- अरुण माहेश्वरी
जनवादी लेखक संघ की वेब साईट पर बाँदा में हाल में हुए एक त्रिदिवसीय (2-4अक्तूबर 2015) कार्यशाला की रिपोर्ट जारी की गई है । इस कार्यशाला में विचार का विषय था - 'मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद - पारस्परिकता के धरातल' । विषय के शीर्षक से कुछ इस प्रकार का भ्रम हो सकता है कि जैसे आयोजकों ने अंबेडकर के विचारों को मार्क्सवाद की तरह ही एक सुसंगत विचारधारा माना है । लेकिन रिपोर्ट के शुरू में ही यह बता दिया गया है कि ज़्यादातर वक्ताओं ने आंबेडकर के विचारों को एक सुव्यवस्थित 'वाद' मानने से इंकार किया ।
बहरहाल, इस कार्यशाला की प्रमुख विशेषता यह रही कि इसे सीपीआई(एम) के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने संबोधित किया था । उनके एक घंटे के भाषण का विषय था - ' जाति उन्मूलन और मार्क्सवाद' । अपने भाषण में उन्होंने डीडी कोसांबी के उद्धरण के आधार पर कहा कि चूँकि जाति-व्यवस्था उत्पादन व्यवस्था का ही हिस्सा है इसलिये उसे 'सरल तरीक़े से अधिरचना का अंग मान कर' कोई यांत्रिक निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए ।
इस संदर्भ में प्रकाश से हमारा एक अत्यंत बुनियादी सवाल है कि आखिर वे 'आधार' और 'अधिरचना' की पदावली के मार्क्सवादी विमर्श में 'आधार' का मतलब क्या समझते हैं ?
वे क्या ग़ुलाम, प्रजा, वर्ग, वर्ण, जाति, मालिक, सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति आदि की तरह की नाना प्रकार की सामूहिक आर्थिक श्रेणियों और अस्मिताओं को 'आधार' की चीज़ मानते हैं ?
मार्क्सवाद में आधार तो शुद्ध रूप से उत्पादन प्रणाली को माना जाता है । उत्पादन प्रणाली की ख़ास लाक्षणिकताओं के आधार पर आदिम साम्यवाद, ग़ुलामी प्रथा, सामन्तवाद, पूँजीवाद आदि नाना उत्पादन संबंधों पर आधारित समाज-व्यवस्थाओं की श्रेणियों की सिनाख्त की गई । लेकिन मार्क्स ने देखा कि इतिहास की सचाई यह है कि हर युग में किसी न किसी रूप में अधिशेष को हड़पने की व्यवस्था, अर्थात शोषण की व्यवस्था बनी रही है । इस मामले में पूँजीवाद की अपनी कोई विशेषता नहीं है । पूँजीवाद की विशेषता यह है कि इसके मातहत पण्य नामक एक नई वस्तु का जन्म होता है जो मनुष्यों के उपयोग में आने वाली वस्तुओं का एक ख़ास कायांतर है । इसमें वस्तु का उपयोग मूल्य विनिमय मूल्य से स्थानांतरित कर दिया जाता है और वस्तु में इस मूल्य के अधिष्ठान के पीछे कोई तर्क नहीं होता, सिर्फ संयोग होता है । इसे ही मार्क्स ने पण्य की जड़पूजा कहा है । यह पूँजीवादी समाज की एक लाक्षणिकता है, जो उसे अन्य समाजों से अलगाती है । पूँजीवाद में पण्य अतिरिक्त मूल्य का स्रोत होता है ।
आधार के विषय में चर्चा में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामाजिक जीवन में उसके कैसे-कैसे परिणाम सामने आते हैं । मसलन, इस्लाम के अंतर्गत तो काफ़िर अर्थात विधर्मी को भी एक आर्थिक श्रेणी का रूप दिया गया था जब यह व्यवस्था की गई कि काफ़िरों से जज़िया लिया जायेगा । अर्थात कर चुका कर भिन्न मत के पालन की अनुमति बाक़ायदा दी गई थी ।
इसीलिये यदि कोई यह मानता है कि वर्ग तो आधार से जुड़ी हुई सामाजिक संरचना है और वर्ण कुछ और, तो वह दोनों के बारे में ही मार्क्सवाद की बहुत ही उथली समझ का शिकार कहलायेगा ।
