शुक्रवार, 23 मार्च 2018

नागरिक यदि सिर्फ एक डाटा बन जाए तो कोई रोबोट ही मनुष्यों के इस समाज का मालिक होगा !

—अरुण माहेश्वरी



कैंब्रिज एनालिटिका (सीए), फेसबुक, ट्रंप और मोदी की फेसबुक से लोगों के निजी डाटा की चोरी के कांड के बारे में जितना सुनता हूं, आज की दुनिया के कम्युनिस्ट दार्शनिक एलेन बाद्यू बहुत याद आते हैं । 'गणित तत्वमीमांसा है' (Mathematics is ontology) । हेगेल ने दर्शनशास्त्र को तर्कशास्त्र बताया था और बाद्यू उससे और एक कदम आगे उसे बिल्कुल संख्या-तत्व वाले गणितशास्त्र में बदल देते हैं ।

आज आदमी को महज एक डाटा में बदल कर उसकी असंख्य श्रेणियों के जरिये उसके मनोविज्ञान के सूक्ष्मतर पहलुओं तक को नियंत्रित करने का फेसबुक और राजनीतिज्ञों का यह जो काला जादू वाला खेल दिखाई दे रहा है, इसके मूल में कहीं न कहीं दर्शनशास्त्र का यही वैज्ञानिक सत्य काम कर रहा है कि 'गणित तत्वमीमांसा है' ; आदमी के सभी व्यवहारों को एक संख्या तत्व में उतार लिया जा सकता है ! दर्शनशास्त्र को तर्कशास्त्र से और तत्वमीमांसा को अनिवार्य तौर पर गणित से जोड़ कर देख पाने की पश्चिमी जगत की इसी खास विशेषता को रेखांकित करते हुए बाद्यू लिखते हैं कि आदमी की प्राणी सत्ता की असली पहचान गणितीय तत्वमीमांसा (mathematical ontology) से ही मुमकिन है । आधिभौतिक दार्शनिक चिंतन मनुष्य को मूलतः एक वरदान के रूप में देखता है और इसीलिये वह उसकी प्राणीसत्ता की सटीक तत्वमीमांसा नहीं कर सकता है । उसकी मीमांसा में एक प्रकार की ऐसी काव्यात्मकता होती है जिसमें न सिर्फ सामने जो दिखाई देता है, उसी का विसर्जन होता है, बल्कि इसके साथ ही वस्तु के मूल तत्व का भी एक प्रकार से अंत हो जाता है । यह आपको प्राणी के बारे में सिर्फ एक अनुमान तक ले जा सकती है । इस मीमांसा के काव्यात्मक सम्मोहन से बचना मुश्कल होता है, लेकिन सच्चाई यह है कि प्राणी की अपनी तात्विकता किसी अन्य चीज को अपने पास फटकने नहीं देती है, बल्कि वह अपने को तमाम लाग-लपेट से मुक्त निपट नग्न रूप में कायम रखती है । किसी भी सम्मोहक लय में वह अपने को विसर्जित नहीं करती है ।

बाद्यू कहते हैं कि इस आधिभौतिक चिंतन के सम्मोहनकारी प्रभाव से बचने की कोशिश में अक्सर तत्वमीमांसा प्रत्यक्ष के जंगल में फंस जाती है । इसीसे बचने के लिये ही बाद्यू गणितीय तत्वमीमांसा की जरूरत की बात कहते हैं और उसमें यहां तक कह जाते हैं कि युनान को सिर्फ इसी वजह से दर्शनशास्त्र की जन्मभूमि माना जाता है, क्योंकि वहीं पर निगमनात्मक गणित (deductive mathematics) के जरिये, गणितीय क्रियाओं में निहित संरचनात्मक रूपों को निकालने (extraction of structural forms latent in the conduct of numerical operations) की तत्वमीमांसा के लिये जरूरी विमर्श की दिशा में बढ़ा गया था । इस दर्शनशास्त्र-गणित धुरी ने ही युनान को दर्शनशास्त्र की जन्मभूमि कहलाने का हकदार बनाया है । (देखें — Alain Badiou, Being and Event, Bloomsburry, Introduction,page – 10-11)

राजनीति जो जनतंत्र में नागरिकों को लेकर किया जाने वाला एक कारोबार है, उसमें यदि किसी भी प्रकार से नागरिक को महज एक संख्या अर्थात डाटा में बदल दिया जाए, तो इस डाटा पर अधिकार के जरिये नागरिकों पर अधिकार करना कितना आसान हो जाता है, इसी का उदाहरण है कैंब्रिज एनालिटिका, फेसबुक आदि से जुड़ा हुआ यह पूरा प्रकरण जिसने आज भारत की राजनीति को गर्म कर रखा है । यह समूचा मामला प्रकारांतर से बाद्यू के कथन की एक पुष्टि भी करता है ।

इस मामले में अब तक जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे यह साफ पता चलता है कि नागरिकों के जीवन से संबंधित निजी तथ्यों की चोरी और राजनीति में उनके प्रयोग का यह संगठित सिलसिला दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारत में ही सबसे पहले शुरू हुआ था । 2013 से ही मोदी-शाह-आरएसएस गिरोह ने उस बदनाम कैंब्रिज एनालिटिका नाम की ब्रिटिश कंपनी की सेवाओं को लेना शुरू कर दिया था, जिसकी सेवाएं बाद में अमेरिका में ट्रंप ने ली, ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के पक्ष के लोगों ने भी लीं । आज उस कंपनी को सारी दुनिया में एक अपराधी डाटा चोर कंपनी माना जा रहा है । फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग के साथ मिल कर लोगों के डाटा चुरा कर उसने मोदी-शाह, ट्रंप, ब्रेक्सिट आदि अपने राजनीतिक ग्राहकों को मोटी रकम पर बेचा था । दस महीने पहले यूरोपियन यूनियन ने डाटा चोरी के आरोप में व्हाट्स अप और फेसबुक पर लगभग अढाई करोड़ यूरो का जुर्माना लगाया था । ब्रिटेन के सूचना आयुक्त ने भी एक जांच के जरिये कैंब्रिज एनालिटिका और फेसबुक को लोगों के निजी डाटा चुरा कर उससे व्यापर करने का अपराधी पाया और इसी 20 मार्च 2018 को फेसबुक पर पांच लाख पौंड का जुर्माना लगाते हुए कहा है कि आगामी मई महीने में उनके देश का डाटा सुरक्षा कानून पारित हो जाने पर जुर्माने की यह राशि बढ़ कर फेसबुक के कुल वैश्विक कारोबार के 4 प्रतिशत तक चली जायेगी । (देखें — https://www.reuters.com/article/us-facebook-cambridgeanalytica/uk-investigates-facebook-over-data-breach-to-raid-cambridge-analytica-idUSKBN1GW0WX)


20 मार्च को ब्रिटेन में जब सारी दुनिया में कैंब्रिज एनालिटिका का नाम उछला, तभी हमारे देश के सूचना मंत्री रविशंकर प्रसाद भी यहां उछल पड़ें और एक संवाददाता सम्मेलन करके उन्होंने कांग्रेस दल पर यह आरोप लगाया कि पिछले गुजरात चुनाव के वक्त कांग्रेस दल ने इसी बदनाम कंपनी की सहायता से गुजरात के मतदाताओं से जुड़े डाटा की चोरी की थी । रविशंकर प्रसाद अपनी चिर-परिचित वीर रस वाली मुद्रा में फुफकारते हुए जब कांग्रेस को कोस रहे थे तब इन 'भोले पंछी' को यह नहीं पता था कि कैंब्रिज एनालिटिका का नाम उछाल कर वे एक प्रकार से सेम-साइड गोल कर रहे हैं । कांग्रेस ने उनके आरोपों के जवाब में पलट कर वे सारे दस्तावेज आम कर दिये जिनसे पता चलता है कि यह कंपनी तो 2012 से ही मोदी-आरएसएस की सेवा में लगी हुई है । टीवी चैनलों पर भाजपा के साथ इस कंपनी के गाढ़े संबंधों के और भी तमाम तथ्य आने लगे, और अंत में देखा गया कि रविशंकर प्रसाद ने सीधे फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग को 'भारत बुला लेने' की एक हास्यकर गीदड़ भभकी देकर अपनी ओर से मामले को रफा-दफा कर दिया । लेकिन जो चीज एक बार आम लोगों की नजरों में आ चुकी है, उसे किसी की मर्जी मात्र से इतनी आसानी से इस प्रकार गायब नहीं किया जा सकता है । आज यह मामला भारत की पूरी राजनीति का एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है ।

बहरहाल, इस विषय से हमारे सामने दूसरे और भी कई बड़े सवाल उठ खड़े होते हैं । सबसे पहला सवाल तो यही है कि जनतांत्रिक चुनावों को भ्रष्ट बनाने का यह जो रोग भारत में सबसे पहले लगा था, वह उस समय तक दुनिया में किसी चर्चा का विषय क्यों नहीं बन पाया जब तक वह एक भारी संक्रामक रोग की तरह कई समुद्र पार करके अमेरिका तक नहीं पहुंच गया ? इसीसे पता चलता है कि हमारा समाज किस हद तक एक सड़े हुए समाज में बदल चुका है । विदेशी कंपनियां और सरकारें अपने तमाम प्रकार के भौतिक और वैचारिक विषाणुओं के उत्पादन की प्रयोगशाला के रूप में बेढड़क इस जमीन का इस्तेमाल करती है और उन्हें आरएसएस-मोदी की तरह के राष्ट्र-विरोधी कामों के घुटे हुए स्वार्थी तत्व बड़ी आसानी से अपनी सारी सेवाएं देने के लिये यहां पलक पांवड़े बिछाये मिल जाते हैं ; बल्कि वे इन घिनौने कामों के लिये उन्हें बाकायदा नियुक्त करते हैं । और भी शर्मनाक बात यह है कि भारत के इन अनैतिक राजनीतिज्ञों की मुट्ठी में आज यहां का पूरा मीडिया भी है जिसका अपना कोई जमीर नहीं बचा है । यह गुलाम मीडिया इनकी तमाम काली करतूतों पर पर्दादारी में लगा रहता है । कहीं से किसी को कुछ सुराग हाथ भी लग जाए तो उसे दबाने में उसकी ज्यादा दिलचस्पी होती है ।

