'आज का समय और साहित्य ' विषय पर 'लहक संगोष्ठी (17 मार्च 2018) में पेश किया गया आलेख :
अरुण माहेश्वरी
तीन दिन पहले ही, 14 मार्च को हमारे समय के एक प्रमुख गणितज्ञ और सैद्धांतिक विज्ञानवेत्ता स्टीफन हॉकिंग हमारे बीच नहीं रहे । अपने magnum opus, सर्वश्रेष्ठ कृति 'A brief history of times' में उन्होंने समय का इतिहास लिखने के उपक्रम का प्रारंभ इस ब्रह्मांड की संरचना के बारे में मनुष्य की अवधारणा के विकास के इतिहास से किया था । पृथ्वी को सपाट मानने के हजारों सालों के विश्वास के विपरीत सबसे पहले अरस्तु ने ई.पू.340 में अपनी पुस्तक 'On the heavens' में इस धरती को गोल बताया था, लेकिन कहा था कि सूर्य, चंद्रमा और बाकी सभी ग्रह-नक्षत्र इसके चारों ओर घूमते हैं । इसके दो सौ साल बाद टालेमी ने इस समझ का एक पूरा मॉडल भी तैयार किया । लेकिन अरस्तु के लगभग 2000 साल बाद, ईस्वी सन् 1514 में कॉपरनिकस ने पहले बार बताया कि पृथ्वी नहीं, इस ब्रह्मांड के केंद्र में सूर्य स्थित है और सभी ग्रह-नक्षत्र उसके चारो ओर घूमते हैं । इसके बाद टेलिस्कोप की नई तकनीकी शक्ति से सुसज्जित गैलेलियो आते हैं ईस्वी सन् 1609 में और वृहस्पति ग्रह के प्रेक्षण के जरिये वे पाते हैं कि सिर्फ पृथ्वी के नहीं, वृहस्पति के भी अपने कई छोटे-छोटे उपग्रह है और उसका अपना चंद्रमा भी है जो सब उसके चारो ओर घूम रहे हैं । अर्थात हर ब्रह्मांडीय पिंड को सिर्फ धरती के चारों ओर चक्कर लगाने की जरूरत नहीं है । सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने वाले नक्षत्र पिण्डों के चारों ओर भी कई अन्य पिंड चक्कर लगाते रहते हैं । न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत ने इस पूरी अवधारणा को एक गणितीय आधार पर स्थापित किया और कुल मिला कर हमारे ब्रह्मांड की संरचना के बारे में आज जो एक सर्वमान्य अवधारणा है उसमें इसे अनंत ग्रहों, नक्षत्रों के अपने-अपने स्वतंत्र संसारों का एक समुच्चय माना जाता है । ये सारे नक्षत्र अपने-अपने स्तर पर गतिशील होने पर भी इसलिये किसी एक केंद्रीय बिंदु पर गिरते नहीं है, क्योंकि वे एक अनंत आकाश में विचरण करते हैं । कल तक ब्रह्मांड संबंधी सभी आधिभौतिक चिंतन में जिसे infinite static universe अर्थात अनंत स्थैतिक ब्रह्मांड के रूप में जाना जाता था, अब उसे ही हम infinite expanding universe (अनंत विस्तारवान ब्रह्मांड) के रूप में ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं ।
इसके बावजूद न्युटन ने ही इस ओर भी इंगित किया था कि इस ब्रह्मांड में चाहे जितने अतिरिक्त तारें क्यों न आ जाए, उनसे मूल नक्षत्रों पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि इसी प्रकार असंख्य तारे हमेशा टूट कर इसी ब्रह्मांड में विलीन भी होते रहेंगे ।
आज जब हम 'अपने समय और साहित्य' के बारे में चर्चा के लिये यहां इकट्ठा हुए हैं, तो अनायास ही हमारा ध्यान समय के इस अनूठे इतिहासकार स्टीफेन हॉकिंग और समय के साथ जुड़े इस पूरे ब्रह्मांड की संरचना के विषय पर चला गया । आखिर हम भी तो यहां अपने समय और इस समय में जीवन जगत के अपने अपने ब्रह्मांड के एक अति क्षुद्र नक्षत्र, साहित्य के जगत के बारे में ही तो विचार करने के लिये जमा हुए है ! यह जो ब्रह्मांड के बारे में अनंत स्वात्मभूत सत्ताओं के समुच्चय की जो पूरी अवधारणा है, यह समग्र ब्रह्मांड पर ही नहीं, मानव जगत और इसके अंदर कायम अनंत प्रकार के जगतों पर भी किसी न किसी रूप में समान तौर पर लागू होती है ।
हमारे इतिहास के आज के उत्तर-आधुनिक काल में मनुष्यों की दुनिया को कुछ इस प्रकार रखा जाता है जैसे यह सिर्फ शरीरों और भाषाओं की दुनिया है । (There are only bodies and languages.) इन शरीरों अथवा भाषाओं को किसी भी सांचे में काट-छांट कर अपने प्रकार से सजा कर उस सजावट पर एक सामाजिक-व्यवस्था या सौन्दर्यशास्त्रीय कृति या वैचारिक अवधारणा का बिल्ला चिपका दिया जाता है, और उसे एक खास प्रकार की रचना शैली या वैचारिक श्रेणी की प्रजाति का अंग मान लिया जाता है । जब कोई सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की बात करता है तो उससे वह सिवाय इस मामूली सच्चाई के अलावा और कुछ व्यक्त नहीं कर रहा होता है कि सबकी परिस्थितियां अलग-अलग होती है ।
