सीपीआई(एम) से सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस सहित सभी धर्म-निरपेक्ष दलों की एकता के लिये काम करने की दलील देने वालों को प्रकाश करात के दो टूक जवाब का एक प्रत्युत्तर :
-अरुण माहेश्वरी
सीपीआई(एम) के नेता प्रकाश करात ने ‘पिपुल्स डेमोक्रेसी’ के ताजा (24 जुलाई के) अंक में मोदी-आरएसएस-भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की बात करने वाले ‘वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवियों’ की दलीलों का एक प्रत्युत्तर दिया है। इसमें उन्होंने दोटूक शब्दों में कहा है कि सीपीआई(एम) कांग्रेस के वर्गीय चरित्र की वजह से ऐसा नहीं कर सकती है। कांग्रेस के साथ समझौता करने का मतलब है भारत के मजदूर वर्ग के हितों के साथ समझौता करना। कांग्रेस एक धर्म-निरपेक्ष दल है और भाजपा सांप्रदायिक, और चूंकि भाजपा केंद्र में सत्ता पर है इसलिये उसे हराना और अलग-थलग करना हमारा प्रमुख लक्ष्य भी है। लेकिन सांप्रदायिक ताकतें ‘90 के दशक के उसी दौर में फली-फूली जब नव-उदारवाद की नीतियां चलाई जा रही थी। मोदी सरकार उसी रास्ते पर और तेजी से चल रही है। इसीलिये नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ कर ही सांप्रदायिकता से लड़ा जा सकता है।
तीन हिस्सों में विभाजित अपने प्रत्युत्तर के दूसरे हिस्से में उन्होंने तमिलनाडु, असम, ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश को लेकर प्रकारांतर से इरफान हबीब और सायरा हबीब के खुले पत्र में उठाए गये सवालों का जवाब देने की कोशिश की है।
और, अंतिम तीसरे हिस्से में उन्होंने साफ निर्देश जारी किया है कि ‘‘सीपीआई(एम) मोदी सरकार की नव-उदारवादी नीतियों और भाजपा, आरएसएस के सांप्रदायिक हमलों के खिलाफ एकजुट संघर्ष के लिये काम करेगी लेकिन ऐसा करते हुए वह मजदूर वर्ग, किसान जनता, शहर और गांव के गरीबों तथा दूसरे मेहनतकशों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के नाते एक शासक वर्ग की पार्टी के साथ कोई गठजोड़ कायम नहीं कर सकती है।...(कांग्रेस से गठबंधन करने या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर सवाल उठाने की बातें) पार्टी पर एक विचारधारात्मक हमला है ताकि उसे एक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में बदला जा सके। सीपीआई(एम) का उनको संतुष्ट करने का कोई मन नहीं है।’’
एक जोश से भरा हुआ, नपीतुली निर्देशात्मक भाषा में प्रकाश करात का यह प्रत्युत्तर अनायास ही क्रांतिकारी लफ्फाजी के बारे में लेनिन के शब्दों की याद को ताजा कर देता है –
‘‘क्रांतिकारी लफ्फाजी का अर्थ है एक खास समय में घटना-प्रवाह के मोड़ पर उस खास समय की ठोस परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना क्रांतिकारी नारों को दोहराते रहना। नारे श्रेष्ठ, मनमोहक, नशीले होते हैं, परंतु वे आधारहीन होते हैं। यही है क्रांतिकारी लफ्फाजी की प्रकृति।’’
(By revolutionary phrase-making we mean the repetition of revolutionary slogans irrespective of objective circumstances at a given turn in events, in the given state of affairs obtaining at the time. The slogans are superb; alluring, intoxicating, but there are no grounds for them ; such is the nature of revolutionary phrase.)