यही वजह है कि जाति को अधिशेष के हड़पने की व्यवस्था बता कर उससे कोई ख़ास अर्थ निकालने के उपक्रम का कोई मायने नहीं है ।
विभिन्न समाजों में विभिन्न प्रकार की सामाजिक संरचनाएँ निर्मित होती है और ख़त्म भी होती है । पूँजीवाद के अंतर्गत उत्पादन की कारख़ाना प्रणाली के विकास के साथ मार्क्स ने एक व्यापक वर्गीय समूह और वर्गीय चेतना के उदय को देखा था । इस नयी सामाजिक संरचना के उदय से यह माना जाता रहा है कि पुरानी संरचनाओं का ढाँचा टूट जायेगा । लेकिन अंतत: यह सामाजिक सामूहिक अस्मिता का ही विषय है जिस पर अधिरचना के अंतर्गत ही कोई विचार संभव है ।
मुश्किल तब होती है जब हम यांत्रिक ढंग से अधिरचना की तमाम संरचनाओं की अपनी खुद की द्वंद्वात्मकता को स्वीकारने से इंकार करने लगते हैं । किसी भी उत्पादन प्रणाली से कोई भी सामाजिक संरचना क्यों न पैदा हुई हो, उस संरचना का अपना भी एक द्वंद्वात्मक अस्तित्व होता है । उसकी अपनी भी लाक्षणिकताएं होती हैं । उस संरचना के ढाँचे में अपनी दरारें होती हैं । ख़ास परिस्थितियों में वे इन दरारों के चलते बिखर जाती है और कभी-कभी इन्हें सामयिक तौर पर पाटने में भी सफल होती है ।
इस रिपोर्ट के कुछ अंशों पर, जिन्हें जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपनी वाल पर लगाया था, फ़ेसबुक में हमने टिप्पणी की थी । उसमें हमने कहा था -
"अंबेडकर दार्शनिक नहीं थे, मार्क्स थे । इसीलिये मार्क्स के विचार सर्वकालिक है, अंबेडकर के नहीं ।
"जिस कार्यशाला में तेलतुम्बड़े बोले थे, उसकी एक रिपोर्ट मैंने भी पढ़ी है । चंचल चौहान ने भेजी है । उससे न मार्क्सवाद के बारे में कोई समझ बनती है और न अंबेडकर के बारे में । पता नहीं, कुछ लोग ऐसे बेढंगे आइनों की तरह होते हैं जिनसे प्रतिबिंबित अक्स हमेशा विकृत और शक्लें बदशक्ल होकर दिखाई देने लगते हैं । यह एक ख़ास यांत्रिकता है । मार्क्सवाद की गुटकों वाली समझ की यांत्रिकता । उस रिपोर्ट में एक बहुत ऊँचा सूत्र दिया गया है - 'जातिवाद अधिशेष को हड़पने का एक तरीक़ा रहा है ।'
"सवाल है कि जिन समाजों में भारत की तरह का जातिवाद नहीं दिखाई देता, उनमें क्या अधिशेष को हड़पा नहीं जाता था या जाता है ! इस प्रकार की 'सैद्धांतिक' दूर की कौड़ियों से पता नहीं कैसे किसी समाज की कोई ठोस समझ क़ायम होती है !
बहरहाल, वर्ण व्यवस्था, जातिवाद और इनका जघन्यतम रूप छूआछूत - ब्राह्मणवाद और सनातन धर्म की हमारे सामंती समाज को सौंपी गई ख़ास सौग़ात है और इसमें शक नहीं कि आधुनिक पूँजीवाद के साथ इनकी वास्तव में कोई संगति न होने पर भी आज तक इस क्षयिष्णुता के लक्षण बने हुए हैं तो यह सामंती अवशेषों की वजह से ही है । आज के काल में इसमें जो अतिरिक्त आक्रामकता दिखाई दे रही है, उसके मूल में सांप्रदायिक शक्ति के रूप में ब्राह्मणवाद की बढ़ी हुई ताक़त है । भारत में सांप्रदायिकता की पराजय जातिवाद के सभी रूपों के अंत का प्रारंभ होगा ।"
इसके अलावा, इसी रिपोर्ट और एक अंश पर टिप्पणी करते हुए हमने लिखा कि
"आपकी वाल पर ही इस रिपोर्ट के अन्य हिस्से पर मैंने टिप्पणी की है । इस अंश पर भी मैं वही दोहराना चाहूँगा । जाति-व्यवस्था के अंदर से वर्ग बन रहे है तो क्या जातिवाद के अंत से वर्ग ख़त्म हो जायेंगे ? यह बिल्कुल यांत्रिक सूत्रीकरण है । आज़ादी के बाद से अब तक आरक्षण आदि के ज़रिये जातिवाद पर जो प्रहार हुए हैं, उन पर इससे कोई रोशनी नहीं गिरती ।"
इसी में हमने और भी लिखा था कि
"मार्क्सवाद किसी भी संरचना के लक्षणों की, उसकी दरारों की पहचान कराता है । जाति से अगर वर्ग बनते हैं तो जातियों का अंत वर्ग का अंत नहीं हो सकता । यह एक संरचना का टूटना और उसकी जगह दूसरी संरचना का निर्माण है । इसीलिये कम्युनिस्टों ने जातिवाद के विरोध के साथ ही वर्ग संघर्ष पर हमेशा बिल्कुल सही बल दिया है । जातिवाद का ख़ात्मा तो पूँजीवाद के विकास से भी होगा, लेकिन जातिवाद के अंत से पूँजीवाद का अंत नहीं होगा । "
अंत में, हमारी राय में, " आज जो लोग कम्युनिस्ट आंदोलन में आए गतिरोध के कारण जातिवाद के मसले के प्रति कम्युनिस्टों के नज़रिये में किसी प्रकार के दोष में देख रहे हैं, वे पूरे विषय को सिर के बल खड़ा कर रहे हैं । कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी विफलता के कारण अपनी राजनीतिक कार्यनीति और सांगठनिक नीतियों की कमियों में खोजना चाहिए । मुश्किल यह है कि ऐसा करने पर पार्टियों के प्रभावी नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठने लगेंगे, जो कोई करना नहीं चाहता ।"
उम्मीद है कि ऊपर की बातों से फ़ेसबुक पर हमारी टिप्पणियां और भी साफ हुई होगी । प्रकाश करात सीपीआई(एम) के एक वरिष्ठ नेता रहे हैं । आज कम्युनिस्ट आंदोलन की सही और परंपरागत समझ पर वे जिस कोण से सवाल उठा रहे हैं, वह मार्क्सवाद की उनकी बिल्कुल यांत्रिक समझ का प्रमाण है । यह मार्क्सवाद को निहायत तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों को साधने के लिये जातिवादियों की सोच का पिछलग्गू बनाने वाला सोच है । और, कहीं न कहीं पार्टी के विकास में दिखाई दे रहे गतिरोध के लिये मिथ्या सैद्धांतिक कारणों का विभ्रम पैदा करना है ।
जनवादी लेखक संघ की वेब साईट पर बाँदा में हाल में हुए एक त्रिदिवसीय (2-4अक्तूबर 2015) कार्यशाला की रिपोर्ट जारी की गई है । इस कार्यशाला में विचार का विषय था - 'मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद - पारस्परिकता के धरातल' । विषय के शीर्षक से कुछ इस प्रकार का भ्रम हो सकता है कि जैसे आयोजकों ने अंबेडकर के विचारों को मार्क्सवाद की तरह ही एक सुसंगत विचारधारा माना है । लेकिन रिपोर्ट के शुरू में ही यह बता दिया गया है कि ज़्यादातर वक्ताओं ने आंबेडकर के विचारों को एक सुव्यवस्थित 'वाद' मानने से इंकार किया ।
बहरहाल, इस कार्यशाला की प्रमुख विशेषता यह रही कि इसे सीपीआई(एम) के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने संबोधित किया था । उनके एक घंटे के भाषण का विषय था - ' जाति उन्मूलन और मार्क्सवाद' । अपने भाषण में उन्होंने डीडी कोसांबी के उद्धरण के आधार पर कहा कि चूँकि जाति-व्यवस्था उत्पादन व्यवस्था का ही हिस्सा है इसलिये उसे 'सरल तरीक़े से अधिरचना का अंग मान कर' कोई यांत्रिक निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए ।
इस संदर्भ में प्रकाश से हमारा एक अत्यंत बुनियादी सवाल है कि आखिर वे 'आधार' और 'अधिरचना' की पदावली के मार्क्सवादी विमर्श में 'आधार' का मतलब क्या समझते हैं ?
वे क्या ग़ुलाम, प्रजा, वर्ग, वर्ण, जाति, मालिक, सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति आदि की तरह की नाना प्रकार की सामूहिक आर्थिक श्रेणियों और अस्मिताओं को 'आधार' की चीज़ मानते हैं ?