लेकिन, अभी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक ऐलेन बाद्यू कहते हैं कि मानव जगत के बारे में यह समझ गलत और नाकाफी है । यह असंबद्ध शरीरों और भाषाओं का एक पुंज या समुच्चय भर नहीं है । शरीरों और भाषाओं के अतिरिक्त इसमें एक तीसरा तत्व भी होता है, सत्य का तत्व । जो तत्व वास्तव में इन संरचनाओं के अपने चरित्र को तय करता है, वह यही सत्य का तत्व है । और, जब कोई साधक या शोधकर्ता इस जगत के प्रेक्षण से इसे जानने का काम हाथ में लेता है तो उसका काम होता है इन असंख्य संरचनाओं के अपने-अपने जगत के सत्यों की खोज करना । इन सबमें तारों की तरह एक चमक के साथ टूट कर हवा में विलीन हो जाने वाली कृतियां और प्रवृत्तियां भी शामिल हो सकती हैं ।
कुछ इसी प्रकार से हमारे भारतीय दार्शनिक अभिनवगुप्त भी अपने तंत्रालोक में निर्विभागता, मायीयवर्णता, भेदावभास, तत्व का बाह्यावभास आदि नाना पदों से भेदों से भरे जगत का वर्णन करते है और उसमें सत्य को उनके बाहर, शिव के स्वात्मभूत रूप में पेश करते हैं ।
बाद्यू कहते हैं कि परिस्थितियों की कोई भी ठोस संरचना खुद में किसी सत्य को नहीं बताती है । इसीलिये चीजों के अस्तित्व की एक साधारण यथार्थमूलक जांच मात्र से उसके किसी भी नियामक तत्व की खोज संभव नहीं है ।
सचमुच यह बहुत दिलचस्प है कि आज के इस नव-उदारवाद के युग में जिसे योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था पर बाजार अर्थ-व्यवस्था की अंतिम विजय का काल माना जाता है, और जब संसदवाद के अश्वमेघ का घोड़ा पूरी दुनिया में चौतरफा दौड़ाया जा रहा है और इसी समय जब चीन में चीनी विशिष्टता के समाजवाद के नाम पर एक नये प्रकार की एक व्यक्ति की परम सत्ता का राग अलापा जा रहा है, हमारा सवाल है कि क्या यह सब जो हो रहा है, इनके होने मात्र से ही इनके पक्ष में कोई दलील, या इनका अपना कोई तर्क तैयार हो जाता है ?
इतिहास की प्रक्रिया के बीच से यह सब जो भी ठोस रूप में निकल कर आया है या आ रहा है, क्या वह तात्विक लिहाज से वास्तव में बहुत मामूली चीज नहीं है, क्योंकि ये परिस्थितियों का स्वाभाविक या नैसर्गिक विकास नहीं है । इनके होने के पीछे न जाने कितने बाहरी हिंसक और कृत्रिम जतन किये गये हैं और किये जा रहे हैं !
इसीलिये बाद्यू कहते हैं कि जिसे सत्य कहा जाता है, उसकी पहचान इस प्रत्यक्ष को सहारा देने वाली व्यवस्था से पूरी तरह से कट कर की जा सकती है, न कि इस व्यवस्था के प्रभाव में, इसे मानते या अनुमोदित करते हुए । सत्यों को उद्घाटित करने में इस प्रकार के एक जरूरी विच्छेदन (rupture) को ही उन्होंने 'संयोग' (the event) कहा है । प्रामाणिक दर्शनशास्त्र संरचनात्मक तथ्यों (सांस्कृतिक, भाषाई, संघटक तत्वों) से नहीं शुरू होता है, बल्कि वह अनोखे ढंग से, जैसे किसी चमत्कार के तौर पर जो घटित होता है उसमें, अर्थात पूरी तरह से अनुमान से परे सामने आये परिघटना के अवशेष में निहित होता है ।
इसी पृष्ठभूमि में बाद्यू साधकों, जांचकर्ताओं की भूमिका को सत्य के संयोग के प्रति सक्रिय निष्ठावान कर्मी की भूमिका बताते हैं । उनके शब्दों में, इस जांच में लगे साधक सत्य के मुजाहिद, सेनानी होते हैं ।
बाद्यू जब किसी शोधार्थी या जांचकर्ता को मुजाहिद या सेनानी कहते हैं तो आज के काल में बहुतों को इससे हैरानी हो सकती है । वे खुद भी कहते हैं कि मैंने आज के एक ऐसे समय में दार्शनिक स्तर पर मुजाहिद की धारणा की आधारशिला रखी है जब सबने एक प्रकार से यह मान रखा है कि इस प्रकार की कोई भी मुजाहिदीन वाली क्रियाशीलता खुद में ही एक अर्वाचीन, आदिम किस्म की चीज है । बाद्यू कहते हैं कि सत्य का सेनानी पूरी मानवता की मुक्ति में लगा हुआ सिर्फ राजनीतिक सेनानी ही नहीं होता है । वह एक कलाकार-सर्जक भी हो सकता है, वैज्ञानिक भी हो सकता है जो नवीन सैद्धान्तिक क्षेत्रों का उन्मोचन करता है, या एक प्रेमी भी हो सकता है जिसकी तो अपनी दुनिया ही जादूई होती है, न जाने कितने रंगों से भरी हुई ।1 गैब्रियल गार्सिया मार्केस की एक पात्र एरेंदरा की तरह, जिसके हाथ का आईना कभी नीला हो जाता है, कभी लाल हो जाता है तो कभी पीला । एरिंदरा की दादी उससे कहती है, “तुम्हें प्रेम हो गया है । प्रेम में पड़ने पर ही ऐसा होता है ।” तो, इसमें मूल बात है एक विच्छेदन, नया संयोग, परिवर्तन का एक बिंदु, एक चमत्कार ।
इसी प्रकार के एक तात्विक सूत्र को पकड़ कर अब हम आते हैं आज के साहित्य के परिदृश्य पर, इसके अपने जगत पर । इस जगत के नाम पर हमें जो दिखाई देता हैं, क्या साहित्य के सत्य की जांच के लिये सिर्फ इस प्रत्यक्ष पर ही भरोसा किया जा सकता है ? यह जगत आखिर बनता कैसे हैं ? अंबर्तो इको जब साहित्य की तरह की अशरीरी शक्तियों, non-material forces पर चर्चा करते हैं, जो अशरीरी होने पर भी समाज में वजनदार मानी जाती है, तो कहते हैं कि मनुष्यता ने पाठों के इस संजाल (network) को जो पैदा किया है या करती चली जा रही है, इसकी अपने में कोई व्यवहारिक उपयोगिता नहीं होती है । यह कोई तथ्यों की पंजिका, कानून की व्याख्याओं और वैज्ञानिक सूत्रों, मीटिंग की मिनिट्स या ट्रेनों की समय-सारिणी की तरह की उपयोगी चीज नहीं है । साहित्य का सृजन शुद्ध रूप से मनुष्यता के अपने उपभोग के लिये, उसके आनंद, उसके आत्मिक उत्थान, ज्ञान के विस्तार या महज समय बिताने के लिये ही किया जाता है । स्कूलों, कालेजों या विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को अगर अलग रख दिया जाए तो इसे पढ़ने की किसी की कोई मजबूरी नहीं होती है।2
इस प्रकार, साहित्य का अपना सत्य तो यह है कि उसके निर्माण में किसी प्रकार की उपयोगिता का कोई दबाव नहीं होता है । यह मूलतः एक शुद्ध, पूर्ण स्वातंत्र्य का क्षेत्र है । लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अपनी आंखों के सामने इस पूर्ण स्वाधीन स्रोतों से निर्मित पाठों के संजाल को, उसके नेटवर्क को बाकायदा एक नियमबद्ध जगत की तरह काम करते हुए देखते हैं । इसके अपने शास्त्र रचे जाते हैं, इसे शील-अश्लील की नाना बंदिशों से बांधा जाता है । इससे भी ज्यादा, जो बात डरावनी सी लगती है, इसकी मूलभूत स्वातंत्र्य की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत, वह यह कि न सिर्फ स्कूलों-कालेजों में इनके पठन-पाठन के लिये, बल्कि इसके प्रचार-प्रसार के लिये सरकारी—गैर-सरकारी संस्थाओं के अरबों-खरबों रुपये इस क्षेत्र में बाकायदा निवेश किये जाते हैं । इसे एक जिंस की तरह संगठित तौर पर भुनाया जाता है । और जैसे जीवन और समाज की दूसरी जरूरतों के लिये बेशुमार हिंसा और छद्म उपायों से बाजार अर्थ-व्यवस्था, योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था, संसदीय प्रणाली आदि-आदि के तंत्र विकसित किये जाते हैं, वैसे ही एक खास प्रक्रिया से स्वतंत्र पाठों के संजाल के इस क्षेत्र के भी अपने एक पूरे तंत्र का इस पर बलात् आरोपण होता है । और, हम देखते हैं कि हमारे सामने बुद्धि के व्यापारियों, हेगेल की शब्दावली में कला-विद्वता (art scholarship) से लेकर कला-प्रशासकों (art administrators) की भी एक फौज तैयार हो जाती है जिनके बारे में हेगेल कहते हैं कि यह कला की दुनिया के लिये कितनी ही जरूरी क्यों न हो, इसे ही किसी कला कृति के प्रति मानव मस्तिष्क की ग्राह्यता का एक मात्र या सर्वोच्च तत्व कभी नहीं स्वीकारा जा सकता है । (it ought not to be taken for the sole or supreme element in relation which mind adopts towards a work of art)3
कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य जगत का जो अपना सत्य है, इसके स्वातंत्र्य का मूलभूत सत्य, वह इस जगत के प्रत्यक्ष सच से बिल्कुल बाहर है, जिसे एक प्रकार से निःस्वार्थ भाव और “शुद्ध रूप से मनुष्यता के अपने उपभोग के लिये, उसके आनंद, उसके आत्मिक उत्थान, ज्ञान के विस्तार या सिर्फ समय बिताने के लिये” किया जाने वाला एक स्वाधीन कर्म माना जाता है ।
लेकिन हम सब जानते हैं, पिछले लगभग तीन-चार दशकों से, मैं सिर्फ एक उदाहरण के तौर पर ही इस बात की चर्चा कर रहा हूं, हिंदी साहित्य की दुनिया में अकेले एक शख्स अशोक वाजपेयी ने राज्य सरकार, केंद्र सरकार, और दूसरे कुछ फाउंडेशनों के माध्यम से इस जगत में अपनी मर्जी के अनुसार हजारों करोड़ रुपये खर्च किये हैं या कराये हैं । हमारे इस कथित अथवा परिचित साहित्य जगत के लोगों पर, अशोक जी के साहित्य नगर के नागरिकों पर नजर डाल लीजिए, आपको उनके द्वारा नाना प्रकार से उपकृत लोगों का एक पूरा हुजूम मिल जायेगा । अशोक वाजपेयी एक अति परिचित नाम है, इसीलिये मैंने उनका यहां उल्लेख किया है । उनकी तरह ही और