लेनिन ने यह बात बोल्शेविक पार्टी में उन लोगों की दलीलों के जवाब में कही थी जो क्रांति के ठीक बाद जर्मनी से पृथक शांतिवार्ता के बजाय उसके खिलाफ ‘‘क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी’’ (preparation of a revolutionary war) की थोथी बात कर रहे थे। लेनिन ने सोवियत संघ की उस समय की सामाजिक परिस्थिति, सेना के विघटन की दशा और घनघोर आर्थिक तबाही का हवाला देते हुए कहा था कि इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में आप ‘क्रांतिकारी युद्ध’ के बारे में बात कीजिए, आपके सामने ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ का सार स्पष्ट हो जायेगा।
प्रकाश करात को भारत की ठोस राजनीतिक परिस्थिति का अहसास ही नहीं है। वे नव-उदारवाद की बात करते हैं, उसे सारी बीमारियों की जड़ मान रहे हैं, लेकिन यह नहीं देख रहे हैं कि इन पचीस सालों के बीच यहां कैसी भयंकर रूप से उग्र, फासिस्ट धार्मिक तत्ववादी ताकतें सत्ता पर आ गई है। हिटलर और मुसोलिनी को छोड़ दीजिए, अभी की दुनिया में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इरान, सीरिया से लेकर पूरे मध्यपूर्व की स्थिति से भी वे ऐसी ताकतों के रौद्र चरित्र के बारे में कोई सबक लेने के लिये तैयार नहीं है।
आज की भारत की राजनीतिक सचाई यह है कि यहां क्रांति एजेंडे पर नहीं है, लेकिन प्रति-क्रांति पूरी तरह से एजेंडे पर है। मजदूर वर्ग और मेहनतकशों ने एक जनतांत्रिक राज्य में अब तक जो भी अधिकार अर्जित किये हैं, उन सब पर आज सबसे भयंकर और बर्बर खतरा मंडरा रहा है। सीधे-सीधे अल्पसंख्यकों और दलितों को शारीरिक हमलों का शिकार बनाया जा रहा है। राज्य सभा में भी किसी प्रकार पूर्ण बहुमत की थोड़ी और अनुकूल परिस्थिति हो जाने पर मजदूरों और मेहनतकशों के अधिकार तो जाने दीजिये, विरोध की हर आवाज को पूरी ताकत के साथ कुचल दिये जाने के आसार साफ दिखाई दे रहे हैं। इसीलिये मजदूर वर्ग और मेहनतकशों के हितों की रक्षा के नाम पर अभी के मोदी निजाम के खिलाफ हवाई नहीं, बल्कि एक व्यापकतम वास्तविक प्रतिरोध तैयार करने से कतराना मजदूरों और मेहनतकशों के हितों की रक्षा नहीं, उनके साथ एक दगाबाजी कहलायेगा। हमारे देश की अब तक की ठोस राजनीतिक सचाई यही है कि ऐसा प्रभावशाली प्रतिरोध कांग्रेस दल को अलग रख कर कत्तई तैयार नहीं किया जा सकेगा। वामपंथ सबसे कमजोर स्थिति में है।
हमारा प्रश्न है कि प्रकाश करात सांप्रदायिकता के खिलाफ जिन जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों की एकता की बात कर रहे हैं, उनमें ऐसी कौन सी एक भी पार्टी है जिसे वे शासक वर्गों की पार्टी नहीं मानेंगे? इनमें से कई पार्टियों के पास राज्य सरकारें भी है। क्या वे नव-उदारवाद के खिलाफ कोई लड़ाई चला रही है ? खुद सीपीआई(एम) की सरकारें क्या नव-उदारवाद के खिलाफ किसी लड़ाई का नेतृत्व दे पा रही है ?
इसीलिये, सांप्रदायिकता के खिलाफ सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों की एकता में कांग्रेस को शामिल न करने के लिये ‘नवउदारवाद के खिलाफ लड़ाई’ का नारा वैसा ही है, जैसा रूस में क्रांति के ठीक बाद की परिस्थितियों में जर्मनी से पृथक शांति वार्ता का विरोध करने वालों ने ‘क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी’ का नारा दिया था।
प्रकाश करात की बातों से लगता है जैसे वे अब भी सन् 1964 के समय के भारत में है, जिसमें कांग्रेस से लड़ाई ही सत्ता की किसी भी दूसरी प्रतिद्वंद्वी पार्टी के अस्तित्व की शर्त थी। उन्होंने अपने प्रत्यत्तर में सीपीआई(एम) के गठन के साल 1964 को याद भी किया है। इन बावन सालों में गंगा से न जाने कितना पानी बह गया है। इस दौरान भारतीय वामपंथ ने भी अपने उत्थान और पतन के न जाने कितने दृश्य देख लिये हैं। और, एक कटु सच यह भी है कि इस दौर के राजनीतिक घटना-प्रवाह में आने वाले मोड़ के कई महत्वपूर्ण मौकों पर वामपंथ की राजनीति को पंगु बनाने में उनकी ऐसी ही कुछ असंगत क्रांतिकारी दलीलों की एक बड़ी भूमिका रही है। खास तौर पर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाये जाने के सवाल पर और फिर यूपीए-1 से समर्थन वापस लेने के प्रश्न पर तो यह पूरी तरह से साफ दिखाई दी थी।
वे कहते हैं, जो लोग कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात कर रहे हैं, वे सीपीआई(एम) के खिलाफ सैद्धांतिक हमला कर रहे हैं। लेकिन सचाई यह है कि विभिन्न अखबारों और चैनलों पर आज जो लोग भी मोदी और भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ वामपंथ के समझौते में किसी प्रकार का अवसरवाद देख रहे हैं, वे अभी के शासन के हित को साध रहे होते हैं। लेनिन की शब्दावली में कहे तो वामपंथ के अंदर उठने वाली ऐसी चीजें ‘‘क्रांतिकारी लफ्फाजी के सामने आत्म-समर्पण की टुटपुंजिया मानसिकता की एक अभिव्यक्ति है। बार-बार दुहराई जाने वाली पुरानी कहानी। ’’ (one of the manifestations of the traces of the petty-bourgeois spirit is surrender to revolutionary phrases. This is an old story perennially new...”)
