अरुण माहेश्वरी
एक अर्से बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता के गंभीर दावेदार के रूप में पेश करने का एक सुचिंतित कदम उठाया है। शीला दीक्षित को अपने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करके प्रदेश के सारे समीकरणों के पुनर्विन्यास की संभावना पैदा कर दी है।
जातियों में बंटा भारतीय समाज और उसमें सभी जगहों पर प्रत्यक्ष दिखाई देता ब्राह्मणों का वर्चस्व इस समाज की हर कमी और बुराई के लिये स्वाभाविक तौर पर किसी का भी ध्यान ब्राह्मणों की ओर खींच लेता है। इससे कौन इंकार कर सकता है कि ब्राह्मणवाद समाज के एक सबसे वर्चस्वशाली तबके के संकीर्ण और पोंगापंथी सोच की, धार्मिक कर्मकांडों और अंध-विश्वासों की विचारधारा है। समाज का कठोर वर्ण-विभाजन, खास प्रकार का शुचिता बोध और छूआछूत की जैसी बीमारियां इसी की देन रही है। इसीलिये किसी भी प्रगतिशील और मानवतावादी इंसान के लिये यह हर लिहाज से त्याज्य और निंदनीय रहा है।
लेकिन, इसके साथ ही, यह भी उतना ही सच है कि भारतीय समाज ने अब तक जो भी, आधी-अधूरी ही सही, उपलब्धियां हासिल की है, उसमें एक समुदाय के तौर पर सबसे अधिक यदि किसी का अवदान रहा है तो वह ब्राह्मण समाज का ही है। अगर भारतीय ज्ञान-विज्ञान की दीर्घ, वैदिक ग्रंथों, ब्राह्मण ग्रंथों और औपनिषदिक दार्शनिक चिंतन की महान प्राचीन परंपरा को एक बार के लिये भूल भी जाते हैं, तब भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अपने सामाजिक विशेषाधिकारों की बदौलत ही आजादी की लड़ाई के नेतृत्व और परवर्ती आधुनिकता की सामाजिक परिघटना में भी इस तबके की बहुत साफ और महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अंबेडकर का संविधान उसी कांग्रेस दल के नेतृत्व में लागू हुआ है जिसके शीर्ष पर ब्राह्मण और सवर्ण तबकों के लोग रहे हैं। आरक्षण और दलितों के उत्थान और सशक्तीकरण की तमाम योजनाओं में आजादी की लड़ाई के नेतृत्व अर्थात कांग्रेस की भूमिका को कमतर बताना पूरी तरह से अनैतिहासिक होगा।
इसके विपरीत, हम भारत की आधुनिककालीन राजनीति में एक भिन्न धारा को भी देखते हैं, जिसे साफ तौर ब्राह्मणों की पूर्ण-वर्चस्वशाली, लोकतंत्र-विरोधी संरक्षणवादी पतनशील धारा कहा जा सकता है। इसका प्रतिनिधित्व सावरकर का हिंदू महासभा और हेडगवार-गोलवलकर का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) करते रहे हैं। इन्होंने भारतीय समाज में मौजूद तमाम कुसंस्कारों और ब्राह्मणों की प्रभुत्वशाली स्थिति को नये भारत में पूर्ण, एकाधिकारवादी राजनीतिक वर्चस्व में बदल देने का रास्ता अपनाया था। उन्होंने ब्राह्मणों को सामने रख कर इस्लाम के खिलाफ हिंदुत्व का नारा दिया और अंग्रेजों की मदद से अपने को आजाद भारत में सत्ता का प्रमुख दावेदार बनाने की कोशिश की थी। हिंदू महासभा और आरएसएस का ‘हिंदुत्व’ नये भारत में एक धर्म-आधारित और सवर्ण जातियों के पूर्ण वर्चस्वशाली तानाशाही राज्य और एक चरम संरक्षणवादी समाज को कायम करने का सिद्धांत रहा है जो आजादी की लड़ाई के दिनों में कांगे्रस के नेतृत्व के व्यापक राष्ट्रीय आंदोलन के सामने कहीं टिक नहीं पाया था।
