—अरुण माहेश्वरी
सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी की पिछली बैठक में हुई बहस के बारे में बाजार में जो कानाफूसियां सुनाई दे रही है, उनसे पता चलता है कि पार्टी अभी भी अपनी राजनीतिक लाइन के बारे में दुविधा-मुक्त नहीं हो पाई है । भाजपा-आरएसएस-मोदी के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चा में जाया जाए या नहीं, इसी विषय पर जोर-आजमाईश जारी है । गनीमत इतनी है कि अब तक भी इस पर विचारधारात्मक संघर्ष का पर्दा पड़ा हुआ है । बहुमत और अल्पमत, दोनों कपड़ों के बाहर आकर इसे शुद्ध सत्ता-संघर्ष की सूरत देने से बच रहे हैं । हो सकता है, यह भी कोई मजबूरी हो ताकि उस कर्म के लिये जरूरी शक्ति को पार्टी कांग्रेस तक बचा के रखा जा सके ! लेकिन यह बची हुई लाज-शर्म की स्थिति ही इस बात की भी संभावना पैदा करती है जिसमें शायद अंतिम निर्णय के पहले तक भी विवेक का सही परिप्रेक्ष्य हासिल कर लिया जाए और समझ का ऐसा उलट-फेर हो जाए जिसमें बहुमत अल्पमत में बदल जाए और अल्पमत बहुमत में । जब तक हम कोई निर्णय नहीं कर लेते, अपने सोच का शुद्ध परिप्रेक्ष्य भी हासिल नहीं कर पाते हैं, और कोई भी निर्णय तभी लिया जा सकता है जब बाकी पक्षों को छांट कर अलग नहीं कर दिया जाता है ।
बहरहाल, इस बीच सीपीआई(एम) की बहसों में हम यह एक साफ फर्क देख पा रहे हैं कि 'इंडियन ऐक्सप्रेस' के अपने विवादास्पद लेख में प्रकाश करात ने जितने साफ शब्दों में भाजपा को पूरी तरह से फासिस्ट कहने से इंकार किया था, वे अब अपने लेखों में उस बात को उसी तेवर के साथ नहीं दोहरा रहे हैं । अब संभवतः उनका जोर भाजपा के बजाय कांग्रेस पर है कि इसे 'दूध का धुला' नहीं समझा जाना चाहिए । 1957 में पहली कम्युनिस्ट सरकार को गिराने से लेकर वामपंथी आंदोलन के दमन, सन् '75 का आंतरिक आपातकाल, कांग्रेस का 'सौफ्ट हिंदुत्व' और यूपीए-1 के अनुभव के इतिहास के अलावा केरल और त्रिपुरा में सीपीआई(एम) की प्रमुख प्रतिद्वंद्विता में कांग्रेस के होने की व्यवहारिक राजनीति की समस्याओं की अपनी अहमियत से कोई इंकार भी नहीं कर सकता है ।
लेकिन इस प्रकार की एक तथाकथित 'विचारधारात्मक बहस' के बीच से ही समझ के जिस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे का सूत्र हाथ से छूट जाता है, वह यह है कि यदि कोई आरएसएस-भाजपा-मोदी को फासीवादी मानता है तो इसका असली तात्पर्य क्या होता है ? कांग्रेस सहित दूसरी पूंजीवादी जनतांत्रिक पार्टियों और संघ परिवार के फासीवादी गिरोह के बीच बुनियादी रूप में क्या फर्क है ? क्या सीपीआई(एम) के सदस्य इनके बीच के इस मूलभूत फर्क को देख पा रहे है ?