भी कई लोग या लोगों के समूह यही काम कर रहे हैं, संभवतः और भी विकराल रूप में, साहित्यकार के रूप में या साहित्य प्रशासक या दूसरी किसी हैसियत से, शैक्षणिक जगत के भाषाई विभागों और यहां तक कि साहित्य आंदोलनों के नेताओं के रूप में भी । और इन सबके प्रयत्नों से साहित्य कहे जाने वाले पाठ के नाम पर आम तौर पर जो कुछ निर्मित और प्रचारित होता है, वास्तव में देखेंगे तो उसी से हमारा आज का यह कथित साहित्य जगत बना हुआ है । लेकिन अगर इसमें हम साहित्य का सत्य खोजना चाहते हैं, तो वह कभी आपको इस ताने-बाने पर ऊपर-ऊपर से निगाह डालने पर नहीं मिलेगा । जैसे समाज व्यवस्थाओं के नाना रूपों का सत्य उनके तंत्र के स्वरूपों से कभी नहीं मिल सकता है, वह इसके बाहर है, स्वतंत्र है, और इन सबसे उसका क्षुद्रांश ही प्रकाशित होता है, वही स्थिति साहित्य के जगत की भी है ।
इसीलिये यदि हमें इस जगत के सत्य की कोई पड़ताल करनी है तो इसकी व्यवस्था के पूरे ताने-बाने को चीर कर उसमें झांकना होगा, इस व्यवस्था के स्वरूप को मुग्ध भाव से निहारते हुए उसके रूप के बखान से कुछ नहीं होगा, जैसा कि आम तौर पर तमाम प्रकार के सार-संग्रहवादी 'कला विद्वान' किया करते हैं । वे साहित्य के सत्य के नहीं, इसके तंत्र के अंग होते हैं । इस जगत के ताने-बाने को फाड़ देने पर ही वास्तव में इस जगत के सत्य की पहचान होती है, इसके छद्म पर से पर्दा उठता है ।
इसे ही अभिनवगुप्त के लेखन में स्फोट की, मार्क्स में क्रांति की और आज के दर्शनशास्त्रीय विमर्शों में संयोग (event) की संज्ञा दी जाती है ।
आइये, हम विषय को थोड़ा और भी ठोस रूप में एक और कोण से देखते हैं । हिंदी साहित्य की दुनिया में अभी दुनिया भर की पत्रिकाएं निकल रही है । आम तौर पर इनका चरित्र इतना स्थिर, जाना-पहचाना और इस कदर जड़ हो चुका है कि इनमें किसी को सामान्य तौर पर कोई आकर्षण नहीं नजर आता है । इनसे कोई जरा सा भी चमत्कृत नहीं होता है । लेखक खुद की रचना ही पढ़ कर संतुष्ट हो लेते हैं, अन्य चीजों के प्रति उनमें कोई आग्रह नहीं होता है । चारो ओर जैसे एक अजीब प्रकार की मुर्दानगी छाई हुई है । छपाई वगैरह की सुविधाओं में वृद्धि के कारण बहुत सी पत्रिकाएं तो अतीत की मुर्दा सामग्री की चमकती हुई कब्र की तरह की लगती है । आम तौर पर लेखकों की शताब्दियों आदि के मौके पर जो विशेषांक निकाले जाते हैं, वे इसके क्लासिक उदाहरण होते हैं ।
कहने का मतलब है कि इतनी सारी पत्रिकाएं, सेमिनार, सम्मेलन भी पूरे हिंदी साहित्य जगत में गहरे तक पसरे हुए सन्नाटे में जरा भी खलल पैदा करते नहीं दिखाई देते हैं, उल्टे इसे किसी न किसी रूप में गाढ़ा करने की भूमिका ही अदा कर रहे हैं ।
ऐसे एक भयानक मुर्दानगी से भरे ऊबाऊ समय में, जो चीज इसमें एक दरार पैदा करती है, इसके ताने-बाने को लगभग चीरती हुई दिखाई देती है, एक प्रकार के चमत्कार या स्फोट की शक्ल में हमारे सामने आती है, वह क्या और कहां है ? जो इस मुर्दा जगत के ठंडे शरीर में थोड़ी गर्मी पैदा करती है, हमारे सोच को उत्प्रेरित करती है, हमारे अंतर को हर्षित करती है, हमें अपनी ओर खींचती है, जो सिर्फ छपे हुए शब्दों की सजावट भर नहीं है, वह कहां है ? जबकि वही तो साहित्य के अपने स्वातंत्र्य का प्रकाश है । जब हम इस सवाल के साथ इस जगत पर नजर डालते हैं तो अनायास ही हमारी नजर कुछ उपन्यासों, कविताओं, कहानियों की तरह ही इस जगत के अपने एक छोटे से ग्रह या सितारे, कोलकाता से घटिया कागज पर बिना किसी खास साज-सज्जा से निकलने वाली पत्रिका 'लहक' पर भी जाता है । हो सकता है, यह इस जगत के अपने अनेक तारों की तरह का एक ऐसा तारा ही हो जो एक चमक दिखा कर टूट कर कहीं अंतरीक्ष में विलीन हो जायेगा । लेकिन यह अभी जो भूमिका अदा कर रही है, वह कुछ-कुछ बाद्यू के 'सत्य के मुजाहिदीन' की तरह की ही भूमिका है । एक झक्की संपादक, बस अपनी मर्जी को ही प्रमुख मान कर एक पत्रिका से अजीब प्रकार से चारों ओर अंधा-धुंध बमबारी कर रहा है, करा रहा है । अगर इसमें छपाई और सज्जा का कोई आकर्षण नहीं है तो इसे किसी इतर संस्था आदि का अन्य प्रकार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है जिससे इसे भी किसी व्यवस्था के खाते में खतियाया जा सके । हम देखते हैं कि इसने अभी साहित्य की इंद्रपुरी के कई इंद्रासनों को हिला रखा है । कुछ सही कुछ गलत, कुछ तार्किक और कुछ अतार्किक, कुछ वामपंथी तो कुछ दक्षिणपंथी का भान देती हुई इसकी बेलौस बेबाक बातें, एक चर्चा का सबब बन जाते हैं । इसमें छप रही चमत्कृत कर देने वाली अनपेक्षित बातों से इस जगत के तंत्र के सिर्फ महाप्रभुओं की नहीं, इस जगत में विचरण करने वाले कई तत्वों की रातों की नींद उड़ने लगती है ।
साहित्य चर्चा में यह जो एक खास प्रकार की लड़ाकू, युयुत्सु भूमिका है, मेरे अनुसार, यह अपने आप में कोई आदर्श-विहीन, दिशाहीन भूमिका नहीं है । जब भी किसी चीज पर सवाल उठाये जाते हैं, उसके सच को निरूपित करने के लिये कुछ जानना चाहते हैं, उसके पहले ही प्रश्नकर्ता यह तय कर लेता है कि वह क्या जानना चाहता है । इस प्रकार हर जांच की अपनी एक विचारधारात्मक मांग होती है और उस जांच की ओर बढ़ने के पहले ही उसके बारे में एक अवधारणा काम कर रही होती है । इसके साथ ही, जो एक बड़ी बात जाहिर होती है वह यह कि इस जगत का सत्य एक नहीं है, अनेक हैं, यह वैविध्य का समुच्चय है ; ब्रह्मांड के अनेक ग्रहों-नक्षत्रों का समुच्चय, जिन सबके अपने-अपने और भी उपग्रह हैं । इन असंख्य प्रकार के संसारों के समुच्चय में हर दुनिया के पास अपना एक सत्य गढ़ने की क्षमता होती है । इसकी विविधता को ऐसे ही, किसी एक आदर्श की बात से खारिज नहीं किया जा सकता है ।
लेकिन जब साधक, शोधकर्ता के पास कोई सवाल नहीं होते हैं, तभी यह तत्काल समझ लेने की जरूरत है कि वह इस जगत में अपने लिये सिर्फ सुख की तलाश में लगे हुए महज एक पशु की तरह है । उसके लिये साहित्य की हैसियत सिर्फ छपे हुए शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, उसके लिये यह एक ऐसा उत्तर-आधुनिक किस्म का विश्वास है जिसमें मनुष्यों के संसार को महज शरीरों और भाषाओं का संसार मान लिया जाता है । उसमें इसके सत्य का कोई स्थान नहीं होता है । अगर कोई इसके सत्य की बात भी करता है तो कुछ भारी भरकम खोखले शब्दों, अलंकारों की जुगाली भर करता दिखाई देता है । क्योंकि, सत्य की थाह पाने के लिये प्रत्यक्ष और स्थापित व्यवस्था के ताने-बाने को जिस प्रकार चीरने की जरूरत है, उस जुझारू तेवर का उसमें सर्वथा अभाव होता है ।
इस टिप्पणी की तैयारी के सिलसिले में चार दिन पहले 'अनहद' पत्रिका के संपादक संतोष चतुर्वेदी से बात हो रही थी । एक संपादक के नाते मैं उनसे पूछ रहा था कि आज कौन से लेखक है जिनका लिखा आपको आकर्षित करता है, और वे क्या लिख रहे हैं ? संतोष जी ने बहुत साफ शब्दों में कहा कि सर, आजकल अधिकांश लेखक अपने वाहियात से वाहियात लेखन को सर्वश्रेष्ठ माने हुए प्रायः आत्ममुग्ध रहते हैं । वे न दूसरा कुछ पढ़ते हैं और न ही कुछ सीखना चाहते हैं । उनकी बातों ने हमारी धारणा को पुष्ट किया । सचमुच एक अजीब से आदर्शशून्य विश्वास ने आज के लेखक के मन में घर कर लिया है जिसमें यह संसार सिर्फ मनुष्यों के शरीर अर्थात उनकी काया और भाषा का समुच्चय है । सबकी स्वाभाविकता उनकी निजी लालसाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
ऐसे में आज जरूरत है साहित्य के मुजाहिद वाले एक निश्चयमूलक आदर्श के, स्वातंत्र्य के शिव तत्व को प्राप्त करने की । इस प्रकाश की चेतना शक्ति में किसी इतरस्वाभावानुप्रवेश के योग से कोई लाभ नहीं है । कुल मिला कर मूल बात है इस जगत के प्रत्यक्ष को चीर कर देखने का युयुत्सु भाव । हाइडेगर का एक प्रसिद्ध कथन है कि आप विषय के एकदम तल में प्रवेश कीजिए, आपको विषय की मृत्यु के दर्शन हो जायेंगे । इस जगत की मुर्दानगी को जानने के लिये ही इसके तल में जाना होगा । सन् 1980 के दशक के जमाने में इसी भाव ने हमारी 'कलम' की तरह की छोटी सी पत्रिका ने सोये हुए साहित्य जगत में हलचल पैदा करने में एक अहम भूमिका अदा की थी । आज इसे और गहराई से समझने की जरूरत है ।
अंत में, साहित्य जिंदा रहता है प्रतिवाद में, विद्रोह में, वर्जना-रहित प्रेम में, मनुष्य की अबाध स्वतंत्रता में । साहित्यकार की स्वतंत्रता पर किसी भी किस्म का अनावश्यक दबाव साहित्य की अपनी सत्ता के मूल पर हमले से कम नहीं है, इसे इस क्षेत्र से जुड़े हर किसी को समझने की जरूरत है । यही किसी साहित्य आंदोलन की प्रभावोत्पादकता का भी मूलभूत निर्णायक तत्व है । कल (16 मार्च 2018) के 'टेलिग्राफ' में अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का एक लेख है — The importance of dissatisfaction । इसमें उन्होंने अकादमिक दुनिया के जिस संदर्भ में व्यवस्था से हट कर एक प्रकार की ‘epistemic exteriorty’ तत्वमीमांसक दूरी की जो बात की है, लेखन की दुनिया का तो सत्य ही उस में निहित है ।