और जहां तक ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ के सांगठनिक सिद्धांत का सवाल है, प्रकाश करात इसका इस्तेमाल सीपीआई(एम) में अपने पक्ष में किसी पवित्र गाय की तरह करते रहते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के बारे में लेनिन के इस कथन को कौन नहीं जानता कि कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसीप्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा। इसके बावजूद, प्रकाश करात का इस विषय पर मत किसी धर्माधिकारी के आवेश पूर्ण आदेश जैसा होता है। वे फतवा देते हैं कि ‘जनवादी केंद्रीयतावाद’ है तो कम्युनिस्ट पार्टी है, अन्यथा कम्युनिस्ट पार्टी ही नहीं है ! जो इसके अब तक के प्रयोग से पैदा हुई विकृतियों की बात करते हैं, उन्हें शुरू में ही बाहर का रास्ता बता दिया जाता है। कोरी ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ का एक और खेल !
लेनिन ने 21 फरवरी 2018 के ‘प्राव्दा’ में प्रकाशित ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ शीर्षक अपनी इस टिप्पणी का अंत इन शब्दों से किया था कि हमें इससे लड़ना होगा ताकि कोई यह कटु सत्य न कह सके कि- ‘‘क्रांतिकारी युद्ध के बारे में क्रांतिकारी लफ्फाजी ने क्रांति को तबाह कर दिया।’’ (A revolutionary phrase about revolutionary war ruined the revolution.) उस समय जर्मनी के साथ शांति-संधि को एक ‘अश्लील संधि’ तक कहा गया था।
जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, सीपीआई(एम) ने पहले ही ऐसी क्रांतिकारी लफ्फाजी की भारी कीमत अदा की है। प्रकाश करात की बातों से लगता है कि अब फिर एक बार सीपीआई(एम) के कमजोर शरीर में इसी वायरस ने प्रहार करना शुरू कर दिया है। और, चूंकि उनके साथ अभी सीपीआई(एम) के अंदर का बहुमत है, इसीलिये उनके लहजे में सिर्फ क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं, क्रांतिकारी नौकरशाही का स्वर भी बोल रहा है। इरफान हबीब के स्तर के एक अत्यंत सम्मानित इतिहासकार द्वारा उठाये गये गंभीर सवालों का जवाब पार्टी के सचिव के बजाय प्रकाश करात का देना इस बात का संकेत है कि सीपीआई(एम) के अंदर पार्टी पर कब्जे की लड़ाई क्रमश: कितना उग्र रूप ले चुकी है। प्रकाश करात का यह प्रत्युत्तर सीपीआई(एम) के लोगों को प्रकाश करात की एक अनाधिकार धमकी भी है कि वे आगे से कहीं भी ऐसी नागवार बातें न करें !