जब अमेरिका में ट्रंप की अप्रत्याशित जीत के बाद इस विषय पर चर्चा शुरू हुई तो उसके बाद ही चर्चा के क्रम में मानव जीवन के इस नये युग को परिभाषित करने वाले एक नये पद, उत्तर-सत्य (post-truth) का जन्म हो गया । सत्य के परे,  झूठ और झूठ और झूठ के रसातल में ही डूबे हुए जीवन के नये युग का । इसमें पूर्व से आदमी के मानस में किसी विश्वास के रूप में बैठा हुआ झूठ ही नहीं काम करता है, बल्कि यह जान-बूझ कर गढ़ा जा रहा, फैलाया जा रहा और अपनाया जा रहा झूठ है । उत्तर-सत्य की राजनीति की कई अजीबो-गरीब लाक्षणिकताओं को भी लक्ष्य किया गया । इसमें बहुत गहरे तक बौद्धिकता की, पढ़े-लिखे लोगों की खिल्ली उड़ाने का एक प्रमुख भाव होता है, क्योंकि इसे आजमाने वाले नेता यह जानते हैं कि जिन लोगों को वे संबोधित कर रहे हैं, उनका सच के ऊपर से, समझदार और बुद्धिमान माने जाने वाले लोगों के ऊपर से विश्वास पहले ही उठ चुका हैं !

इसी में जुड़ा हुआ है मीडिया के विस्फोट का पहलू । इसके चलते खास-खास विश्वसनीय सूचना केंद्रों के बिखराव से झूठ और अफवाहों के केंद्रों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । सारी दुनिया में  'व्हाट्स अप' इंडस्ट्री तो झूठ की फैक्ट्री मानी जाती है । इसके ग्रुप के सदस्य आपस में ही एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, और किसी पर नहीं । इस प्रकार के केंद्रों से फैलाये जाने वाले झूठ की काट भी मुश्किल होती है । फलतः मीडिया में सारी बहसें झूठ पर ही केंद्रित हो जाती है । जीवन के असली विषय पीछे छूट जाते हैं । भारत के टीवी मीडिया पर जब मोदी के आईटी सेल का छोड़ा हुआ दूसरा कोई मुद्दा नहीं होता है तब किम जोंग उन या सीरिया, इराक की कहानियां छाई रहती है ।


इस उत्तर-सत्य की राजनीति की सबसे बुरी बात यह है कि इसमें समय के साथ अपने आप सुधार की कोई गुंजाईश नहीं होती है । जिस किसी ने यह सोचा होगा कि सत्ता पर आने के बाद मोदी जैसे झूठ बोलने वाले व्यक्ति में जिम्मेदारी का बोध पैदा हो जायेगा, उसे सिवाय निराशा के न आज तक कुछ हाथ लगा है और न आगे लगने वाला है । आम जनता में बढ़ता हुआ अविश्वास और एक प्रकार का विच्छिन्नता बोध इस प्रकार की राजनीति के लिये उर्वर जमीन तैयार करता है ; कुल मिला कर फासीवाद बल पाता है । (देखें — https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_18.html)

इसी सिलसिले में हम आते हैं फेसबुक पर । दुनिया में संचार की दुनिया का बादशाह, इस माध्यम ने आज लोगों की अभिव्यक्ति मात्र के एक सबसे प्रभावशाली माध्यम का रूप ले लिया है । लेकिन हमारे देखते ही देखते, अपने अस्तित्व के तर्क के चलते ही, यह स्वयं में अब एक सबसे बड़ी समस्या बन गया है । अभी के पूरे प्रकरण के केंद्र में फेसबुक ही है ।

पिछले दिनों अपनी “वर्चस्व की राजनीति का वर्ष 2015 और फेसबुक की इबारतें” पुस्तक की भूमिका, 'फेसबुक और हम' लिखते वक्त अनायास ही हमने उसमें काफी विस्तार से इस माध्यम के अपने मूल व्यवसायिक स्वरूप की एक जांच की थी । तभी हमने इसके पूरे बिजनेस मॉडल में खुफियागिरी को एक अनिवार्य तत्व के रूप में पाया था । हमने लिखा था कि “अपने विज्ञापनदाताओं को चुनिंदा रूप से उन लोगों तक पहुंचाना, जो विज्ञापनदाता के उत्पाद में दिलचस्पी रख सकते हैं — यह फेसबुक का सबसे प्रमुख काम है । खुफियागिरी पर आधारित इस कारोबार के आगे और कितने भयानक रूप सामने आ सकते हैं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है । फेसबुक और गूगल के पास किसी भी व्यक्ति की मानसिकता, उसकी रूचि और उसकी गतिविधियों के बारे में जितनी सूचनाएं होती है, उतनी तो दुनिया की किसी सरकार के पास भी नहीं होती है । गूगल के बारे में यह खबर भी है कि उसने अमेरिका के खुफिया तंत्र से अपने तार जोड़ लिये हैं और सीआईए, एफबीआई की तरह की संस्थाओं के साथ उसके बाकायदा व्यापारिक संपर्क कायम हो चुके हैं ।” इसे ही हमने फेसबुक की बदनामी और उसके अस्तित्व के लिये एक खतरे की घंटी के रूप में देखा था जो इससे लोगों को दूर रहने का सबब बन सकता है । और अगर फेसबुक का प्रयोग करने वाले ही इससे विरत हो जाते हैं तो कहना न होगा, इसका पूरा बिजनेस मॉडल ही ध्वस्त हो जायेगा । इसीलिये हमारा मानना था कि फेसबुक की तरह के लोगों से संपर्क के आधार पर टिके व्यवसायिक स्वरूपों में ही इनके ध्वंस के कारण भी मौजूद हैं । (देखें— https://chaturdik.blogspot.in/2017/12/blog-post_15.html)

बहरहाल, हम एक ऐसे काल में इस पूरे कांड के जरिये नागरिकों को महज एक डाटा में तब्दील होता हुआ देख रहे हैं, जिसे कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) का काल भी कहते हैं । अब तक मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले कामों को आगे कम्प्यूटर द्वारा स्व-संचालित रोबोट किस्म की मशीनें करेगी । ऐसे समय में यदि सचमुच मनुष्य की प्राणी-सत्ता को महज एक डाटा में बदल दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं होगा जब इन डाटा के जरिये रोबोट मनुष्यों के समाज को नियंत्रित करने लगेगा । डाटा के जरिये चुनावों को प्रभावित करने की बात का यही तो मूल अर्थ भी है जो मानव सभ्यता मात्र के लिये एक बड़े खतरे का संकेत है । ऐसे निष्कर्षों को बाद्यू की गणितीय तत्व मीमांसा की पूरी अवधारणा से भी निकाला जा सकता है ।



शनिवार, 17 मार्च 2018

साहित्य में स्वतंत्रता के मुजाहिदीन

'आज का समय और साहित्य ' विषय पर 'लहक संगोष्ठी (17 मार्च 2018) में पेश किया गया आलेख :

अरुण माहेश्वरी

तीन दिन पहले ही, 14 मार्च को हमारे समय के एक प्रमुख गणितज्ञ और सैद्धांतिक विज्ञानवेत्ता स्टीफन हॉकिंग हमारे बीच नहीं रहे । अपने magnum opus, सर्वश्रेष्ठ कृति 'A brief history of times' में उन्होंने समय का इतिहास लिखने के उपक्रम का प्रारंभ इस ब्रह्मांड की संरचना के बारे में मनुष्य की अवधारणा के विकास के इतिहास से किया था । पृथ्वी को सपाट मानने के हजारों सालों के विश्वास के विपरीत सबसे पहले अरस्तु ने ई.पू.340 में अपनी पुस्तक 'On the heavens' में इस धरती को गोल बताया था, लेकिन कहा था कि सूर्य, चंद्रमा और बाकी सभी ग्रह-नक्षत्र इसके चारों ओर घूमते हैं । इसके दो सौ साल बाद टालेमी ने इस समझ का एक पूरा मॉडल भी तैयार किया । लेकिन अरस्तु के लगभग 2000 साल बाद, ईस्वी सन् 1514 में कॉपरनिकस ने पहले बार बताया कि पृथ्वी नहीं, इस ब्रह्मांड के केंद्र में सूर्य स्थित है और सभी ग्रह-नक्षत्र उसके चारो ओर घूमते हैं । इसके बाद टेलिस्कोप की नई तकनीकी शक्ति से सुसज्जित गैलेलियो आते हैं ईस्वी सन् 1609 में और वृहस्पति ग्रह के प्रेक्षण के जरिये वे पाते हैं कि सिर्फ पृथ्वी के नहीं, वृहस्पति के भी अपने कई छोटे-छोटे उपग्रह है और उसका अपना चंद्रमा भी है जो सब उसके चारो ओर घूम रहे हैं । अर्थात हर ब्रह्मांडीय पिंड को सिर्फ धरती के चारों ओर चक्कर लगाने की जरूरत नहीं है । सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने वाले नक्षत्र पिण्डों के चारों ओर भी कई अन्य पिंड चक्कर लगाते रहते हैं । न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत ने इस पूरी अवधारणा को एक गणितीय आधार पर स्थापित किया और कुल मिला कर हमारे ब्रह्मांड की संरचना के बारे में आज जो एक सर्वमान्य अवधारणा है उसमें इसे अनंत ग्रहों, नक्षत्रों के अपने-अपने स्वतंत्र संसारों का एक समुच्चय माना जाता है । ये सारे नक्षत्र अपने-अपने स्तर पर गतिशील होने पर भी इसलिये किसी एक केंद्रीय बिंदु पर गिरते नहीं है, क्योंकि वे एक अनंत आकाश में विचरण करते हैं । कल तक ब्रह्मांड संबंधी सभी आधिभौतिक चिंतन में जिसे infinite static universe अर्थात अनंत स्थैतिक ब्रह्मांड के रूप में जाना जाता था, अब उसे ही हम infinite expanding universe (अनंत विस्तारवान ब्रह्मांड) के रूप में ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं ।

