रविवार, 30 अक्तूबर 2016

यह दिवाली फौज के नाम !


-अरुण माहेश्वरी

प्रधानमंत्री मोदी ने इस दिवाली पर जवानों के नाम एक दीया जलाने का क्या आह्वान किया, भारत के सारे टेलिविजन न्यूज चैनलों ने पूरी दिवाली ही फौज के नाम लिख दी। दिवाली से जुड़े कार्यक्रमों में सेना के जवान और भारत माता की जय के नारे छाये रहे। इस पर्व के धार्मिक-सांस्कृतिक आयाम न जाने किस सुदूर पृष्ठभूमि में धकेल दिये गये। राजनीतिक तत्ववाद किस प्रकार सामाजिक जीवन के सांस्कृतिक विरेचन का एक बड़ा कारण बनता है, इस दिवाली पर इसका एक सबसे बुरा नमूना देखने को मिला।

आज के टेलिग्राफ की सुर्खी है - ‘‘State of no war, no peace”( न युद्ध की, न शांति की परिस्थिति)। इस खबर के साथ चंडीगढ़ में जलते हुए दीयों से बनाई गई एक जवान, उसकी बंदूक और उस पर उसके हैलमेट की तस्वीर भी छपी है। और इस पूरी खबर के संदर्भ को बताने वाली ऊपर एक पंक्ति है - ‘‘एक महीना होगया, ‘सर्जिकल स्ट्राइक‘ ने सीमाओं पर सशस्त्र बलों को कैसे प्रभावित किया है’’। (A month on, how the ‘surgical strikes’ have impacted the armed forces along the border)

इस रिपोर्ट का प्रारंभ हरयाणा के कुरुक्षेत्र के एक जवान सैनिक की घटना से किया गया है जिसके सिर को पिछली रात धड़ से अलग कर दिया गया था। कहा गया है कि जवान की यह स्थिति भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों की वर्तमान, ‘न युद्ध न शांति’ वाली दशा में आई गिरावट का प्रतीक है।

टेलिग्राफ की यह पूरी रपट पिछले एक महीने से सीमा पर चल रही ऐसी वारदातों के बारे में है जिसमें ‘एक सिर के बदले दस सिर लाने’ की नेताओं की हुंकारें हैं तो अतीत के ऐसे ही अनुभवों का उल्लेख है जब लगभग एक दशक से भी पहले सन् 2003 के नवंबर महीने के बाद नियंत्रण रेखा पर हर रोज दोनों देशों की फौजों के बीच इसीप्रकार गोलाबारी हुआ करती थी।

इसमें ‘No war, no peace’ शीर्षक एक किताब का जिक्र है जिसके लेखक द्वय, जार्ज पर्कोविच और टौबी डाल्टन ने लिखा है कि पाकिस्तान के खिलाफ इन भारतीय सैनिक कार्रवाइयों के चार लक्ष्य हैं - 1. पाकिस्तान को दंडित करने की देश की राजनीतिक मांग को पूरा किया जाए ; 2. पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादियों पर कार्रवाई करने के लिये मजबूर हो; 3.सशस्त्र झड़पों को इसप्रकार नियंत्रण में रखा जाए ताकि पाकिस्तान उसे एक हद से आगे न ले जा सके; और 4. इन झगड़ों से ज्याद नुकसान न हो।

बहरहाल, इसी रिपोर्ट में एक जगह पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग का कथन आया है जिसमें वे कहते हैं कि ‘‘यह साफ है कि वे (भाजपा वाले) इसकी अंतिम बूंद तक निचोड़ लेंगे।’’ पनाग ने कहा है कि ‘‘1999 में कारगिल युद्ध के बाद नेताओं की उत्तेजक बातें इस हद तक चली गई थी कि तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वी. पी. मलिक प्रधानमंत्री वाजपेयी के पास गये और उन्होंने राजनीतिक पोस्टरों में सेना प्रमुखों की तस्वीरों के इस्तेमाल का प्रतिवाद किया।’’

इसके साथ ही लेफ्टिनेंट जनरल पनाग ने कहा कि इन परिस्थितियों में सुरक्षा एजेंशियों को एक बड़ी आतंकवादी कार्रवाई की आशंका रहती है। पनाग के शब्दों में ‘‘ यह तब तक चलता रहेगा जब तक कि पाकिस्तान कोई और बड़ा कांड नहीं करता जिससे यह सरकार किसी बड़े धर्मसंकट में फंस जाए। इसप्रकार की (राजनीति और सर्जिकल स्ट्राइक का दावा करने वाली) रणनीति में मार खाने का खतरा हमेशा बना रहता है।’’

जो भी हो, लेफ्टिनेंट जनरल पनाग के कुछ भी सामरिक अंदेशें क्यों न हो, अपने खुद के अनुभव से हम बार-बार यह देख रहे हैं कि जब-जब हमारे देश में भाजपा-आरएसएस के पास सत्ता होती है, उस सत्ता का प्रारंभ तो पाकिस्तान के साथ दोस्ती के भारी ताम-झाम से होता है, लेकिन बहुत जल्द ही परिस्थितियां तेजी से इस कदर बदल जाती है कि हमारी सीमाएं सुलगने लगती है और सीमाओं पर लगी ‘न युद्ध न शांति’ वाली आग की इस आंच पर भाजपा-आरएसएस अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने लगते हैं।

यह परिस्थिति हमें अनायास ही आरएसएस के बारे में लगभग छ: दशक पहले अमेरिकी शोधार्थी जे. ए. कुर्रान, जूनियर की कही इस बात की याद दिला देती है कि ‘‘भारत में आरएसएस की राजनीति का भविष्य पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों की स्थिति पर निर्भर करता है। जब-जब इनमें तनाव बढ़ेगा, भारत में आरएसएस की राजनीति फलेगी-फूलेगी और जब तनाव कम होगा, वह कमजोर होगी।’’

फिलहाल, आज दिवाली के दिन, हम तो यह देख रहे हैं कि वर्तमान मोदी सरकार ने दीवाली के त्यौहार से जुड़ी हमारी सांस्कृतिक खुशियों पर ग्रहण लगाने का काम किया है। भारत के टेलिविजन चैनल आज सिर्फ युद्ध और युद्ध की हुंकारों में मुब्तिला है।

हम यहां टेलिग्राफ की आज की इस खबर का लिंक दे रहे हैं -

http://www.telegraphindia.com/1161030/jsp/frontpage/story_116442.jsp#.WBYyC5pb7j8

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

क्या मोदी सरकार राष्ट्र के पूर्ण विध्वंस की सरकार साबित होगी !

-अरुण माहेश्वरी

CLOSE DOWN COURTS: SC
SHUT DOWN, ACTUALLY

क्या सचमुच वह समय आरहा है जब हमें हैरोल्ड लॉस्की की राज्य और राजनीति के कखग को बताने वाली बुनियादी पुस्तक ‘‘राजनीति का व्याकरण’’ को फिर से पढ़ने की जरूरत है ; यह जानने की जरूरत है कि सामाजिक संगठन का, राज्य के निर्माण का उद्देश्य क्या होता है; क्यों किसी भी जन-समुदाय को सरकार नामक चीज की जरूरत होती है ; जनतंत्र में जब सत्ता आम लोगों में निहित मानी जाती है, तब राजसत्ता के संचालन का क्या तात्पर्य होता है, ताकि सत्ता उस जनता के पास बनी रहे जिसके बहुसंख्यक हिस्से में राजसत्ता के संचालन के रहस्य को जानने की न तो फुर्सत रहती है और न ही इच्छा ; आधुनिक राज्य-तंत्र का क्या मायने है और इसके सफलतापूर्वक संचालन के लिये क्यों एक अलग प्रकार की विशेषज्ञता की जरूरत होती है ?

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर ने कल भारत सरकार को लगभग अभियुक्त के कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि आप जिस तरह से न्यायाधीशों की नियुक्तियों को रोके हुए है ‘‘उसी तरह आप न्यायालयों को भी बंद कर सकते हैं’’। (You can as well close down the courts) ।

मुख्य न्यायाधीश ने न्यायालय को बताया कि कर्नाटक हाईकोर्ट के एक पूरे तल्ले पर सिर्फ इसलिये ताला लगा देना पड़ा है क्योंकि उसमें बैठने के लिये न्यायाधीश नहीं है। ‘‘पहले न्यायाधीश होते थे, लेकिन अदालतों में जगह नहीं होती थी, आज हमारे पास जगह है लेकिन उसमें बैठने के लिये न्यायाधीश नहीं है।’’

न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम ने इस साल के फरवरी महीने तक 311 जजों की नियुक्ति की सिफारिश की है जिनमें मोदी सरकार ने अब तक सिर्फ लगभग 80 जजों की नियुक्ति की है। बाकी नियुक्तियों को बिल्कुल निराधार और झूठी दलीलों के आधार पर लटका कर रख दिया गया है। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश ने भारत के अटर्नी जनरल मुकुल रोहतगी को बुरी तरह से फटकारते हुए कहा कि रोजाना किसी न किसी नये बहाने के साथ उपस्थित हो जाते हैं। आठ जजों के कॉलेजियम ने सरकार को इस बात की अनुमति दे दी थी कि वह चाहे तो नियुक्तियों की पद्धति का एक ज्ञापन (Memorandum of procedure) तैयार कर सकती है, लेकिन इसके बहाने नियुक्तियों को अनंत काल तक लटकाये रखने का कोई तुक नहीं है। इसीलिये मुख्य न्यायाधीश ने कहा, आप इस बारे में अपनी नीति को तय नहीं कर पा रहे है तो यह आपकी समस्या है। उसका नियुक्तियों को रोकने के लिये इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।

मुख्य न्यायाधीश ने यहां तक धमकी दी कि यदि यह गतिरोध इसीप्रकार बना रहता है तो सर्वोच्च न्यायालय इस सरकार को न्यायालय की अवमानना का अपराधी बताते हुए कोई ऐसा आदेश पारित करने के लिये मजबूर हो जायेगी, जैसा आज तक नहीं हुआ है। आगामी 7 नवंबर को सर्वोच्च अदालत में इस मामले की आगे और सुनवाई होगी।

पिछले दिनों हमने विदेश नीति के क्षेत्र में इस सरकार की चरम विफलताओं पर गौर किया था। भारत को इसराइल की तरह की एक क्षेत्रीय आक्रामक सामरिक शक्ति बनाने के चक्कर में इसने हमारी विदेश नीति को पूरी तरह से दिशाहीन बना कर छोड़ दिया है। आज के वैश्वीकरण के युग में कूटनीति का सीधा संबंध अर्थनीति से होता है। जिस समय दुनिया के दूसरे क्षेत्रों में पड़ौसियों के साथ मुक्त व्यापार की संधियां (एफटीए) की जा रही है, उस समय भारत सरकार की थोथी आक्रामकता हमारे देश को अपने में बंद, अलग-थलग, प्राय: एक दुर्गम क्षेत्र का रूप दे रही है। यहां तक कि इस पूरे उपमहाद्वीप के आम लोगों के बीच आपसी वैमनस्य को बढ़ाने की सुनियोजित कोशिशों में भी इस सरकार का सीधा हाथ दिखाई देता है।

इसीप्रकार, घरेलू आर्थिक नीतियों के मामले में भी, देश के संघीय ढांचे के प्रति इस सरकार की बुनियादी अनास्था ने जीएसटी सहित हर प्रकार के आर्थिक सुधारों को या तो अधर में लटका कर रख दिया है या अमल में लाने के पहले ही इतना विकृत कर दिया है कि उद्देश्यों की बात तो जाने दीजिये, उसकी मूलभूत सूरत को पहचानना तक मुश्किल हो जाए। जीएसटी के विकृतिकरण के ही बारे में जो सारी सूचनाएं आ रही है, उसे यदि इस रूप में लागू किया गया तो यह किसी प्रकार की सहूलियत के बजाय, भारत के लोगों के लिये एक नया जी का जंजाल बनने वाला है।

इन सब, दिशाहीनता, निर्णयहीनता और आरएसएस की तरह के एक ाड़यंत्रकारी पुरातनपंथी संगठन में निर्मित ग्रंथियों की जड़ताओं का ही फल है कि विश्व बैंक के ताजा आकलन में व्यापार करने में सहूलियत के सूचकांक में दुनिया के 190 देशों में भारत का स्थान आज भी पहले की तरह ही 130वां बना हुआ है। इस दौरान पाकिस्तान और बांग्लादेश तक की स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन भारत जस का तस, अपने दलदल में गहरे तक धसा हुआ है। सभी जानते हैं कि व्यापार करने में सहूलियत का सूचकांक प्रकारांतर से भ्रष्टाचार की स्थिति का भी एक सूचकांक होता है। लाल फीताशाही, व्यापार में बाधाएं हमेशा भ्रष्टाचार के मूल में रहती है।

इसका अर्थ है - मोदी राज अंतत: भारत का एक सबसे भ्रष्ट राज का खिताब भी हासिल करने जा रहा है।
और जहां तक कानून और व्यवस्था का सवाल है - इस सरकार ने गोगुंडा नामक सामाजिक और आर्थिक अपराधियों के एक सबसे बड़े गिरोह को बाकायदा सरकारी मान्यताएं देकर पूरे राष्ट्र को इन गिरोहों की गिरफ्त में ले आने के आरएसएस के सांप्रदायिक और जातिवादी कार्यक्रम पर अमल का सिलसिला शुरू कर दिया है। यह अपने आप में शायद दुनिया के एक सबसे ताकतवर माफिया गिरोह की उत्पत्ति का सरकारी उपक्रम होगा !