यहां हम प्रकाश करात के प्रत्युत्तर का लिंक दे रहे हैं :
http://peoplesdemocracy.in/2016/0724_pd/political-line-cpim-rejoinder-critics
-अरुण माहेश्वरी
सीपीआई(एम) के नेता प्रकाश करात ने ‘पिपुल्स डेमोक्रेसी’ के ताजा (24 जुलाई के) अंक में मोदी-आरएसएस-भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की बात करने वाले ‘वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवियों’ की दलीलों का एक प्रत्युत्तर दिया है। इसमें उन्होंने दोटूक शब्दों में कहा है कि सीपीआई(एम) कांग्रेस के वर्गीय चरित्र की वजह से ऐसा नहीं कर सकती है। कांग्रेस के साथ समझौता करने का मतलब है भारत के मजदूर वर्ग के हितों के साथ समझौता करना। कांग्रेस एक धर्म-निरपेक्ष दल है और भाजपा सांप्रदायिक, और चूंकि भाजपा केंद्र में सत्ता पर है इसलिये उसे हराना और अलग-थलग करना हमारा प्रमुख लक्ष्य भी है। लेकिन सांप्रदायिक ताकतें ‘90 के दशक के उसी दौर में फली-फूली जब नव-उदारवाद की नीतियां चलाई जा रही थी। मोदी सरकार उसी रास्ते पर और तेजी से चल रही है। इसीलिये नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ कर ही सांप्रदायिकता से लड़ा जा सकता है।
तीन हिस्सों में विभाजित अपने प्रत्युत्तर के दूसरे हिस्से में उन्होंने तमिलनाडु, असम, ओड़ीसा, आंध्र प्रदेश को लेकर प्रकारांतर से इरफान हबीब और सायरा हबीब के खुले पत्र में उठाए गये सवालों का जवाब देने की कोशिश की है।
और, अंतिम तीसरे हिस्से में उन्होंने साफ निर्देश जारी किया है कि ‘‘सीपीआई(एम) मोदी सरकार की नव-उदारवादी नीतियों और भाजपा, आरएसएस के सांप्रदायिक हमलों के खिलाफ एकजुट संघर्ष के लिये काम करेगी लेकिन ऐसा करते हुए वह मजदूर वर्ग, किसान जनता, शहर और गांव के गरीबों तथा दूसरे मेहनतकशों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के नाते एक शासक वर्ग की पार्टी के साथ कोई गठजोड़ कायम नहीं कर सकती है।...(कांग्रेस से गठबंधन करने या जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद पर सवाल उठाने की बातें) पार्टी पर एक विचारधारात्मक हमला है ताकि उसे एक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में बदला जा सके। सीपीआई(एम) का उनको संतुष्ट करने का कोई मन नहीं है।’’
एक जोश से भरा हुआ, नपीतुली निर्देशात्मक भाषा में प्रकाश करात का यह प्रत्युत्तर अनायास ही क्रांतिकारी लफ्फाजी के बारे में लेनिन के शब्दों की याद को ताजा कर देता है –
‘‘क्रांतिकारी लफ्फाजी का अर्थ है एक खास समय में घटना-प्रवाह के मोड़ पर उस खास समय की ठोस परिस्थितियों को ध्यान में रखे बिना क्रांतिकारी नारों को दोहराते रहना। नारे श्रेष्ठ, मनमोहक, नशीले होते हैं, परंतु वे आधारहीन होते हैं। यही है क्रांतिकारी लफ्फाजी की प्रकृति।’’
(By revolutionary phrase-making we mean the repetition of revolutionary slogans irrespective of objective circumstances at a given turn in events, in the given state of affairs obtaining at the time. The slogans are superb; alluring, intoxicating, but there are no grounds for them ; such is the nature of revolutionary phrase.)
