(मानवरूपी इस नई प्रजाति को देख कर मुग्ध थे वे ‘भारत प्रेमी’)
-अरुण माहेश्वरी
-अरुण माहेश्वरी
महात्मा गांधी 9 जनवरी के दिन दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। इसी दिन के नाम पर पिछले चौदह साल से हमारे यहां भारतीय प्रवासी दिवस का पालन किया जाता है। इसका मूल लक्ष्य तो होता है विदेशों में बसे भारतीयों की कमाई को भारत में निवेश के लिये प्रेरित करना, लेकिन इधर के सालों में हर ठोस चीज को हवाई बना देने के भारत में चल रहे महायज्ञ ने इसे क्रमश: एक सांस्कृतिक पर्व की तरह का रूप दे दिया है।
1991 में जब से भारत में उदारतावाद का दौर शुरू हुआ, भारतीय अर्थ-व्यवस्था में प्रवासी भारतीयों का निवेश प्रति वर्ष तेजी से बढ़ने लगा था। अभी तो यह भारत के जीडीपी के लगभग 4 प्रतिशत के बराबर चला गया है। गांधी जी आएं और यहां रह गये भारत की आजादी की लड़ाई के लिये। पिछले चौदह साल से उनके आगमन का यह दिन प्रवासियों के धन को बुलाने और यहां उसे बसाने का दिन बना हुआ है। लेकिन जब से मोदी जी सत्ता पर आए हैं और दुनिया भर में घूम-घूम कर खुद इन प्रवासियों के आतिथ्य का भरपूर आनंद लिया है, तब से लगता है क्रमश: यह दिन प्रवासी भारतीयों के लिये भारत में पर्यटन के एक खास दिन की अहमियत लेने लगा है।
अभी बंगलुरू में इसी प्रवासी दिवस के मौके पर जिस गदगद भाव से प्रधानमंत्री ने प्रवासियों का स्वागत करते हुए इस भारत भूमि को उनकी कर्मभूमि के बजाय ‘मर्मभूमि’ बनाने की सराहना की, वह उनकी अपने मर्म की बात थी। अभी वे हालात नहीं हुए है कि वे इस देश के वैविध्य से इंकार कर दें। बल्कि यह वैविध्य ही इसकी एकता का प्रकट स्वरूप बना हुआ है। इसीलिये, मोदी जी अपने आरएसएस के संस्कारों के अनुरूप भारत भूमि को प्रवासियों की ‘पुण्य भूमि’ नहीं कह पा रहे हैं। लेकिन अपने लिये अधिक मुनाफे और अवसर की तलाश के लिये आने वाले प्रवासियों के सामने भारत को संभावनाओं से परिपूर्ण भूमि बताने के बजाय ‘मर्मभूमि’ कह कर, उन्होंने संकेतों में ही क्यों न हो, अपने आशय को साफ कर दिया। वे चाहते हैं, प्रवासी भारतीय आगे किसी निवेश की संभावना की तलाश के लिये नहीं, तीर्थाटन के लिये यहां आएं और यहां आज दरिद्र-नारायणों की फौज को तैयार करने का जो नोटबंदी नामक महायज्ञ चल रहा है, उन नारायणों की सेवा का पूण्य अर्जित करके धन्य हों !
इस प्रकार इन दिनों पर्यटनवाद के नारे के साथ जो प्रवासी भारतीय भारत के ‘चिडि़याघरों’ को देख कर और यहां के ‘सिंह-व्याघ्रों’ की चिंघाड़ों को सुन कर उत्फुल्ल मन से यहां से जाते थे, आगे वे दरिद्र-नारायण की सेवा का पूण्य कमा कर भक्ति भाव से सिक्त होकर जायें।
जहां तक भारत में निवेश का सवाल है, वे भी यह जानते हैं कि भारत की वर्तमान दशा ही नहीं, ट्रम्प-ब्रेक्सिट वालों के आक्रोश की बदौलत भी उनके लिये आगे यह कितना मुमकिन होगा, कितना नहीं, वह अभी भविष्य के अंधेरे में डूबा हुआ है। मोदी जी ने बेंगलुरू में ब्रेन-ड्रेन की जगह इस बार उनके सामने ब्रेन-गेन का नारा देकर उन्हें थोड़ी सी तसल्ली दी है, संकेतों में कहा है कि यदि किसी वजह से वे अपनी अभी की कर्मभूमि में न रह सके तो हम गरीब भारतवासियों के बड़े दिल पर भरोसा रखे, आपके अंतिम दिनों के लिये जरूरी गंगाजल और तुलसी पत्ते की यहां कमी नहीं रहेगी !