इस विषय में हमारे मन में गहरा संदेह है और इस संदेह का मूल कारण कम्युनिस्ट आंदोलन में आज दिखाई दे रही दूसरी कई कमजोरियों की तरह ही फासीवाद के बारे में कम्युनिस्टों की उस शास्त्रीय समझ के मूल में ही कहीं न कहीं छिपा हुआ है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में तैयार हुई थी । उस युद्ध के प्रारंभ में उसे साम्राज्यवादियों (वित्तीय पूंजी) के बीच दुनिया को आपस में बांट लेने के एक युद्ध के रूप में देखा गया था, लेकिन बाद में जैसे-जैसे हिटलर का विश्व विजय का अभियान सामने आना लगा, हिटलर-मुसोलिनी-तोजो की धुरी का सारी दुनिया को अपने अधीन कर लेने का सबसे नृशंस अभियान साफ दिखाई देने लगा — फासीवाद-नाजीवाद के खिलाफ मित्र शक्तियों का एक विश्वव्यापी मोर्चा बना और फासीवाद को पूंजीवाद से किंचित अलग करते हुए दिमित्रोव की वह शास्त्रीय परिभाषा विकसित हुई कि 'फासीवाद वित्तीय पूंजी का एक सबसे निकृष्ट और बर्बर रूप है' । इसके खिलाफ सभी जनतांत्रिक शक्तियों का एक संयुक्त मोर्चा बनना चाहिए ।
लेकिन आज हमें लगता है कि कम्युनिस्ट आंदोलन को फासीवाद के बारे में अपनी समझ को इस शास्त्रीय परिभाषा की सीमाओं से भी मुक्त करके पूरे विषय कहीं ज्यादा तात्विक स्तर पर खंगालने की जरूरत है । इस परिभाषा की सीमाओं का ही परिणाम है कि हमारे सोच में एक ऐसा गतिरोध पैदा हो जाता है जिसके कारण हम पूंजीवादी जनतंत्र, जिसमें मानव अधिकारों की कद्र की जाती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मान किया जाता है, कानून का शासन होता है जिसके सामने सब समान होते हैं, और फासीवाद, जिसमें मानव अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोट दिया जाता है, कानून के शासन के बजाय एक तानाशाह के हुक्म चला करते हैं — इन दोनों को एक ही पूंजीवाद के दो रूप मान लेते हैं और फासीवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ उस क्षण को टालने की लड़ाई बन कर रह जाती है जब पूंजीवाद अपने इस निकृष्ट रूप को धारण करके सामने आता है । और, कहना न होगा, इसी वजह से वामपंथियों के एक अच्छे खासे तबके में इससे भारी उलझने पैदा होने लगती हैं जिनके कारण फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम एकता के साथ समझौताहीन संघर्ष के लिये जरूरी रणनीति से उन क्षणों की ओर बढ़ते सोपानों की तात्विक उलझनों के चलते कई प्रकार से समझौते करने लगते हैं । जनतांत्रिक ताकतों के 'वर्गीय चरित्र' के नाम पर सभी जनतांत्रिक शक्तियों की एकजुट लड़ाई के प्रति संशयग्रस्त हो जाते हैं । बुद्धिजीवियों के एक अच्छे-खासे हिस्से की सोच में भी एक गतिरोध पैदा होता है और उल्टे वह फासीवादी सत्ता के साथ ही सुलह करके रहने में उतनी बुराई महसूस नहीं करता । हिटलर के जमाने में जर्मनी के सबसे बड़े दार्शनिक हाइडेगर ने नाजीवाद के बारे में अपनी तात्विक समझ की इसी कमजोरी के चलते हिटलर के साथ निबाह करके चलने के अपने रास्ते की पैरवी की थी ।
इसी बिंदु पर हमारी साफ राय है कि जब तक हम पूंजीवाद, फासीवाद और समाजवाद — इन तीनों को एक दूसरे से पूरी तरह से भिन्न, अलग-अलग स्वायत्त समाज-व्यवस्थाओं के रूप में नहीं देखेंगे, हम कभी भी फासीवाद के खिलाफ संघर्ष की सही दिशा में सोच-विचार नहीं कर पायेंगे ।
मार्क्स ने आन्नेनकोव के नाम अपने एक पत्र में कहा था कि उत्पादन का स्वरूप ही किसी भी समाज में आदमी के जीवन का स्वरूप होता है । इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि उत्पादन के साधनों की मिल्कियत अर्थात उत्पादन-संबंध किसी भी समाज के सामाजिक संबंधों, सामाजिक-व्यवस्था को व्यक्त करते हैं । उनकी शब्दावली में -