मार्क्सवाद में आधार तो शुद्ध रूप से उत्पादन प्रणाली को माना जाता है । उत्पादन प्रणाली की ख़ास लाक्षणिकताओं के आधार पर आदिम साम्यवाद, ग़ुलामी प्रथा, सामन्तवाद, पूँजीवाद आदि नाना उत्पादन संबंधों पर आधारित समाज-व्यवस्थाओं की श्रेणियों की सिनाख्त की गई । लेकिन मार्क्स ने देखा कि इतिहास की सचाई यह है कि हर युग में किसी न किसी रूप में अधिशेष को हड़पने की व्यवस्था, अर्थात शोषण की व्यवस्था बनी रही है । इस मामले में पूँजीवाद की अपनी कोई विशेषता नहीं है । पूँजीवाद की विशेषता यह है कि इसके मातहत पण्य नामक एक नई वस्तु का जन्म होता है जो मनुष्यों के उपयोग में आने वाली वस्तुओं का एक ख़ास कायांतर है । इसमें वस्तु का उपयोग मूल्य विनिमय मूल्य से स्थानांतरित कर दिया जाता है और वस्तु में इस मूल्य के अधिष्ठान के पीछे कोई तर्क नहीं होता, सिर्फ संयोग होता है । इसे ही मार्क्स ने पण्य की जड़पूजा कहा है । यह पूँजीवादी समाज की एक लाक्षणिकता है, जो उसे अन्य समाजों से अलगाती है । पूँजीवाद में पण्य अतिरिक्त मूल्य का स्रोत होता है ।
आधार के विषय में चर्चा में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सामाजिक जीवन में उसके कैसे-कैसे परिणाम सामने आते हैं । मसलन, इस्लाम के अंतर्गत तो काफ़िर अर्थात विधर्मी को भी एक आर्थिक श्रेणी का रूप दिया गया था जब यह व्यवस्था की गई कि काफ़िरों से जज़िया लिया जायेगा । अर्थात कर चुका कर भिन्न मत के पालन की अनुमति बाक़ायदा दी गई थी ।
इसीलिये यदि कोई यह मानता है कि वर्ग तो आधार से जुड़ी हुई सामाजिक संरचना है और वर्ण कुछ और, तो वह दोनों के बारे में ही मार्क्सवाद की बहुत ही उथली समझ का शिकार कहलायेगा ।
यही वजह है कि जाति को अधिशेष के हड़पने की व्यवस्था बता कर उससे कोई ख़ास अर्थ निकालने के उपक्रम का कोई मायने नहीं है ।
विभिन्न समाजों में विभिन्न प्रकार की सामाजिक संरचनाएँ निर्मित होती है और ख़त्म भी होती है । पूँजीवाद के अंतर्गत उत्पादन की कारख़ाना प्रणाली के विकास के साथ मार्क्स ने एक व्यापक वर्गीय समूह और वर्गीय चेतना के उदय को देखा था । इस नयी सामाजिक संरचना के उदय से यह माना जाता रहा है कि पुरानी संरचनाओं का ढाँचा टूट जायेगा । लेकिन अंतत: यह सामाजिक सामूहिक अस्मिता का ही विषय है जिस पर अधिरचना के अंतर्गत ही कोई विचार संभव है ।
मुश्किल तब होती है जब हम यांत्रिक ढंग से अधिरचना की तमाम संरचनाओं की अपनी खुद की द्वंद्वात्मकता को स्वीकारने से इंकार करने लगते हैं । किसी भी उत्पादन प्रणाली से कोई भी सामाजिक संरचना क्यों न पैदा हुई हो, उस संरचना का अपना भी एक द्वंद्वात्मक अस्तित्व होता है । उसकी अपनी भी लाक्षणिकताएं होती हैं । उस संरचना के ढाँचे में अपनी दरारें होती हैं । ख़ास परिस्थितियों में वे इन दरारों के चलते बिखर जाती है और कभी-कभी इन्हें सामयिक तौर पर पाटने में भी सफल होती है ।
इस रिपोर्ट के कुछ अंशों पर, जिन्हें जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपनी वाल पर लगाया था, फ़ेसबुक में हमने टिप्पणी की थी । उसमें हमने कहा था -
"अंबेडकर दार्शनिक नहीं थे, मार्क्स थे । इसीलिये मार्क्स के विचार सर्वकालिक है, अंबेडकर के नहीं ।
"जिस कार्यशाला में तेलतुम्बड़े बोले थे, उसकी एक रिपोर्ट मैंने भी पढ़ी है । चंचल चौहान ने भेजी है । उससे न मार्क्सवाद के बारे में कोई समझ बनती है और न अंबेडकर के बारे में । पता नहीं, कुछ लोग ऐसे बेढंगे आइनों की तरह होते हैं जिनसे प्रतिबिंबित अक्स हमेशा विकृत और शक्लें बदशक्ल होकर दिखाई देने लगते हैं । यह एक ख़ास यांत्रिकता है । मार्क्सवाद की गुटकों वाली समझ की यांत्रिकता । उस रिपोर्ट में एक बहुत ऊँचा सूत्र दिया गया है - 'जातिवाद अधिशेष को हड़पने का एक तरीक़ा रहा है ।'
"सवाल है कि जिन समाजों में भारत की तरह का जातिवाद नहीं दिखाई देता, उनमें क्या अधिशेष को हड़पा नहीं जाता था या जाता है ! इस प्रकार की 'सैद्धांतिक' दूर की कौड़ियों से पता नहीं कैसे किसी समाज की कोई ठोस समझ क़ायम होती है !