बहरहाल, इस बार के प्रवासी सम्मेलन की सबसे बड़ी विशेषता रही कि यह नोटबंदी के उस दौर में आयोजित किया गया था, जब मोदी-जेटली युगल-जोड़ी ने भारत के लोगों को एक बार पूरी तरह से नि:स्व करके उन्हें धीरे-धीरे उनका ही धन लौटाने का काम शुरू किया है। देश में चारो ओर त्राहि-त्राहि है, दुनिया के लोग इस अभिनव प्रयोग पर गहराई से शोध में लगे हुए हैं, लेकिन इस युगल जोड़ी ने प्रवासियों को आश्वस्त किया कि चिंता न करे; यह ब्रेनगेन के लिये जमीन तैयार करने का एक महान उपक्रम भर है ! जेटली जी के शब्दों में एक भारी सुधार के लिये जरूरी उथल-पुथल।
उनके पास भरोसे के यही शब्द थे कि अभी हमने जिस चमन को उजाड़ा है, वही देखियेगा, नवबसंत में फूलों से लहलहा उठेगा। बिना बलि चढ़ाये तो देवता भी प्रसाद नहीं देता है ! कुछ लोग मर गये, कुछ उजड़ गये, कुछ ने अपना रोजगार गंवा दिया, कुछ कारखाने बंद हो गये, एक बार के लिये कृषि का काम रुक गया, कुछ समय के लिये फसल कम होगी, जीडीपी कम होगी, लोग शहरों से भाग कर गांवों को लौटेंगे - यह सब तो भविष्य के देवता को खुश करने के लिये किया गया मोदी जी का महायज्ञ है, जिसकी हवि में कुछ आहुतियां तो देनी ही पड़ती है !
प्रवासी दिवस की इस सभा के दौरान ही जेटली जी ने ट्विट करके मनमोहन सिंह के क्रूर यथार्थ बोध कि ‘सुदूर भविष्य में तो हम सब मृत है’ की जगह जीवन की सनातनता का राग अलापते हुए भविष्य का जो सुनहरा चित्र पेश किया, उसे देख कर कभी-कभी लगता है कि अब यह सारा मामला इस युगल-जोड़ी के लिये बुद्धि और विवेक का नहीं, कोरे विश्वास और आस्था का बन चुका है। उन्होंने अपने को अबोधता के एक ऐसे प्रवाह में डाल दिया है जिसमें मनुष्य अपनी स्वाभाविक, किसी विषय पर ठहर कर सोचने के, एक आंतरिक द्वंद्व की प्रक्रिया से गुजरने की प्रक्रिया से मुक्त हो जाता हैं। जबकि सचाई यह है कि आदमी का आगे की कठिन परिस्थिति को देख कर थोड़ा रुक जाना, जिसे कहते हैं अटक जाना, वही आदमी में उसकी नश्वरता का बोध पैदा करता है और उसे डूबने से बचाता है। पशु ही ऐसा प्राणी होता है जिसे इस धरती पर बोधहीन नश्वर प्राणी कहा जाता है।
कहना न होगा, इस बार भारतीय चिडि़याघर का परिदर्शन करने के लिये आए प्रवासी भारतीयों को हमारी इस युगल जोड़ी ने इस प्रकार के मानव-रूपी पशुवत प्राणियों के दर्शन करा कर सचमुच उन्हें धन्य-धन्य कर दिया होगा। प्रवासी मनुष्यों का (अर्थात ठहर कर सोचने-विचारने वाले प्रवासी मनुष्यों का) यह भारत परिदर्शन इसीलिये हमें इस बार और भी विशेष जान पड़ा।
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