लेनिन ने यह बात बोल्शेविक पार्टी में उन लोगों की दलीलों के जवाब में कही थी जो क्रांति के ठीक बाद जर्मनी से पृथक शांतिवार्ता के बजाय उसके खिलाफ ‘‘क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी’’ (preparation of a revolutionary war) की थोथी बात कर रहे थे। लेनिन ने सोवियत संघ की उस समय की सामाजिक परिस्थिति, सेना के विघटन की दशा और घनघोर आर्थिक तबाही का हवाला देते हुए कहा था कि इन तथ्यों की पृष्ठभूमि में आप ‘क्रांतिकारी युद्ध’ के बारे में बात कीजिए, आपके सामने ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ का सार स्पष्ट हो जायेगा।
प्रकाश करात को भारत की ठोस राजनीतिक परिस्थिति का अहसास ही नहीं है। वे नव-उदारवाद की बात करते हैं, उसे सारी बीमारियों की जड़ मान रहे हैं, लेकिन यह नहीं देख रहे हैं कि इन पचीस सालों के बीच यहां कैसी भयंकर रूप से उग्र, फासिस्ट धार्मिक तत्ववादी ताकतें सत्ता पर आ गई है। हिटलर और मुसोलिनी को छोड़ दीजिए, अभी की दुनिया में पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इरान, सीरिया से लेकर पूरे मध्यपूर्व की स्थिति से भी वे ऐसी ताकतों के रौद्र चरित्र के बारे में कोई सबक लेने के लिये तैयार नहीं है।
आज की भारत की राजनीतिक सचाई यह है कि यहां क्रांति एजेंडे पर नहीं है, लेकिन प्रति-क्रांति पूरी तरह से एजेंडे पर है। मजदूर वर्ग और मेहनतकशों ने एक जनतांत्रिक राज्य में अब तक जो भी अधिकार अर्जित किये हैं, उन सब पर आज सबसे भयंकर और बर्बर खतरा मंडरा रहा है। सीधे-सीधे अल्पसंख्यकों और दलितों को शारीरिक हमलों का शिकार बनाया जा रहा है। राज्य सभा में भी किसी प्रकार पूर्ण बहुमत की थोड़ी और अनुकूल परिस्थिति हो जाने पर मजदूरों और मेहनतकशों के अधिकार तो जाने दीजिये, विरोध की हर आवाज को पूरी ताकत के साथ कुचल दिये जाने के आसार साफ दिखाई दे रहे हैं। इसीलिये मजदूर वर्ग और मेहनतकशों के हितों की रक्षा के नाम पर अभी के मोदी निजाम के खिलाफ हवाई नहीं, बल्कि एक व्यापकतम वास्तविक प्रतिरोध तैयार करने से कतराना मजदूरों और मेहनतकशों के हितों की रक्षा नहीं, उनके साथ एक दगाबाजी कहलायेगा। हमारे देश की अब तक की ठोस राजनीतिक सचाई यही है कि ऐसा प्रभावशाली प्रतिरोध कांग्रेस दल को अलग रख कर कत्तई तैयार नहीं किया जा सकेगा। वामपंथ सबसे कमजोर स्थिति में है।
हमारा प्रश्न है कि प्रकाश करात सांप्रदायिकता के खिलाफ जिन जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों की एकता की बात कर रहे हैं, उनमें ऐसी कौन सी एक भी पार्टी है जिसे वे शासक वर्गों की पार्टी नहीं मानेंगे? इनमें से कई पार्टियों के पास राज्य सरकारें भी है। क्या वे नव-उदारवाद के खिलाफ कोई लड़ाई चला रही है ? खुद सीपीआई(एम) की सरकारें क्या नव-उदारवाद के खिलाफ किसी लड़ाई का नेतृत्व दे पा रही है ?
इसीलिये, सांप्रदायिकता के खिलाफ सभी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों की एकता में कांग्रेस को शामिल न करने के लिये ‘नवउदारवाद के खिलाफ लड़ाई’ का नारा वैसा ही है, जैसा रूस में क्रांति के ठीक बाद की परिस्थितियों में जर्मनी से पृथक शांति वार्ता का विरोध करने वालों ने ‘क्रांतिकारी युद्ध की तैयारी’ का नारा दिया था।
प्रकाश करात की बातों से लगता है जैसे वे अब भी सन् 1964 के समय के भारत में है, जिसमें कांग्रेस से लड़ाई ही सत्ता की किसी भी दूसरी प्रतिद्वंद्वी पार्टी के अस्तित्व की शर्त थी। उन्होंने अपने प्रत्यत्तर में सीपीआई(एम) के गठन के साल 1964 को याद भी किया है। इन बावन सालों में गंगा से न जाने कितना पानी बह गया है। इस दौरान भारतीय वामपंथ ने भी अपने उत्थान और पतन के न जाने कितने दृश्य देख लिये हैं। और, एक कटु सच यह भी है कि इस दौर के राजनीतिक घटना-प्रवाह में आने वाले मोड़ के कई महत्वपूर्ण मौकों पर वामपंथ की राजनीति को पंगु बनाने में उनकी ऐसी ही कुछ असंगत क्रांतिकारी दलीलों की एक बड़ी भूमिका रही है। खास तौर पर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाये जाने के सवाल पर और फिर यूपीए-1 से समर्थन वापस लेने के प्रश्न पर तो यह पूरी तरह से साफ दिखाई दी थी।
वे कहते हैं, जो लोग कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात कर रहे हैं, वे सीपीआई(एम) के खिलाफ सैद्धांतिक हमला कर रहे हैं। लेकिन सचाई यह है कि विभिन्न अखबारों और चैनलों पर आज जो लोग भी मोदी और भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के साथ वामपंथ के समझौते में किसी प्रकार का अवसरवाद देख रहे हैं, वे अभी के शासन के हित को साध रहे होते हैं। लेनिन की शब्दावली में कहे तो वामपंथ के अंदर उठने वाली ऐसी चीजें ‘‘क्रांतिकारी लफ्फाजी के सामने आत्म-समर्पण की टुटपुंजिया मानसिकता की एक अभिव्यक्ति है। बार-बार दुहराई जाने वाली पुरानी कहानी। ’’ (one of the manifestations of the traces of the petty-bourgeois spirit is surrender to revolutionary phrases. This is an old story perennially new...”)
