर मुझे स्वर्ग की गति न दे।’’
इसी उपक्रम में विष्णु शर्मा ने नीति शास्त्र के पूरे विषय को पांच भागों में विभाजित किया और विषय के अनुरूप पांच केंद्रीय कहानियों की सृष्टि कर डाली। हर कहानी एक कहानी न होकर अनेक कहानियों का तंत्र है। तंत्र का अर्थ है एक प्रकार की संरचनात्मक व्यवस्था, जिसमें हर कहानी अलग-अलग भी हो और केंद्रीय कहानी का अंग भी। इसप्रकार कुल पांच कहानी-तंत्र हुए। इसीलिये पुस्तक को नाम दिया पंचतंत्र। ’’
इन सब कहानियों के पात्र तो पशु-पक्षी है, लेकिन उनके मारफत जिस नीति शास्त्र का बखान किया गया है वह मनुष्यों के लिये है। विष्णु शर्मा एक खास, सीमित प्रयोजन से राजा के बिगड़ैल बेटों को तुरत-फुरत शिक्षित करने के लिए अपने जाने शास्त्रों का निचोड़ पेश कर रहे थे। उनके लिये महत्व इन निचोड़ों का था, किन पात्रों से उन्हें पेश किया जा रहा है, वह महत्वहीन था। दरबार के दूसरे पंडित चिंतित थे कि इतने कम समय में कैसे किसी को सारे शास्त्रों का विद्वान बनाया जा सकता है, लेकिन विष्णु शर्मा बिल्कुल निश्चिंत थे। उन्हें तो कुछ रोचक कथाओं से नीति कथनों को राजकुमारों को रटाना था। उन्होंने पशु-पक्षियों के कथोपकथन से सारे शास्त्रों के ऐसे गुटके तैयार किये कि आज भी वे ज्ञान के शार्टकट की तलाश में लगे लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। कान में मंत्र फूंकने वाला ऐसा साहित्य आज भी हर रोज रचा जाता है।
लेकिन गौर करने की बात यह है कि पंचतंत्र की ये कहानियां जो खास प्रयोजन के लिये रची गई, कभी भी पाणिनी के व्याकरण, चाणक्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के काम शास्त्र का स्थान नहीं ले पाई।
इरफान हबीब, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा आदि सभी गंभीर इतिहासकारों की दिक्कत यह है कि वे इतिहास के अनुशासन से बंधे हुए लोग रहे हैं, किसी इतर प्रयोजन से नहीं। इसीलिये जो बातें इतिवृत्तों, पुरातत्व, भाषाशास्त्र, नृतत्व, भूगोल, जनांतिकी और समाजविज्ञान की कठोर कसौटियों पर खरी नहीं उतरती, उन पर वे इतिहास की कपोल-कल्पनाओं का महल तैयार करने से कतराते रहे हैं। यहां तक कि अर्थशास्त्र के साथ भी इतिहास के गहरे संबंधों को वे समझते हैं। वे ऐतिहासिक साक्ष्यों के अध्ययन के बारे में विकसित हो रही नई तकनीकों के प्रति भी सचेत लोग है। इसीलिये नये तथ्यों के प्रति संवेदनशील भी है। लेकिन हमारे डा. शर्मा इतिहास का इस्तेमाल करते है अपने इतर उद्देश्यों को साधने के लिए। बांग्ला नवजागरण के मुकाबले हिंदी नवजागरण की श्रेष्ठता स्थापित करने, अंग्रेजों के मुकाबले भारतीयों की श्रेष्ठता, तुर्कों के मुकाबले हिंदुओं की और अंत में आते-आते आर्य नस्ली श्रेष्ठता का झंडा लहराने के लिये। अंग्रेज न आते तो भारत का ज्यादा भला होता, मुसलमान न आते तो और भी भला होता, और आर्य तो यहीं के थे, इसलिये आर्यों का शुद्ध रक्त सारी श्रेष्ठताओं का स्वत: सिद्ध खजाना है। जैसे इतिहास के किसी भी किस्से को सिर्फ यह कह कर खत्म कर दिया जाए कि यदि आदिम साम्यवाद की स्थिति बनी रहती तो फिर समानता की लड़ाई ही नहीं करनी पड़ती। इतिहास न हो, जैसे घर की खेती हो।