बहरहाल, वर्ण व्यवस्था, जातिवाद और इनका जघन्यतम रूप छूआछूत - ब्राह्मणवाद और सनातन धर्म की हमारे सामंती समाज को सौंपी गई ख़ास सौग़ात है और इसमें शक नहीं कि आधुनिक पूँजीवाद के साथ इनकी वास्तव में कोई संगति न होने पर भी आज तक इस क्षयिष्णुता के लक्षण बने हुए हैं तो यह सामंती अवशेषों की वजह से ही है । आज के काल में इसमें जो अतिरिक्त आक्रामकता दिखाई दे रही है, उसके मूल में सांप्रदायिक शक्ति के रूप में ब्राह्मणवाद की बढ़ी हुई ताक़त है । भारत में सांप्रदायिकता की पराजय जातिवाद के सभी रूपों के अंत का प्रारंभ होगा ।"
इसके अलावा, इसी रिपोर्ट और एक अंश पर टिप्पणी करते हुए हमने लिखा कि
"आपकी वाल पर ही इस रिपोर्ट के अन्य हिस्से पर मैंने टिप्पणी की है । इस अंश पर भी मैं वही दोहराना चाहूँगा । जाति-व्यवस्था के अंदर से वर्ग बन रहे है तो क्या जातिवाद के अंत से वर्ग ख़त्म हो जायेंगे ? यह बिल्कुल यांत्रिक सूत्रीकरण है । आज़ादी के बाद से अब तक आरक्षण आदि के ज़रिये जातिवाद पर जो प्रहार हुए हैं, उन पर इससे कोई रोशनी नहीं गिरती ।"
इसी में हमने और भी लिखा था कि
"मार्क्सवाद किसी भी संरचना के लक्षणों की, उसकी दरारों की पहचान कराता है । जाति से अगर वर्ग बनते हैं तो जातियों का अंत वर्ग का अंत नहीं हो सकता । यह एक संरचना का टूटना और उसकी जगह दूसरी संरचना का निर्माण है । इसीलिये कम्युनिस्टों ने जातिवाद के विरोध के साथ ही वर्ग संघर्ष पर हमेशा बिल्कुल सही बल दिया है । जातिवाद का ख़ात्मा तो पूँजीवाद के विकास से भी होगा, लेकिन जातिवाद के अंत से पूँजीवाद का अंत नहीं होगा । "
अंत में, हमारी राय में, " आज जो लोग कम्युनिस्ट आंदोलन में आए गतिरोध के कारण जातिवाद के मसले के प्रति कम्युनिस्टों के नज़रिये में किसी प्रकार के दोष में देख रहे हैं, वे पूरे विषय को सिर के बल खड़ा कर रहे हैं । कम्युनिस्ट आंदोलन को अपनी विफलता के कारण अपनी राजनीतिक कार्यनीति और सांगठनिक नीतियों की कमियों में खोजना चाहिए । मुश्किल यह है कि ऐसा करने पर पार्टियों के प्रभावी नेतृत्व की क्षमताओं पर सवाल उठने लगेंगे, जो कोई करना नहीं चाहता ।"
उम्मीद है कि ऊपर की बातों से फ़ेसबुक पर हमारी टिप्पणियां और भी साफ हुई होगी । प्रकाश करात सीपीआई(एम) के एक वरिष्ठ नेता रहे हैं । आज कम्युनिस्ट आंदोलन की सही और परंपरागत समझ पर वे जिस कोण से सवाल उठा रहे हैं, वह मार्क्सवाद की उनकी बिल्कुल यांत्रिक समझ का प्रमाण है । यह मार्क्सवाद को निहायत तात्कालिक राजनीतिक समीकरणों को साधने के लिये जातिवादियों की सोच का पिछलग्गू बनाने वाला सोच है । और, कहीं न कहीं पार्टी के विकास में दिखाई दे रहे गतिरोध के लिये मिथ्या सैद्धांतिक कारणों का विभ्रम पैदा करना है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें