-अरुण माहेश्वरी
नोटबंदी के बाद, 31 दिसंबर को राष्ट्र के नाम अपने संदेश में मोदी जी ने जो प्रमुख बात कही वह थी बैंकों को उनका परामर्श कि अब जितनी जल्दी हो, नगदी की स्थिति को सामान्य करो। वैसे उनकी दूसरी सभी बातों की तरह ही यह भी एक खोखली बात ही थी क्योंकि बात कह देने मात्र से ही तो नगदी की स्थिति सामान्य हो नहीं जायेगी। इसके लिये नोट छापने पड़ेंगे और इस छपाई में ही अभी इतना समय लगना है कि आगामी तीन महीनों तक भी नगदी की स्थिति सामान्य नहीं होगी ।बहरहाल, तभी से अखबारों में एक ही स्वर सुनाई देने लगा है कि जितनी जल्द संभव हो, देश को नोटबंदी के दुष्प्रभावों से मुक्त करो।
'टेलिग्राफ़' में नीति आयोग के लोगों की मनोदशा के बारे में यह खबर थी कि वे मोदी जी के कल के भाषण को लेकर बहुत डरे हुए थे । उन्हें लग रहा था कि वे लोगों को डराने वाली फिर और कोई घोषणा न कर बैठे, जिसे संभालना मुश्किल होगा । नीति आयोग वाले यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आगे डिजिटलाइजेशन का अभियान वे कैसे चलायेंगे !
इसी अखबार में आकार पटेल का लेख इसी बात पर केंद्रित था कि भारत को मोदी जी नामक इस महान प्रतिभा की करतूतों से कैसे बचाया जाए । उन्होंने ऐसी प्रतिभा के जन्म पर प्रकाश डालते हुए 2014 में मधु किश्वर को दिये गये मोदी जी के एक साक्षात्कार का जिक्र किया जिसमें मोदी जी अपने काम करने की पद्धति के बारे में बताते हैं कि वे फ़ाइलों की गहराई में जाना बिल्कुल पसंद नहीं करते । बस लोगों की बातें सुन कर सारे विषय को समझ लेते हैं और फिर काम में लग जाते हैं । 'मेरा इतना ग्रास्पिंग है' ।
मोदी जी की ग्रास्पिंग कितनी है, इसे उनके इस राष्ट्र के नाम संबोधन की बातों की थोड़ी से गहराई में जाने से ही अच्छी तरह पहचाना जा सकता है। मसलन, उन्होंने कहा कि नगदी से मुद्रा-स्फीति होती है। कोई भी पूछ सकता है कि कैसे ? क्या करेंसी में आत्म-विस्तार का कोई ऐसा अन्तर्निहित गुण होता है, जैसे पूँजी में होता है । उपभोग के काम में आने वाली राशि का तो कोई विस्तार नहीं होता है, और नगदी का प्रयोग अधिकांशत: आम लोगों द्वारा निजी उपभोग के लिये किया जाता है । इसके विपरीत सच यह है कि जब रुपया बैंक में जमा किया जाता है, वह अपने आप बढ़ने लग जाता है । रिजर्व बैंक में सीआरआर (कैस रिजर्व रेशियो) का मतलब यही है कि बैंकों को रिजर्व बैंक के पास अपनी जमा पूँजी का एक निश्चित अनुपात (अभी चार प्रतिशत)जमा कराना पड़ता है और उसे बाक़ी जमा राशि को बाज़ार में निवेश के लिये अनुमति मिल जाती है । यह बाकी जमा राशि पूँजी की तरह नाना रूपों में अपना आत्म-विस्तार करती है। बैंकों के ज़रिये यह सेविंग्स डिपोजिट तथा दूसरे ऐसे तमाम प्रामिसरी नोटों के रूप में करेंसी की तुलना में अपना कई गुना विस्तार कर लेती है, और इन सबको अर्थ-व्यवस्था में नगदी के समकक्ष ही माना जाता है । जब भी चलन में लगी हुई कुल मुद्रा का हिसाब किया जाता है तो मुद्रा के करेंसी नोट के अलावा ऐसे अन्य सभी रूपों को भी उसमें जोड़ कर देखा जाता है। अर्थात] मुद्रा-स्फीति का मुद्रा के नगदी रूप से ज्यादा नहीं, बैंक में जमा रूप से ज्यादा सीधा संबंध होता है । अर्थशास्त्र के अनुसार उन सबको बाज़ार में उपलब्ध रुपये के तौर पर हीमाना जाता है ।