1. Alain Badiou, Logics of Worlds, Bloomsbury, 2015, page – 1-9
2. Umberto Eco, On Literature, Vintage Books, page-1
3. Georg Wilhelm Friedrich Hegel, Introductory Lectures on Aesthetics, Penguin, p. 39)
अरुण माहेश्वरी
तीन दिन पहले ही, 14 मार्च को हमारे समय के एक प्रमुख गणितज्ञ और सैद्धांतिक विज्ञानवेत्ता स्टीफन हॉकिंग हमारे बीच नहीं रहे । अपने magnum opus, सर्वश्रेष्ठ कृति 'A brief history of times' में उन्होंने समय का इतिहास लिखने के उपक्रम का प्रारंभ इस ब्रह्मांड की संरचना के बारे में मनुष्य की अवधारणा के विकास के इतिहास से किया था । पृथ्वी को सपाट मानने के हजारों सालों के विश्वास के विपरीत सबसे पहले अरस्तु ने ई.पू.340 में अपनी पुस्तक 'On the heavens' में इस धरती को गोल बताया था, लेकिन कहा था कि सूर्य, चंद्रमा और बाकी सभी ग्रह-नक्षत्र इसके चारों ओर घूमते हैं । इसके दो सौ साल बाद टालेमी ने इस समझ का एक पूरा मॉडल भी तैयार किया । लेकिन अरस्तु के लगभग 2000 साल बाद, ईस्वी सन् 1514 में कॉपरनिकस ने पहले बार बताया कि पृथ्वी नहीं, इस ब्रह्मांड के केंद्र में सूर्य स्थित है और सभी ग्रह-नक्षत्र उसके चारो ओर घूमते हैं । इसके बाद टेलिस्कोप की नई तकनीकी शक्ति से सुसज्जित गैलेलियो आते हैं ईस्वी सन् 1609 में और वृहस्पति ग्रह के प्रेक्षण के जरिये वे पाते हैं कि सिर्फ पृथ्वी के नहीं, वृहस्पति के भी अपने कई छोटे-छोटे उपग्रह है और उसका अपना चंद्रमा भी है जो सब उसके चारो ओर घूम रहे हैं । अर्थात हर ब्रह्मांडीय पिंड को सिर्फ धरती के चारों ओर चक्कर लगाने की जरूरत नहीं है । सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने वाले नक्षत्र पिण्डों के चारों ओर भी कई अन्य पिंड चक्कर लगाते रहते हैं । न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत ने इस पूरी अवधारणा को एक गणितीय आधार पर स्थापित किया और कुल मिला कर हमारे ब्रह्मांड की संरचना के बारे में आज जो एक सर्वमान्य अवधारणा है उसमें इसे अनंत ग्रहों, नक्षत्रों के अपने-अपने स्वतंत्र संसारों का एक समुच्चय माना जाता है । ये सारे नक्षत्र अपने-अपने स्तर पर गतिशील होने पर भी इसलिये किसी एक केंद्रीय बिंदु पर गिरते नहीं है, क्योंकि वे एक अनंत आकाश में विचरण करते हैं । कल तक ब्रह्मांड संबंधी सभी आधिभौतिक चिंतन में जिसे infinite static universe अर्थात अनंत स्थैतिक ब्रह्मांड के रूप में जाना जाता था, अब उसे ही हम infinite expanding universe (अनंत विस्तारवान ब्रह्मांड) के रूप में ज्यादा बेहतर ढंग से जानते हैं ।
इसके बावजूद न्युटन ने ही इस ओर भी इंगित किया था कि इस ब्रह्मांड में चाहे जितने अतिरिक्त तारें क्यों न आ जाए, उनसे मूल नक्षत्रों पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा क्योंकि इसी प्रकार असंख्य तारे हमेशा टूट कर इसी ब्रह्मांड में विलीन भी होते रहेंगे ।
आज जब हम 'अपने समय और साहित्य' के बारे में चर्चा के लिये यहां इकट्ठा हुए हैं, तो अनायास ही हमारा ध्यान समय के इस अनूठे इतिहासकार स्टीफेन हॉकिंग और समय के साथ जुड़े इस पूरे ब्रह्मांड की संरचना के विषय पर चला गया । आखिर हम भी तो यहां अपने समय और इस समय में जीवन जगत के अपने अपने ब्रह्मांड के एक अति क्षुद्र नक्षत्र, साहित्य के जगत के बारे में ही तो विचार करने के लिये जमा हुए है ! यह जो ब्रह्मांड के बारे में अनंत स्वात्मभूत सत्ताओं के समुच्चय की जो पूरी अवधारणा है, यह समग्र ब्रह्मांड पर ही नहीं, मानव जगत और इसके अंदर कायम अनंत प्रकार के जगतों पर भी किसी न किसी रूप में समान तौर पर लागू होती है ।