‘‘समाज - उसका रूप चाहे जो हो - क्या है ? वह मानवों की अन्योन्यक्रिया का फल है। क्या मनुष्य को समाज का जो भी रूप चाहे चुन लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है ? कदापि नहीं।...उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के विकास की कोई खास अवस्था ले लीजिए, तो आपको उसके अनुरूप ही सामाजिक गठन का रूप, परिवार का, सामाजिक श्रेणियों या वर्गों का संगठन भी, या एक शब्द में कहें तो नागरिक समाज भी मिलेगा। किसी खास नागरिक समाज को ले लीजिए तो आपको खास राजनीतिक व्यवस्था भी मिलेगी, जो नागरिक समाज की आधिकारिक अभिव्यक्ति मात्र है।’’ मार्क्स इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि ‘‘ मानव अपनी उत्पादन शक्तियों का - जो उसके पूरे इतिहास का आधार है - स्वाधीन विधाता नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक उत्पादक शक्ति अर्जित शक्ति होती है, भूतपूर्व कार्यकलाप की उपज होती है।’’
इसीलिये, जब हम सिर्फ उत्पादन के स्वरूप के आधार पर ही समाज व्यवस्थाओं पर राय देने लगते हैं तब हम वही भूल करने के लिये मजबूर हो जाते हैं जो हर्बर्ट मारक्यूस से लेकर फ्रैंकफर्ट स्कूल कहे जाने वाले दार्शनिकों ने साठ के दशक में पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों को एक ही आधुनिक तकनीक के औद्योगिक युग की समाज-व्यवस्था मान कर, दोनों को समान बता देने की भूल की थी । उन्होंने उत्पादन के साधनों के सामाजीकरण के उस सच की अवहेलना की थी जो समाजवाद को पूंजीवाद से मूलभूत रूप में अलग करता है ।
यही बात फासीवाद के बारे में भी समान रूप से लागू होती है । थोड़ी सी गहराई में जाने से ही हम देख पायेंगे कि फासीवाद उत्पादन संबंधों के उस रूप पर टिका हुआ है जिसमें उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत के बावजूद उनका तानाशाही शासन की कमांड व्यवस्था से संचालन किया जाता है । हिटलर ने ट्रेडयूनियन आंदोलन को कुचल कर पूंजीपतियों को मजदूरों की सौदेबाजी के दबाव से मुक्त कर दिया, लेकिन इसके साथ ही खुद पूंजीपतियों के लिये भी यह तय कर दिया कि जर्मनी के कारखानों में किस चीज का कितना उत्पादन किया जायेगा; किस प्रकार वे विश्व विजय की हिटलर की योजना की सेवा में लगे रहेंगे । अर्थात, उद्योग चलेंगे पूरी तरह से हिटलर के फरमानों के अनुसार । जैसे भारत में मोदी ने पूरी अर्थ-व्यवस्था को अपनी निजी मुट्ठी में कस लेने के लिये नोटबंदी की तरह का सामान्य रूप से निंदित कदम उठाने में जरा सी भी हिचक का परिचय नहीं दिया । अर्थ-व्यवस्था के सामान्य मान्य नियमों को ताक पर रख कर उसे एक तानाशाह की सनक के अधीन कर देने की यही लाक्षणिकता मोदी और आरएसएस के फासीवादी चरित्र का एक सबसे बड़ा सबूत पेश करती है । हिटलर ने अपने काल में उन सभी उद्योगपतियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया था जिन्होंने हिटलर के उदय में उसकी सबसे ज्यादा आर्थिक सहायता की थी । (देखें, अरुण माहेश्वरी : हिटलर और व्यवसायी वर्ग https://chaturdik.blogspot.in/2016/03/blog-post_10.html)
इसकी तुलना में सामान्य पूंजीवादी जनतंत्र मूलतः उत्पादन के साधनों की निजि मिल्कियत पर टिका होने पर भी वह किसी कमांड व्यवस्था के जरिये नहीं, बल्कि मूलतः बाजार के नियमों से संचालित होता है, जिसमें पूंजी के मूलभूत अधिकार को स्वीकृति के साथ ही सामान्य उपभोक्ता समाज की एक सक्रिय भागीदारी भी हुआ करती है । उपभोक्ता के हितों की रक्षा भी राज्य का एक प्रमुख दायित्व होता है । नागरिक के अधिकार, मानव-अधिकार, कानून का शासन की संगति में ही पूंजीपति और उपभोक्ता के अधिकार भी अपनी न्यायोचितता को प्रमाणित करते हैं ।
इस प्रकार, आधुनिक तकनीक के औद्योगिक युग के एक ही क्षितिज में उभर कर आने वाली इन तीन अलग-अलग समाज-व्यवस्थाओं, पूंजीवादी जनतंत्र, फासीवाद और समाजवाद को हम तात्विक रूप में बिल्कुल तीन अलग-अलग जगहों पर रख कर स्वतंत्र रूप में समझ सकते हैं और इन तीनों व्यवस्थाओं के तहत सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मान-मूल्यों को भी अलग—अलग करके देखा जा सकता है।
यही वह संदर्भ है जिससे पता चलता है कि जहां से पूंजीवादी जनतंत्र का संकट यदि फासीवाद के आगमन का कारण बन सकता है, वहीं से समाजवाद के द्वार भी खोल सकता है । मूल प्रश्न मनुष्य द्वारा पहले से उपार्जित शक्तियों और अधिकारों की रक्षा से भी जुड़ा होता है । लेकिन मूलतः यह समय और स्थान के एक वृत्त से मुक्त होकर बिल्कुल दूसरे वृत्त में प्रवेश की तरह है ।
और, जैसे ही भारतीय वाम समाज-व्यवस्थाओँ और उसमें होने वाले परिवर्तनों की इस प्रकार की एक स्पष्ट तात्विक समझ को हासिल करेगा, भारतीय राजनीति में पिछले लगभग सत्तर साल से शासन की नीतियों को तय कर रही कांग्रेस पार्टी और आज उसके नेता राहुल गांधी और हिटलर के नाजीवादी एकीकृत शासन की समझ पर चलने वाली आरएसएस और नोटबंदी तथा विकृत ढंग से जीएसटी लागू करने वाले तुगलकी नेता नरेन्द्र मोदी के बीच फर्क करने में भी उसे कोई कठिनाई नहीं होगी । फासीवाद से लड़ाई को लेकर वामपंथ के सामने तब कोई मानसिक गतिरोध नहीं होगा । अभी हिमाचल प्रदेश में मोदी ने कांग्रेस दल को दीमक कहा है । यह सिर्फ कांग्रेस के बारे में कोई चुनावी टिप्पणी नहीं है, मोदी में नाजीवाद के जो बीज निहित हैं, यह उसी की एक अभिव्यक्ति है । यह विपक्षहीन भारत की फासीवादी अवधारणा है ।
आज जब हम नोटबंदी की तरह के एक चरम तुगलकी कदम से सामान्य जन-जीवन में मची हुई अफरा-तफरी की परिस्थितियों में नोटबंदी की घोषणा के काले दिन के एक साल पूरा होने के दिन की ओर बढ़ रहे हैं, यह जरूरी है कि आधुनिक काल में समाज-व्यवस्थाओं के भिन्न-भिन्न रूपों की विविधताओं की तात्विकता के बारे में वामपंथ की एक समझ बनें ताकि वह जिस विचारधारात्मक बिंदु पर आज उलझन की अवस्था में हैं, उस फांस से अपने को मुक्त कर सके, और बिना किसी संशय के अपने वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक दायित्वों का निर्वाह कर सके ।
विचारधारात्मक संघर्ष की ओट में
वामपंथ के अंदर ऊपर के समूचे विमर्श का तभी कोई अर्थ या महत्व है जब हम सीपीएम के अंदर आज जो चल रहा है उसे शुद्ध रूप से किसी विचारधारात्मक संघर्ष का मान देते हैं । लेकिन यदि विचारधारात्मक सवाल महज एक ओट हो, और इसके पीछे कुछ दूसरे ही निजी या पार्टी पर पूरा कब्जा जमाने की खास गुटबाजी के हितों को साधा जा रहा हो, तब इन बातों का एक सामान्य समझ के स्तर से ज्यादा कोई महत्व नहीं रह जाता है ।
अप्रैल 2015 में विशाखापटनम में सीपीआई(एम) की जो अंतिम 21वीं पार्टी कांग्रेस हुई थी, उस समय यह साफ था कि पार्टी के संशोधित संविधान के अनुसार ही प्रकाश करात का महासचिव बनना संभव नहीं है । उनकी तीन बार की अवधि पूरी हो चुकी थी । प्रकाश के बाद सीताराम येचुरी एक स्वाभाविक चयन होने पर भी अंतिम समय तक प्रकाश ने उन्हें रोकने की हरचंद कोशिश की थी । लेकिन ठोस रूप में वे उनका कोई विकल्प भी नहीं रख पाए, क्योंकि वृंदा करात का प्रस्ताव प्रथम दृष्टया ही सही नहीं लगता था । सीताराम महासचिव बन गये, लेकिन प्रकाश ने कांग्रेस पार्टी को लेकर विचारधारा के झूठे सवाल उठा कर केंद्रीय कमेटी में अपने बहुमत के बल पर उन्हें लगातार दबाव में रखा । जाहिर है कि सीताराम के पक्ष के सदस्य इस विचारधारात्मक लड़ाई के मिथ्याचार को समझ कर उसे सफलता के साथ सही चुनौती भी देते रहे ।
लेकिन तब से पर्दे के पीछे चल रही इस लड़ाई को अब 22वीं पार्टी कांग्रेस के ठीक पहले सतह पर आना ही है । वह समय दूर नहीं है जब प्रकाश करात गुट को सैद्धांतिक लड़ाई के मिथ्याचार को छोड़ कर खुल कर इस दावे को रखना होगा कि केंद्रीय कमेटी में उनका बहुमत है, महासचिव पद उनके पास होना चाहिए । अभी केंद्रीय कमेटी में एक-एक सदस्य के रुख को जानने का जो नाटक चल रहा है, हम यह साफ देख सकते हैं कि प्रकाश करात गुट इस मिथ्याचार को और ज्यादा नहीं खींच पायेगा । फासीवाद के खिलाफ कांग्रेस सहित सभी जनतांत्रिक ताकतों की एकता से इंकार करके सीपीएम का कोई भविष्य ही नहीं रह जाएगा, इसे सभी देख पा रहे हैं । इसीलिये, यदि प्रकाश करात अपने गुटबाजी के लक्ष्य को ही साधना चाहते हैं तो उन्हें इस प्रकार के विचारधारात्मक मिथ्याचार का रास्ता छोड़ कर खुल कर सामने आना होगा और साफ कहना होगा कि सीपीआई(एम) के सदस्य सीताराम येचुरी के बजाय प्रकाश करात गुट के व्यक्ति को महासचिव पद पर चाहते हैं । अन्यथा, इसप्रकार का विचारधारात्मक मिथ्याचार पार्टी की बची-खुची विचारधारात्मक साख को भी मिट्टी में मिला देगा ।
सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी की पिछली बैठक में हुई बहस के बारे में बाजार में जो कानाफूसियां सुनाई दे रही है, उनसे पता चलता है कि पार्टी अभी भी अपनी राजनीतिक लाइन के बारे में दुविधा-मुक्त नहीं हो पाई है । भाजपा-आरएसएस-मोदी के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चा में जाया जाए या नहीं, इसी विषय पर जोर-आजमाईश जारी है । गनीमत इतनी है कि अब तक भी इस पर विचारधारात्मक संघर्ष का पर्दा पड़ा हुआ है । बहुमत और अल्पमत, दोनों कपड़ों के बाहर आकर इसे शुद्ध सत्ता-संघर्ष की सूरत देने से बच रहे हैं । हो सकता है, यह भी कोई मजबूरी हो ताकि उस कर्म के लिये जरूरी शक्ति को पार्टी कांग्रेस तक बचा के रखा जा सके ! लेकिन यह बची हुई लाज-शर्म की स्थिति ही इस बात की भी संभावना पैदा करती है जिसमें शायद अंतिम निर्णय के पहले तक भी विवेक का सही परिप्रेक्ष्य हासिल कर लिया जाए और समझ का ऐसा उलट-फेर हो जाए जिसमें बहुमत अल्पमत में बदल जाए और अल्पमत बहुमत में । जब तक हम कोई निर्णय नहीं कर लेते, अपने सोच का शुद्ध परिप्रेक्ष्य भी हासिल नहीं कर पाते हैं, और कोई भी निर्णय तभी लिया जा सकता है जब बाकी पक्षों को छांट कर अलग नहीं कर दिया जाता है ।
बहरहाल, इस बीच सीपीआई(एम) की बहसों में हम यह एक साफ फर्क देख पा रहे हैं कि 'इंडियन ऐक्सप्रेस' के अपने विवादास्पद लेख में प्रकाश करात ने जितने साफ शब्दों में भाजपा को पूरी तरह से फासिस्ट कहने से इंकार किया था, वे अब अपने लेखों में उस बात को उसी तेवर के साथ नहीं दोहरा रहे हैं । अब संभवतः उनका जोर भाजपा के बजाय कांग्रेस पर है कि इसे 'दूध का धुला' नहीं समझा जाना चाहिए । 1957 में पहली कम्युनिस्ट सरकार को गिराने से लेकर वामपंथी आंदोलन के दमन, सन् '75 का आंतरिक आपातकाल, कांग्रेस का 'सौफ्ट हिंदुत्व' और यूपीए-1 के अनुभव के इतिहास के अलावा केरल और त्रिपुरा में सीपीआई(एम) की प्रमुख प्रतिद्वंद्विता में कांग्रेस के होने की व्यवहारिक राजनीति की समस्याओं की अपनी अहमियत से कोई इंकार भी नहीं कर सकता है ।
लेकिन इस प्रकार की एक तथाकथित 'विचारधारात्मक बहस' के बीच से ही समझ के जिस सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे का सूत्र हाथ से छूट जाता है, वह यह है कि यदि कोई आरएसएस-भाजपा-मोदी को फासीवादी मानता है तो इसका असली तात्पर्य क्या होता है ? कांग्रेस सहित दूसरी पूंजीवादी जनतांत्रिक पार्टियों और संघ परिवार के फासीवादी गिरोह के बीच बुनियादी रूप में क्या फर्क है ? क्या सीपीआई(एम) के सदस्य इनके बीच के इस मूलभूत फर्क को देख पा रहे है ?
इस विषय में हमारे मन में गहरा संदेह है और इस संदेह का मूल कारण कम्युनिस्ट आंदोलन में आज दिखाई दे रही दूसरी कई कमजोरियों की तरह ही फासीवाद के बारे में कम्युनिस्टों की उस शास्त्रीय समझ के मूल में ही कहीं न कहीं छिपा हुआ है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में तैयार हुई थी । उस युद्ध के प्रारंभ में उसे साम्राज्यवादियों (वित्तीय पूंजी) के बीच दुनिया को आपस में बांट लेने के एक युद्ध के रूप में देखा गया था, लेकिन बाद में जैसे-जैसे हिटलर का विश्व विजय का अभियान सामने आना लगा, हिटलर-मुसोलिनी-तोजो की धुरी का सारी दुनिया को अपने अधीन कर लेने का सबसे नृशंस अभियान साफ दिखाई देने लगा — फासीवाद-नाजीवाद के खिलाफ मित्र शक्तियों का एक विश्वव्यापी मोर्चा बना और फासीवाद को पूंजीवाद से किंचित अलग करते हुए दिमित्रोव की वह शास्त्रीय परिभाषा विकसित हुई कि 'फासीवाद वित्तीय पूंजी का एक सबसे निकृष्ट और बर्बर रूप है' । इसके खिलाफ सभी जनतांत्रिक शक्तियों का एक संयुक्त मोर्चा बनना चाहिए ।
लेकिन आज हमें लगता है कि कम्युनिस्ट आंदोलन को फासीवाद के बारे में अपनी समझ को इस शास्त्रीय परिभाषा की सीमाओं से भी मुक्त करके पूरे विषय कहीं ज्यादा तात्विक स्तर पर खंगालने की जरूरत है । इस परिभाषा की सीमाओं का ही परिणाम है कि हमारे सोच में एक ऐसा गतिरोध पैदा हो जाता है जिसके कारण हम पूंजीवादी जनतंत्र, जिसमें मानव अधिकारों की कद्र की जाती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मान किया जाता है, कानून का शासन होता है जिसके सामने सब समान होते हैं, और फासीवाद, जिसमें मानव अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोट दिया जाता है, कानून के शासन के बजाय एक तानाशाह के हुक्म चला करते हैं — इन दोनों को एक ही पूंजीवाद के दो रूप मान लेते हैं और फासीवाद के खिलाफ लड़ाई सिर्फ उस क्षण को टालने की लड़ाई बन कर रह जाती है जब पूंजीवाद अपने इस निकृष्ट रूप को धारण करके सामने आता है । और, कहना न होगा, इसी वजह से वामपंथियों के एक अच्छे खासे तबके में इससे भारी उलझने पैदा होने लगती हैं जिनके कारण फासीवाद के खिलाफ व्यापकतम एकता के साथ समझौताहीन संघर्ष के लिये जरूरी रणनीति से उन क्षणों की ओर बढ़ते सोपानों की तात्विक उलझनों के चलते कई प्रकार से समझौते करने लगते हैं । जनतांत्रिक ताकतों के 'वर्गीय चरित्र' के नाम पर सभी जनतांत्रिक शक्तियों की एकजुट लड़ाई के प्रति संशयग्रस्त हो जाते हैं । बुद्धिजीवियों के एक अच्छे-खासे हिस्से की सोच में भी एक गतिरोध पैदा होता है और उल्टे वह फासीवादी सत्ता के साथ ही सुलह करके रहने में उतनी बुराई महसूस नहीं करता । हिटलर के जमाने में जर्मनी के सबसे बड़े दार्शनिक हाइडेगर ने नाजीवाद के बारे में अपनी तात्विक समझ की इसी कमजोरी के चलते हिटलर के साथ निबाह करके चलने के अपने रास्ते की पैरवी की थी ।
इसी बिंदु पर हमारी साफ राय है कि जब तक हम पूंजीवाद, फासीवाद और समाजवाद — इन तीनों को एक दूसरे से पूरी तरह से भिन्न, अलग-अलग स्वायत्त समाज-व्यवस्थाओं के रूप में नहीं देखेंगे, हम कभी भी फासीवाद के खिलाफ संघर्ष की सही दिशा में सोच-विचार नहीं कर पायेंगे ।
मार्क्स ने आन्नेनकोव के नाम अपने एक पत्र में कहा था कि उत्पादन का स्वरूप ही किसी भी समाज में आदमी के जीवन का स्वरूप होता है । इसके साथ ही उन्होंने यह भी बताया था कि उत्पादन के साधनों की मिल्कियत अर्थात उत्पादन-संबंध किसी भी समाज के सामाजिक संबंधों, सामाजिक-व्यवस्था को व्यक्त करते हैं । उनकी शब्दावली में -
‘‘समाज - उसका रूप चाहे जो हो - क्या है ? वह मानवों की अन्योन्यक्रिया का फल है। क्या मनुष्य को समाज का जो भी रूप चाहे चुन लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है ? कदापि नहीं।...उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के विकास की कोई खास अवस्था ले लीजिए, तो आपको उसके अनुरूप ही सामाजिक गठन का रूप, परिवार का, सामाजिक श्रेणियों या वर्गों का संगठन भी, या एक शब्द में कहें तो नागरिक समाज भी मिलेगा। किसी खास नागरिक समाज को ले लीजिए तो आपको खास राजनीतिक व्यवस्था भी मिलेगी, जो नागरिक समाज की आधिकारिक अभिव्यक्ति मात्र है।’’ मार्क्स इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि ‘‘ मानव अपनी उत्पादन शक्तियों का - जो उसके पूरे इतिहास का आधार है - स्वाधीन विधाता नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक उत्पादक शक्ति अर्जित शक्ति होती है, भूतपूर्व कार्यकलाप की उपज होती है।’’
इसीलिये, जब हम सिर्फ उत्पादन के स्वरूप के आधार पर ही समाज व्यवस्थाओं पर राय देने लगते हैं तब हम वही भूल करने के लिये मजबूर हो जाते हैं जो हर्बर्ट मारक्यूस से लेकर फ्रैंकफर्ट स्कूल कहे जाने वाले दार्शनिकों ने साठ के दशक में पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों को एक ही आधुनिक तकनीक के औद्योगिक युग की समाज-व्यवस्था मान कर, दोनों को समान बता देने की भूल की थी । उन्होंने उत्पादन के साधनों के सामाजीकरण के उस सच की अवहेलना की थी जो समाजवाद को पूंजीवाद से मूलभूत रूप में अलग करता है ।
यही बात फासीवाद के बारे में भी समान रूप से लागू होती है । थोड़ी सी गहराई में जाने से ही हम देख पायेंगे कि फासीवाद उत्पादन संबंधों के उस रूप पर टिका हुआ है जिसमें उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत के बावजूद उनका तानाशाही शासन की कमांड व्यवस्था से संचालन किया जाता है । हिटलर ने ट्रेडयूनियन आंदोलन को कुचल कर पूंजीपतियों को मजदूरों की सौदेबाजी के दबाव से मुक्त कर दिया, लेकिन इसके साथ ही खुद पूंजीपतियों के लिये भी यह तय कर दिया कि जर्मनी के कारखानों में किस चीज का कितना उत्पादन किया जायेगा; किस प्रकार वे विश्व विजय की हिटलर की योजना की सेवा में लगे रहेंगे । अर्थात, उद्योग चलेंगे पूरी तरह से हिटलर के फरमानों के अनुसार । जैसे भारत में मोदी ने पूरी अर्थ-व्यवस्था को अपनी निजी मुट्ठी में कस लेने के लिये नोटबंदी की तरह का सामान्य रूप से निंदित कदम उठाने में जरा सी भी हिचक का परिचय नहीं दिया । अर्थ-व्यवस्था के सामान्य मान्य नियमों को ताक पर रख कर उसे एक तानाशाह की सनक के अधीन कर देने की यही लाक्षणिकता मोदी और आरएसएस के फासीवादी चरित्र का एक सबसे बड़ा सबूत पेश करती है । हिटलर ने अपने काल में उन सभी उद्योगपतियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया था जिन्होंने हिटलर के उदय में उसकी सबसे ज्यादा आर्थिक सहायता की थी । (देखें, अरुण माहेश्वरी : हिटलर और व्यवसायी वर्ग https://chaturdik.blogspot.in/2016/03/blog-post_10.html)
इसकी तुलना में सामान्य पूंजीवादी जनतंत्र मूलतः उत्पादन के साधनों की निजि मिल्कियत पर टिका होने पर भी वह किसी कमांड व्यवस्था के जरिये नहीं, बल्कि मूलतः बाजार के नियमों से संचालित होता है, जिसमें पूंजी के मूलभूत अधिकार को स्वीकृति के साथ ही सामान्य उपभोक्ता समाज की एक सक्रिय भागीदारी भी हुआ करती है । उपभोक्ता के हितों की रक्षा भी राज्य का एक प्रमुख दायित्व होता है । नागरिक के अधिकार, मानव-अधिकार, कानून का शासन की संगति में ही पूंजीपति और उपभोक्ता के अधिकार भी अपनी न्यायोचितता को प्रमाणित करते हैं ।
इस प्रकार, आधुनिक तकनीक के औद्योगिक युग के एक ही क्षितिज में उभर कर आने वाली इन तीन अलग-अलग समाज-व्यवस्थाओं, पूंजीवादी जनतंत्र, फासीवाद और समाजवाद को हम तात्विक रूप में बिल्कुल तीन अलग-अलग जगहों पर रख कर स्वतंत्र रूप में समझ सकते हैं और इन तीनों व्यवस्थाओं के तहत सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मान-मूल्यों को भी अलग—अलग करके देखा जा सकता है।
यही वह संदर्भ है जिससे पता चलता है कि जहां से पूंजीवादी जनतंत्र का संकट यदि फासीवाद के आगमन का कारण बन सकता है, वहीं से समाजवाद के द्वार भी खोल सकता है । मूल प्रश्न मनुष्य द्वारा पहले से उपार्जित शक्तियों और अधिकारों की रक्षा से भी जुड़ा होता है । लेकिन मूलतः यह समय और स्थान के एक वृत्त से मुक्त होकर बिल्कुल दूसरे वृत्त में प्रवेश की तरह है ।