मोदी जी बहुत ख़ुशी के साथ बता रहे थे कि बैंकों में इतिहास में पहली बार इतना रुपया जमा हुआ है, इससे बैंकों को भारी लाभ होगा । उन्हें अनुमान नहीं है कि उन्होंने अर्थ-व्यवस्था को ऐसा धक्का दिया है कि यह ढेर सारा धन बैंकों के लिये आफ़त भी साबित हो सकता है । बाज़ार में पहले से ही क़र्ज़ की मांग कम है, और मोदी जी लाख कोशिश कर लें, बैंकें कभी भी उन लोगों को क़र्ज़ नहीं देगी जिनसे उगाही को लेकर वे आश्वस्त नहीं होगी । यह दूसरी बात है कि सरकारी ख़ज़ाने से अतिरिक्त मदद मिलने पर वे कुछ रुपये ऐसे जोखिम के क्षेत्र में भी डाल दें । इसके अलावा भले मोदी जी न जानते हो, सारे बैंकर जानते हैं कि यह ढेर सारा रुपया लोगों के घरों से ज़ोर-ज़बर्दस्ती खींचा गया है । जैसे ही मौका मिलेगा, लोग इसे वापस उठाने की जी-जान से कोशिश करेंगे । मोदी जी अनंत काल तक उसे बैंकों में अटका के नहीं रख पायेंगे । ऐसे में बैंकें इस जल्द ही काफ़ूर हो जाने वाली राशि को किसी भी दीर्घकालीन क़र्ज़ में नहीं लगा पायेगी । अर्थात ख़तरा यह भी है कि वे जमा राशि पर सिर्फ ब्याज चुकायेगी, उससे आमदनी करना उनके लिये सबसे टेढ़ी खीर साबित होगा । पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने स्तंभ में तमाम आँकड़ों के ज़रिये बताया है कि बैंकों से ऋण लेने वालों में गिरावट आ रही है, बैंकों की डूबत (एनपीए) तेज़ी से बढ़ रही है । 2015 में जो 5.1 प्रतिशत थी, वह 2016 में 9.1 प्रतिशत हो गयी है । यह बैंकों पर दोहरी मार है ।
मोदी जी का भाषण ऐसी ही तमाम ग़ैर-यथार्थवादी बातों से भरा हुआ था । जो आयकर विभाग अब तक ऐसे सिर्फ 24 लाख लोगों की सिनाख्त कर पाया है जो अपनी आमदनी दस लाख से ज्यादा बताते हैं, उस विभाग को नोटबंदी कैसे इतना सक्षम बना देगी कि वह तमाम छूटे हुए लोगों को अब आयकर के दायरे में ले आयेगा, इसका कोई तर्क समझ में नहीं आता है । इसके अलावा प्रधानमंत्री तथ्यों के पीछे की छिपी हुई सचाइयों पर ध्यान क्यों नहीं देते ? इनके पीछे समाज की इतनी जटिलताएँ छिपी होती है कि आप कभी भी प्रत्यक्ष से सचाई को नहीं जान सकेंगे । लोगों की गाड़ी-बाड़ी वाली सम्पत्तियों में उपभोक्ता समाज के सबसे प्रमुख चालक तत्व निजी क़र्ज़ आदि की क्या भूमिका होती है, इसे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है । अमेरिका का सब-प्राइम संकट ऐसे ही पैदा नहीं हुआ था ।
मोदी जी की अर्थनीति के बारे में ऐसी समझ से ही उनके इन तमाम अद्भुत कामों, नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, बुलेट ट्रेन, आदि-आदि बातों के उत्स को समझा जा सकता है । उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि अर्थ-व्यवस्था में नगदी की कमी से विपत्ति आती है। तो उनसे किसी का भी एक सीधा सा सवाल होगा कि हमारे यहां इस विपत्ति को कौन लाया ?
आज सारी दुनिया के अर्थशास्त्री, सभी देशों की सरकारें खुर्दबीन के साथ भारत में इस ‘भूतो न भविष्यति’ वाले ‘नोटबंदी’ के कदम के अंतिम परिणामों की जांच कर रहे हैं। मोदी जी ने अपनी एक सभा में भले ही ताली बजा कर यह ऐलान कर दिया कि वे तो चुहिया की तलाश में निकले थे और किसानों का दाना खाने वाली ‘चुहिया’ उन्हें मिल गई; वे बेहद खुश है। उनके लिये हर चीज का मानदंड उनकी निजी खुशी-नाखुशी हो सकती है, लेकिन दुनिया को उनके ऐसे सुख-दुख से कोई मतलब नहीं है ! वे तो सबके सब मोदी जी की इस महान कृपा के लिये उनके प्रति अंतर से आभारी है कि उन्होंने बिना मांगे ही भारत की तरह के एक विशाल और अभी तेज गति से विकसित हो रहे राष्ट्र को नये डिजिटल युग के अर्थशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय अध्ययन का एक गिनिपिग (परीक्षण की चीज) बना दिया।
आज के समय को दुनिया में ‘नया डिजिटल युग’ कहा जा रहा हैं। गूगल कंपनी के कार्यकारी अध्यक्ष एरिक स्मिथ और उसके निदेशक जर्ड कोहेन की प्रसिद्ध किताब है - The New Digital Age। 2013 में प्रकाशित इस किताब में आज के समाज और इसके भावी रूप के बारे में अवलोकन और भविष्यवाणी पर बहुत चर्चा होती है। इसका पहला वाक्य ही इस कथन से शुरू होता है कि ‘‘मनुष्यों द्वारा निर्मित विरल चीजों में एक इंटरनेट एक ऐसी चीज है जिसे खुद मनुष्य सचमुच नहीं समझ रहा है।’’
और, आगे पूरी 260 पन्नों की यह किताब ‘इतिहास में सब-कुछ तहस-नहस कर देने वाले इस सबसे बड़े प्रयोग, इंटरनेट’ के परिणामों के नाना रूपों का आख्यान है। लेकिन इस प्रसिद्ध किताब की सारी कथाएं विकसित देशों में इंटरनेट और डिजिटलाइजेशन के क्रमिक प्रसार से जुड़ी कथाएं है। दुनिया में किसी के पास भी इस बात के कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं है कि एक विकासमान गरीब देश में किसी सरकार द्वारा आम लोगों पर डिजिटलाइजेशन को जबर्दस्ती लादने के क्या परिणाम हो सकते हैं ।
हमारे प्रधानमंत्री ने मुफ्त में ही दुनिया के ऐसे सभी अध्येताओं, संगठनों और सरकारों को वे सारे प्रत्यक्ष आंकड़े मुहैय्या कराने का काम कर दिया है जिनसे अब वे अपने समाजों में डिजिटलाइजेशन के बारे में अधिक ठोस रूप में विचार करके विवेक-संगत नियम और नीतियां अपना सकेंगे। और, साथ ही साम्राज्यवादी देशों को तो दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम करने में इस नई तकनीक के सटीक प्रयोग की रणनीति तैयार करने के लिये बहुत जरूरी तथ्य आसानी से मिल जायेंगे।
आज बहुत याद आ रही है कार्ल मार्क्स के उन लेखों की जो उन्होंने ‘उपनिवेशों के बारे में’ लिखे थे। इसमें 1853 का एक लेख है - चीन और यूरोप की क्रांति। चीन में अंग्रेजों की तोप के बल पर भारी मात्रा में किये गये अफीम के निर्यात से उत्पन्न परिस्थिति के बारे में मार्क्स लिखते हैं, ‘‘यह दावा विचित्र और विरोधाभासों से भरा लग सकता है कि यूरोप के लोगों का अगला विद्रोह और राज्य-व्यवस्था में जनतांत्रिक स्वतंत्रता ओर आर्थिक दृष्टि से शासन की बेहतर व्यवस्था के लिये चल रही लड़ाइयों का अगला दौर बहुत कुछ उन घटनाओं पर निर्भर करेगा जो आजकल यूरोप से बिल्कुल भिन्न - ‘दैवी-साम्राज्य’ (चीन-अ.मा.) - में घट रही है।"
इस लेख में मार्क्स ने चीन के खिलाफ अफीम युद्ध से चीन के व्यापार संतुलन के बुरी तरह से बिगड़ जाने और 1840 के बाद इंगलैंड को दिये जाने वाले राज्य कर , स्वदेशी उद्योगों के विनाश तथा भ्रष्ट नौकरशाही की बदौलत जनता में पैदा हो रही बगावतों तथा जनता को और विपत्ति से बचाने के लिये करों की उगाही को रोक देने की वहां के सम्राट की आज्ञप्ति का पूरा लेखा-जोखा पेश किया है। इसी सिलसिले में वे लिखते हैं कि ‘‘अब जब इंग्लैंड चीन में बगावतों का कारण बना है, सवाल उठता है कि वक्त आने पर इस प्रकार की बगावत का इंग्लैंड पर और इंग्लैंड के जरिये पूरे यूरोप पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? इस सवाल का हल मुश्किल नहीं है। ’’
कहने का तात्पर्य यही है कि डिजिटलाइजेशन का आरोपण करने की कोशिश से किसी भी समाज में कैसी अफरा-तफरी मच सकती है और वह अंत में किस प्रकार की आर्थिक तबाही की ओर बढ़ सकता है, प्रधानमंत्री मोदी ने भारत के लोगों की बली चढ़ा कर सारी दुनिया को इन बातों को जान-समझ लेने का मौका दे दिया है। भारत को इस प्रकार गिनिपिग बनाने के इस अपराध की निंदा के लिये हमारे पास तो कोई शब्द नहीं है। नये डिजिटल युग के पश्चिम के सभी पुरोधा उनकी इस सेवा के लिये उन्हें हमेशा याद रखेंगे।
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