बिहार के चुनाव ने गोमांस की पूरी बहस को हिंदू-मुसलमान प्रसंग से हटा कर कई नये आयाम दे दिये हैं ।
वेदों सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में गोमांस के सेवन के अनगिनत प्रसंग भरे हुए हैं । यह बात सभी जानते हैं । फिर भी इस विषय को अनेक वर्षों से एक धार्मिक और नैतिक सवाल बना कर ख़ास तौर पर मुसलमानों के बरक्स इसे हिंदू धर्म की पहचान का विषय बनाये हुए हैं । गोरक्षा आंदोलन कृषि-आधारित अर्थ -व्यवस्था के हितों को साधने के लिये नहीं, मूलत: हिंदू धर्म के रक्षार्थ चलाया जाता रहा है । इसीलिये इसमें प्रतीकात्मकता ज़्यादा रही है । गोवंश का हित, उनकी नस्ल और उनकी देख-रेख में सुधार में भारत के गोरक्षा आंदोलन का ज़रा सा भी अवदान नहीं हैं । गोरक्षा आंदोलन वालों ने शायद ऐसी एक भी गोशाला कहीं तैयार नहीं की है जिसे गायों के रख-राव के लिहाज़ से श्रेष्ठ और आदर्श गोशाला माना जा सके ।
बहरहाल, बिहार में पहले लालू प्रसाद और अब रघुवंश प्रसाद सिंह ने गोमांस के विषय पर भारी उन्माद पैदा करने वालों को भारत के उन प्राचीन ग्रंथों की याद दिलाई है जिनमे गोमांस के सेवन के उदाहरण मिलते हैं । उनका साफ कहना है कि इस विषय को इतना तूल देकर शुद्ध रूप से सांप्रदायिकता भड़काने का काम किया जा रहा है । इसका धार्मिकता से कोई संबंध नहीं है । यह अभियान अंतत: शाकाहारियों और मांसाहारियों के बीच झगड़ा पैदा करने तक जा सकता है ।
जो भी हो, इसी बीच एक और अत्यंत चिंताजनक ख़बर आ रही है । कहा जा रहा है कि मोदी सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने भारतीय साहित्य के प्राचीन क्लासिक भवभूति के संस्कृत नाटक 'उत्तररामचरितम्' को संस्कृत उच्चविद्यालयें के पाठ्यक्रम से निकाल देने का निर्णय लिया है ।
सभी जानते हैं कि संस्कृत साहित्य के सर्वप्रिय नाटककारों में भवभूति का सम्मानपूर्ण स्थान है । उनकी कृति ‘उत्तररामचरित’ के लिए ही उनकी ख्याति संसार में हमेशा रहेगी । आलोचनाशास्त्र के पण्डितों ने इसे नाट्यकला की एक अद्वितीय रचना माना है। इसकी कथावस्तु रामायण के उत्तरकाण्ड पर आश्रित है।
रावण का संहार करके राम सीता-सहित अयोध्या में वापिस आते हैं और कुछ लोग सीता के चरित्र के सम्बन्ध में चर्चा आरम्भ कर देते हैं। श्रीराम लक्ष्मण द्वारा सीता को वन में निर्वासित कर देते हैं। सीता गर्भवती थी। वन में उसके दो पुत्र- कुश तथा लव उत्पन्न होते हैं। बारह वर्ष बाद श्रीराम अश्वमेध यज्ञ आरम्भ करते हैं। इसी में, प्रसंगवश वशिष्ठ-पत्नी अरुन्धती प्रजाजनों की, सीता के चरित्र पर मिथ्या लांछन लगाने के लिए, भर्त्सना करती है और राम को अपनी निर्दोष-निष्कलंक पत्नी को स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करती हैं। समस्त प्रजा इस प्रार्थना में सम्मिलित होती है और अपने किए दुष्कर्म पर लज्जित होती है। तब राम और सीता का पुनर्मिलन होता है और आनन्द-विभोर प्रजाजनों के जय-जयकार के साथ अभिनय की समाप्ति होती है।
इसी आश्रम में ऋषियों द्वारा माँस के सेवन का चित्र आया है ।
कहते हैं कि शिक्षा मंत्रालय ने इसी वजह से कलात्मक उत्कृष्टता में कालिदास के नाटकों के समकक्ष माने जाने वाले इस विश्व-प्रसिद्ध नाटक को पाठ्यक्रम से निकाल देने का निर्णय लिया है ।
अगर यह बात सच है तो इसमें कोई शक नहीं रह जायेगा कि मोदी सरकार भारतीय साहित्य और संस्कृति के दुश्मनों की सरकार है । गोमांस को भी इन्होंने भारतीय संस्कृति पर हमले का एक हथियार बना लिया है ।
ऐसे में लालू प्रसाद और रघुवंश प्रसाद की आपत्तियाँ और भी अर्थपूर्ण हो जाती है ।
भवभूति के नाटक का संदर्भित पृष्ठ :
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें