रविवार, 29 मई 2016

और महावीर प्रसार द्विवेदी !


आज के ‘टेलिग्राफ’ में ‘The Emperor of all Maladies’ के प्रसिद्ध लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी की एक नई किताब ‘The Gene : An intimate history’ की एक समीक्षा प्रकाशित हुई है।

हमने इस किताब को देखा नहीं है, लेकिन ‘टेलिग्राफ’ की समीक्षा में उससे एक उद्धरण है - “illness might vanish but so might identity. Grief might be diminished but so might tenderness. Traumas might be erased but so might history.”
(रोग दूर हो सकते हैं, वैसे ही आदमी की पहचान भी। कष्ट कम हो सकते हैं, वैसे ही कोमलता भी। आघात खत्म हो सकते हैं, वैसे ही इतिहास भी।)

ओरहन पामुक अपने उपन्यास ‘My name is red’ में एक जगह लिखते हैं - ‘‘नुक्स से ही अंदाज पैदा होता है।’’

ऐब ही आदमी की पहचान है।

याद आती है, अंबर्तो इको की बात। वे उपलब्ध भाषा की तुलना फासीवाद से करते हैं। कहते हैं, फासीवाद बोलने से रोकता नहीं, बोलने को थोपता है। प्राप्त भाषा का विन्यास इतना घातक हैं कि वह अपने अंदर गुलाम बना लेती है। उपलब्ध भाषा से छल करके, एक प्रकार की गैर-ईमानदारी और स्वस्थ तथा मुक्तिदायी चालाकी से साहित्य पैदा होता है।

कहना न होगा, भाषा के मानकीकरण पर अतिरिक्त जोर साहित्य का आखेट है। और महावीर प्रसाद द्विवेदी !

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