सवाल उठता है कि दूसरी संस्कृतियों से अन्तर्क्रिया के प्रति डा. शर्मा में इतनी विरक्ति क्यों थी ? क्या दुनिया में कोई भी संस्कृति पूरी तरह से पृथ्थकृत रह सकती है ? फिर क्यों हम, हम और सिर्फ हम ? हंटिंगटन के ‘सम्यता के संघर्ष’ की तरह, ‘अन्य’ के साथ हमेशा युद्धरत ! गौर करने की बात यह है कि ऐसे ‘हम बनाम अन्य’ के युद्ध में संस्कृतियों के खुद के अंतर्विरोधों, वैकल्पिक, जन-साधारण की संस्कृतियों के लिये कोई जगह नहीं होती। नामवर जी की शब्दावली में यह है - ‘इतिहास की शव साधना’। हम कहेंगे भेड़ और भेडि़ये की कहानी को चरितार्थ करने के लिये कोरे गड़े मुर्दे उखाड़ना। उपनिवेशवादियों के सभ्यता- अभियान का ही दूसरा जातीय सांस्कृतिक प्रतिरूप। डा. शर्मा का इतिहास संबंधी काम भारत के अतीत के बारे में जितना नहीं बताता उससे कहीं ज्यादा उनके खुद के बारे में बताता है।
कहना न होगा, अगर गंभीरता से देखा जाए तो यह पूरी प्रक्रिया ही विचार की एक खास खोजी धारा है जिसका आप्त वाक्य है - प्रमाण का दूसरा मुख्य साध्य अनुमान है। यह विचार के विषय को विचार का उत्पाद बनाने, उसका निरूपण करने की प्रक्रिया है। यह वस्तु से सोच का निरूपण नहीं बल्कि खास सोच के अनुरूप वस्तु का निरूपण है। फिर वह कैसे भी क्यों न हो। इसके लिये मनुष्यों के बजाय ‘कौवी और काला सांप’, ‘बगुला और केंकड़ा’, ‘शेर और खरगोश’, ‘जू और खटमल’ आदि को ही पात्र क्यों न बनाना पड़े !
डा. शर्मा अपनी अंतिम पुस्तक में श्रेष्ठताओं के अपने बाकी उपख्यानों के ताम-जाम को झाड़ कर, अपनी दूसरी सभी संपदाओं को छोड़ कर जब ‘आर्यामी’ की झंडाबरदारी के निपट तत्व-रूप में आते हैं, तब वे हिंदी नवजागरण को तो भूल जाते हैं, लेकिन जिन रवीन्द्रनाथ को याद करने से उन्होंने सारी उम्र परहेज बरता, उनपर लगभग चालीस पेज खर्च कर देते हैं।
जिन रवीन्द्रनाथ ने लिखा -‘‘हे आर्य, हे अनार्य आओ, आओ हिन्दू-मुसलमान/आज आओ तुम अंग्रेज, ख्रीस्टान आओ/ मन को पवित्र कर आओ ब्राह्मण, सबके हाथ पकड़ो -/ हे पतित, आओ, अपमान का सब भार उतार दो।/मां के अभिषेक के लिए शीघ्र आओ/ सबके स्पर्श से पवित्र किये हुए तीर्थ-जल से/ मंगल-घट तो अभी भरा ही नहीं गया है-/इस भारत के महामानव के सागर-तट पर।’
उन रवीन्द्रनाथ का आर्य श्रेष्ठता के आख्यान के लिए, आज के पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु नदी के बजाय सिर्फ भारत की सीमाओं में ही बहने वाली कपोल-कल्पित वैदिक सरस्वती नदी के तट पर वेद-मंत्रों को रचने वाली हड़प्पा-पूर्व की आर्यों की श्रेष्ठ और शुद्ध सारस्वत सभ्यता का आज के आधुनिक युग में भी झंडा गाड़ने के लिये इस्तेमाल करना उनकी स्मृति के प्रति एक प्रकार के अनादर सा प्रतीत होता है। इतिहासकार अभी तक हड़प्पा सभ्यता की लिपि ही नहीं पढ़ पाये हैं, और डा. शर्मा ने घर बैठे कोरे अनुमानों के बल पर हड़प्पा-पूर्व का पूरा इतिहास रच दिया। कहना न होगा, यह प्रकृति के सारे इंतजामों में व्याप्त प्रयोजन की तरह ही डा. शर्मा का प्रयोजनवाद है, जिसकी सेवा में भारतीय नवजागरण के सारे अग्रदूतों को उन्होंने इकट्ठा कर दिया है, बशर्ते वे ‘हिंदू’ हो।
इति।
1.‘अंग्रेजी राज से पहले का सामंत वर्ग अंग्रेजी राज के सामंत वर्ग से गुणात्मक रूप में भिन्न था।’ - (पृष्ठ- 215)
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