और, जैसे ही भारतीय वाम समाज-व्यवस्थाओँ और उसमें होने वाले परिवर्तनों की इस प्रकार की एक स्पष्ट तात्विक समझ को हासिल करेगा, भारतीय राजनीति में पिछले लगभग सत्तर साल से शासन की नीतियों को तय कर रही कांग्रेस पार्टी और आज उसके नेता राहुल गांधी और हिटलर के नाजीवादी एकीकृत शासन की समझ पर चलने वाली आरएसएस और नोटबंदी तथा विकृत ढंग से जीएसटी लागू करने वाले तुगलकी नेता नरेन्द्र मोदी के बीच फर्क करने में भी उसे कोई कठिनाई नहीं होगी । फासीवाद से लड़ाई को लेकर वामपंथ के सामने तब कोई मानसिक गतिरोध नहीं होगा । अभी हिमाचल प्रदेश में मोदी ने कांग्रेस दल को दीमक कहा है । यह सिर्फ कांग्रेस के बारे में कोई चुनावी टिप्पणी नहीं है, मोदी में नाजीवाद के जो बीज निहित हैं, यह उसी की एक अभिव्यक्ति है । यह विपक्षहीन भारत की फासीवादी अवधारणा है ।
आज जब हम नोटबंदी की तरह के एक चरम तुगलकी कदम से सामान्य जन-जीवन में मची हुई अफरा-तफरी की परिस्थितियों में नोटबंदी की घोषणा के काले दिन के एक साल पूरा होने के दिन की ओर बढ़ रहे हैं, यह जरूरी है कि आधुनिक काल में समाज-व्यवस्थाओं के भिन्न-भिन्न रूपों की विविधताओं की तात्विकता के बारे में वामपंथ की एक समझ बनें ताकि वह जिस विचारधारात्मक बिंदु पर आज उलझन की अवस्था में हैं, उस फांस से अपने को मुक्त कर सके, और बिना किसी संशय के अपने वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक दायित्वों का निर्वाह कर सके ।
विचारधारात्मक संघर्ष की ओट में
वामपंथ के अंदर ऊपर के समूचे विमर्श का तभी कोई अर्थ या महत्व है जब हम सीपीएम के अंदर आज जो चल रहा है उसे शुद्ध रूप से किसी विचारधारात्मक संघर्ष का मान देते हैं । लेकिन यदि विचारधारात्मक सवाल महज एक ओट हो, और इसके पीछे कुछ दूसरे ही निजी या पार्टी पर पूरा कब्जा जमाने की खास गुटबाजी के हितों को साधा जा रहा हो, तब इन बातों का एक सामान्य समझ के स्तर से ज्यादा कोई महत्व नहीं रह जाता है ।
अप्रैल 2015 में विशाखापटनम में सीपीआई(एम) की जो अंतिम 21वीं पार्टी कांग्रेस हुई थी, उस समय यह साफ था कि पार्टी के संशोधित संविधान के अनुसार ही प्रकाश करात का महासचिव बनना संभव नहीं है । उनकी तीन बार की अवधि पूरी हो चुकी थी । प्रकाश के बाद सीताराम येचुरी एक स्वाभाविक चयन होने पर भी अंतिम समय तक प्रकाश ने उन्हें रोकने की हरचंद कोशिश की थी । लेकिन ठोस रूप में वे उनका कोई विकल्प भी नहीं रख पाए, क्योंकि वृंदा करात का प्रस्ताव प्रथम दृष्टया ही सही नहीं लगता था । सीताराम महासचिव बन गये, लेकिन प्रकाश ने कांग्रेस पार्टी को लेकर विचारधारा के झूठे सवाल उठा कर केंद्रीय कमेटी में अपने बहुमत के बल पर उन्हें लगातार दबाव में रखा । जाहिर है कि सीताराम के पक्ष के सदस्य इस विचारधारात्मक लड़ाई के मिथ्याचार को समझ कर उसे सफलता के साथ सही चुनौती भी देते रहे ।
लेकिन तब से पर्दे के पीछे चल रही इस लड़ाई को अब 22वीं पार्टी कांग्रेस के ठीक पहले सतह पर आना ही है । वह समय दूर नहीं है जब प्रकाश करात गुट को सैद्धांतिक लड़ाई के मिथ्याचार को छोड़ कर खुल कर इस दावे को रखना होगा कि केंद्रीय कमेटी में उनका बहुमत है, महासचिव पद उनके पास होना चाहिए । अभी केंद्रीय कमेटी में एक-एक सदस्य के रुख को जानने का जो नाटक चल रहा है, हम यह साफ देख सकते हैं कि प्रकाश करात गुट इस मिथ्याचार को और ज्यादा नहीं खींच पायेगा । फासीवाद के खिलाफ कांग्रेस सहित सभी जनतांत्रिक ताकतों की एकता से इंकार करके सीपीएम का कोई भविष्य ही नहीं रह जाएगा, इसे सभी देख पा रहे हैं । इसीलिये, यदि प्रकाश करात अपने गुटबाजी के लक्ष्य को ही साधना चाहते हैं तो उन्हें इस प्रकार के विचारधारात्मक मिथ्याचार का रास्ता छोड़ कर खुल कर सामने आना होगा और साफ कहना होगा कि सीपीआई(एम) के सदस्य सीताराम येचुरी के बजाय प्रकाश करात गुट के व्यक्ति को महासचिव पद पर चाहते हैं । अन्यथा, इसप्रकार का विचारधारात्मक मिथ्याचार पार्टी की बची-खुची विचारधारात्मक साख को भी मिट्टी में मिला देगा ।
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