इसके बावजूद न्युटन ने ही इस ओर भी इंगित किया था कि इस ब्रह्मांड में चाहे जितने अतिरिक्त तारें क्यों न आ जाए, उनसे मूल नक्षत्रों पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि इसी प्रकार असंख्य तारे हमेशा टूट कर इसी ब्रह्मांड में विलीन भी होते रहेंगे ।

आज जब हम 'अपने समय और साहित्य' के बारे में चर्चा के लिये यहां इकट्ठा हुए हैं, तो अनायास ही हमारा ध्यान समय के इस अनूठे इतिहासकार स्टीफेन हॉकिंग और समय के साथ जुड़े इस पूरे ब्रह्मांड की संरचना के विषय पर चला गया । आखिर हम भी तो यहां अपने समय और इस समय में जीवन जगत के अपने अपने ब्रह्मांड के एक अति क्षुद्र नक्षत्र, साहित्य के जगत के बारे में ही तो विचार करने के लिये जमा हुए है ! यह जो ब्रह्मांड के बारे में अनंत स्वात्मभूत सत्ताओं के समुच्चय की जो पूरी अवधारणा है, यह समग्र ब्रह्मांड पर ही नहीं, मानव जगत और इसके अंदर कायम अनंत प्रकार के जगतों पर भी किसी न किसी रूप में समान तौर पर लागू होती है ।

हमारे इतिहास के आज के उत्तर-आधुनिक काल में मनुष्यों की दुनिया को कुछ इस प्रकार रखा जाता है जैसे यह सिर्फ शरीरों और भाषाओं की दुनिया है । (There are only bodies and languages.) इन शरीरों अथवा भाषाओं को किसी भी सांचे में काट-छांट कर अपने प्रकार से सजा कर उस सजावट पर एक सामाजिक-व्यवस्था या सौन्दर्यशास्त्रीय कृति या वैचारिक अवधारणा का बिल्ला चिपका दिया जाता है, और उसे एक खास प्रकार की रचना शैली या वैचारिक श्रेणी की प्रजाति का अंग मान लिया जाता है । जब कोई सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की बात करता है तो उससे वह सिवाय इस मामूली सच्चाई के अलावा और कुछ व्यक्त नहीं कर रहा होता है कि सबकी परिस्थितियां अलग-अलग होती है ।

लेकिन, अभी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक ऐलेन बाद्यू कहते हैं कि मानव जगत के बारे में यह समझ गलत और नाकाफी है । यह असंबद्ध शरीरों और भाषाओं का एक पुंज या समुच्चय भर नहीं है । शरीरों और भाषाओं के अतिरिक्त इसमें एक तीसरा तत्व भी होता है, सत्य का तत्व । जो तत्व वास्तव में इन संरचनाओं के अपने चरित्र को तय करता है, वह यही सत्य का तत्व है । और, जब कोई साधक या शोधकर्ता इस जगत के प्रेक्षण से इसे जानने का काम हाथ में लेता है तो उसका काम होता है इन असंख्य संरचनाओं के अपने-अपने जगत के सत्यों की खोज करना । इन सबमें तारों की तरह एक चमक के साथ टूट कर हवा में विलीन हो जाने वाली कृतियां और प्रवृत्तियां भी शामिल हो सकती हैं ।

कुछ इसी प्रकार से हमारे भारतीय दार्शनिक अभिनवगुप्त भी अपने तंत्रालोक में निर्विभागता, मायीयवर्णता, भेदावभास, तत्व का बाह्यावभास आदि नाना पदों से भेदों से भरे जगत का वर्णन करते है और उसमें सत्य को उनके बाहर, शिव के स्वात्मभूत रूप में पेश करते हैं ।

बाद्यू कहते हैं कि परिस्थितियों की कोई भी ठोस संरचना खुद में किसी सत्य को नहीं बताती है । इसीलिये चीजों के अस्तित्व की एक साधारण यथार्थमूलक जांच मात्र से उसके किसी भी नियामक तत्व की खोज संभव नहीं है ।

सचमुच यह बहुत दिलचस्प है कि आज के इस नव-उदारवाद के युग में जिसे योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था पर बाजार अर्थ-व्यवस्था की अंतिम विजय का काल माना जाता है, और जब संसदवाद के अश्वमेघ का घोड़ा पूरी दुनिया में चौतरफा दौड़ाया जा रहा है और इसी समय जब चीन में चीनी विशिष्टता के समाजवाद के नाम पर एक नये प्रकार की एक व्यक्ति की परम सत्ता का राग अलापा जा रहा है, हमारा सवाल है कि क्या यह सब जो हो रहा है, इनके होने मात्र से ही इनके पक्ष में कोई दलील, या इनका अपना कोई तर्क तैयार हो जाता है ?
इतिहास की प्रक्रिया के बीच से यह सब जो भी ठोस रूप में निकल कर आया है या आ रहा है, क्या वह तात्विक लिहाज से वास्तव में बहुत मामूली चीज नहीं है, क्योंकि ये परिस्थितियों का स्वाभाविक या नैसर्गिक विकास नहीं है । इनके होने के पीछे न जाने कितने बाहरी हिंसक और कृत्रिम जतन किये गये हैं और किये जा रहे हैं !
इसीलिये बाद्यू कहते हैं कि जिसे सत्य कहा जाता है, उसकी पहचान इस प्रत्यक्ष को सहारा देने वाली व्यवस्था से पूरी तरह से कट कर की जा सकती है, न कि इस व्यवस्था के प्रभाव में, इसे मानते या अनुमोदित करते हुए । सत्यों को उद्घाटित करने में इस प्रकार के एक जरूरी विच्छेदन (rupture) को ही उन्होंने 'संयोग' (the event) कहा है । प्रामाणिक दर्शनशास्त्र संरचनात्मक तथ्यों (सांस्कृतिक, भाषाई, संघटक तत्वों) से नहीं शुरू होता है, बल्कि वह अनोखे ढंग से, जैसे किसी चमत्कार के तौर पर जो घटित होता है उसमें, अर्थात पूरी तरह से अनुमान से परे सामने आये परिघटना के अवशेष में निहित होता है ।

इसी पृष्ठभूमि में बाद्यू साधकों, जांचकर्ताओं की भूमिका को सत्य के संयोग के प्रति सक्रिय निष्ठावान कर्मी की भूमिका बताते हैं । उनके शब्दों में, इस जांच में लगे साधक सत्य के मुजाहिद, सेनानी होते हैं ।

बाद्यू जब किसी शोधार्थी या जांचकर्ता को मुजाहिद या सेनानी कहते हैं तो आज के काल में बहुतों को इससे हैरानी हो सकती है । वे खुद भी कहते हैं कि मैंने आज के एक ऐसे समय में दार्शनिक स्तर पर मुजाहिद की धारणा की आधारशिला रखी है जब सबने एक प्रकार से यह मान रखा है कि इस प्रकार की कोई भी मुजाहिदीन वाली क्रियाशीलता खुद में ही एक अर्वाचीन, आदिम किस्म की चीज है । बाद्यू कहते हैं कि सत्य का सेनानी पूरी मानवता की मुक्ति में लगा हुआ सिर्फ राजनीतिक सेनानी ही नहीं होता है । वह एक कलाकार-सर्जक भी हो सकता है, वैज्ञानिक भी हो सकता है जो नवीन सैद्धान्तिक क्षेत्रों का उन्मोचन करता है, या एक प्रेमी भी हो सकता है जिसकी तो अपनी दुनिया ही जादूई होती है, न जाने कितने रंगों से भरी हुई ।1 गैब्रियल गार्सिया मार्केस की एक पात्र एरेंदरा की तरह, जिसके हाथ का आईना कभी नीला हो जाता है, कभी लाल हो जाता है तो कभी पीला । एरिंदरा की दादी उससे कहती है, “तुम्हें प्रेम हो गया है । प्रेम में पड़ने पर ही ऐसा होता है ।” तो, इसमें मूल बात है एक विच्छेदन, नया संयोग, परिवर्तन का एक बिंदु, एक चमत्कार ।

इसी प्रकार के एक तात्विक सूत्र को पकड़ कर अब हम आते हैं आज के साहित्य के परिदृश्य पर, इसके अपने जगत पर । इस जगत के नाम पर हमें जो दिखाई देता हैं, क्या साहित्य के सत्य की जांच के लिये सिर्फ इस प्रत्यक्ष पर ही भरोसा किया जा सकता है ? यह जगत आखिर बनता कैसे हैं ? अंबर्तो इको जब साहित्य की तरह की अशरीरी शक्तियों, non-material forces पर चर्चा करते हैं, जो अशरीरी होने पर भी समाज में वजनदार मानी जाती है, तो कहते हैं कि मनुष्यता ने पाठों के इस संजाल (network) को जो पैदा किया है या करती चली जा रही है, इसकी अपने में कोई व्यवहारिक उपयोगिता नहीं होती है । यह कोई तथ्यों की पंजिका, कानून की व्याख्याओं और वैज्ञानिक सूत्रों, मीटिंग की मिनिट्स या ट्रेनों की समय-सारिणी की तरह की उपयोगी चीज नहीं है । साहित्य का सृजन शुद्ध रूप से मनुष्यता के अपने उपभोग के लिये, उसके आनंद, उसके आत्मिक उत्थान, ज्ञान के विस्तार या महज समय बिताने के लिये ही किया जाता है । स्कूलों, कालेजों या विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को अगर अलग रख दिया जाए तो इसे पढ़ने की किसी की कोई मजबूरी नहीं होती है।2

इस प्रकार, साहित्य का अपना सत्य तो यह है कि उसके निर्माण में किसी प्रकार की उपयोगिता का कोई दबाव नहीं होता है । यह मूलतः एक शुद्ध, पूर्ण स्वातंत्र्य का क्षेत्र है । लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अपनी आंखों के सामने इस पूर्ण स्वाधीन स्रोतों से निर्मित पाठों के संजाल को, उसके नेटवर्क को बाकायदा एक नियमबद्ध जगत की तरह काम करते हुए देखते हैं । इसके अपने शास्त्र रचे जाते हैं, इसे शील-अश्लील की नाना बंदिशों से बांधा जाता है । इससे भी ज्यादा, जो बात डरावनी सी लगती है, इसकी मूलभूत स्वातंत्र्य की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत, वह यह कि न सिर्फ स्कूलों-कालेजों में इनके पठन-पाठन के लिये, बल्कि इसके प्रचार-प्रसार के लिये सरकारी—गैर-सरकारी संस्थाओं के अरबों-खरबों रुपये इस क्षेत्र में बाकायदा निवेश किये जाते हैं । इसे एक जिंस की तरह संगठित तौर पर भुनाया जाता है । और जैसे जीवन और समाज की दूसरी जरूरतों के लिये बेशुमार हिंसा और छद्म उपायों से बाजार अर्थ-व्यवस्था, योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था, संसदीय प्रणाली आदि-आदि के तंत्र विकसित किये जाते हैं, वैसे ही एक खास प्रक्रिया से स्वतंत्र पाठों के संजाल के इस क्षेत्र के भी अपने एक पूरे तंत्र का इस पर बलात् आरोपण होता है । और, हम देखते हैं कि हमारे सामने बुद्धि के व्यापारियों, हेगेल की शब्दावली में कला-विद्वता (art scholarship) से लेकर कला-प्रशासकों (art administrators) की भी एक फौज तैयार हो जाती है जिनके बारे में हेगेल कहते हैं कि यह कला की दुनिया के लिये कितनी ही जरूरी क्यों न हो, इसे ही किसी कला कृति के प्रति मानव मस्तिष्क की ग्राह्यता का एक मात्र या सर्वोच्च तत्व कभी नहीं स्वीकारा जा सकता है । (it ought not to be taken for the sole or supreme element in relation which mind adopts towards a work of art)3

कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य जगत का जो अपना सत्य है, इसके स्वातंत्र्य का मूलभूत सत्य, वह इस जगत के प्रत्यक्ष सच से बिल्कुल बाहर है, जिसे एक प्रकार से निःस्वार्थ भाव और “शुद्ध रूप से मनुष्यता के अपने उपभोग के लिये, उसके आनंद, उसके आत्मिक उत्थान, ज्ञान के विस्तार या सिर्फ समय बिताने के लिये” किया जाने वाला एक स्वाधीन कर्म माना जाता है ।

लेकिन हम सब जानते हैं, पिछले लगभग तीन-चार दशकों से, मैं सिर्फ एक उदाहरण के तौर पर ही इस बात की चर्चा कर रहा हूं, हिंदी साहित्य की दुनिया में अकेले एक शख्स अशोक वाजपेयी ने राज्य सरकार, केंद्र सरकार, और दूसरे कुछ फाउंडेशनों के माध्यम से इस जगत में अपनी मर्जी के अनुसार हजारों करोड़ रुपये खर्च किये हैं या कराये हैं । हमारे इस कथित अथवा परिचित साहित्य जगत के लोगों पर, अशोक जी के साहित्य नगर के नागरिकों पर नजर डाल लीजिए, आपको उनके द्वारा नाना प्रकार से उपकृत लोगों का एक पूरा हुजूम मिल जायेगा । अशोक वाजपेयी एक अति परिचित नाम है, इसीलिये मैंने उनका यहां उल्लेख किया है । उनकी तरह ही और भी कई लोग या लोगों के समूह यही काम कर रहे हैं, संभवतः और भी विकराल रूप में, साहित्यकार के रूप में या साहित्य प्रशासक या दूसरी किसी हैसियत से, शैक्षणिक जगत के भाषाई विभागों और यहां तक कि साहित्य आंदोलनों के नेताओं के रूप में भी । और इन सबके प्रयत्नों से साहित्य कहे जाने वाले पाठ के नाम पर आम तौर पर जो कुछ निर्मित और प्रचारित होता है, वास्तव में देखेंगे तो उसी से हमारा आज का यह कथित साहित्य जगत बना हुआ है । लेकिन अगर इसमें हम साहित्य का सत्य खोजना चाहते हैं, तो वह कभी आपको इस ताने-बाने पर ऊपर-ऊपर से निगाह डालने पर नहीं मिलेगा । जैसे समाज व्यवस्थाओं के नाना रूपों का सत्य उनके तंत्र के स्वरूपों से कभी नहीं मिल सकता है, वह इसके बाहर है, स्वतंत्र है, और इन सबसे उसका क्षुद्रांश ही प्रकाशित होता है, वही स्थिति साहित्य के जगत की भी है ।

इसीलिये यदि हमें इस जगत के सत्य की कोई पड़ताल करनी है तो इसकी व्यवस्था के पूरे ताने-बाने को चीर कर उसमें झांकना होगा, इस व्यवस्था के स्वरूप को मुग्ध भाव से निहारते हुए उसके रूप के बखान से कुछ नहीं होगा, जैसा कि आम तौर पर तमाम प्रकार के सार-संग्रहवादी 'कला विद्वान' किया करते हैं । वे साहित्य के सत्य के नहीं, इसके तंत्र के अंग होते हैं । इस जगत के ताने-बाने को फाड़ देने पर ही वास्तव में इस जगत के सत्य की पहचान होती है, इसके छद्म पर से पर्दा उठता है ।

इसे ही अभिनवगुप्त के लेखन में स्फोट की, मार्क्स में क्रांति की और आज के दर्शनशास्त्रीय विमर्शों में संयोग (event) की संज्ञा दी जाती है ।

आइये, हम विषय को थोड़ा और भी ठोस रूप में एक और कोण से देखते हैं । हिंदी साहित्य की दुनिया में अभी दुनिया भर की पत्रिकाएं निकल रही है । आम तौर पर इनका चरित्र इतना स्थिर, जाना-पहचाना और इस कदर जड़ हो चुका है कि इनमें किसी को सामान्य तौर पर कोई आकर्षण नहीं नजर आता है । इनसे कोई जरा सा भी चमत्कृत नहीं होता है । लेखक खुद की रचना ही पढ़ कर संतुष्ट हो लेते हैं, अन्य चीजों के प्रति उनमें कोई आग्रह नहीं होता है । चारो ओर जैसे एक अजीब प्रकार की मुर्दानगी छाई हुई है । छपाई वगैरह की सुविधाओं में वृद्धि के कारण बहुत सी पत्रिकाएं तो अतीत की मुर्दा सामग्री की चमकती हुई कब्र की तरह की लगती है । आम तौर पर लेखकों की शताब्दियों आदि के मौके पर जो विशेषांक निकाले जाते हैं, वे इसके क्लासिक उदाहरण होते हैं ।
कहने का मतलब है कि इतनी सारी पत्रिकाएं, सेमिनार, सम्मेलन भी पूरे हिंदी साहित्य जगत में गहरे तक पसरे हुए सन्नाटे में जरा भी खलल पैदा करते नहीं दिखाई देते हैं, उल्टे इसे किसी न किसी रूप में गाढ़ा करने की भूमिका ही अदा कर रहे हैं ।

ऐसे एक भयानक मुर्दानगी से भरे ऊबाऊ समय में, जो चीज इसमें एक दरार पैदा करती है, इसके ताने-बाने को लगभग चीरती हुई दिखाई देती है, एक प्रकार के चमत्कार या स्फोट की शक्ल में हमारे सामने आती है, वह क्या और कहां है ? जो इस मुर्दा जगत के ठंडे शरीर में थोड़ी गर्मी पैदा करती है, हमारे सोच को उत्प्रेरित करती है, हमारे अंतर को हर्षित करती है, हमें अपनी ओर खींचती है, जो सिर्फ छपे हुए शब्दों की सजावट भर नहीं है, वह कहां है ? जबकि वही तो साहित्य के अपने स्वातंत्र्य का प्रकाश है । जब हम इस सवाल के साथ इस जगत पर नजर डालते हैं तो अनायास ही हमारी नजर कुछ उपन्यासों, कविताओं, कहानियों की तरह ही इस जगत के अपने एक छोटे से ग्रह या सितारे, कोलकाता से घटिया कागज पर बिना किसी खास साज-सज्जा से निकलने वाली पत्रिका 'लहक' पर भी जाता है । हो सकता है, यह इस जगत के अपने अनेक तारों की तरह का एक ऐसा तारा ही हो जो एक चमक दिखा कर टूट कर कहीं अंतरीक्ष में विलीन हो जायेगा । लेकिन यह अभी जो भूमिका अदा कर रही है, वह कुछ-कुछ बाद्यू के 'सत्य के मुजाहिदीन' की तरह की ही भूमिका है । एक झक्की संपादक, बस अपनी मर्जी को ही प्रमुख मान कर एक पत्रिका से अजीब प्रकार से चारों ओर अंधा-धुंध बमबारी कर रहा है, करा रहा है । अगर इसमें छपाई और सज्जा का कोई आकर्षण नहीं है तो इसे किसी इतर संस्था आदि का अन्य प्रकार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है जिससे इसे भी किसी व्यवस्था के खाते में खतियाया जा सके । हम देखते हैं कि इसने अभी साहित्य की इंद्रपुरी के कई इंद्रासनों को हिला रखा है । कुछ सही कुछ गलत, कुछ तार्किक और कुछ अतार्किक, कुछ वामपंथी तो कुछ दक्षिणपंथी का भान देती हुई इसकी बेलौस बेबाक बातें, एक चर्चा का सबब बन जाते हैं । इसमें छप रही चमत्कृत कर देने वाली अनपेक्षित बातों से इस जगत के तंत्र के सिर्फ महाप्रभुओं की नहीं, इस जगत में विचरण करने वाले कई तत्वों की रातों की नींद उड़ने लगती है ।

साहित्य चर्चा में यह जो एक खास प्रकार की लड़ाकू, युयुत्सु भूमिका है, मेरे अनुसार, यह अपने आप में कोई आदर्श-विहीन, दिशाहीन भूमिका नहीं है । जब भी किसी चीज पर सवाल उठाये जाते हैं, उसके सच को निरूपित करने के लिये कुछ जानना चाहते हैं, उसके पहले ही प्रश्नकर्ता यह तय कर लेता है कि वह क्या जानना चाहता है । इस प्रकार हर जांच की अपनी एक विचारधारात्मक मांग होती है और उस जांच की ओर बढ़ने के पहले ही उसके बारे में एक अवधारणा काम कर रही होती है । इसके साथ ही, जो एक बड़ी बात जाहिर होती है वह यह कि इस जगत का सत्य एक नहीं है, अनेक हैं, यह वैविध्य का समुच्चय है ; ब्रह्मांड के अनेक ग्रहों-नक्षत्रों का समुच्चय, जिन सबके अपने-अपने और भी उपग्रह हैं । इन असंख्य प्रकार के संसारों के समुच्चय में हर दुनिया के पास अपना एक सत्य गढ़ने की क्षमता होती है । इसकी विविधता को ऐसे ही, किसी एक आदर्श की बात से खारिज नहीं किया जा सकता है ।

लेकिन जब साधक, शोधकर्ता के पास कोई सवाल नहीं होते हैं, तभी यह तत्काल समझ लेने की जरूरत है कि वह इस जगत में अपने लिये सिर्फ सुख की तलाश में लगे हुए महज एक पशु की तरह है । उसके लिये साहित्य की हैसियत सिर्फ छपे हुए शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, उसके लिये यह एक ऐसा उत्तर-आधुनिक किस्म का विश्वास है जिसमें मनुष्यों के संसार को महज शरीरों और भाषाओं का संसार मान लिया जाता है । उसमें इसके सत्य का कोई स्थान नहीं होता है । अगर कोई इसके सत्य की बात भी करता है तो कुछ भारी भरकम खोखले शब्दों, अलंकारों की जुगाली भर करता दिखाई देता है । क्योंकि, सत्य की थाह पाने के लिये प्रत्यक्ष और स्थापित व्यवस्था के ताने-बाने को जिस प्रकार चीरने की जरूरत है, उस जुझारू तेवर का उसमें सर्वथा अभाव होता है ।

इस टिप्पणी की तैयारी के सिलसिले में चार दिन पहले 'अनहद' पत्रिका के संपादक संतोष चतुर्वेदी से बात हो रही थी । एक संपादक के नाते मैं उनसे पूछ रहा था कि आज कौन से लेखक है जिनका लिखा आपको आकर्षित करता है, और वे क्या लिख रहे हैं ? संतोष जी ने बहुत साफ शब्दों में कहा कि सर, आजकल अधिकांश लेखक अपने वाहियात से वाहियात लेखन को सर्वश्रेष्ठ माने हुए प्रायः आत्ममुग्ध रहते हैं । वे न दूसरा कुछ पढ़ते हैं और न ही कुछ सीखना चाहते हैं । उनकी बातों ने हमारी धारणा को पुष्ट किया । सचमुच एक अजीब से आदर्शशून्य विश्वास ने आज के लेखक के मन में घर कर लिया है जिसमें यह संसार सिर्फ मनुष्यों के शरीर अर्थात उनकी काया और भाषा का समुच्चय है । सबकी स्वाभाविकता उनकी निजी लालसाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।

ऐसे में आज जरूरत है साहित्य के मुजाहिद वाले एक निश्चयमूलक आदर्श के, स्वातंत्र्य के शिव तत्व को प्राप्त करने की । इस प्रकाश की चेतना शक्ति में किसी इतरस्वाभावानुप्रवेश के योग से कोई लाभ नहीं है । कुल मिला कर मूल बात है इस जगत के प्रत्यक्ष को चीर कर देखने का युयुत्सु भाव । हाइडेगर का एक प्रसिद्ध कथन है कि आप विषय के एकदम तल में प्रवेश कीजिए, आपको विषय की मृत्यु के दर्शन हो जायेंगे । इस जगत की मुर्दानगी को जानने के लिये ही इसके तल में जाना होगा । सन् 1980 के दशक के जमाने में इसी भाव ने हमारी 'कलम' की तरह की छोटी सी पत्रिका ने सोये हुए साहित्य जगत में हलचल पैदा करने में एक अहम भूमिका अदा की थी । आज इसे और गहराई से समझने की जरूरत है ।

अंत में, साहित्य जिंदा रहता है प्रतिवाद में, विद्रोह में, वर्जना-रहित प्रेम में, मनुष्य की अबाध स्वतंत्रता में । साहित्यकार की स्वतंत्रता पर किसी भी किस्म का अनावश्यक दबाव साहित्य की अपनी सत्ता के मूल पर हमले से कम नहीं है, इसे इस क्षेत्र से जुड़े हर किसी को समझने की जरूरत है । यही किसी साहित्य आंदोलन की प्रभावोत्पादकता का भी मूलभूत निर्णायक तत्व है । कल (16 मार्च 2018) के 'टेलिग्राफ' में अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का एक लेख है — The importance of dissatisfaction । इसमें उन्होंने अकादमिक दुनिया के जिस संदर्भ में व्यवस्था से हट कर एक प्रकार की ‘epistemic exteriorty’ तत्वमीमांसक दूरी की जो बात की है, लेखन की दुनिया का तो सत्य ही उस में निहित है ।

1. Alain Badiou, Logics of Worlds, Bloomsbury, 2015, page – 1-9
2. Umberto Eco, On Literature, Vintage Books, page-1
3. Georg Wilhelm Friedrich Hegel, Introductory Lectures on Aesthetics, Penguin, p. 39)   

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

रामचंद्र गुहा और लेनिन

- अरुण माहेश्वरी


आज के 'टेलिग्राफ' में रामचंद्र गुहा का एक लेख है — The price of Dogma (जड़सूत्र की कीमत) । इस लेख में त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति ढहाये जाने के संदर्भ में उन्होंने भारत के कम्युनिस्टों से पूछा है — लेनिन क्यों ? क्यों नहीं भगत सिंह या कोई अन्य भारतीय ? अपने इस सवाल को ही मथते हुए जब उन्होंने अपनी टिप्पणी का लगभग एक चौथाई हिस्सा खपा दिया, तब आखिर में रवीन्द्रनाथ ने उनकी आंखें खोली, और उनके जरिये वे जान पाये कि दुनिया के किसी भी कोने से ज्ञान की रोशनी क्यों न मिले, उसका आदर किया जाना चाहिए । (We should glory the illumination of lamp lit any where in the world.)

लेकिन फिर भी गुहा के लिये 'लेनिन' की फांस बनी रह गई । वह तो 'स्वेच्छचारी तानाशाह था, विरोधियों का दमन करता था, उनसे बिना किसी मुरव्वत के बहस करता था' आदि, आदि । उनका मूल अभियोग था कि लेनिन जनतांत्रिक नहीं थे, उनमें जनतंत्र के शील की कमी थी ।

हमें लगता है कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने शायद लेनिन के बारे में इनमें से एक भी बात नहीं कही होती यदि वे दुनिया में आज के कथित जनतंत्र और उसके शील की गंगोत्री मानी जाने वाली फ्रांसीसी क्रांति और उसके संदेश को सारी दुनिया में ले जाने वाले नेपोलियन बोनापार्ट के इतिहास को एक क्षण के लिये ही क्यों न हो, याद कर लिया होता ! अगर उन्होंने दया, परोपकार और संवेदनशीलता के प्रतीक माने जाने वाले ईसा मसीह के मत को दुनिया में फैलाने वाले सेंट पॉल्स और यूरोप के धर्म युद्धों के इतिहास पर, या अमन और सौहार्द्र के धर्म इस्लाम के साम्राज्य को कायम करने के मोहम्मद साहब के अभियानों, या भारत में शैवों और वैष्णवों तथा बौद्धों और ब्राह्मणों के बीच के संघर्षों की तीव्रताओं को याद रखा होता ! लेनिन ने दुनिया में मेहनतकशों के पहले राज्य की स्थापना की थी । लेनिन की भूमिका को समझने के पहले क्या जरूरी नहीं है इस क्रांति के महत्व को समझने की ?

इस पूरे मामले में हम सिर्फ यही कहेंगे कि हमारे इन इतिहासकार महोदय को अभी इतिहास के उन परिवर्तनकारी क्षणों को देखने-समझने की समझ हासिल करना बाकी है जब स्थापित व्यवस्थाओं के ताने-बाने को पूरी तीव्रता से चीर कर ही जीवन का नया सत्य अपने को स्थापित करता है । जनतंत्र हो या बाजार-आधारित अर्थ-व्यवस्था, या कोई और तंत्र — इनमें से कुछ भी पीपल के पेड़ के नीचे रात के अंधेरे की गहन शांति में जमीन से उग आये महादेव नहीं हैं, सुबह-सुबह जिनकी पूजा में शहर के सारे नर-नारी लाइन लगा कर पुष्पों और गंगा जल के साथ जुट जाते हैं । इतिहास बनाने में बड़ी ताकत और हिम्मत लगती है और लेनिन दुनिया के मजदूर वर्ग की उसी हिम्मत के सिद्धांतकार और नेतृत्वकारी व्यक्ति थे ।

अंत में हम इस बात के लिये जरूर गुहा के प्रति शुक्रगुजार होंगे कि उन्होंने संघी गुंडों की लेनिन की मूर्ति गिराने की हरकत पर उन्हें शाबासी नहीं दी, बल्कि उसकी निंदा ही की है ।

यहां हम रामचंद्र गुहा के लेख का लिंक दे रहे हैं —
https://www.telegraphindia.com/opinion/the-price-of-dogma-216170

रविवार, 11 मार्च 2018

बांग्ला नाट्य पत्रिकाओं के अविस्मरणीय संपादक नृपेन्द्र साहा नहीं रहे



अभी-अभी ‘आनन्द बाजार पत्रिका’ के स्तंभ ‘कोलकातार कड़चा’ (कलकत्ता का रोज़नामचा) से पता चला कि नृपेन्द्र साहा हमारे बीच नहीं रहे । बचपन से लेकर लगभग पचास साल की उम्र तक हमने जिस व्यक्ति को अपने परिवार के एक अभिन्न सदस्य के रूप में देखा था, आज वह इतनी ख़ामोशी से हमारे बीच से चला गया, सोच कर मन बेहद भारी है ।

हमारे पिता के अभिन्न मित्र नृपेन्द्र साहा बांग्ला की नाट्य पत्रकारिता का एक ऐसा नाम था, जिनके अवदान को बांग्ला नाट्य जगत शायद कभी भूल नहीं सकता ।
वे हमारे पिता के संपर्क में संभवत: साठ के दशक में आए थे जब पिता बांग्ला की एक नाट्य मंडली ‘गंधर्व’ से जुड़े । श्यामल बनर्जी और देबकुमार भट्टाचार्य के स्तर के जाने-माने नाट्य निदेशकों की इस मंडली से पिता का कैसे संपर्क हुआ, यह हम नहीं जानते । लेकिन उसके साथ ही नृपेन्द्र साहा के साथ वे घनिष्ठ रूप में जुड़ गये जो गंधर्व नाट्य मंडली की पत्रिका ‘गंधर्व’ के संपादक थे । कोलकाता के ‘मु्क्तांगन नाट्य मंच’ पर इस मंडली के नाटकों का प्रदर्शन हुआ करता था जिसकी स्मृतियाँ हमारे अंदर हमेशा से बनी हुई हैं । आज तो उस मुक्तांगन रंगमंच का ही शायद अस्तित्व नहीं बचा है ।

बहरहाल, नृपेन्द्र साहा कोलकाता के निकटवर्ती कल्याणी शहर में अपनी एक नर्सरी भी चलाते थे और फूलों के प्रति उनके अगाध प्रेम ने कैसे उनके लेखन, खास तौर पर संपादन और पत्रिका के प्रस्तुतीकरण को सँवार कर एक नई ऊँचाई दी थी, इसे उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं को देख चुका हर व्यक्ति स्वीकारता रहा है ।

‘गंधर्व’ पत्रिका के बाद 1978 से वे लगभग तीस साल तक ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका का संपादन करते रहे जिसमें हमारे पिता भी उनके संपादकीय सहयोगी थे । बांग्ला की इस नाट्य पत्रिका ने बांग्ला के नाट्य आंदोलन में निश्चित तौर पर एक इतिहास की रचना की थी । हर शनिवार को इस पत्रिका के संपादक मंडल की बैठक हमारे घर पर ही हुआ करती थी । परवर्ती दिनों में कोलकाता के राजाबाजार में इसका अपना दफ्तर हो जाने पर ये बैठकें वहीं होने लगी थी । आज इससे जुड़ा शायद कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं है और पत्रिका बंद हो चुकी है । लेकिन तक़रीबन पैंतीस सालों तक यह पत्रिका बिना नागा हर तीन महीनों पर बाक़ायदा निकलती रही ।

‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका से पाँच साल पहले हट कर नृपेन्द्र साहा ने बांग्ला अकादमी की पत्रिका का दायित्व सम्हाला था, लेकिन तभी से पिता से उनका संपर्क लगभग टूट सा गया था । बांग्ला थियेटर की शायद एक भी ऐसी बड़ी हस्ती नहीं होगी, उत्पल दत्त, शंभु मित्रा से लेकर विभाष चक्रवर्ती, अरुण मुखर्जी तक, जो उनके संपादन में प्रकाशित न हुए हो । मृ्त्यु के वक्त उनकी उम्र 81 साल थी ।

आज एक अख़बार के एक स्तंभ के जरिये उनकी मृत्यु का समाचार सुन कर हम स्तब्ध है । यहाँ उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए हम उनकी पत्नी के प्रति अपनी गहरी संवेदना प्रेषित करते हैं ।


शुक्रवार, 9 मार्च 2018

यह कैसा जड़भरत्व !


अरुण माहेश्वरी

सीपीआई(एम) के सर्वशक्तिमान प्रकाश करात के 'द सिटिजन' पत्रिका (31 दिसंबर 2017) में सीमा मुस्तफा को दिये गये एक साक्षात्कार के अंशों की हाल में फिर से एक बार विभिन्न माध्यमों पर रिपोर्टिंग की जा रही है । इस साक्षात्कार में उन्होंने उन लोगों के प्रति थोड़ी सी दया दिखाई थी जो भारत में आरएसएस-मोदी के बारे में मूलतः फासिस्ट होने की धारणा बनाये हुए हैं और इनके खिलाफ व्यापकतम संयुक्त मोर्चा के गठन को आज की राजनीति की प्राथमिक जरूरत मानते हैं । उन्होंने फरमाया था कि “हमारी नीति समदुरत्व की नीति नहीं है, भाजपा कांग्रेस की तुलना में राजनीतिक लिहाज से बहुत ज्यादा खतरनाक है ।”(Our is not a policy of Equidistance, BJP is politically far more dangerous than Congress) । इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि चुनावी राजनीति ही सबकुछ नहीं है । “लोगों की नजर सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर लगी हुई है, लेकिन भाजपा से लड़ने और उसे हराने के लिये जरूरी है कि आप जनता को गोलबंद करें ।“ (People tend to only look at the Lok Sabha elections in 2019, but in order to fight and defeat the BJP you need to mobilise the people.)

इसके पहले तक सीपीआई(एम) की 15वीं कांग्रेस की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन के 'अनुलंघनीय' प्रस्ताव का हवाला दिया जाता था जिसमें यह तय कर दिया गया था कि भाजपा और कांग्रेस दोनों से कोई समझौता नहीं हो सकता है । इसमें वे उस अतीत की बाधा से थोड़ा मुक्त हुए लगे तो अपने कथन के दूसरे वाक्य में ही उन्होंने अब वर्तमान के जरूरी कार्य से हट कर सिर छिपाने के लिये भविष्य की, 2019 के बाद की स्थिति की एक दूसरी काल्पनिक जगह की तलाश शुरू कर दी । '2019 के चुनाव पर ही केंद्रित करना काफी नहीं है' । अपने प्रत्यक्ष यथार्थ पर से ध्यान हटाने का लिये कल तक अतीत के एक फरमान का सहारा लिया जा रहा था, अब उसी काम के लिये शायद भविष्य की अपनी किसी मनोगत योजना के कल्पना लोक का !

हमें लगता है क्यों न हम अपने इन नेताओं का ध्यान माओ त्से तुंग के एक सबसे लोकप्रिय लेख 'व्यवहार के बारे में (ज्ञान और व्यवहार : जानने और करने के आपसी संबंध के बारे में)' की ओर दिलाए ।

“अगर मनुष्य अपने काम में सफल होना चाहता है अर्थात प्रत्याशित फल पाना चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह अपने विचार को वस्तुगत जगत के नियमों अनुरूप बनाए ; यदि उसके विचार उन नियमों के अनुरूप नहीं बनेंगे तो वह अपने व्यवहार में असफल हो जायेगा ।”

“सभी प्रकार का सच्चा ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव से ही प्राप्त होता है।”

“चीन में कहावत है — बाघ की मांद में घुसे बिना बाघ के बच्चें कैसे मिल सकते हैं ।”
(माओ त्से तुंग, चुनी हुई कृतियां, विचार प्रकाशन, खंड-1, पृष्ठ-351-368)

—ये उद्धृतियां उसी लेख से ली गई है । विज्ञान का मूल नियम है कि यथार्थ के, अर्थात जो घटित हो गया है उसीके निरीक्षण-परीक्षण से सत्य की परख की जाए और उसके आधार पर आगे बढ़ा जाए । दुनिया में आज तक कोई भी भविष्य के घटना क्रम के स्वरूप को अपनी ओर से अंतिम तौर पर निर्धारित नहीं कर सका है ।
इसीलिये सामान्य लोग और आदर्शवादी विचारक जीवन को ईश्वर की लीला कहते हैं । परिस्थितियों का संयोग कब किस प्रकार का तैयार होता है, उस पर तमाम अनुमानों के बावजूद विफलता की हमेशा गुंजाईश होती है । और विचारधारा और ज्ञान घटित के आधार पर पैदा होते हैं न कि विचारधारा और ज्ञान से जीवन का यथार्थ निर्धारित होता है । इसीलिये विचारधारा में यथार्थ के प्रति एक प्रकार की अंधता का तत्व जरूर होता है ।

माओ कहते हैं कि “यदि कोई किसी चीज को जानना चाहता है तो उसके सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है कि वह उस चीज के संपर्क में आए, यानी उसके वातावरण में रहे । सामंती समाज में पूंजीवादी समाज के नियम पहले से ही जान लेना असंभव था, क्योंकि पूंजीवाद का अभी उदय नहीं हुआ था और उससे संबंधित व्यवहार का भी अभाव था । मार्क्सवाद केवल पूंजीवादी समाज की ही उपज हो सकता है । पूंजीवाद के स्वच्छंद प्रतिद्वंद्विता वाले युग में मार्क्स पहले से साम्राज्यवादी युग की विशेषताओं को नहीं जान सकते थे ।”(वही, पृः358)

गौर करने की बात यह है कि सीपीआई(एम) के बहुमतवादी गुट ने हमेशा से तेजी से बदलते प्रत्यक्ष यथार्थ की अवहेलना करके विचारधारा को, पार्टी कांग्रेस के प्रस्ताव को एक प्रकार की ईश्वरीय सत्ता प्रदान करके चलने का हठपूर्ण रवैया अपना रखा है । जब से सीपीआई(एम) के सर्वोच्च नेतृत्व में ऐसे एक बहुमत की जकड़ बनी, तभी से वह भविष्य की किसी काल्पनिक परिणति के बहाने या अतीत के किसी प्रस्ताव की बाधा के नाम पर वर्तमान के सही विश्लेषण के आधार पर फौरी अमल के मामले में पूरी पार्टी को भटकाता रहा है ।

1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को ही ले । उन्होंने उस प्रस्ताव में भविष्य में एक भारी अघटन (catastrophe) के खतरे की घंटी बजाई थी । तब केंद्रीय कमेटी के फैसले के समर्थक सिद्धांतकार प्रो. एजाज अहमद ने ईपीडब्लू में एक लंबे लेख में यहां तक लिखा था कि यदि ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को मान लिया गया होता तो वे आसमान में टूट कर गिरने वाले सितारे की तरह एक चमक भर दिखा कर हमेशा के लिये बुझ गये होते, हासिल कुछ नहीं होता ! इसी प्रकार तब कुछ ने चिले के राष्ट्रपति आइंदे के दुखद अंत को भी याद कर लिया था । बहुमतवादियों की मुख्य दलील यह थी कि संसद में संख्या की कमी की वजह से ही ज्योति बसु सिर्फ कांग्रेस के हाथ की कठपुतली बन कर रह जायेंगे । और, इस प्रकार उस महत्वपूर्ण राजनीतिक घड़ी में भविष्य की एक काल्पनिक डरावनी तस्वीर तैयार करके पार्टी को तब एक नई जमीनी चुनौती को स्वीकार करने से रोक दिया गया ।

इन बहुमतवादियों ने हूबहू यही रुख अपनाया 2004 में यूपीए-1 से परमाणु संधि के नाम पर समर्थन वापस लेते वक्त । उन्होंने उस समय पूरी ताकत लगाकर भविष्य का यही डरावना मंजर तैयार किया था कि अगर अमेरिका के साथ यह संधि हो जाती है तो भारत में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं रह जायेगा और भारत अमेरिकी साम्राज्यवाद का एक नक्षत्र बन जायेगा । आज हम सब जानते हैं कि वह परमाणविक संधि कूड़े के ढेर पर पड़ी हुई है, भारत और अमेरिका, दोनों जगह ही कोई उसकी सुध लेने वाला नहीं है !

और, अभी 2014 में मोदी के सत्ता पर आने के बाद जब एक नई संकटपूर्ण परिस्थिति आई है, जब प्रकाश करात पार्टी के महासचिव पद पर नहीं है, लेकिन केंद्रीय कमेटी में उनके बहुमतवादियों ने वस्तुतः उन्हें ही अब तक पार्टी के इंद्रासन पर बैठा रखा है, इन सबने नये महासचिव के लिये एक लक्ष्मण-रेखा बांध दी है — पिछली पार्टी कांग्रेस की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन की लक्ष्मण-रेखा । अर्थात, इस बार जीवन के विकासमान यथार्थ के प्रति अंधे बने रहने के लिये भविष्य के बारे में किसी डरावने सपने का विचारधारात्मक विभ्रम तैयार करने के बजाय अतीत की एक 'ईश्वरीय' आज्ञप्ति का सहारा लिया गया है ।

माओ लिखते हैं — “ज्ञान व्यवहार से शुरू होता है, और व्यवहार के जरिये प्राप्त होने वाले सैद्धांतिक ज्ञान को फिर व्यवहार के पास लौट आना होता है ।” हम भारत के दार्शनिक अभिनवगुप्त की शब्दावली में कहे तो “तत्र अध्यवसायात्मकं बुद्धनिष्ठमेव ज्ञानं प्रधानम् तदेव च अभ्यस्यमानं पौरुषमपि अज्ञानं निहन्ति, विकल्पसंविदभ्यासस्य अविकल्पनान्ततापर्यवसनात् । (अर्थात, व्यवहार से प्राप्त विवेक ही प्रमुख होता है । उसी अभ्यास के जरिये मनुष्य के अज्ञान को खत्म करता है । क्योंकि विविध विकल्पों पर काम करके ही एक निश्चित निर्विकल्प दिशा पकड़ी जाती है ।)

लेकिन हमारे यहां उल्टी ही गंगा बहाया जा रही है । यहां हम सिद्धांत से जीवन के व्यवहार को तय करते हैं, न कि व्यवहार से सिद्धांत को । इस प्रकार के सिद्धांतवीरों का विरोध करते हुए ही माओ को लिखना पड़ा था — “हम लोग वामपंथियों की लफ्फाजी का भी विरोध करते हैं । उनके विचार वस्तुगत प्रक्रिया के विकास की निश्चित मंजिल से आगे होते हैं । उनमें से कुछ लोग अपनी कल्पना की उड़ान को ही सत्य मान लेते हैं, जबकि कुछ दूसरे लोग एक ऐसे आदर्श को ही अमल में लाना चाहते हैं जिसे सिर्फ कल ही अमल में लाया जा सकता है । ये लोग बहुसंख्यक जनता के सामयिक व्यवहार और तात्कालिक वास्तविकता से अपने को अलग कर लेते हैं तथा अपनी कार्यवाही में अपने-आपको दुस्साहसवादी दिखलाते हैं ।

“आदर्शवाद और यांत्रिक भौतिकवाद, अवसरवाद और दुस्साहसवाद सभी की यह विशेषता होती है कि उनके यहां मनोगत और वस्तुजगत के बीच दरार होती है, ज्ञान और व्यवहार में अलगाव होता है ।” (वही, पृः367)
सीताराम येचुरी कहते हैं कि फासिस्ट रुझान के आरएसएस-मोदी के प्रतिरोध के लिये कांग्रेस सहित सभी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष लोगों की एकता कायम हो, तो इन बहुमतवादियों ने यह कह कर सबको एक नई वैचारिक उलझन में फंसा दिया कि आरएसएस-मोदी फासिस्ट ही नहीं है ! प्रकाश करात ने 'इंडियन एक्सप्रेस' में अपने लेख में एक नया आप्त वाक्य चलाया कि 'शत्रु से लड़ने के लिये शत्रु को सटीक रूप में जानो' और इस प्रकार अब तक के अतीत और वर्तमान के प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुभवों से शत्रु को जितना  जाना गया है, उस जानकारी को ही उलझन में डाल दिया ! फलतः सीपीएम के लोगों को पुनः व्यवहार से अलग करके एक नये वैचारिक उहा-पोह में घसीट लिया गया । जिस समय पूरा राजनीतिक परिदृश्य 2019 के लिये नये राजनीतिक समीकरणों से तैयार हो रहा है, तब सीपीएम इस वैचारिक उधेड़बुन में अपना समय गंवा रही है !

इसके अलावा 'नव-उदारवाद' का एक अचूक हथियार तो इनके पास पहले से ही है जिससे वे 'किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं कर सकते हैं' । क्या इससे वे प्रकारांतर से यह नहीं कह रहे हैं कि 'भारत के संसदीय लोकतंत्र से कोई निबाह नहीं हो सकता है' ? संसदीय जनतंत्र पूंजीवादी जनतंत्र का ही दूसरा नाम है और नव-उदारवाद आज की दुनिया के पूंजीवाद के अलावा और कुछ नहीं है । लेकिन 'नव-उदारवाद' फासीवाद नहीं है, जैसे पूंजीवादी जनतंत्र फासीवाद नहीं होता है । इस विषय पर हमने काफी विस्तार से अनेक मर्तबा लिखा है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस बार अब इन बहुमतवादियों ने सीपीआई(एम) को भारतीय राजनीति के वर्तमान परिदृश्य से ही, जो मुख्य रूप से चुनावी राजनीति के जरिये ही परिभाषित होता है, अलग कर देने की एक नई फिसलन की जमीन तैयार कर दी है । आज जब प्रकाश करात भाजपा को भारी खतरनाक बताते हुए उसके खिलाफ लड़ाई करने की बात को थोड़ी रियायत देते हैं, उसी सांस में चुनावी राजनीति की अहमियत को कमतर बताने की बात कह कर वे अपने पुराने, जड़भरत्व के रोग को ही जाहिर कर रहे हैं, जिससे वे फिर वर्तमान की चुनौतियों से कट कर एक काल्पनिक 'गोलबंदी' के लालीपाप से अपने लोगों को उलझाये रखना चाहते हैं ।

अभी त्रिपुरा की हार पर कुछ लोगों ने अजीबों-गरीब तरीके से सोशल मीडिया पर कर्नाटक के एक पत्रकार नवीन सुरिंजे की एक रिपोर्ट को फैलाना शुरू किया जिसमें कहा गया था कि त्रिपुरा में भले भाजपा चुनाव जीत गई हो, लेकिन नैतिक जीत सीपीएम की हुई है । भौतिक जीवन में पराजय को आत्मिक स्तर पर नैतिक विजय में तब्दील कर लेने के इस आत्मिक खेल के लिये चीन में एक खास पद चलन में है — आ क्यू वाद । यह चीन के महान कथाकार लू शुन की विश्व-प्रसिद्ध कहानी 'आ क्यू की सच्ची कहानी' से निकला हुआ पद है ।  इस कहानी में गाँव में हर किसी की लात खाने वाला और सबके लिये बेगार करने वाला आ क्यू लात मारने और गाली देने वाले को मन ही मन 'बुरा आदमी' बता कर जीवन में अपनी पराजय को अपने अंतर में नैतिक विजय में तब्दील कर लेने का अभ्यस्त था । ऐसी नैतिक या विचारधारात्मक विजय भौतिक पराजय का विकल्प तभी बनती है जब कोई वास्तविक जीवन में पूरी तरह से हार चुका होता हैं । यह हर कमज़ोर और पराजित का जीवन दर्शन होता है ।
 

शनिवार, 3 मार्च 2018

2019 के चुनाव के लिये कांग्रेस, अन्य धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक ताकतों और वामपंथ का एक चुनाव-पूर्व गठबंधन कायम हो


त्रिपुरा के चुनाव का सबक
—अरुण माहेश्वरी


त्रिपुरा में वाम मोर्चा की बुरी पराजय फिर एक बार वामपंथियों के अंदर कांग्रेस या दूसरी धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों के साथ संबंधों को लेकर अब तक चली आ रही पूरी बहस की निस्सारता को प्रमाणित करने के लिये काफी है ।

2011 में पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा पराजित हुआ था तृणमूल कांग्रेस के हाथों । तब कांग्रेस टीएमसी के साथ थी । 2016 में फिर वाममोर्चा टीएमसी से पराजित हुआ तब कांग्रेस वाम के साथ थी । लेकिन सीपीएम के बहुमतवादियों ने बिना किसी आधार के रटना शुरू कर दिया कि वाम पराजित हुआ है कांग्रेस के साथ समझौते की वजह से । इस बार त्रिपुरा में कांग्रेस के साथ वाममोर्चा का कोई संपर्क नहीं था, वहां भी वाम मोर्चा हार गया ! इससे कोई क्या अर्थ निकालेगा ?