इस प्रकार, कुल मिला कर,  विदेश नीति, अर्थनीति, भ्रष्टाचार, और कानून और व्यवस्था के बाद यहां तक कि न्याय के क्षेत्र में भी यह सरकार जिस दिशा में बढ़ रही है, उसका गंतव्य पूरी तरह से एक जंगल राज से भिन्न नहीं हो सकता है। दर्शनशास्त्र का एक बुनियादी नियम है कि हर चीज अंतिम समय तक अपने अव्यक्त बीज-तत्व (सत्व) को ही व्यक्त करती है, अर्थात उसकी नियति किसी प्रारब्ध की तरह उसकी उत्पत्ति के वक्त ही तय हो जाती है। फिर भी, जीवंत जैविक संरचनाओं में तो जड़ पदार्थों की तुलना में परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन की ज्यादा संभावनाएं रहती है, लेकिन तत्ववादियों के लिये ऐसी सभी संभावनाओं के द्वार बंद रहते हैं। मनुष्य समाज के लिये सबसे बड़ी मुसीबत तब होती है, जब ऐसी आत्म-विनाशकारी तत्ववादी ताकतें मनुष्यों के बीच से भौतिक शक्ति का रूप लेकर पूरे समाज की नियति को प्रभावित करने लगती है। भारत में आरएसएस के सांप्रदायिक फासीवादी उद्देश्यों से परिचालित यह मोदी सरकार राष्ट्र के लिये वैसे ही दुखदायी विध्वंस का हेतु बनती दिखाई देने लगी है।

और इसीलिये, बिल्कुल सही, हमें आज हैरोल्ड लॉस्की और राज्य तथा राजनीति के उद्देश्यों की उनकी मूलभूत शिक्षाओं को दोहराने की जरूरत महसूस होने लगी है।

हम यहां आज के ‘टेलिग्राफ’ की पहली खबर ‘सरकार पर न्यायाधीश का ज्वालामुखी फटा’ (Judge volcano erupts on govt) को मित्रों के साथ साझा कर रहे हैं –

http://www.telegraphindia.com/1161029/jsp/frontpage/story_116340.jsp#.WBRwI7Ake7Y

शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

चीन का 'सत्व' : शी जिनपिंग

-अरुण माहेश्वरी


कल चीन की प्रमुख न्यूज़ एजेंसी शिन्हुआ की इस खबर ने एक बार के लिये थोड़ा चौंका दिया । इसमें बताया गया है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने बाक़ायदा एक बैठक करके चीन के राष्ट्रपति और कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी जिनपिंग को पार्टी का सत्व (core) घोषित किया है । उसके शब्दों में -

"A key meeting of the Communist Party of China (CPC) has called on all its members to "closely unite around the CPC Central Committee with Comrade Xi Jinping as the core."

That "the CPC Central Committee with Comrade Xi Jinping as the core" was formally put forward at the meeting, reflects the common will of the entire Party, the military and people of all ethnic groups in China.

Since the 18th CPC National Congress, Xi, as the general secretary of the CPC Central Committee, has led the Party, the military and the people in breaking new grounds and making great achievements in the great cause of building socialism with Chinese characteristics and the Party.
In the new great practices, Xi has already become the core of the CPC Central Committee and the entire Party.

The CPC Central Committee with Comrade Xi as the core is where the fundamental interests of the Party and state lie and a fundamental guarantee for the adherence to and strengthening of the CPC leadership.

"Together we must build a clean and righteous political environment, and ensure that the Party unites and leads the people to continuously open up new prospects for socialism with Chinese characteristics," the communique said.

The CPC meeting also approved two documents on the discipline of the Party, including the norms of political life within the Party under the new situation and a regulation on intra-Party supervision, moves that showcased the CPC Central Committee's strong resolve and commitment in practicing comprehensive and strict governance of the Party.

Such efforts will also ensure that the Party is capable of resisting corruption and withstanding risks, thus, safeguarding the authority of the CPC Central Committee and the Party's unity, advancement and purity.

The comprehensive and strict governance of the Party and a strong core of leadership are the key to China's development and the cause of building socialism with Chinese characteristics.
With the unity of the CPC around the CPC Central Committee with Xi as the core, China will gain further impetus to realize its two centenary goals. "

(चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की एक प्रमुख बैठक ने अपने सभी सदस्यों को कामरेड शी जिनपिंग के सत्व वाली सीपीसी की केंद्रीय कमेटी के साथ एकजुट होने का आह्वान किया है । बैठक में औपचारिक तौर पर शी जिनपिंग को सत्व के रूप में पेश किया गया जो पूरी पार्टी , सेना और चीन की सभी जातियों के लोगों की समान इच्छा को प्रतिबिंबित करता है ।)

हमने यहाँ इस पूरी खबर का तर्जुमा नहीं किया है । इस खबर में आगे पार्टी में अनुशासन और भ्रष्टाचार पर रोक के बारे में दो प्रस्तावों की भी चर्चा है और कहा गया है कि इन दोनों महत्वपूर्ण लक्ष्यों को हासिल करने में शी जिनपिंग के सत्व वाली केंद्रीय कमेटी की एकजुटता से और ज्यादा बल मिलेगा ।

जिस समय चीन में पूरी तरह से क़ानून का शासन लागू किये जाने की बात चल रही है, जिस समय पार्टी में जनतंत्र पर बल दिया जा रहा है, उस समय, यकबयक, एक ऐसी घोषणा - सर्वहारा की तानाशाही से पार्टी और फिर नेतृत्व के प्रभुत्वशाली गुट से व्यक्ति विशेष की तानाशाही तक की अनेक समाजवादी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की यात्रा का ऐसा एक चिरस्थायी क़िस्म का विचारधारात्मक रूपांतरण - हमारी दृष्टि में कम्युनिस्ट पार्टियों की सांगठनिक संरचना के सिद्धांतों पर बहुत ही गंभीरता से पुनर्विचार करने की माँग करता है ।

लगभग पाँच दशक पहले की बात है, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस और उसमें स्तालिन के बारे में ख्रुस्चेव के सनसनीखेज ख़ुलासे के बाद सारी दुनिया में जब कम्युनिस्ट पार्टी में व्यक्ति पूजा के विषय में ख़ूब चर्चा चल रही थी, कलकत्ता में 'स्वाधीनता' पत्रिका के एक शारदीय विशेषांक में डा. रामविलास शर्मा का एक लेख प्रकाशित हुआ था - 'वर्ग-चेतन श्रद्धा और व्यक्ति पूजा' । वह स्तालिन की व्यक्तिपूजा के समर्थन में तैयार की गई भक्ति से ब्रह्मलीनता (मुक्ति) तक की यात्रा की अपने प्रकार की एक दलील थी ।

तब से गंगा में काफी पानी बह चुका है । दुनिया से समाजवादी शिविर नाम की चीज निश्चिन्ह हो चुकी है और आज कम्युनिस्ट पार्टियाँ जन-संघर्षों के नेतृत्व के स्थान से भी अधिकांशत: ग़ायब दिखाई देती है । मार्क्स के विचार वैश्वीकरण की गुत्थी को खोलने में जितने कारगर दिखाई देते हैं, कम्युनिस्ट पार्टियों की आंतरिक जड़ताओं को तोड़ने में उतने ही असमर्थ हैं ।

कम्युनिस्ट पार्टियों का नेतृत्व अपनी दुनिया में स्वयं किसी स्वायत्त और स्वाधीन गणतंत्र के सत्ताधारी होने के भ्रमों में खोया हुआ प्रतीत होता है । जब यह हाल ग़ैर- सत्ताधारी पार्टियों का है, तब चीन में तो वह वास्तव में सत्ता पर है और अनंतकाल तक बने रहने की ख़ुशफ़हमी में रह सकता है । ऐसे में सिर्फ पार्टी का नेता नहीं, उसका सत्व, उसका व्यक्त-अव्यक्त सब कुछ बन जाने की वासना का पैदा होना सचमुच हमारे लिये 'यदा यदा ही धर्मस्य' और  'अभ्युत्थानमधर्मस्य ...' वाला मामला बन जाता है ।

अब हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि आख़िर वहाँ 'धर्म की हानि' कहाँ से हो रही है !



मंगलवार, 25 अक्तूबर 2016

हरीश भादानी रचना समग्र के लोकार्पण पर अरुण माहेश्वरी का वक्तव्य :

आज हरीश जी की समग्र रचनाओं के इन पांच खंडों के लोकार्पण का यह अवसर हमारे लिये क्या मायने रखता है, इसे सही ढंग से बयान करना काफी कठिन लगता है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे स्वयं आपकी सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना का एक अंश आपके सामने पांच खंडों के एक ठोस, भौतिक रूप में उपस्थित हो गया हो। आदमी की चेतना के अपरिमित विस्तार का इस प्रकार पुस्तकों के पांच खंडों में सिमट कर दिखाई देने लगना, आप अनुमान लगा सकते हैं, यह अपने पीछे एक कैसे शून्य के अंधकार को उत्पन्न करता होगा। एक बड़े काम के संपन्न होने से खुशी होती है, तो उतनी ही बड़ी जैसे एक रिक्तता भी पैदा होती है, जिसे हम अक्सर कुछ उत्सवों के रोमांच से भर कर अपना मन भुलाया करते हैं। कहना न होगा, यह लोकार्पण समारोह हमारे लिये हमारे अपने अंदर के एक विरेचन का और नई  खुशियों के प्रारंभ का संयोग बिंदु है। आगे अब यह काम अपनी एक नई भूमिका में, व्यापक पाठक समाज को संस्कारित करने की सामाजिक भूमिका में कैसे और कितना दिखाई देगा, वह भविष्य ही बतायेगा। जहां तक हमारा अपना सवाल है, हमारे लिये एक सुविधा की स्थिति यह है कि हम हमेशा बहु-विध विषयों के विमर्शों में उलझे रहते हैं, अन्यथा हमारे सामने आज ही सबसे बड़ा यह सवाल उठ खड़ा होता कि - आगे क्या !

अपने इस एक प्रकार के निजी नोट के साथ ही, जब मैं एक नये भविष्य के संयोग-बिंदु का जिक्र कर रहा हूं तो पूरा विषय हमारी निजता से हट कर एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में चला जाता है। और हरीश जी की रचनाओं से गहराई से गुजरने के बाद यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यह आयोजन सिर्फ इस बीकानेर शहर के सांस्कृतिक जीवन के लिये नहीं, हिंदी के पूरे साहित्य जगत में विचार और चिंतन के नये समीकरणों का एक श्रीगणेश साबित हो, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।

मित्रों, हमने अपने जीवन के लगभग पचास साल तक हरीश जी को देखा, सुना, पढ़ा और उनके गीतों को गुनगुनाया भी है। जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, वे हमारे जीवन में कुछ इस कदर समाये हुए थे कि उनकी अपने से अलग किसी भी तस्वीर को देखने-समझने की हमारी कोई तैयारी ही नहीं थी। स्वाभाविक जीवन की लय पर भी क्या कभी कोई विचार करता है !

लेकिन सबसे पहले उनकी एक लंबी कविता ‘नष्टोमोह’ पर, और बाद में उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर बीकानेर में हुए आयोजन के लिये हमने जब उन्हें अपने लिखने के विषय के तौर पर देखा, तो वह अनुभव सचमुच हमारे लिये अपने जीवन की स्वाभाविक लय में एक नई झंकार की अनुभूति की तरह का रहा। वह सब, जो हम घर पर नित्य-प्रतिदिन गाते-गुनगुनाते थे, हमसे स्वतंत्र होकर साहित्यिक कृतियों के रूप में कुछ ऐसे प्रतीत होने लगे, जैसे मार्क्स मनुष्यों द्वारा उत्पादित माल के बारे में कहते हैं - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्वव्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’

सचमुच यह हमारे लिये अपने यथार्थ, आम जीवन की पगडंडियों से साहित्य के एक अलग मायावी, अनोखे संसार में प्रवेश का अनुभव था। अपने जीवन की ही अनुभूतियों का एक नया साक्षात्कार। जब हरीश जी की 75वीं सालगिरह के मौके पर हमने अपनी अंतरंगता से जाने हुए उनके साहित्य पर लिखा, उसी समय हमने उनके अंतिम लगभग तीन दशकों के साहित्य के बारे में कहा था कि यह उनकी रचना यात्रा का एक ऐसा नया क्षेत्र है, जिसके साथ मेरा पहले के साहित्य की तरह का कोई नैसर्गिक जुड़ाव नहीं बन पाया था। तथापि, एक नजर डालने पर ही तब हमें ऐसा लगा था कि ‘60 के पहले तक के हरीश भादानी, ‘60 के बाद से ‘70 के मध्य तक के हरीश भादानी, ‘75 से ‘82 तक के नये जनसंघर्षों के हरीश भादानी और उसके बाद फिर अंत के लगभग तीन दशकों के हरीश भादनी का जीवन कोई ठहरा हुआ जीवन नहीं था, बल्कि वह उनकी रचना यात्रा के एक और नये उत्कर्ष का काल था जिसकी अतल गहराइयों में हमें प्रवेश करना तब तक बाकी था।

और सचमुच, जब साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित श्रृंखला ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ के अन्तर्गत मुझे उनके समग्र रचनात्मक व्यक्तित्व पर लिखने का मौका मिला तो उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर लिखे गए अपने लेख के अनुमान को हमने शत-प्रतिशत सही पाया। साहित्य अकादमी की वह पुस्तिका इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह मामूली बात नहीं है कि उनके इन्हीं अंतिम तीन दशकों की रचनाओं के एक संकलन, ‘सयुजा सखाया’ को उस पुस्तिका में हमने हरीश भादानी की ‘गीतांजलि’ तक कहा है।

वैसे, हिंदी में साहित्य के देश भर के रसिक पाठक हरीश भादानी को उनके तीन गीतों, ‘मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘रोटी नाम सत है’ और ‘रेत में नहाया है मन’ की वजह से हमेशा अतीव श्रद्धा के साथ याद करते हैं। ‘रेत में नहाया है मन’ को पढ़ते हुए मैंने उसे किस रूप में देखा, उसकी चर्चा करके ही मैं यहां अपनी बात को खत्म करूंगा।

जिस समय हरीश जी ने इस गीत की रचना की, वह उनके जीवन के सबसे कठिन आर्थिक संघर्षों का समय था। उस समय जब वे गहरे दुख और विषाद से भरे हुए एक के बाद एक गीत, ‘चले कहां से/ गए कहां तक/ याद नहीं है/’ या ‘समय व्याकरण समझाएं/हमें अ-आ नहीं आए‘ या ‘टूटी गजल न गा पायेंगे/...सन्नाटा न स्वरा पायेंगे’ की तरह के गीत लिख रहे थे, अवसाद के उसी दौर में उनके अंदर से अपनी धरती से प्रेम और उल्लास का एक नया सोता फूट पड़ता है। हमने उस पर लिखा था कि ‘‘ अवसाद जितना गहरा, उल्लास भी उतना ही प्रबल। दुख ही तो है सुख की परिमिति। शोर से मौन और मौन से संगीत।...वे अपनी धरती से जुड़ाव, जीवन पर विश्वास और मरुभूमि के सौन्दर्य के इस अमर गीत का सृजन करते हैं - रेत में नहाया है मन।

धरती से प्रेम का एक बिल्कुल नया गीत। गैब्रियल गार्सिया मारकेस की एक कहानी है -सराला एरेंदिरा। इसमें एरेंदिरा के हाथ का आईना कभी लाल हो जाता है तो कभी नीला, कभी हरी रोशनी से भर जाता है। एरेंदिरा की दादी कहती है - ‘‘तुम्हें प्रेम हो गया है। प्रेम में पड़ने पर ऐसा ही होता है।’’ सचमुच, प्रेम में ही रेत कभी धुंआती है, झलमलाती है, पिघलती है, बुदबुदाती है - मरुभूमि - समंदर का किनारा, नदी के तट बन जाती है। प्रेम में पागल आदमी की कांख में आंधियां दबी होती है, वह धूप की चप्पल, तांबे के कपड़े पहन घूमता है। इतना लीन जैसे आसन बिछा अपने अस्तित्व को खो बैठा हो।’’

सचमुच, ऐसा ही है हरीश जी के रचना संसार का सौन्दर्य।

अब उनका समग्र साहित्य आप सबके सामने है। राजस्थान की इस मरुभूमि ने हिंदी के साहित्य जगत को किस प्रकार समृद्ध करने में एक महती भूमिका अदा की है, इसका प्रमाण है यह ‘समग्र रचनावली’। हिंदी साहित्य में राजस्थान के आम लोगों के जीवन-संघर्षों को इतने सशक्त रूप में ले जाने वाले अपने प्रकार के इस अनूठे शब्द-साधक की स्मृतियां यहां के लोगों के सामान्य सांस्कृतिक बोध में जितनी रची-बसी रहेगी, उपभोक्तावाद की लाख आंधियां भी उसे सांस्कृतिक दृष्टि से कभी विपन्न नहीं कर पायेगी। हमारी यही कामना है कि इस शहर, इस प्रांत और पूरे हिंदी जगत के संवेदनशील लोग उनकी स्मृतियों को सदा जीवंत बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। बीकानेर के साहित्य प्रेमियों ने उनके जन्मदिन और प्रयाण दिवस, दोनों को ही एक महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के दिन की तरह मनाने की एक परंपरा बना रखी है। आजकल सोशल मीडिया की बदौलत पूरे देश में भी इन दो अवसरों पर उन्हें अवश्य स्मरण किया जाता है। हमारी यही कामना है कि यह सिलसिला पूरे राज्य और देश के स्तर पर और भी बड़े पैमाने पर चलें, एक जन-सांस्कृतिक आंदोलन और राजस्थान की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़े समारोह का रूप लें।

आज के इस कार्यक्रम में आप सभी महानुभावों की भागीदारी के लिये आंतरिक आभार व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूं।

धन्यवाद।
अरुण माहेश्वरी
1 अक्तूबर 2016



https://www.youtube.com/watch?v=FR6NvrgFOLA

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

स्वपन दासगुप्त के इस असंगत वाक्य का क्या अर्थ है ?

-अरुण माहेश्वरी



एक ओर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प कह रहा है कि अगर वह चुनाव में हार गया तो भी वह इस हार को नहीं स्वीकारेगा, और दूसरी ओर भारत में उसके एक समर्थक स्वपन दासगुप्त बता रहे हैं कि डोनाल्ड की हार में भी उसकी जीत है।

आज के ‘टेलिग्राफ’ में स्वपन दासगुप्ता ने अपने लेख “Trumpet Solo” में यह तो माना है कि ट्रम्प निश्चित तौर पर हार रहा है। लेकिन लेख के अंत तक आते-आते उन्होंने एक अनोखा वाक्य लिखा है - “ Even after his ‘groping’ is forgotten, the anger that Trump articulated will continue to haunt America” ( उसकी ‘झपट्टा मारने’ की बात को भुला दिया जाता है तब भी, ट्रम्प ने जिस आक्रोश को व्यक्त किया है वह अमेरिका को हमेशा सताता रहेगा।)

अपने इस कथन के पीछे स्वपन दासगुप्त का असली उद्देश्य क्या रहा है, कहना मुश्किल है। लेकिन उनके इस वाक्य की संरचना से लगता है जैसे वे मानते हैं कि ट्रम्प की स्त्रियों के यौनांगों पर ‘झपट्टा मारने’ की बात में भी कोई खास संदेश निहित था, और लोग भले ही उसे भूल जाए, लेकिन उसने मुसलमानों और आप्रवासन को लेकर जो गुस्सा जाहिर किया है, उसे नहीं भूल पायेंगे !

क्या कहेंगे इसे - स्वपन दासगुप्त के असंगत सोच की एक स्वाभाविक अभिव्यक्तिमूलक-त्रुटि या ट्रम्प जितना ही उनका अपना घटिया नीति-बोध ! ट्रम्प की तरह के उग्र दक्षिणपंथी विचारों का उनके ‘झपट्टा मारू’ सोच से क्या सचमुच कोई स्वाभाविक संबंध है ! क्या यही किसी फासीवादी ‘स्त्री-विरोधी’ व्यक्ति का वह अश्लील पक्ष है, जो कभी खुल कर सामने नहीं आता, लेकिन ट्रम्प ने उसे खोल दिया !

हम सभी जानते हैं कि स्वपन दासगुप्त की पूरी सहानुभूति ट्रम्प के साथ है। वे इस पर पहले भी लिख चुके हैं। ट्रम्प की मुसलमान-विरोधी और आप्रवासन-विरोधी बातों में वे बिल्कुल सही आज की भाजपा की राजनीति की झलक देखते रहे हैं। लेकिन, संधियों का सामान्य स्त्री-विरोधी रुख ट्रम्प की ‘झपट्टा मारू’ बातों के समर्थन तक भी जा सकता है, इसे ही उन्होंने अपने इस वाक्य से जैसे जाहिर किया है। यद्यपि हमें तो यह तार्किक असंगति से दूषित एक वाक्य लगता है, लेकिन संभव है कि शायद ऐसी असंगति ही उनके सोच का असली सच हो ! आज स्वपन दासगुप्त को अफसोस है कि जब बात खुल कर सामने आ ही गई है तब फिर लोग ट्रम्प की इस विकृति को भी क्यों उसी प्रकार नहीं अपनाते हैं, जिस प्रकार वे उनके मुसलमान-विरोधी गुस्से को कभी नहीं भूलेंगे !

अवचेतन शायद इसीप्रकार लेखक के वाक्यों की संगति को नष्ट किया करता है !

यहां स्वपन दासगुप्त के इस लेख का लिंक दिया जा रहा है -
http://www.telegraphindia.com/1161021/jsp/opinion/story_114601.jsp#.WAmmYY997IU

व्यवहारिक राजनीति का सच किसी 'ईश्वरीय' नियम का मुहताज नहीं होता


-अरुण माहेश्वरी

आज के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक का लेख है - ’’The growing resistance against globalisation : Workers united” ।

इस लेख में मोटे तौर पर उनका कहना है कि वैश्वीकरण के खिलाफ सारी दुनिया में प्रतिरोध हो रहा है, जिसे एकसूत्रता में देखा जाना चाहिए। लेकिन इनके नेतृत्व में अपनी कतिपय गलत समझ के कारण कहीं भी वामपंथी नहीं है। विकसित देशों में तो इनका नेतृत्व दक्षिणपंथियों ने हथिया लिया है, चीन में नव-माओवादी इसके नेतृत्व में है। इनकी तुलना में, उनके अनुसार, भारत में चूंकि दक्षिणपंथियों ने अपने को वैश्वीकरण से जोड़ रखा है, इसलिये वामपंथियों के लिये मैदान खुला हुआ है, आज उन्हें सभी प्रकार के पूंजीवादी विकासवादी भ्रमों से मुक्त होकर वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व देने के लिये उतर पड़ना चाहिए।

दरअसल, प्रभात किसी भी तरल और अस्पष्ट परिस्थिति के अपने तर्कों को नहीं देखना चाहते जिसमें हमेशा प्रकृति के सारे ‘सामान्य’ नियम स्थगित हो जाया करते हैं। वे इस अस्पष्ट, बनती-बिगड़ती स्थिति में वामपंथ जैसे किसी ईश्वरीय भूमिका में देखते हैं जो सर्वशक्तिमान होने के नाते सारी चीजों को देख कर अपनी मर्जी के अनुरूप ढाल सकता है। क्वांटम भौतिकी में ऐसी ईश्वरीय प्रणाली की सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि ईश्वर इसमें बड़ी-बड़ी चीजों को देख पाता है, लेकिन जो और कई छोटे-छोटे दूसरे घटनाक्रम (quantum oscillations) चलते रहते हैं, वे उसकी जद से छूट जाते हैं। जैसे प्रभात ने इसी लेख में सारी दुनिया के प्रतिरोध आंदोलनों को एकसूत्रता में देखते हुए जोर देकर कहा है कि ‘पेड़ों को देख कर पूरे जंगल को ओझल नहीं किया जाना चाहिए’।

भारत का सच यह है कि यहां की दक्षिणपंथी ताकतें विकास और वैश्वीकरण की कितनी ही बातें क्यों न करें, उनकी राजनीतिक शक्ति का मूल स्रोत विकास या वैश्वीकरण नहीं, दूसरी छोटी चीजें, सांप्रदायिकता, जातिवाद और तमाम प्रकार के दंगा-फसाद और भ्रष्टाचार हुआ करता है। इसीलिये व्यवहारिक राजनीति न वैश्वीकरण पर और न नव-उदारवाद पर केंद्रित हो सकती है। इसे आर्थिक संघर्षों के साथ ही सामाजिक ध्रुवीकरण के दूसरे सभी प्रश्नों को मुख्य रूप से अपने सामने रख कर अपनी कार्यनीति तैयार करनी होगी। यहां तक कि विकसित दुनिया में, मसलन् ब्रेक्सिट के सवाल पर ब्रिटेन में भी, दक्षिणपंथियों ने वैश्वीकरण का नहीं, दूसरी प्रकार की जातीय संकीर्णताओं और आप्रवासन-विरोधी भावनाओं को भड़का कर अपना उल्लू सीधा किया था।

इसीलिये हम फिर यह दोहराना चाहेंगे कि जब परिस्थितियां तरल और धुंधली होती है, तब प्रकृति के तथाकथित ‘सामान्य’ नियम स्थगित हो जाते हैं। आईंस्टाईन का यह बिल्कुल सही कथन था कि ‘ईश्वर कभी धोखा नहीं देता’, लेकिन दार्शनिक जिजेक के अनुसार इसमें यह और जोड़ने की जरूरत है कि ईश्वर खुद भी धोखा खाता है। प्रभात की वैश्वीकरण के खिलाफ जन-असंतोष को भुनाने की ये सारी बातें हमारे देश की तरल और अस्पष्ट परिस्थितियों में ईश्वर के अपने धोखे की कई दूसरी सचाइयों को नहीं देखती हैं , जो किसी भी ईश्वरीय प्रणाली से अनिवार्य तौर पर जुड़ी होती है। इससे हमारे देश की राजनीति की सचाई का जरा सा भी अंदाज नहीं मिलता है।  


हम यहां प्रभात पटनायक के इस लेख को मित्रों से साझा कर रहे हैं -

http://www.telegraphindia.com/1161020/jsp/opinion/story_114401.jsp#.WAh22suwhiQ

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

गर्त में भारत की विदेश नीति



-अरुण माहेश्वरी

मोदी शासन के अढ़ाई साल को भारत की विदेश नीति के चरम पतन के अढ़ाई साल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

इन्होंने शुरूआत की थी पड़ौस के सभी देशों के शुभाशीष से और आज सारे पड़ौसी भारत को गहरे शक की निगाह से देख रहे हैं। सबसे बुरा नजारा नजारा तो देखने को मिला अभी गोवा में, ब्रिक्स की आठवीं बैठक (15-16 अक्तूबर 2016) में। इसके साथ ही चली बिमस्टेक ( द बे ऑफ बंगाल इनीशियेटिव फार मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल एंड इकोनोमिक को-आपरेशन) के राष्ट्राध्यक्षों के साथ बैठक पर भी ब्रिक्स की काली छाया पड़ी रही। और, कुल मिला कर देखने को यह मिला कि ब्रिक्स की बैठक के दो दिन बाद ही नरेन्द्र मोदी उत्तराखंड में एक सभा में इसराइल की प्रशंसा करते हुए पाए गये। इसराइल - यानी अरब दुनिया में अमेरिका और पश्चिमी देशों की एक सामरिक चौकी, अपने पड़ौसी राष्ट्रों से पूरी तरह अलग-थलगपन का प्रतीक, मूलत: एक सामरिक राज्य, जनता के एक हिस्से ( फिलिस्तीनियों) के दमन की नाजीवादी सत्ता का एक जीवंत उदाहरण।

जब गोवा में ब्रिक्स की बैठक चल रही थी, उसी समय भाजपा और मोदी सरकार के कुछ मंत्री यहां चीनी सामानों के वहिष्कार का अभियान चला रहे थे। उनका यह अभियान कितना भारतीय अर्थ-व्यवस्था के हित में है या कितना अहित में, यह चर्चा का एक अलग विषय है। तथ्य यह भी है कि चीन से आयात के बढ़ने के साथ-साथ उससे ज्यादा अनुपात में भारत में दूसरे देशों से आयात में कमी आई है। लेकिन, ब्रिक्स की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार से पूरा जोर पाकिस्तान-विरोध पर लगा दिया था, चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने उतने ही साफ ढंग से पाकिस्तान के खिलाफ भारत की एक भी दलील को सुनने से इंकार कर दिया। अजहर मसूद पर पाबंदी और पाकिस्तान को आतंकवाद की जननी बताने की मोदी की बात पर उनका दो टूक जवाब था - पाकिस्तान भी आतंकवाद का उतना ही शिकार है, जितना कोई और देश। और तो और, चीन ने एनएसजी में भारत की सदस्यता के सवाल पर भी उसका साथ देने से इंकार कर दिया।

रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने शुरू में ही आतंकवाद पर भारत की चिंताओं के प्रति मौखिक सहानुभूति जाहिर करके सफलता के साथ भारत को अपने हथियारों का एक जखीरा जरूर बेच दिया। लेकिन फिर उन्होंने भी न पाकिस्तान के साथ अपने सैनिक अभ्यास को रोकने के बारे में कोई आश्वासन दिया और न ही ब्रिक्स की बैठक से किसी प्रकार का कोई पाकिस्तान-विरोधी बयान जारी करने की भारत की पेशकश का साथ दिया। जहां तक ब्रिक्स के दूसरे सदस्य, ब्राजिल और दक्षिण अफ्रीका का सवाल है, उन्हें भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के प्रकार के क्षेत्रीय सामरिक विषयों में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी।

ब्रिक्स की इस बैठक में एक आंखों को चुभने वाला दृश्य तब देखने को मिला जब नेपाल के प्रधानमंत्री की चीन के राष्ट्रपति के साथ चल रही बैठक के बीच में बिना किसी पूर्व सूचना के ही नरेन्द्र मोदी उपस्थित होगये। आज मोदी जी के भूल से इस प्रकार उनके कमरे में पहुंच जाने पर भारत की ओर से कुछ भी सफाई क्यों न दी जाए, लेकिन कयास लगाने वालों को इसमें नेपाल के प्रति भारत सरकार की आशंकाओं की झलक देखने से कौन रोक सकता है !

जो चीन एक समय में कश्मीर जैसे सवाल पर अमेरिकी दबावों के सामने किसी न किसी रूप में भारत के साथ खड़ा रहता था, वही आज जैसे किसी भी सवाल पर भारतीय पक्ष का साथ देने के लिये तैयार नहीं है। और, नेपाल से तो मोदी ने अपने संबंध जिस प्रकार बिगाड़े हैं, उसे देखते हुए म्यांमार और बांग्लादेश के भी कान खड़े हो गये है और वे किसी भी विषय में अकेले भारत के भरोसे चलने को तैयार नहीं है। ये दोनों देश भी चीन के साथ गहरे संबंध तैयार करने में जुटे हुए हैं।

भारत की यह अलग-थलग दशा, सचमुच दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में क्रमश: वैसी ही होती जा रही है जैसी कि अरब दुनिया में इसराइल की है। जब से बराक ओबामा ने मोदी जी को अपनी पीठ पर हाथ रखने की अनुमति दी और उनके हाथ की बनाई चाय पी ली, मोदी जी अपने को इस क्षेत्र में शायद इसराइल की तरह ही दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति का दूत मानने लगे हैं। जबकि, यह भी उनका कोरा भ्रम ही है। अमेरिका यह जानता है कि इस पूरे क्षेत्र में यदि किसी के जरिये उसे इसराइल की तरह की भूमिका अदा करवानी है तो वह भारत कभी नहीं हो सकता, इसके लिये पाकिस्तान या वैसा ही कोई दूसरा छोटा देश उसके काम आयेगा। इसीलिये, भले नरेन्द्र मोदी अपने अंदर आरएसएस के दिये संस्कारों के कारण, इसराइल बनने का सपना पाले हुए हो, लेकिन इसराइल बनने के लिये उन्हें जिन पश्चिमी देशों की गुलामी स्वीकारनी होगी, उनकी अभी यह तैयारी ही नहीं है कि वे भारत की तरह के एक विशाल और असंख्य समस्याओं से भरे देश को अपने गुमाश्तों की कतार में शामिल करें। इतिहास की आधी-अधूरी समझ के कारण आरएसएस वालों ने इसराइल को इस्लाम का दुश्मन समझ रखा है, और इसीलिये वे इसराइल-वंदना में लगे रहते हैं। लेकिन, यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच के संबंधों की उन्हें जरा भी जानकारी होती तो वे इसराइल की मौजूदा स्थिति के सच को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते थे। इसराइल पूरे अरब विश्व में साम्राज्यवादियों की सामरिक रणनीति की एक अग्रिम चौकी है, इसीलिये अरब दुनिया उसे पश्चिमी प्रभुत्व के प्रतीक के तौर पर देखती है, उससे दूरी रखती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है, एक क्षेत्रीय आक्रामक शक्ति बनने की मोदी सरकार की बदहवासी ने भारत की विदेश नीति को पूरी तरह से दिशाहीन बना कर छोड़ दिया है। पिछली सरकारें विदेश नीति के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर देश के विपक्षी दलों के नेताओं का सहयोग लेती रही है, इसके कई उदाहरण मौजूद है। लेकिन इस सरकार ने तो विपक्ष के साथ राष्ट्रीय महत्व के किसी भी गंभीर विषय पर संवाद का कोई रिश्ता नहीं रखा है। यह आगे तमाम मोर्चों पर इसकी नीतियों के और भी पतन का कारण बनेगा। विदेश नीति तो सचमुच गर्त में जा चुकी है।




'भयंकर रूप से घातक’


-अरुण माहेश्वरी

आज ‘लहक’ के कार्यालय में निर्भय देवयांश जी से मिलने गया था। काफी दिन हो गये थे उनसे ढंग से कोई बात किये। अंतिम मुलाकात ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ के लोकार्पण समारोह में हुई थी। उनसे जानना चाहता था कि उनकी पत्रिका पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया आ रही है। खास तौर पर उसके ताजा अंक में जितनी उत्तेजक सामग्रियां है, उस पर मैं स्वभाविक तौर पर बहुत ही तीखी प्रतिक्रियाओं का कयास लगा रहा था।
देवयांश जी ने बताया कि कुछ लोग तो बेहद उखड़े हुए हैं। उनका कहना था कि खास तौर पर महावीर प्रसाद द्विवेदी पर मेरे लेख से तो कुछ की रीढ़ में सिहरन सी दौड़ गई है। एक आलोचक प्रवर का नाम लेकर उन्होंने बताया कि वे तो उसे ‘भयानक रूप से एक घातक लेख’ कह रहे थे। लोग सांसे थामे पढ़ रहे हैं, कुनमुना रहे हैं, चिढ़ रहे हैं, घुट भी रहे है, लेकिन अंत में गहरी उदासी से भी घिर जा रहे हैं।

मैं सोच रहा था, यह क्या हो रहा है ? चिढ़-घुटन-और उदासी सब साथ-साथ। क्या कहा जा सकता है इस खास प्रकार की विडंबना को ! ऐसी असहायता कि आदमी हाथ मलता रह जाए, कुछ समझ में न आए !

हमें यह मामला एडगर एलेन पो की बहुचर्चित अमेरिकी कहानी ‘‘The facts in the case of M. Valdamar” की तरह का लगने लगा। वशीकरण मंत्र को जानने वाला इसका कथाकार अपने मित्र वाल्दामार को ऐन उस वक्त वशीकृत कर लेता है जब वह अपनी अंतिम सांसें ले रहा होता है। वह देखना चाहता था कि इस वशीकरण का उस पर क्या असर पड़ता है। वशीकृत अवस्था में ही वह उसे सात महीनों के लिये छोड़ देता है। सात महीने बाद वह उसके पास जाकर कुछ पूछता है तो मर जाने की वजह से वाल्दामार का मूंह और जबड़ा तो जकड़ा हुआ था, लेकिन उसके कंठ से खरखराती हुई आवाज निकली - मैं मर गया हूं, मर गया हूं। जब वह एक ही बात को बार-बार कहता है तो कथाकार उसे जगाने की कोशिश करता है। और इस कोशिश के साथ ही वह देखता है कि वाल्दामार का पूरा शरीर सड़ कर गाढ़ी पीप में बदल जाता है।

जाहिर है कि अचानक एक शरीर के इस प्रकार सड़ी हुई पीप में बदल जाने से कोई भी दहशत में आ जायेगा !
‘हिंदी नवजागरण’ के वशीकरण मंत्र से जिन चंद मृत शरीरों को अब तक वशीकृत करके रखा गया है, अब जब आप उनसे सवाल करते हैं तो उनके अंदर से व्लादामार की तरह की ही छटपटाहट भरी आवाजें आती हैं।

महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि ‘अरे, मैं एक पत्रिका का संपादक, मुझे ‘नवजागरण’ की भारी चट्टान के नीचे दबा कर मार दिया गया है, मैं मृत हूं।’

ऐसे में उन्हें जगाने की कोशिश करने वालों के हाथ में शायद वाल्दामार की तरह की सड़ी हुई पीप ही रह जाती होगी ! इसीकी दहशत ने संभव है कुछ को संज्ञाशून्य कर दिया हो। ऐसे में ‘भयंकर रूप से घातक’ के अलावा उनकी दूसरी क्या प्रतिक्रिया हो सकती है !

(17.10.2016)

यहां मित्रों की सुविधा के लिये मैं महावीर प्रसाद द्विवेदी पर अपने इस लेख का लिंक भी दे रहा हूं, जिसे ‘लहक’ में छपने के बाद मैंने अपने ब्लाग पर लगा दिया था -

https://chaturdik.blogspot.in/2016/09/blog-post_43.html

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

डोनाल्ड ट्रम्प : संसदीय जनतंत्र में बुराई का एक नायाब चरित्र


-अरुण माहेश्वरी

दुनिया के संसदीय जनतंत्र के इतिहास में अब तक एक से एक पतित नेता हुए हैं। एक तरह से कहा जा सकता है कि हिटलर भी इसी जनतंत्र की प्रक्रिया का इस्तेमाल करके ही सत्ता पर आया था। इटली का मीडियाशाह सिल्वियो बेरलुस्कोनी जैसा पतित आदमी भी हुआ है जो कई मर्तबा वहां का प्रधानमंत्री बना और अपने पीछे न जाने कितने सेक्स स्कैंडल के किस्से छोड़ गया। 2011 में जब वह अंतिम बार प्रधानमंत्री पद से हटा, उसके दो साल बाद ही उसे करों में धांधली के मामले में इटली की अदालत ने सजा सुनाई थी।

दुनिया भर में ऐसे अनेक शैतान नेताओं के किस्सों के बावजूद आज अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिये रिपब्लिकन पार्टी का जो उम्मीदवार है, डोनाल्ड ट्रम्प, वह एक ऐसा जंतु है जिसे संसदीय राजनीति का अपने प्रकार का एक नायाब चरित्र कहा जा सकता है। वह खुले आम यह कहते हुए पकड़ा गया है कि किसी भी सुंदर स्त्री को पास में देखते ही वह उस पर झपट पड़ता है, उसके गुप्तांगों को दबोच लेता है। टेलिविजन पर उसके इस कथन का जब वीडियो प्रसारित हुआ तो उसने उसकी सत्यता से इंकार नहीं किया, बल्कि पूरी धृष्टता से कहा कि ये बाते बंद कमरे में की गई बाते हैं। बाद में जब कई स्त्रियों ने ‘न्यूयार्क टाइम्स’ जैसे अखबारों में बयान दिये कि वे खुद ट्रम्प की ऐसी पाशविक हरकतों का शिकार बन चुकी है, उन्होंने अपने साथ घटी घटनाओं का पूरा ब्यौरा तक दिया। तब, इन बयानों की प्रतिक्रिया में ट्रम्प कहता है कि इन सारी महिलाओं में ऐसा कोई आकर्षण ही नहीं है कि वह उन पर इस प्रकार झपट पड़े। अर्थात, औरतों पर झपटने की अपनी मानसिकता को स्वीकारने में उसे जरा भी शर्म नहीं है।
और तो और, हाल में हिलेरी क्लिंटन के साथ हुई दूसरी राष्ट्रीय बहस के बाद उन्होंने हिलेरी के बारे में भी ऐसा बयान दिया जो प्रकारांतर से हिलेरी के शरीर पर केंद्रित था, कि उसने मुझे जरा भी आकर्षित नहीं किया !

इसप्रकार के जघन्य मनोरोग के अलावा, झूठ बोलना तो उसकी आदत में इसप्रकार शरीक है कि लोगों को लगने लगा है कि ट्रम्प के लिये सच बोलना ही सबसे दुष्कर काम है। इसपर अभी दो दिन पहले ही अपनी एक टिप्पणी में हमने चर्चा की थी। ट्रम्प और उसके समर्थकों की इन अनर्गल बातों से पीड़ित होकर ‘इकोनोमिस्ट’ ने तो अपने एक अंक (10-16 सितंबर 2016) में चर्चा का प्रमुख विषय ही ‘झूठ बोलने की कला’ बनाया था। इसमें ‘इकोनोमिस्ट’ ने ट्रम्प के संदर्भ में ही लिखा था कि ‘‘राजनीति में गैर-ईमानदारी नई चीज नहीं है; लेकिन अभी कुछ राजनीतिज्ञ जिस प्रकार झूठ बोलते हैं, वे कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं, यह चिंताजनक है।’’




ट्रम्प के चरित्र के इन सभी पतित रूपों के खुल कर सामने आने के बाद राष्ट्रपति ओबामा ने उसके बारे में बिल्कुल सही कहा है कि ऐसा आदमी तो किसी मोदीखाने में नौकरी पाने के लायक भी नहीं है, राष्ट्रपति बनना तो बहुत दूर की बात है। ओबामा ने इस बात पर भी गहरा असंतोष जाहिर किया है कि रिपब्लिकन पार्टी के कई बड़े नेताओं ने ट्रम्प से अपना समर्थन हटा लेने के बावजूद आज तक रिपब्लिकन पार्टी की ओर से अधिकारिक तौर पर ट्रम्प की इन हरकतों के बारे में कोई बयान नहीं आया है। ओबामा ने अमेरिकी मतदाताओं से कहा है कि ट्रम्प जैसे लोगों का अब एक मात्र उद्देश्य यह रह गया है कि वे पूरे राजनीतिक वातावरण को अपनी झूठ और दूसरी गंदी बातों से इतना दूषित कर दें कि जिससे आम लोगों का जनतंत्र नाम की चीज पर से ही भरोसा उठ जाए। वे अपने इस उद्देश्य में सफल न हो, इसीलिये ओबामा ने लोगों से किसी भी हालत में मतदान से विरत न रहने की अपील की है।

अमेरिका में ये चुनाव 8 नवंबर को होने वाले है अर्थात अभी भी कुछ दिन बाकी है। इसी बीच अमेरिकी प्रथा के अनुसार अभी वहां दोनों उम्मीदवारों के बीच एक और, तीसरी राष्ट्रीय बहस होने वाली है। इस दौरान वहां और कितना कीचड़ उछलने वाला है, कोई नहीं कह सकता। ट्रम्प इसी अर्थ में संसदीय जनतंत्र का एक नायाब चरित्र है क्योंकि उसकी हरचंद कोशिश अब जनतंत्र मात्र को ही एक घृणित चीज साबित करने की है और वह चाहता है कि जब लोगों में इस प्रकार की असहायता का भाव आ जाए और लगने लगे कि उनके सामने निकृष्टों के बीच चयन के अलावा कोई चारा नहीं रह गया है, ऐसे में आश्चर्य नहीं होगा कि लोग निकृष्टों में सबसे निकृष्ट के चयन को ही उचित मानने लगे। इसप्रकार, ट्रम्प नागरिकों के चयन के बुनियादी मानदंडों को ही पूरी तरह से उलट-पुलट देना चाहता है।
इस अर्थ में कहा जा सकता है कि आज की दुनिया में मनुष्यों की अर्जित जनतांत्रिक चेतना को ही उलट देने के एक सबसे जघन्य प्रयास का प्रतीक है - डोनाल्ड ट्रम्प।

गनीमत यही है कि पूरे अमेरिका से मिल रहे अनुमानों के अनुसार हर बीतते दिन ट्रम्प का ग्राफ गिरता चला जा रहा है। खास तौर पर औरतों में तो उसको भारी  नफरत पैदा हो चुकी है। फिर भी, ट्रम्प को जनतंत्र में एक बड़ी बुराई के रूप में हमेशा याद किया जायेगा।


 https://www.youtube.com/watch?v=6UkAjnx7x1g

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

बॉब डिलन को साहित्य का नोबेल दिये जाने के प्रसंग में :




-अरुण माहेश्वरी

samalochan.blogspot पर Geet Chaturvedi ने बॉब डिलन के गीतों के साहित्यिक महत्व को रेखांकित करने के लिये एक अच्छी पोस्ट लगाई है। वह पोस्ट इस विषय में खुद में यथेष्ट न होने पर भी उसे इस दिशा में विचार की एक गंभीर और सराहनीय प्रस्तावना कहा जा सकता है। यद्यपि हिंदी में अभी (आज के दैनिक हिंदुस्तान को देखिये) जो लोग बॉब डिलन को साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिये जाने पर कुछ शंकाएं जाहिर कर रहे हैं, वे भी डिलन के गीतों के बारे में कितना जानते हैं, इसपर भारी संदेह किया जा सकता है।

बहरहाल, बंगाल में बाउल गान के एक सबसे बड़े गायक हुए हैं - पूर्णचंद्र दास बाउल। अभी उनकी उम्र अस्सी को पार कर गई है। दो दिन पहले, 14 अक्तूबर के आनंदबाजार पत्रिका में बॉब डिलन के बारे में उनका एक संस्मरण प्रकाशित हुआ है। वे बॉब के गहरे संपर्क में आए थे और लगभग 50 साल पहले, जब वे मात्र 30-32 साल के थे, पूरा एक साल अमेरिका में बॉब के साथ बिताया था । उस दौरान दोनों ने कई जगहों पर साथ-साथ अपनी प्रस्तुतियां भी दी थी। बॉब के साथ अपने अनुभवों पर पूर्णदास बाउल ने लिखा है कि ‘वह तो बाउल था’। इसके साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि हमारे यहां सबसे बड़े बाउल हुए हैं - रवीन्द्रनाथ।

कहना न होगा, पूर्णदास बाउल के इस कथन के मर्म को यदि समझ लिया जाए तो इस पूरे प्रसंग की गुत्थी को समझना बहुत आसान हो जायेगा।

जो भी हो, गीत चतुर्वेदी की उक्त पोस्ट पर मैंने एक विस्तृत टिप्पणी की थी। उसे यहां मैं अलग से भी दे रहा हूं, इस उम्मीद के साथ कि संभवत: उससे भी इस प्रसंग पर कुछ रोशनी गिर पायेगी।

यहां मैं समालोचन ब्लागस्पाट के उस लिंक को भी दे रहा हूं जिसमें गीत चतुर्वेदी की वह पोस्ट लगाई गई है।

गीत चतुर्वेदी की पोस्ट पर हमारी टिप्पणी -

‘‘ गीत चतुर्वेदी को बॉब डिलन पर इस बहुत अच्छे लेख के लिये बधाई। हम रवीन्द्रनाथ के प्रदेश से आते हैं। रवीन्द्रनाथ को उनके गीतों ने उनके जीवन में ही लगभग किसी पैगंबर के स्थान पर पहुंचा दिया था।

इस बारे में अन्नदाशंकर राय ने अपनी किताब ‘रवीन्द्रनाथ’ में अपना एक संस्मरण संकलित किया है जब वे पूर्व बंगाल के उस राजशाही जिले के कलेक्टर बन कर गये थे, जिसमें रवीन्द्रनाथ की जमींदारी पड़ती थी और एक बार वहीं पर उन्हें रवीन्द्रनाथ से मिलने का मौका मिला था। मैंने हरीश भादानी पर साहित्य अकादमी के लिये मोनोग्राफ में भी इसका जिक्र किया है। यहां मैं उस पूरे प्रसंग को रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं।

समय बहुत कम था। किसी तरह दौड़ते-भागते वे रवीन्द्रनाथ से मिले थे। रवीन्द्रनाथ के हाउसबोट पर जब वे उनके बगल में बैठें, तब रवीन्द्रनाथ ने उनसे कहा, ‘‘इन लोगों को देख रहे हो ? पूरे रास्ते मेरे साथ पैदल चले आरहे हैं। पतिसर में मेरे आने की बात नहीं थी। ये लोग ही अंतिम बार के लिये देखना चाहते थे। अर्से से देखा नहीं है।...
‘‘वे क्या कह रहे हैं, सुनोगे? कहते हैं पैगंबर को आंखों से नहीं देखा है। आपको देख रहे हैं।’’
अन्नदाशंकर लिखते हैं : ‘‘पैगंबर को क्या मैंने देखा है? लेकिन इस आयु में गुरुदेव अपने पके हुए केशों के साथ किसी पैगंबर की तरह ही दिखते थे। पार्थिव जगत के बंधन कमजोर होगये थे। वे हमारे बीच होने पर भी हममें से एक नहीं थे।...राजशाही लौटने पर मेरे बूढ़े मुसलमान चौकीदार ने पकड़ा। ‘‘हुजूर बहादुर कहां गये थे।’’
‘‘मैंने बता दिया। नहीं जानता था कि वह रवीन्द्रनाथ को जानेगा।...शफी चौकीदार ने शिकायत करते हुए कहा, ‘‘अरे, ठाकुरबाबू आये थें। हमको क्यों नहीं लेगये हुजूर? कितने दिन होगये उनको देखे। देख आता।’’
‘‘तुमने उनको देखा है?...कब?’’
‘’ वोऽ, जब राजशाही आये थे। पालित साहब यहां के जज साहब थे। जज साहब की कोठी में रहे। आहा, ठाकुर बाबू क्या सुंदर मनुष्य थे! कितना सुंदर गाते थे। मुझे अभी भी याद है।’’ वह अतीत में खो गया।
‘‘मैंने हिसाब लगा कर देखा, वह चौवालीस साल पहले की बात कह रहा था। कवि की उम्र तब बत्तीस साल की थी।... बाद में शांतिनिकेतन में गुरुदेव को बताया । उन्होंने करुण भाव से कहा, ‘‘तब गाने का गला था।’’

मोनोग्राफ के इसी अध्याय ‘नया पड़ाव’ में हरीश जी के गीतों पर जो लिखा गया, उसके भी एक छोटे से अंश को यहां देना चाहूंगा। शायद गीत विधा पर गीत चुतुर्वेदी की बातों को उनसे कुछ बल मिले। यहां 1966 में प्रकाशित उनके गीतों के नये संकलन ‘एक उजली नजर की सुई’ का प्रसंग है। मोनोग्राफ में लिखा गया है -

“एक उजली नजर की सुई  में इस दौर में गृहीत अनूठे महानगरीय बिंबों के कई अमर गीत संकलित है। कोलकाता और मुंबई में बैठ कर लिखे गये ये गीत सघन और जटिल महानगरीय बोध के साथ नये, बेहतर और मानवीय समाज के निर्माण की बेचैनी के गीत है। ये सन् साठ के बाद के गीत है। गीत क्या, बेहद सघन बिंबों की कविताएं जिन्हें हरीश भादानी गाकर और भी गाढ़ा बना देते थे। सुव्यवस्थित ध्वनियों के साथ आधुनिक, जटिल भाव, विभाव, अनुभाव की रस-निष्पत्ति। सोने पर सुहागा। संगीत, लय और धुनों, रागों पर अधिष्ठित सार्थक शब्दों की मूच्र्छना और भावों की गहनता। फिर चित्त के विस्तार का एक अलग ही प्रभाव क्यों न दिखाई दे!

“हरीश भादानी अपने इन गीतों की व्यंजना के साथ जहां भी होते, उनके ऐश्वर्य का अपना ही वलय होता। वे साहित्य-रसिकों, साहित्यकारों या यहां तक कि कोरे कवि सम्मेलनों के भी कवि नहीं थे। वे जहां होते, पूरा परिवार, घरों की औरतें और बच्चे भी उनके साथ होते, उनके साथ स्वर मिला कर गाते होते। राजस्थान सहित देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे असंख्य परिवार हैं, जिनकी बेटियां-बहुएं आज भी हरीश भादानी के गीतों को गुनगुना कर स्वयं को परितृप्त करती हैं। इसमें शक नहीं, नाद उनके इस व्यक्तित्व का एक मूल आधार था। कहते हैं, भाषा भाषा मर्मज्ञों को रिझाती है, लेकिन गीत, जिसे महर्षि भरत ने नाट्य की शय्या कहा है, शिशुओं को भी खींच लेते हैं। यही तो है जो कवि को पैगंबर बना देता है।96 तुलसी-सूर-कबीर के इतने प्रसारित अनुभवों के बाद भी आधुनिक हिंदी साहित्य जगत गीतों की इस अनोखी शक्ति से आज जैसे लगभग अपरिचित सा दिखाई देता है। औसत प्रतिभाओं के समय के औसत साहित्यगुरुओं की मार और हिंदी कविता पर अधकचरेपन का अभावनीय वर्चस्व! बांग्ला में आज भी इसीलिये ‘रवीन्द्र-उत्तर’ कुछ भी क्यों न बना हो, बार-बार घूम-फिर कर शब्दों के नाद के लिये भी उसे रवीन्द्रनाथ के शरणागत होते देखा जा सकता है।
 
“हरीश भादानी ने संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली थी। लेकिन जानकार उनमें अनायास ही अनेक रागों के आधार को बताते हैं। राग - जिन्हें भरत इत्यादि मुनियों ने तीनों लोकों में विद्यमान प्राणियों के हृदय के रंजन का हेतु माना है। आरोहो-अवरोहों की विलंबित रागों पर अधिष्ठित इन गीतों के सघन और विस्तृत बिंब गीत और कविता के बीच श्रेष्ठता की बहस को बेमानी कर देने के लिये काफी है। शायद इन्हें ही सुन कर अज्ञेय जी ने बीकानेर में सुरों में बंधी कविता को सुनने के अपने अभिनव अनुभव का जिक्र किया होगा!”

समालोचन ब्लागस्पाट का लिंक –

https://samalochan.blogspot.in/2016/10/blog-post_15.html



बॉब को साहित्य का नोबेल घोषित किये जाने के ठीक बाद हमने अपनी वाल पर जो पोस्ट लगाई थी, उसे भी हम यहां दे रहे है -

^^ बॉब डिलेन को नोबेल पुरस्कार
अभी-अभी हम बीकानेर से हरीश भादानी समग्र के लोकार्पण समारोह से कोलकाता लौटे हैं । हरीश जी के गीतों और धुनों से सरोबार इस समारोह की ख़ुमारी अभी दूर भी नहीं हुई कि आज यह सुखद समाचार मिला - अमेरिकी गीतकार और गायक बॉब डिलेन को इस साल का साहित्य का नोबेल पुरस्कार घोषित किया गया है । शायद रवीन्द्रनाथ के बाद यह दूसरा गीतकार है जिसे उसके गीतों के लिये नोबेल दिया जा रहा है ।

बॉब डिलेन अमेरिका के पॉप संगीत के एक ऐसे अमर गीतकार और गायक रहे हैं जिनके छ: सौ से अधिक गीतों ने अमेरिका की कई पीढ़ियों को मनुष्यता और प्रतिवाद की नई संवेदना से समृद्ध किया है ।
यहाँ हम उनके एक प्रसिद्ध गीत - Blowin' In The Wind को मित्रों से साझा कर रहे हैं और साथ ही तुरत-फुरत किये गये उसके एक हिंदी अनुवाद को भी दे रहे हैं –

Blowin' In The Wind Lyrics
How many roads must a man walk down
Before you call him a man ?
How many seas must a white dove sail
Before she sleeps in the sand ?
Yes, how many times must the cannon balls fly
Before they're forever banned ?
The answer my friend is blowin' in the wind
The answer is blowin' in the wind.

Yes, how many years can a mountain exist
Before it's washed to the sea ?
Yes, how many years can some people exist
Before they're allowed to be free ?
Yes, how many times can a man turn his head
Pretending he just doesn't see ?
The answer my friend is blowin' in the wind
The answer is blowin' in the wind.