हमारे इतिहास के आज के उत्तर-आधुनिक काल में मनुष्यों की दुनिया को कुछ इस प्रकार रखा जाता है जैसे यह सिर्फ शरीरों और भाषाओं की दुनिया है । (There are only bodies and languages.) इन शरीरों अथवा भाषाओं को किसी भी सांचे में काट-छांट कर अपने प्रकार से सजा कर उस सजावट पर एक सामाजिक-व्यवस्था या सौन्दर्यशास्त्रीय कृति या वैचारिक अवधारणा का बिल्ला चिपका दिया जाता है, और उसे एक खास प्रकार की रचना शैली या वैचारिक श्रेणी की प्रजाति का अंग मान लिया जाता है । जब कोई सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की बात करता है तो उससे वह सिवाय इस मामूली सच्चाई के अलावा और कुछ व्यक्त नहीं कर रहा होता है कि सबकी परिस्थितियां अलग-अलग होती है ।
लेकिन, अभी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी दार्शनिक ऐलेन बाद्यू कहते हैं कि मानव जगत के बारे में यह समझ गलत और नाकाफी है । यह असंबद्ध शरीरों और भाषाओं का एक पुंज या समुच्चय भर नहीं है । शरीरों और भाषाओं के अतिरिक्त इसमें एक तीसरा तत्व भी होता है, सत्य का तत्व । जो तत्व वास्तव में इन संरचनाओं के अपने चरित्र को तय करता है, वह यही सत्य का तत्व है । और, जब कोई साधक या शोधकर्ता इस जगत के प्रेक्षण से इसे जानने का काम हाथ में लेता है तो उसका काम होता है इन असंख्य संरचनाओं के अपने-अपने जगत के सत्यों की खोज करना । इन सबमें तारों की तरह एक चमक के साथ टूट कर हवा में विलीन हो जाने वाली कृतियां और प्रवृत्तियां भी शामिल हो सकती हैं ।
कुछ इसी प्रकार से हमारे भारतीय दार्शनिक अभिनवगुप्त भी अपने तंत्रालोक में निर्विभागता, मायीयवर्णता, भेदावभास, तत्व का बाह्यावभास आदि नाना पदों से भेदों से भरे जगत का वर्णन करते है और उसमें सत्य को उनके बाहर, शिव के स्वात्मभूत रूप में पेश करते हैं ।
बाद्यू कहते हैं कि परिस्थितियों की कोई भी ठोस संरचना खुद में किसी सत्य को नहीं बताती है । इसीलिये चीजों के अस्तित्व की एक साधारण यथार्थमूलक जांच मात्र से उसके किसी भी नियामक तत्व की खोज संभव नहीं है ।
सचमुच यह बहुत दिलचस्प है कि आज के इस नव-उदारवाद के युग में जिसे योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था पर बाजार अर्थ-व्यवस्था की अंतिम विजय का काल माना जाता है, और जब संसदवाद के अश्वमेघ का घोड़ा पूरी दुनिया में चौतरफा दौड़ाया जा रहा है और इसी समय जब चीन में चीनी विशिष्टता के समाजवाद के नाम पर एक नये प्रकार की एक व्यक्ति की परम सत्ता का राग अलापा जा रहा है, हमारा सवाल है कि क्या यह सब जो हो रहा है, इनके होने मात्र से ही इनके पक्ष में कोई दलील, या इनका अपना कोई तर्क तैयार हो जाता है ?
इतिहास की प्रक्रिया के बीच से यह सब जो भी ठोस रूप में निकल कर आया है या आ रहा है, क्या वह तात्विक लिहाज से वास्तव में बहुत मामूली चीज नहीं है, क्योंकि ये परिस्थितियों का स्वाभाविक या नैसर्गिक विकास नहीं है । इनके होने के पीछे न जाने कितने बाहरी हिंसक और कृत्रिम जतन किये गये हैं और किये जा रहे हैं !
इसीलिये बाद्यू कहते हैं कि जिसे सत्य कहा जाता है, उसकी पहचान इस प्रत्यक्ष को सहारा देने वाली व्यवस्था से पूरी तरह से कट कर की जा सकती है, न कि इस व्यवस्था के प्रभाव में, इसे मानते या अनुमोदित करते हुए । सत्यों को उद्घाटित करने में इस प्रकार के एक जरूरी विच्छेदन (rupture) को ही उन्होंने 'संयोग' (the event) कहा है । प्रामाणिक दर्शनशास्त्र संरचनात्मक तथ्यों (सांस्कृतिक, भाषाई, संघटक तत्वों) से नहीं शुरू होता है, बल्कि वह अनोखे ढंग से, जैसे किसी चमत्कार के तौर पर जो घटित होता है उसमें, अर्थात पूरी तरह से अनुमान से परे सामने आये परिघटना के अवशेष में निहित होता है ।
इसी पृष्ठभूमि में बाद्यू साधकों, जांचकर्ताओं की भूमिका को सत्य के संयोग के प्रति सक्रिय निष्ठावान कर्मी की भूमिका बताते हैं । उनके शब्दों में, इस जांच में लगे साधक सत्य के मुजाहिद, सेनानी होते हैं ।
बाद्यू जब किसी शोधार्थी या जांचकर्ता को मुजाहिद या सेनानी कहते हैं तो आज के काल में बहुतों को इससे हैरानी हो सकती है । वे खुद भी कहते हैं कि मैंने आज के एक ऐसे समय में दार्शनिक स्तर पर मुजाहिद की धारणा की आधारशिला रखी है जब सबने एक प्रकार से यह मान रखा है कि इस प्रकार की कोई भी मुजाहिदीन वाली क्रियाशीलता खुद में ही एक अर्वाचीन, आदिम किस्म की चीज है । बाद्यू कहते हैं कि सत्य का सेनानी पूरी मानवता की मुक्ति में लगा हुआ सिर्फ राजनीतिक सेनानी ही नहीं होता है । वह एक कलाकार-सर्जक भी हो सकता है, वैज्ञानिक भी हो सकता है जो नवीन सैद्धान्तिक क्षेत्रों का उन्मोचन करता है, या एक प्रेमी भी हो सकता है जिसकी तो अपनी दुनिया ही जादूई होती है, न जाने कितने रंगों से भरी हुई ।1 गैब्रियल गार्सिया मार्केस की एक पात्र एरेंदरा की तरह, जिसके हाथ का आईना कभी नीला हो जाता है, कभी लाल हो जाता है तो कभी पीला । एरिंदरा की दादी उससे कहती है, “तुम्हें प्रेम हो गया है । प्रेम में पड़ने पर ही ऐसा होता है ।” तो, इसमें मूल बात है एक विच्छेदन, नया संयोग, परिवर्तन का एक बिंदु, एक चमत्कार ।