खुद वामपंथियों का मानना है कि सारी दुनिया में अभी दक्षिणपंथ का उभार चल रहा है । इसे हाल में सीपीआई(एम) के दस्तावेज में भी दर्ज किया गया है । दक्षिणपंथ से तात्पर्य क्या है ? दक्षिणपंथ का अर्थ है धर्म, नस्ल, जाति आदि से जुड़ा संकीर्ण राष्ट्रवाद । यह जरूरी नहीं है कि दुनिया में सब जगह यह राष्ट्रवाद फासीवाद का रूप ले पाये । थोड़ा सा इतिहास के पन्नों को पलटिये, पता चलेगा कि 1930 के दशक में पूरे यूरोप में दक्षिणपंथ का उदय हुआ था, लेकिन सिर्फ जर्मनी और इटली में ही इसने फासीवाद का रूप लिया । इसीलिये दक्षिणपंथ के फासीवादी रूपांतरण की अपनी कुछ भी शर्तें क्यों न हो, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इसकी पूरी संभावना रहती है । भारत में आरएसएस की तरह के एक संगठन और उसके ताने-बाने के रहते हमारे यहां उसकी ये संभावनाएं सबसे प्रबल हैं । इसीलिये यहां सिर्फ 'दक्षिणपंथ' के उभार की चर्चा से परिस्थिति की गंभीरता को पूरी तरह से जाहिर नहीं किया जा सकता है । यह नितांत अपर्याप्त है ।

और जब हम यह कहते हैं कि अभी दुनिया में दक्षिणपंथ के उभार का दौर चल रहा है तब क्यों नहीं हम भारत में वामपंथ की पराजयों को भी इस सचाई से नहीं जोड़ पाते हैं ? इसी से जुड़ा हुआ है फासीवाद के आगमन का आयाम भी ।

पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को 34 साल के अपने पूरे शासन में लगातार 45 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिलते रहे, लेकिन लगभग 40 प्रतिशत मत वहां लगातार वाममोर्चा के विरोध में भी गिरते रहे । नई परिस्थिति में इन लगातार जारी विरोधी मतों में कुछ और मतों के योग से ही वामपंथ पराजित होगया । यही बात इस बार त्रिपुरा में भी देखने को मिली है । इससे जो एक बात साफ जाहिर होती है वह यह कि सत्ता में रहते हुए वामपंथियों को समाज के उन सभी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष लोगों के साथ जिस प्रकार का संवाद कायम करके उन्हें अपने करीब लाना चाहिए था, जो उनके खिलाफ मतदान करते रहे हैं, उसमें सत्ता पर शुरू के कुछ सालों के बाद ही वामपंथी विफल हुए हैं । जबकि इस संवाद को स्थापित करना और अपने जनाधार को लगातार विकसित करना वाम के अस्तित्व के बने रहने की प्राथमिक शर्त है ।

दुर्भाग्य की बात यह है कि आज के 'दक्षिणपंथ' के उभार के काल में भी खास तौर पर सीपीआई(एम) के अंदर ऐसे लोगों ने अपना बहुमत बना रखा है जो अपने से बाहर के जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष लोगों से एक निरंतर और ठोस संवाद बनाने की कार्यनीति के विरोधी है । इसके लिये वे दलील देते हैं नव-उदारवाद की, जो खुद में एक ऐसी वैश्विकता का परिप्रेक्ष्य है जिसके परे जाना भारत के संसदीय जनतांत्रिक चुनावों में किसी के लिये भी एक कल्पनातीत स्थिति है ।

बहरहाल, 2016 में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ एक चुनावी समझौता करके प्रदेश की गैर-वामपंथी जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष ताकतों के साथ संवाद कायम करने की एक ठोस प्रक्रिया शुरू हुई थी । लेकिन चूंकि 2016 के चुनावों में सीपीएम को कोई लाभ नहीं हुआ, इसीलिये यह मान लिया गया कि इस प्रकार के संपर्कों का कोई लाभ नहीं, बल्कि नुकसान ही है । यद्यपि 34 साल के अपने लंबे शासन के बाद इतनी जल्दी लोगों का विश्वास पा लेना किसी शेखचिल्ली के सपने से कम नहीं था । कांग्रेस के साथ समझौता उस दिशा में एक सही और छोटा सा कदम था । अब इसे भी वापस ले कर अपने खोल में घुसे रहने की बात की जा रही है !

इस पूरे संदर्भ में भारत में वामपंथ का तीसरा गढ़ माने जाने वाले केरल के बारे में कोई भी चर्चा व्यर्थ है । वहां पिछले अनेक सालों से हर पांच साल में वाम और कांग्रेस के बीच सत्ता की अदला-बदली होती रही है । दोनों पक्षों में एक-दो प्रतिशत मतों का एक स्थायी फर्क है । चुनाव के वक्त उसमें व्यवस्था-विरोधी एक-दो प्रतिशत के योग से सत्ता का परिवर्तन हो जाता है । लेकिन यह सच है कि केरल में भी वाम मोर्चा गैर-वामपंथी धर्म-निरपेक्ष लोगों से संवाद की किसी प्रक्रिया से अपने आधार का विस्तार करने में विफल रहा है । ऐसे में यह मुमकिन है कि कांग्रेस-समर्थक वाम-विरोधी जनमत कभी भी एकमुश्त भाजपा जैसी फासिस्ट पार्टी के पक्ष में चला जाए, जैसा कि त्रिपुरा में अभी हुआ है ।

यह देख कर सचमुच आश्चर्य होता है सीपीआई(एम) की तरह की पार्टी अपनी बैठकों में अपने सामाजिक विस्तार के रास्ते की बाधाओं से उभरने के उपायों पर खुद को केंद्रित करने के बजाय ऐसे-ऐसे विषयों पर केंद्रित रहती है जिसमें उसकी मुख्य चिंता अपनी तथाकथित शुद्धता की रक्षा की रहती है, अर्थात अपने संकुचन को, अपने खोल को ही और कठोर करने की कार्यनीति की । पिछले दिनों कोलकाता में इनकी केंद्रीय कमेटी ने तीन दिन सिर्फ एक बात पर चर्चा में लगा दिये कि आगामी अप्रैल महीने में पार्टी कांग्रेस में बहस के लिये जो प्रस्ताव पेश किया जायेगा, उसमें कांग्रेस दल के साथ संबंधों के विषय में साफ बातें लिखी होनी चाहिए । तीन दिन तक इस विषय में सिर गड़ाये रखने के बाद अंत में मतदान के जरिये यह तय किया गया कि कांग्रेस के साथ आगामी चुनावों में किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं होगा ! अर्थात, सीपीआई(एम) ने 'दक्षिणपंथ' के प्रसार के काल में बहुत सोच-समझ कर अपने को और संकुचित रखने, गैर-वामपंथियों से पूरी तरह से काट कर रखने का निर्णय लिया !

हम नहीं जानते कि त्रिपुरा से सीपीआई(एम) का प्रभावी नेतृत्व कोई सबक लेगा या नहीं । खुद माणिक सरकार पार्टी के अंदर इस मत के थे कि कांग्रेस के साथ सीपीएम का कोई संपर्क नहीं होना चाहिए । अब अपनी इस लाईन की उपलब्धियों को उन्होंने खुद देख लिया है । शुद्धता का अहंकार किसी को कहीं का नहीं छोड़ता है । जहां तक सीपीआई(एम) के बहुमतवादी नेतृत्व के लोगों का सवाल है, वे तो 1996 से भारत में वामपंथ के संकुचन-यज्ञ के प्रमुख होता रहे हैं । संभव है, उनके सिर पर इससे कोई सिकन नहीं आयेगी !

बहरहाल, हम तो यह समझते है कि यदि 2019 के चुनाव में मोदी-शाह के रोड रोलर को रोकना है तो इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है कि कांग्रेस, अन्य धर्म-निरपेक्ष और जनतांत्रिक ताकतों और वामपंथ के बीच किसी भी प्रकार से क्यों न हो, एक सुचिंतित कार्यक्रम के आधार पर बाकायदा एक चुनाव-पूर्व गठबंधन कायम किया जाए जो चुनाव के बाद भी भारत की राजनीति में एक नेतृत्वकारी भूमिका अदा कर सके । इस बात को अभी से समझा जाना चाहिए कि मोदी-आरएसएस का मसला सिर्फ एक चुनाव का मसला नहीं है । यह देश की पूरी राजनीतिक संरचना में आई एक बड़ी विकृति का मसला है । आगामी चुनाव में इन्हें परास्त करके समाज के अन्य सभी स्तरों पर भी इन्हें पराजित करने की एक लंबी लड़ाई लड़नी होगी ।