Yes, how many times must a man look up
Before he can see the sky ?
Yes, how many ears must one man have
Before he can hear people cry ?
Yes, how many deaths will it take till he knows
That too many people have died ?
The answer my friend is blowin' in the wind
The answer is blowin' in the wind


कितने रास्ते तय करे आदमी
कि तुम उसे इंसान कह सको ?
कितने समंदर पार करे एक सफ़ेद कबूतर
कि वह रेत पर सो सके ?
हाँ, कितने गोले दागे तोप
कि उनपर हमेशा के लिए पाबंदी लग जाए?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है ।

हाँ, कितने साल क़ायम रहे एक पहाड़
कि उसके पहले समंदर उसे डुबा न दे ?
हाँ, कितने साल ज़िंदा रह सकते हैं कुछ लोग
कि उसके पहले उन्हें आज़ाद किया जा सके?
हाँ, कितनी बार अपना सिर घुमा सकता है एक आदमी
यह दिखाने कि उसने कुछ देखा ही नहीं ?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है ।

हाँ, कितनी बार एक आदमी ऊपर की ओर देखे
कि वह आसमान को देख सके?
हाँ, कितने कान हो एक आदमी के
कि वह लोगों की रुलाई को सुन सके?
हाँ, कितनी मौतें होनी होगी कि वह जान सके
कि काफी ज्यादा लोग मर चुके हैं ?
मेरे दोस्त, इनका जवाब हवा में उड़ रहा है
जवाब हवा में उड़ रहा है।

यहाँ डिलेन के इस गीत को उसके सुर में भी हम साझा कर रहे हैं –

http://musicpleer.cc/#!8f33f70c1aee27333e3fd3cdaeff9d3a






 



 


शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

डा. अंबेडकर की धार्मिक विरासत और मिशेल फुको


-अरुण माहेश्वरी

आज 14 अक्तूबर। डा. भीमराव अंबेडकर का धर्म-परिवर्तन दिवस। आज के ‘टेलिग्राफ’ में इसी विषय पर रामचंद्र गुहा का एक बहुत दिलचस्प लेख छपा है - A sort of victory (एक प्रकार की जीत)।

गुहा ने अपनी परिचित ऐतिहासिक घटनाओं के वर्णन की लुभावनी शैली में 14 अक्तूबर 1956 के उस दिन की घटना का पूरा चित्र खींचा है जब डा. अंबेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म को अपनाया था। ‘बोम्बे क्रोनिकल’ की रिपोर्ट पर आधारित इस वर्णन में एक ओर जहां धर्म परिवर्तन के पहले 1935 से लेकर 1956 तक डा. अंबेडकर के अंदर चले वैचारिक मंथन की पृष्ठभूमि का उल्लेख किया गया है, वहीं दूसरी ओर धर्म-परिवर्तन के सात हफ्तों के बाद ही डा. अंबेडकर के चल बसने से उनके पीछे छूट गये सवालों की चर्चा है। लेख के अंतिम अंश में गुहा लिखते हैं –

‘‘ अंबेडकर ने क्यों 14 अक्तूबर को अपने धर्म-परिवर्तन के लिये चुना ? क्या इसलिये कि वह रविवार का दिन था, या इसलिये कि वह विक्रम संवत का एक महत्वपूर्ण (विजया दशमी का) दिन था ? यदि विजया दशमी की वजह से उन्होंने इसे चुना तो क्या वे अपने इस कदम को किसी जीत या विजय के रूप में देख रहे थे ?

‘‘इन सवालों पर सब चुप है। लेकिन इससे ज्यादा दिलचस्प यह कयास है कि यदि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अंबेडकर इतनी जल्दी गुजर न गये होते तो क्या होता ? ...यदि वे और कुछ दशक जीते तो निश्चित तौर पर उनसे प्रेरित होकर और भी अछूत बौद्ध धर्म की ओर आए होते। ...कुछ लाख लोगों के बजाय करोड़ों लोगों के धर्म परिवर्तन का भारत के सामाजिक ओर राजनीतिक इतिहास पर गहरा रूपांतरणकारी प्रभाव पड़ा होता। ’’

गुहा कहते हैं - ’’शायद अंबेडकर की शीघ्र हुई मौत में कहीं ज्यादा बड़ा दुखांत निहित है।...महान मुक्तिदाता गुजर गया और हम हिन्दू शीघ्र ही अपने प्राचीन और गहरे पूर्वाग्रहों से ग्रसित रास्ते पर लौट आए। ’’

हम यहां रामचंद्र गुहा के इस पूरे लेख को साझा कर रहे हैं।

जाहिर है कि गुहा ने अपने इस लेख में बौद्ध-धर्मावलंबी अंबेडकर में एक मुक्तिदाता की सूरत देखी है। गुहा की तरह ही आज उनके अनेक अनुयायी अपनी कल्पनाओं में अंबेडकर में किसी मुक्तिदाता मसीहा की मूरत ही देखते हैं। जैसा कि हमेशा होता है - मसीहाओं का जन्म उनकी जैविक उपस्थिति के अंत से ही हुआ करता है !

डा. अंबेडकर, बौद्ध धर्म और धर्म परिवर्तन की उनकी सामूहिक मुहिम का यह पूरा प्रसंग पता नहीं क्यों, अनायास ही हमें मिशेल फुको की प्रसिद्ध किताब Madness and Civilization की याद दिला देता है। इस किताब का पहला अध्याय है - Stultifera Navis (मूर्खों का जहाज)। यह प्लैटो के ‘रिपब्लिक’ से निकला एक जहाज का रूपक है, जिसका एक चालक बाकी सबसे कद-काठी में काफी ज्यादा मजबूत है लेकिन वह थोड़ा कम सुनता है, देखता भी कम है और जहाज चलाने का उसका ज्ञान भी खास नहीं है। फिर भी, जहाज में आपसी अराजकता की स्थिति में अन्य सब ने मजबूत कद-काठी के ऐसे आदमी को ही जहाज की कमान सौंप देने का निर्णय ले लिया।

इस अध्याय में फुको ने शुरू में ही ईसाई धर्म और कुष्ठ रोग के इतिहास पर चर्चा की है और बताया है कि किस प्रकार यूरोप के मध्ययुग में कुष्ठ रोगियों की सेवा-सुश्रुषा के साथ ईसाई मिशनरियों का राज जुड़ा हुआ था। तब वहां हजारों की संख्या में बड़े-बड़े कुष्ठाश्रम तैयार हो गये थे जिनमें रोगियों को अलग रख कर उनकी सेवा की जाती थी। फुको बताते हैं कि काल-क्रम में रोगियों को अलग रखने की (पृथक्करण)  इस व्यवस्था के चलते कुष्ठ रोग पूरी तरह खत्म हो गया। फुको के शब्दों में - ’’A strange disappearance, which was doubtless not the long-sought effect of obscure medical pracices, but the spontaneous result of segregation and also the consequence, after the Crusades, of the break with Eastern sources of infection.”
(एक अनोखा अंत, जो निस्संदेह पुरानी चिकित्सा पद्धति का फल नहीं था, बल्कि रोगियों को अलग रखे जाने का एक स्वत:स्फूर्त परिणाम था और, धर्मयुद्धों के बाद, विषाणुओं के पूर्वी स्रोतों से कट जाने का भी फल था।)

क्या धर्म परिवर्तन से किसी सामाजिक रूपांतरण की परिकल्पना कुछ ऐसी ही, मसीहाओं के नेतृत्व में एक अलग बसावट (पृथक्करण) के लाभ को हासिल करने की परिकल्पना नहीं है? रामचंद्र गुहा लाखों के बजाय करोड़ों के धर्म-परिवर्तन में जिन नई संभावनाओं को देखते हैं, वे क्या कुछ-कुछ पादरियों की सेवाओं के सदृश्य नहीं है ?

अंबेडकर नहीं रहे, लेकिन उन्होंने धर्म-परिवर्तन के इसी सम्मेलन से भारत में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिये कोष इकट्ठा करने आदि का अभियान शुरू करवा दिया था। वे रहते तो यह काम और जोर से, व्यापक पैमाने पर चलता, लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी किसी न किसी रूप में यह निश्चित रूप से जारी रहा। रिपब्लिकन पार्टी आदि की तरह के इसके राजनीतिक परिणाम भी सामने आए।

लेकिन आज ? आज इन सभी कार्यों का परिदृश्य जनशून्य कुष्ठाश्रमों की उन स्मृतियों की तरह ही है जो ईसाई मिशनरियों को बेहद प्रिय होने पर भी उनका कोई वास्तविक महत्व नहीं रह गया है। बनिस्बत, अधिकांश कुष्ठाश्रमों की संपत्तियों पर बाद के काल में या तो जेल बना दिये गये या अस्पताल। अर्थात, उनके जरिये लोगों को अलग रखने की पुरानी व्यवस्थाएं नए रूप में बनी रह गई। यहां रिपब्लिकन पार्टी का एक धड़ा आज महाराष्ट्र में भाजपा का सहयोगी है। और अंबेडकर की बाकी विरासत पर मायावती का कब्जा है।

यही है पागलपन और सभ्यता के बीच के संबंधों की फुको की अवधारणा का सार।

बहरहाल, रामचंद्र गुहा के लेख को पढि़ये और उनकी शैली और चिंताओं का लुत्फ लीजिए –

http://www.telegraphindia.com/1161014/jsp/opinion/story_113268.jsp#.WADksI997IV



गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016

भारतीय ‘ट्रम्प’ के शासन में फैलता अंधेरा



-अरुण माहेश्वरी

अमेरिकी चुनाव में डेमोक्रेटिक पार्टी की हिलैरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रम्प के बीच हुई दूसरी राष्ट्रीय बहस ने अनायास ही हमारे सामने 2014 के भारतीय चुनाव के दृश्य की यादों को ताजा कर दिया। इस बहस पर टिप्पणी करते हुए ‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका ने 10 अक्तूबर को ट्रम्प की सारी बातों को खतरनाक बताते हुए लिखा है कि उसने हिलैरी के सामने जैसे झूठी बातों का एक तूफान सा खड़ा कर दिया था। वह लगातार एक के बाद एक, जिसप्रकार झूठी बातें अनर्गल रूप से बोल रहा था, उन सबका मुकाबला करना किसी के लिये भी असंभव था। उसकी पूरी कोशिश थी कि वह हिलेरी को अपने साथ गंदगी से भरी हुई नाली में लोटने-पोटने के लिये खींच लें। यह सभी शैतानों का आजमाया हुआ नुस्खा होता है कि सामने वाला कुछ भी क्यों न कहें, वह ऐन-केन-प्रकारेण बहस को अपनी शर्तों पर ही चलायेगा।

‘इकोनोमिस्ट’ का कहना है कि ट्रम्प की झूठी और खतरनाक बातों की तुलना में  हिलेरी के तर्कों में सूक्ष्मता थी। हिलेरी ने ट्रम्प की बहुत सारी बातों को नफरत के साथ नजरंदाज किया। ट्रम्प कहता है, उसके अंदर भारी घृणा भरी हुई है तो हिलैरी ने कहा, वे ट्रम्प के समर्थकों से नहीं, सिर्फ ट्रम्प से बहस कर रही थी।

2014 के भारतीय चुनावों को याद कीजिए। बिल्कुल यही स्थिति थी। झूठ के उस तूफान का मुकाबला करना लगभग असंभव हो गया था। अब तो खुद मोदी और उसके लोग गाहे-बगाहे उस चुनाव में अपनी बातों को ‘जुमलेबाजी’ कह देते हैं।

अमेरिका और भारत में फर्क सिर्फ इतना है कि वहां ट्रम्प की जीत के बहुत कम आसार है, ‘इकोनोमिस्ट’ के अनुसार तो हिलैरी की जीत ओबामा से भी भारी जीत साबित होगी, लेकिन हमारे यहां बिल्कुल ट्रम्प जैसा व्यक्ति ही चुनाव जीत गया। अमेरिका में ट्रम्प के उदय पर सारी दुनिया इसलिये भी चिंतित है क्योंकि वह सिर्फ अमेरिका का अंदुरूनी मामला नहीं है। ऐसे एक चरित्रहीन और झूठे व्यक्ति के हाथ में अमेरिकी न्युक्लियर हथियारों का कोड रहना सारी दुनिया की चिंता का विषय है। भारत में भी, मोदी का जीतना इस उप-महाद्वीप की शांति के लिये खतरा माना जाता था और अभी से उसके सारे संकेत मिलने भी लगे हैं। फिर भी, महज एक क्षेत्रीय शक्ति होने के नाते, भारत में ऐसी खतरनाक शक्ति के उदय पर लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। दुनिया के दूसरे शक्तिशाली देश इसे अपनी विश्व रणनीति के लिये सिर्फ एक और चुनौती के रूप में देख रहे हैं।  

बहरहाल, भारत के डोनाल्ड ट्रम्प नरेन्द्र मोदी के शासन के लगभग अढ़ाई साल पूरे हो रहे हैं। और, जैसी कि आशंका थी, ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों और संस्थाओं में, क्रमश: अज्ञान और अंधविश्वासों का अंधेरा घना होता जा रहा है। गोरक्षकों के जैसे एक नये युग का श्रीगणेश हुआ है। जो समाज में गोगुंडों के रूप में कुख्यात है, शासक संगठन आरएसएस के प्रमुख उनकी तारीफ के ही पुल बांध रहे हैं। और सारे लेखक, साहित्यकार, इतिहासकार, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और गंभीर राजनयिक - सारे के सारे बुद्धिजीवी -  इनकी नजरों में सबसे घृणित और ‘देशद्रोही’ तत्व हैं।

भारतीय जीवन को किस प्रकार सुनियोजित ढंग से एक गहरे अंधेरे में ढकेल दिया जा रहा है, इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण है - भारत का मुख्यधारा का, खास तौर इलेक्ट्रोनिक मीडिया। आज के ‘टेलिग्राफ’ की सुर्खी है कि किस प्रकार पाकिस्तानी मीडिया भारतीय मीडिया की तुलना में अपने पत्रकारिता के धर्म का ज्यादा ईमानदारी और मुस्तैदी से पालन कर रहा है। कांग्रेस के नेता पी चिदंबरम ने इस भारतीय मीडिया की तुलना बॉलिंग के खेल की उन नौ गुल्लियों (Ninepins) से की है जो सारी की सारी एक झटके में गिर जाया करती है। इस रिपोर्ट में विस्तार के साथ बताया गया है कि किस प्रकार यह पूरा मीडिया तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में वास्तविक तथ्यों को सामने लाने में बाधा का काम कर रहा है; किस प्रकार एनडी टीवी की तरह के चैनल ने राहुल गांधी के भाषण और चिदंबरम के साक्षात्कार को प्रसारित करने से मना कर दिया और अमित शाह तथा पर्रीकर की तरह के जुमलेबाजों के भाषणों का सीधा प्रसारण करता है। हम यहां आज के टेलिग्राफ की इस पूरी रिपोर्ट को मित्रों से साझा कर रहे हैं।

सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने एक ट्विट करके बिल्कुल सही कहा है कि ‘‘कितनी ही जोड़-तोड़ क्यों न कर लीजिए, इस भाजपा शासन के तहत अर्थ-व्यवस्था की वास्तविक स्थिति को कोई छिपा नहीं सकता है। न विकास है, न रोजगार है और न ही इस दशा से उबरने की कोई आशा।’’ एक और ट्विट में उन्होंने कहा है कि ‘‘जिस प्रकार ‘डॉन’ अखबार ने भारी दबाव के बावजूद तन कर अपनी बात कही है, उससे हर किसी को हर जगह प्रेरित होना चाहिए। ’’

यहां हम ‘टेलिग्राफ’ की आज की रिपोर्ट को साझा कर रहे हैं -



http://www.telegraphindia.com/1161013/jsp/frontpage/story_113185.jsp#.V_83l9EwS_M

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

बीकानेर के लोकार्पण समारोह का अनुभव : फासीवाद के खिलाफ संयुक्त प्रतिरोध के बैरिकेड ऐसे ही बनेंगे

अरुण माहेश्वरी


साहित्य आलोचना सौन्दर्यशास्त्र के विशेष दायरे का विषय होने पर भी उसे वस्तुगत स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों से अलग करना नामुमकिन है । और, किसी भी प्रकार का साहित्य समारोह तो पूरी तरह से सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य का ही एक हिस्सा होता है ।

बीकानेर में हरीश भादानी रचना समग्र के लोकार्पण पर आज के साहित्य-विमुख कहे जाने वाले समय में जिस प्रकार की सामाजिक संलग्नता और उत्साह दिखाई दिया वह किसी भी समाज के द्वारा अपने एक महत्वपूर्ण कवि का स्मरण भर नहीं था, बल्कि उससे भिन्न कुछ और भी था ।

लोकार्पण के मंच के केंद्रीय व्यक्तित्व थे कांग्रेस दल के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और बाक़ी पूरा मंच सर्वज्ञात जनवादी और मार्क्सवादी लेखकों, आलोचकों से सज़ा हुआ था । और, सामने प्रेक्षागृह में शहर के तमाम जाने-माने लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ ही कांग्रेस दल के विधायक, पूर्व विधायक, पूर्व महापौर सहित नेताओं के रूप में परिचित और कुछ लोग भी शामिल थे ।

मंच से डा. रमेश कुंतल मेघ, डा. कर्ण सिंह चौहान, सरला माहेश्वरी, अरुण माहेश्वरी अपने परिचित अंदाज में ही हरीश भादानी के संदर्भ में आज के समय के बारे में अपनी चिंताएँ जाहिर कर रहे थे, और जब कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री के बोलने का वक़्त आया, वे क़लम की शक्ति की, पिछले दिनों लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाये जाने वाले आंदोलन की अहमियत पर बोल रहे थे । उनका सारा ज़ोर इस बात पर था कि ग़रीब और दुखीजनों के साथ सबसे अधिक क़रीब का संवेदनात्मक संबंध रखने वाला यह समुदाय ही हमेशा समाज के सामने आने वाले ख़तरों को सबसे पहले भाँप लेता है और पूरे समाज को उनके प्रति जागरूक करता है। गहलोत भाजपा की फासीवादी राजनीति पर तीखा हमला कर रहे थे और उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि कैसे एक व्यक्ति शुद्ध रूप से झूठी बातों का सहारा लेकर देश की सर्वोच्च सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है और फिर अपनी ही बातों को जुमलेबाजी बता कर अपने को सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर लेता है । गहलोत ने सांप्रदायिकता के साथ ही जातिवाद को भी एक ख़तरा बताया जो फासीवादी ताक़तों के खिलाफ एकजुट लड़ाई को कमज़ोर करती है ।

इस प्रकार, इस समारोह से हमने जिस एक नई सच्चाई को महसूस किया वह थी ज़मीनी स्तर पर तैयार हो रहे संयुक्त प्रतिरोध की सचाई । भाजपा कितने अंश तक फासीवादी है और कितने अंश तक नहीं, इस झूठी मगजपच्ची से पैदा होने वाली दुविधाओं के जंजाल में न पड़ने की सचाई । मंच पर वामपंथियों के बीच केंद्रीय आकर्षण था एक कांग्रेसी पूर्व मुख्यमंत्री और प्रेक्षागृह में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और आम लोगों की भीड़ में खोये हुए थे कांग्रेस दल के कुछेक धाकड़ स्थानीय नेतागण । उत्साह और दुविधाएँ दोनों ओर हैं, फिर भी, अंतत: किसी तरह साथ रहने की इच्छा भी दोनों ओर है !

कांग्रेस के लोग जानते हैं कि इस अंचल में वामपंथ की ताक़त नगण्य है, जैसी कि देश के बाक़ी अधिकांश क्षेत्रों में भी नगण्य है, लेकिन अभी भी उनका एक ख़ास प्रकार का सम्मान कुछ-कुछ क़ायम है, जिसे हासिल करके व्यापक ग़रीब जनता में कांग्रेस की खोई हुई साख को क़ायम करने में थोड़ा सा लाभ मिल सकता है ।

और, वामपंथी रुझान के लोग वामपंथ की लोकप्रियता के लगातार गिर रहे ग्राफ़ से वाक़िफ़ हैं । लेकिन वे कांग्रेस और भाजपा के बीच के कुछ बुनियाद भेद को समझने के मामले में किसी विभ्रम के शिकार नहीं हैं । आरएसएस-भाजपा एक ऐसा सच है जिसकी दिशा फासीवाद से भिन्न हो ही नहीं सकती है । इससे भिन्न दिशा पकड़ने पर वे विकसित नहीं होंगे, बिखर जायेंगे । और कांग्रेस का मूल सच जनतंत्र और आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है । उसमें तानाशाही की तरह की प्रवृत्तियाँ उसे कमज़ोर और नष्ट करेगी ।

दोनों के बीच यह एक ऐसा बुनियादी फर्क है जिसे कथित 'वर्गीय' राजनीति की 'सैद्धांतिक' दलीलों से झुठलाया नहीं जा सकता है ।

ऐसे में वे इस बात को भी समझ रहे है कि आरएसएस-भाजपा का जो अंतर्निहित अव्यक्त क्रमश: व्यक्त हो रहा है, समय रहते यदि प्रभावशाली ढंग से उसका प्रतिरोध करके पराजित नहीं किया गया तो जनतंत्र मात्र का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा, वामपंथ की संभावनाएँ तो बहुत दूर की बात है । इसीलिये उनका सोच पूरी तरह से खुद को खोकर फिर से खुद को पाने की दिशा में बढ़ता हुआ दिख रहा है । यह गहरे संकटों के संयोग का ऐसा बिंदु है, जहाँ से कोई भी डूबता हुआ भविष्यहीन व्यक्ति गहरे अतीत में जाकर आत्म-पहचान की नई यात्रा का प्रारंभ करने के लिये मजबूर होता है ।

इस लिहाज से देखा जाए तो संयुक्त प्रतिरोध के इस प्रकट नये समीकरण में शामिल तमाम पक्षों के स्वार्थ उसी प्रकार जुड़े हुए हैं, जैसा कि किसी भी संयुक्त मोर्चे में शामिल होने वाली ताक़तों के हुआ करते हैं । इसे अगर कोई कोरा अवसरवाद कहेगा तो उसे यह भी कहना पड़ेगा कि वह संयुक्त मोर्चा के निर्माण की प्रक्रिया के हर रूप के विरुद्ध है ।

बीकानेर का यह लोकार्पण समारोह इसीलिये मुझे ऐतिहासिक प्रतीत हुआ जहाँ पार्टियों की गिरोहबंदी द्वारा लादी जाने वाली सीमाओं का अतिक्रमण करके समाज के बौद्धिक तबक़ों की पहल पर फासीवाद के आसन्न ख़तरे के खिलाफ स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रतिरोध के बैरिकेड तैयार होने के संकेत मिले हैं । देश के दूसरे हिस्सों में भी निश्चित तौर पर किसी न किसी रूप में इस प्रकार की प्रक्रिया का सूत्रपात हो रहा होगा । इसे हम नकारात्मक दिशा से, पुराने प्रकार के सोच की जकड़ में फँसे लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच दिखाई दे रहे अवसाद के संकेतों से भी पकड़ सकते हैं । सार्थक सोच, सार्थक लेखन और सार्थक सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाइयों के लिये जरूरी है, अवसाद और पंगुता के कारकों से मुक्ति पाई जाए । बीकानेर के इस लोकार्पण समारोह के अनुभवों से हमें तो यही संदेश मिला है ।


शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

हरीश भादानी समग्र के लोकार्पण के अवसर पर अरुण माहेश्वरी का वक्तव्य



आज हरीश जी की समग्र रचनाओं के इन पांच खंडों के लोकार्पण का यह अवसर हमारे लिये क्या मायने रखता है, इसे सही ढंग से बयान करना काफी कठिन लगता है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे स्वयं आपकी सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना का एक अंश आपके सामने पांच खंडों के एक ठोस, भौतिक रूप में उपस्थित हो गया हो। आदमी की चेतना के अपरिमित विस्तार का इस प्रकार पुस्तकों के पांच खंडों में सिमट कर दिखाई देने लगना, आप अनुमान लगा सकते हैं, यह अपने पीछे एक कैसे शून्य के अंधकार को उत्पन्न करता होगा। एक बड़े काम के संपन्न होने से खुशी होती है, तो उतनी ही बड़ी जैसे एक रिक्तता भी पैदा होती है, जिसे हम अक्सर कुछ उत्सवों के रोमांच से भर कर अपना मन भुलाया करते हैं। कहना न होगा, यह लोकार्पण समारोह हमारे लिये हमारे अपने अंदर के एक विरेचन का और नई  खुशियों के प्रारंभ का संयोग बिंदु है। आगे अब यह काम अपनी एक नई भूमिका में, व्यापक पाठक समाज को संस्कारित करने की सामाजिक भूमिका में कैसे और कितना दिखाई देगा, वह भविष्य ही बतायेगा। जहां तक हमारा अपना सवाल है, हमारे लिये एक सुविधा की स्थिति यह है कि हम हमेशा बहु-विध विषयों के विमर्शों में उलझे रहते हैं, अन्यथा हमारे सामने आज ही सबसे बड़ा यह सवाल उठ खड़ा होता कि - आगे क्या !

अपने इस एक प्रकार के निजी नोट के साथ ही, जब मैं एक नये भविष्य के संयोग-बिंदु का जिक्र कर रहा हूं तो पूरा विषय हमारी निजता से हट कर एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में चला जाता है। और हरीश जी की रचनाओं से गहराई से गुजरने के बाद यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यह आयोजन सिर्फ इस बीकानेर शहर के सांस्कृतिक जीवन के लिये नहीं, हिंदी के पूरे साहित्य जगत में विचार और चिंतन के नये समीकरणों का एक श्रीगणेश साबित हो, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।

मित्रों, हमने अपने जीवन के लगभग पचास साल तक हरीश जी को देखा, सुना, पढ़ा और उनके गीतों को गुनगुनाया भी है। जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, वे हमारे जीवन में कुछ इस कदर समाये हुए थे कि उनकी अपने से अलग किसी भी तस्वीर को देखने-समझने की हमारी कोई तैयारी ही नहीं थी। स्वाभाविक जीवन की लय पर भी क्या कभी कोई विचार करता है !

लेकिन सबसे पहले उनकी एक लंबी कविता ‘नष्टोमोह’ पर, और बाद में उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर बीकानेर में हुए आयोजन के लिये हमने जब उन्हें अपने लिखने के विषय के तौर पर देखा, तो वह अनुभव सचमुच हमारे लिये अपने जीवन की स्वाभाविक लय में एक नई झंकार की अनुभूति की तरह का रहा। वह सब, जो हम घर पर नित्य-प्रतिदिन गाते-गुनगुनाते थे, हमसे स्वतंत्र होकर साहित्यिक कृतियों के रूप में कुछ ऐसे प्रतीत होने लगे, जैसे मार्क्स मनुष्यों द्वारा उत्पादित माल के बारे में कहते हैं - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्वव्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’

सचमुच यह हमारे लिये अपने यथार्थ, आम जीवन की पगडंडियों से साहित्य के एक अलग मायावी, अनोखे संसार में प्रवेश का अनुभव था। अपने जीवन की ही अनुभूतियों का एक नया साक्षात्कार। जब हरीश जी की 75वीं सालगिरह के मौके पर हमने अपनी अंतरंगता से जाने हुए उनके साहित्य पर लिखा, उसी समय हमने उनके अंतिम लगभग तीन दशकों के साहित्य के बारे में कहा था कि यह उनकी रचना यात्रा का एक ऐसा नया क्षेत्र है, जिसके साथ मेरा पहले के साहित्य की तरह का कोई नैसर्गिक जुड़ाव नहीं बन पाया था। तथापि, एक नजर डालने पर ही तब हमें ऐसा लगा था कि ‘60 के पहले तक के हरीश भादानी, ‘60 के बाद से ‘70 के मध्य तक के हरीश भादानी, ‘75 से ‘82 तक के नये जनसंघर्षों के हरीश भादानी और उसके बाद फिर अंत के लगभग तीन दशकों के हरीश भादनी का जीवन कोई ठहरा हुआ जीवन नहीं था, बल्कि वह उनकी रचना यात्रा के एक और नये उत्कर्ष का काल था जिसकी अतल गहराइयों में हमें प्रवेश करना तब तक बाकी था।

और सचमुच, जब साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित श्रृंखला ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ के अन्तर्गत मुझे उनके समग्र रचनात्मक व्यक्तित्व पर लिखने का मौका मिला तो उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर लिखे गए अपने लेख के अनुमान को हमने शत-प्रतिशत सही पाया। साहित्य अकादमी की वह पुस्तिका इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह मामूली बात नहीं है कि उनके इन्हीं अंतिम तीन दशकों की रचनाओं के एक संकलन, ‘सयुजा सखाया’ को उस पुस्तिका में हमने हरीश भादानी की ‘गीतांजलि’ तक कहा है।

वैसे, हिंदी में साहित्य के देश भर के रसिक पाठक हरीश भादानी को उनके तीन गीतों, ‘मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘रोटी नाम सत है’ और ‘रेत में नहाया है मन’ की वजह से हमेशा अतीव श्रद्धा के साथ याद करते हैं। ‘रेत में नहाया है मन’ को पढ़ते हुए मैंने उसे किस रूप में देखा, उसकी चर्चा करके ही मैं यहां अपनी बात को खत्म करूंगा।