आजादी के बाद के इन सत्तर सालों में, कई नीतिगत और व्यवहारिक विफलताओं के चलते एक सत्ताधारी दल के रूप में कांग्रेस की स्थिति कमजोर होती गई और दुर्भाग्य से उसके विकल्प में आजादी की लड़ाई की जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्ष और सामाजिक न्यायवादी परंपरा से जुड़ी कोई ताकत बड़े रूप में सामने आने में विफल रही। कांग्रेस की कमजोरी से पैदा शून्य में ही भारतीय जनता पार्टी के रूप में उन हिंदुत्ववादी शक्तियों ने अपना विस्तार किया है जो आजादी की लड़ाई में विपरीत छोर पर खड़ी थी। जनतंत्र, धर्म-निरपेक्षता और सामाजिक न्याय के विपरीत तानाशाही, धर्म-आधारित राज्य और ब्राह्मणवादी वर्चस्व के छोर पर। भारतीय जनता पार्टी के इस बढ़ते हुए प्रभाव ने ब्राह्मण समाज के चरम संरक्षणवादी, मनुवादी और सांप्रदायिक तत्वों को बल पहुंचाया और उस ब्राह्मणवाद के वर्चस्व का खतरा पैदा हो गया जो हर प्रगतिशील और आधुनिक व्यक्ति के सामने सिर्फ निकृष्ट जातीय उत्पीड़न, उग्र सांप्रदायिकता और प्रेमचंद की शब्दावली में टकेपंथ, अर्थात प्रताड़ना और पिछड़ेपन का प्रतीक रहा है।
लेकिन, आज की राजनीतिक सचाई यह है कि भारत का प्रत्येक राजनीतिक दल चुनाव के मैदान में अपने को इस ब्राह्मणवाद के बदनुमा दाग से दूर रखना चाहता है। हिंदुत्व के जरिये जघन्य ब्राह्मणवाद को साधने वाला संघ परिवार भी जब चुनाव के मैदान में होता है, तब आबादी के पूरे विन्यास को देखते हुए प्रकट रूप में अपने को इससे दूर दिखाता है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में पिछड़ों, दलित, महादलितों आदि नाना प्रकार के जातिवादी समूहों को अपने साथ लाने में अमित शाह जितनी ताबड़तोड़ कोशिशों में लगे हुए है, ब्राह्मणों के वे उतना ही उदासीन सा रुख बनाये हुए हैं, क्योंकि वे यह मान कर चल रहे हैं कि ब्राह्मणों को तो कलंकित करके अब उन्होंने अपने सिवाय और कहीं जाने लायक छोड़ा ही नहीं है !
इस परिप्रेक्ष्य में शीला दीक्षित को लेकर उतरने के कांग्रेस के कदम को यदि हम देखें तो यह सीधे तौर पर एक ओर जहां कांग्रेस दल को उसके जनाधार की पुरानी ब्राह्मण-मुसलमान-दलित धुरी पर पुनर्जीवित करने की दिशा में पहला जरूरी कदम प्रतीत होता है, वहीं ब्राह्मण समुदाय के लिये अपने अतीत की प्रगतिशील और जागृत मस्तिष्क वाली गौरवशाली परंपरा को फिर से प्राप्त करने की दिशा में बढ़ने का रास्ता भी खोलता है। इससे उनके घृणित सांप्रदायिकता के दाग से मुक्त होने और अल्पसंख्यकों, दलितों तथा पिछड़ों की मुख्यधारा से जुड़ कर ताकत हासिल करने का रास्ता तैयार होगा।
आगे देखने की बात सिर्फ इतनी है कि अपने इस पहले सटीक कदम के बाद, उम्मीदवारों के चयन में ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों के बीच से अच्छे और समर्थ उम्मीदवारों के चयन और सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ तीव्र प्रचार अभियान चलाने में कांग्रेस दल कितना सफल रहता है। इस मामले में यदि दृढ़ता और पूरी निष्ठा के साथ वह लगता है, सांप्रदायिकता के खिलाफ आक्रामक प्रचार का रुख अपनाता है तो इसी अभियान के बीच से उसकी अपनी कई सांगठनिक कमजोरियां भी दूर होगी, जो आज उसके रास्ते की सबसे बड़ी कमजोरी लगती है। इसी प्रक्रिया के बीच से उसे आज के समय के और ज्यादा सक्षम और जागृत नौजवान कार्यकर्ताओं के समूह हासिल हो पायेंगे।
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