और जहां तक ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद’ के सांगठनिक सिद्धांत का सवाल है, प्रकाश करात इसका इस्तेमाल सीपीआई(एम) में अपने पक्ष में किसी पवित्र गाय की तरह करते रहते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के बारे में लेनिन के इस कथन को कौन नहीं जानता कि कम्युनिस्ट पार्टियों के संगठन का ऐसा कोई अंतिम (absolute) रूप नहीं है, जिसे हर स्थान और काल के लिये सही माना जाए। संघर्षरत सर्वहारा वर्ग की परिस्थितियां लगातार बदल रही है, और इसीलिये सर्वहारा के हरावल को भी हमेशा संगठन के प्रभावशाली रूप की तलाश करनी होगी। इसीप्रकार, किसी भी देश की खास ऐतिहासिक परिस्थितियों की जरूरतों को पूरा करने के लिये प्रत्येक पार्टी को संगठन के अपने विशेष रूपों को विकसित करना होगा। इसके बावजूद, प्रकाश करात का इस विषय पर मत किसी धर्माधिकारी के आवेश पूर्ण आदेश जैसा होता है। वे फतवा देते हैं कि ‘जनवादी केंद्रीयतावाद’ है तो कम्युनिस्ट पार्टी है, अन्यथा कम्युनिस्ट पार्टी ही नहीं है ! जो इसके अब तक के प्रयोग से पैदा हुई विकृतियों की बात करते हैं, उन्हें शुरू में ही बाहर का रास्ता बता दिया जाता है। कोरी ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ का एक और खेल !
लेनिन ने 21 फरवरी 2018 के ‘प्राव्दा’ में प्रकाशित ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ शीर्षक अपनी इस टिप्पणी का अंत इन शब्दों से किया था कि हमें इससे लड़ना होगा ताकि कोई यह कटु सत्य न कह सके कि- ‘‘क्रांतिकारी युद्ध के बारे में क्रांतिकारी लफ्फाजी ने क्रांति को तबाह कर दिया।’’ (A revolutionary phrase about revolutionary war ruined the revolution.) उस समय जर्मनी के साथ शांति-संधि को एक ‘अश्लील संधि’ तक कहा गया था।
जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, सीपीआई(एम) ने पहले ही ऐसी क्रांतिकारी लफ्फाजी की भारी कीमत अदा की है। प्रकाश करात की बातों से लगता है कि अब फिर एक बार सीपीआई(एम) के कमजोर शरीर में इसी वायरस ने प्रहार करना शुरू कर दिया है। और, चूंकि उनके साथ अभी सीपीआई(एम) के अंदर का बहुमत है, इसीलिये उनके लहजे में सिर्फ क्रांतिकारी लफ्फाजी नहीं, क्रांतिकारी नौकरशाही का स्वर भी बोल रहा है। इरफान हबीब के स्तर के एक अत्यंत सम्मानित इतिहासकार द्वारा उठाये गये गंभीर सवालों का जवाब पार्टी के सचिव के बजाय प्रकाश करात का देना इस बात का संकेत है कि सीपीआई(एम) के अंदर पार्टी पर कब्जे की लड़ाई क्रमश: कितना उग्र रूप ले चुकी है। प्रकाश करात का यह प्रत्युत्तर सीपीआई(एम) के लोगों को प्रकाश करात की एक अनाधिकार धमकी भी है कि वे आगे से कहीं भी ऐसी नागवार बातें न करें !
यहां हम प्रकाश करात के प्रत्युत्तर का लिंक दे रहे हैं :
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