जिस समय हरीश जी ने इस गीत की रचना की, वह उनके जीवन के सबसे कठिन आर्थिक संघर्षों का समय था। उस समय जब वे गहरे दुख और विषाद से भरे हुए एक के बाद एक गीत, ‘चले कहां से/ गए कहां तक/ याद नहीं है/’ या ‘समय व्याकरण समझाएं/हमें अ-आ नहीं आए‘ या ‘टूटी गजल न गा पायेंगे/...सन्नाटा न स्वरा पायेंगे’ की तरह के गीत लिख रहे थे, अवसाद के उसी दौर में उनके अंदर से अपनी धरती से प्रेम और उल्लास का एक नया सोता फूट पड़ता है। हमने उस पर लिखा था कि ‘‘ अवसाद जितना गहरा, उल्लास भी उतना ही प्रबल। दुख ही तो है सुख की परिमिति। शोर से मौन और मौन से संगीत।...वे अपनी धरती से जुड़ाव, जीवन पर विश्वास और मरुभूमि के सौन्दर्य के इस अमर गीत का सृजन करते हैं - रेत में नहाया है मन।

धरती से प्रेम का एक बिल्कुल नया गीत। गैब्रियल गार्सिया मारकेस की एक कहानी है -सराला एरेंदिरा। इसमें एरेंदिरा के हाथ का आईना कभी लाल हो जाता है तो कभी नीला, कभी हरी रोशनी से भर जाता है। एरेंदिरा की दादी कहती है - ‘‘तुम्हें प्रेम हो गया है। प्रेम में पड़ने पर ऐसा ही होता है।’’ सचमुच, प्रेम में ही रेत कभी धुंआती है, झलमलाती है, पिघलती है, बुदबुदाती है - मरुभूमि - समंदर का किनारा, नदी के तट बन जाती है। प्रेम में पागल आदमी की कांख में आंधियां दबी होती है, वह धूप की चप्पल, तांबे के कपड़े पहन घूमता है। इतना लीन जैसे आसन बिछा अपने अस्तित्व को खो बैठा हो।’’

सचमुच, ऐसा ही है हरीश जी के रचना संसार का सौन्दर्य।

अब उनका समग्र साहित्य आप सबके सामने है। राजस्थान की इस मरुभूमि ने हिंदी के साहित्य जगत को किस प्रकार समृद्ध करने में एक महती भूमिका अदा की है, इसका प्रमाण है यह ‘समग्र रचनावली’। हिंदी साहित्य में राजस्थान के आम लोगों के जीवन-संघर्षों को इतने सशक्त रूप में ले जाने वाले अपने प्रकार के इस अनूठे शब्द-साधक की स्मृतियां यहां के लोगों के सामान्य सांस्कृतिक बोध में जितनी रची-बसी रहेगी, उपभोक्तावाद की लाख आंधियां भी उसे सांस्कृतिक दृष्टि से कभी विपन्न नहीं कर पायेगी। हमारी यही कामना है कि इस शहर, इस प्रांत और पूरे हिंदी जगत के संवेदनशील लोग उनकी स्मृतियों को सदा जीवंत बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। बीकानेर के साहित्य प्रेमियों ने उनके जन्मदिन और प्रयाण दिवस, दोनों को ही एक महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के दिन की तरह मनाने की एक परंपरा बना रखी है। आजकल सोशल मीडिया की बदौलत पूरे देश में भी इन दो अवसरों पर उन्हें अवश्य स्मरण किया जाता है। हमारी यही कामना है कि यह सिलसिला पूरे राज्य और देश के स्तर पर और भी बड़े पैमाने पर चलें, एक जन-सांस्कृतिक आंदोलन और राजस्थान की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़े समारोह का रूप लें।

आज के इस कार्यक्रम में आप सभी महानुभावों की भागीदारी के लिये आंतरिक आभार व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूं।

धन्यवाद।
अरुण माहेश्वरी
1 अक्तूबर 2016

हरीश भादानी समग्र के लोकार्पण के अवसर पर अरुण माहेश्वरी ा वक्तव्य

हरीश भादानी रचना समग्र के विमोचन के अवसर पर :

आज हरीश जी की समग्र रचनाओं के इन पांच खंडों के लोकार्पण का यह अवसर हमारे लिये क्या मायने रखता है, इसे सही ढंग से बयान करना काफी कठिन लगता है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे स्वयं आपकी सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतना का एक अंश आपके सामने पांच खंडों के एक ठोस, भौतिक रूप में उपस्थित हो गया हो। आदमी की चेतना के अपरिमित विस्तार का इस प्रकार पुस्तकों के पांच खंडों में सिमट कर दिखाई देने लगना, आप अनुमान लगा सकते हैं, यह अपने पीछे एक कैसे शून्य के अंधकार को उत्पन्न करता होगा। एक बड़े काम के संपन्न होने से खुशी होती है, तो उतनी ही बड़ी जैसे एक रिक्तता भी पैदा होती है, जिसे हम अक्सर कुछ उत्सवों के रोमांच से भर कर अपना मन भुलाया करते हैं। कहना न होगा, यह लोकार्पण समारोह हमारे लिये हमारे अपने अंदर के एक विरेचन का और नई  खुशियों के प्रारंभ का संयोग बिंदु है। आगे अब यह काम अपनी एक नई भूमिका में, व्यापक पाठक समाज को संस्कारित करने की सामाजिक भूमिका में कैसे और कितना दिखाई देगा, वह भविष्य ही बतायेगा। जहां तक हमारा अपना सवाल है, हमारे लिये एक सुविधा की स्थिति यह है कि हम हमेशा बहु-विध विषयों के विमर्शों में उलझे रहते हैं, अन्यथा हमारे सामने आज ही सबसे बड़ा यह सवाल उठ खड़ा होता कि - आगे क्या !

अपने इस एक प्रकार के निजी नोट के साथ ही, जब मैं एक नये भविष्य के संयोग-बिंदु का जिक्र कर रहा हूं तो पूरा विषय हमारी निजता से हट कर एक व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में चला जाता है। और हरीश जी की रचनाओं से गहराई से गुजरने के बाद यह कहने में मुझे कोई हिचक नहीं है कि यह आयोजन सिर्फ इस बीकानेर शहर के सांस्कृतिक जीवन के लिये नहीं, हिंदी के पूरे साहित्य जगत में विचार और चिंतन के नये समीकरणों का एक श्रीगणेश साबित हो, तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।

मित्रों, हमने अपने जीवन के लगभग पचास साल तक हरीश जी को देखा, सुना, पढ़ा और उनके गीतों को गुनगुनाया भी है। जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, वे हमारे जीवन में कुछ इस कदर समाये हुए थे कि उनकी अपने से अलग किसी भी तस्वीर को देखने-समझने की हमारी कोई तैयारी ही नहीं थी। स्वाभाविक जीवन की लय पर भी क्या कभी कोई विचार करता है !

लेकिन सबसे पहले उनकी एक लंबी कविता ‘नष्टोमोह’ पर, और बाद में उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर बीकानेर में हुए आयोजन के लिये हमने जब उन्हें अपने लिखने के विषय के तौर पर देखा, तो वह अनुभव सचमुच हमारे लिये अपने जीवन की स्वाभाविक लय में एक नई झंकार की अनुभूति की तरह का रहा। वह सब, जो हम घर पर नित्य-प्रतिदिन गाते-गुनगुनाते थे, हमसे स्वतंत्र होकर साहित्यिक कृतियों के रूप में कुछ ऐसे प्रतीत होने लगे, जैसे मार्क्स मनुष्यों द्वारा उत्पादित माल के बारे में कहते हैं - ‘‘ईश्वर की तरह ही मनुष्य समाज की सृष्टि फिर भी मनुष्यों से स्वतंत्र मान लिया गया एक सर्वव्यापी शाश्वत, अनादि सत्य।’’

सचमुच यह हमारे लिये अपने यथार्थ, आम जीवन की पगडंडियों से साहित्य के एक अलग मायावी, अनोखे संसार में प्रवेश का अनुभव था। अपने जीवन की ही अनुभूतियों का एक नया साक्षात्कार। जब हरीश जी की 75वीं सालगिरह के मौके पर हमने अपनी अंतरंगता से जाने हुए उनके साहित्य पर लिखा, उसी समय हमने उनके अंतिम लगभग तीन दशकों के साहित्य के बारे में कहा था कि यह उनकी रचना यात्रा का एक ऐसा नया क्षेत्र है, जिसके साथ मेरा पहले के साहित्य की तरह का कोई नैसर्गिक जुड़ाव नहीं बन पाया था। तथापि, एक नजर डालने पर ही तब हमें ऐसा लगा था कि ‘60 के पहले तक के हरीश भादानी, ‘60 के बाद से ‘70 के मध्य तक के हरीश भादानी, ‘75 से ‘82 तक के नये जनसंघर्षों के हरीश भादानी और उसके बाद फिर अंत के लगभग तीन दशकों के हरीश भादनी का जीवन कोई ठहरा हुआ जीवन नहीं था, बल्कि वह उनकी रचना यात्रा के एक और नये उत्कर्ष का काल था जिसकी अतल गहराइयों में हमें प्रवेश करना तब तक बाकी था।

और सचमुच, जब साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित श्रृंखला ‘भारतीय साहित्य के निर्माता’ के अन्तर्गत मुझे उनके समग्र रचनात्मक व्यक्तित्व पर लिखने का मौका मिला तो उनकी 75वीं सालगिरह के मौके पर लिखे गए अपने लेख के अनुमान को हमने शत-प्रतिशत सही पाया। साहित्य अकादमी की वह पुस्तिका इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यह मामूली बात नहीं है कि उनके इन्हीं अंतिम तीन दशकों की रचनाओं के एक संकलन, ‘सयुजा सखाया’ को उस पुस्तिका में हमने हरीश भादानी की ‘गीतांजलि’ तक कहा है।

वैसे, हिंदी में साहित्य के देश भर के रसिक पाठक हरीश भादानी को उनके तीन गीतों, ‘मैंने नहीं कल ने बुलाया है’, ‘रोटी नाम सत है’ और ‘रेत में नहाया है मन’ की वजह से हमेशा अतीव श्रद्धा के साथ याद करते हैं। ‘रेत में नहाया है मन’ को पढ़ते हुए मैंने उसे किस रूप में देखा, उसकी चर्चा करके ही मैं यहां अपनी बात को खत्म करूंगा।

जिस समय हरीश जी ने इस गीत की रचना की, वह उनके जीवन के सबसे कठिन आर्थिक संघर्षों का समय था। उस समय जब वे गहरे दुख और विषाद से भरे हुए एक के बाद एक गीत, ‘चले कहां से/ गए कहां तक/ याद नहीं है/’ या ‘समय व्याकरण समझाएं/हमें अ-आ नहीं आए‘ या ‘टूटी गजल न गा पायेंगे/...सन्नाटा न स्वरा पायेंगे’ की तरह के गीत लिख रहे थे, अवसाद के उसी दौर में उनके अंदर से अपनी धरती से प्रेम और उल्लास का एक नया सोता फूट पड़ता है। हमने उस पर लिखा था कि ‘‘ अवसाद जितना गहरा, उल्लास भी उतना ही प्रबल। दुख ही तो है सुख की परिमिति। शोर से मौन और मौन से संगीत।...वे अपनी धरती से जुड़ाव, जीवन पर विश्वास और मरुभूमि के सौन्दर्य के इस अमर गीत का सृजन करते हैं - रेत में नहाया है मन।

धरती से प्रेम का एक बिल्कुल नया गीत। गैब्रियल गार्सिया मारकेस की एक कहानी है -सराला एरेंदिरा। इसमें एरेंदिरा के हाथ का आईना कभी लाल हो जाता है तो कभी नीला, कभी हरी रोशनी से भर जाता है। एरेंदिरा की दादी कहती है - ‘‘तुम्हें प्रेम हो गया है। प्रेम में पड़ने पर ऐसा ही होता है।’’ सचमुच, प्रेम में ही रेत कभी धुंआती है, झलमलाती है, पिघलती है, बुदबुदाती है - मरुभूमि - समंदर का किनारा, नदी के तट बन जाती है। प्रेम में पागल आदमी की कांख में आंधियां दबी होती है, वह धूप की चप्पल, तांबे के कपड़े पहन घूमता है। इतना लीन जैसे आसन बिछा अपने अस्तित्व को खो बैठा हो।’’

सचमुच, ऐसा ही है हरीश जी के रचना संसार का सौन्दर्य।

अब उनका समग्र साहित्य आप सबके सामने है। राजस्थान की इस मरुभूमि ने हिंदी के साहित्य जगत को किस प्रकार समृद्ध करने में एक महती भूमिका अदा की है, इसका प्रमाण है यह ‘समग्र रचनावली’। हिंदी साहित्य में राजस्थान के आम लोगों के जीवन-संघर्षों को इतने सशक्त रूप में ले जाने वाले अपने प्रकार के इस अनूठे शब्द-साधक की स्मृतियां यहां के लोगों के सामान्य सांस्कृतिक बोध में जितनी रची-बसी रहेगी, उपभोक्तावाद की लाख आंधियां भी उसे सांस्कृतिक दृष्टि से कभी विपन्न नहीं कर पायेगी। हमारी यही कामना है कि इस शहर, इस प्रांत और पूरे हिंदी जगत के संवेदनशील लोग उनकी स्मृतियों को सदा जीवंत बनाये रखने के लिये प्रयत्नशील रहेंगे। बीकानेर के साहित्य प्रेमियों ने उनके जन्मदिन और प्रयाण दिवस, दोनों को ही एक महत्वपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन के दिन की तरह मनाने की एक परंपरा बना रखी है। आजकल सोशल मीडिया की बदौलत पूरे देश में भी इन दो अवसरों पर उन्हें अवश्य स्मरण किया जाता है। हमारी यही कामना है कि यह सिलसिला पूरे राज्य और देश के स्तर पर और भी बड़े पैमाने पर चलें, एक जन-सांस्कृतिक आंदोलन और राजस्थान की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़े समारोह का रूप लें।

आज के इस कार्यक्रम में आप सभी महानुभावों की भागीदारी के लिये आंतरिक आभार व्यक्त करते हुए मैं अपनी बात यहीं समाप्त करता हूं।

धन्यवाद।
अरुण माहेश्वरी
1 अक्तूबर 2016