इसी प्रकार के एक तात्विक सूत्र को पकड़ कर अब हम आते हैं आज के साहित्य के परिदृश्य पर, इसके अपने जगत पर । इस जगत के नाम पर हमें जो दिखाई देता हैं, क्या साहित्य के सत्य की जांच के लिये सिर्फ इस प्रत्यक्ष पर ही भरोसा किया जा सकता है ? यह जगत आखिर बनता कैसे हैं ? अंबर्तो इको जब साहित्य की तरह की अशरीरी शक्तियों, non-material forces पर चर्चा करते हैं, जो अशरीरी होने पर भी समाज में वजनदार मानी जाती है, तो कहते हैं कि मनुष्यता ने पाठों के इस संजाल (network) को जो पैदा किया है या करती चली जा रही है, इसकी अपने में कोई व्यवहारिक उपयोगिता नहीं होती है । यह कोई तथ्यों की पंजिका, कानून की व्याख्याओं और वैज्ञानिक सूत्रों, मीटिंग की मिनिट्स या ट्रेनों की समय-सारिणी की तरह की उपयोगी चीज नहीं है । साहित्य का सृजन शुद्ध रूप से मनुष्यता के अपने उपभोग के लिये, उसके आनंद, उसके आत्मिक उत्थान, ज्ञान के विस्तार या महज समय बिताने के लिये ही किया जाता है । स्कूलों, कालेजों या विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को अगर अलग रख दिया जाए तो इसे पढ़ने की किसी की कोई मजबूरी नहीं होती है।2
इस प्रकार, साहित्य का अपना सत्य तो यह है कि उसके निर्माण में किसी प्रकार की उपयोगिता का कोई दबाव नहीं होता है । यह मूलतः एक शुद्ध, पूर्ण स्वातंत्र्य का क्षेत्र है । लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अपनी आंखों के सामने इस पूर्ण स्वाधीन स्रोतों से निर्मित पाठों के संजाल को, उसके नेटवर्क को बाकायदा एक नियमबद्ध जगत की तरह काम करते हुए देखते हैं । इसके अपने शास्त्र रचे जाते हैं, इसे शील-अश्लील की नाना बंदिशों से बांधा जाता है । इससे भी ज्यादा, जो बात डरावनी सी लगती है, इसकी मूलभूत स्वातंत्र्य की प्रकृति के बिल्कुल विपरीत, वह यह कि न सिर्फ स्कूलों-कालेजों में इनके पठन-पाठन के लिये, बल्कि इसके प्रचार-प्रसार के लिये सरकारी—गैर-सरकारी संस्थाओं के अरबों-खरबों रुपये इस क्षेत्र में बाकायदा निवेश किये जाते हैं । इसे एक जिंस की तरह संगठित तौर पर भुनाया जाता है । और जैसे जीवन और समाज की दूसरी जरूरतों के लिये बेशुमार हिंसा और छद्म उपायों से बाजार अर्थ-व्यवस्था, योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था, संसदीय प्रणाली आदि-आदि के तंत्र विकसित किये जाते हैं, वैसे ही एक खास प्रक्रिया से स्वतंत्र पाठों के संजाल के इस क्षेत्र के भी अपने एक पूरे तंत्र का इस पर बलात् आरोपण होता है । और, हम देखते हैं कि हमारे सामने बुद्धि के व्यापारियों, हेगेल की शब्दावली में कला-विद्वता (art scholarship) से लेकर कला-प्रशासकों (art administrators) की भी एक फौज तैयार हो जाती है जिनके बारे में हेगेल कहते हैं कि यह कला की दुनिया के लिये कितनी ही जरूरी क्यों न हो, इसे ही किसी कला कृति के प्रति मानव मस्तिष्क की ग्राह्यता का एक मात्र या सर्वोच्च तत्व कभी नहीं स्वीकारा जा सकता है । (it ought not to be taken for the sole or supreme element in relation which mind adopts towards a work of art)3
कहने का तात्पर्य यह है कि साहित्य जगत का जो अपना सत्य है, इसके स्वातंत्र्य का मूलभूत सत्य, वह इस जगत के प्रत्यक्ष सच से बिल्कुल बाहर है, जिसे एक प्रकार से निःस्वार्थ भाव और “शुद्ध रूप से मनुष्यता के अपने उपभोग के लिये, उसके आनंद, उसके आत्मिक उत्थान, ज्ञान के विस्तार या सिर्फ समय बिताने के लिये” किया जाने वाला एक स्वाधीन कर्म माना जाता है ।
लेकिन हम सब जानते हैं, पिछले लगभग तीन-चार दशकों से, मैं सिर्फ एक उदाहरण के तौर पर ही इस बात की चर्चा कर रहा हूं, हिंदी साहित्य की दुनिया में अकेले एक शख्स अशोक वाजपेयी ने राज्य सरकार, केंद्र सरकार, और दूसरे कुछ फाउंडेशनों के माध्यम से इस जगत में अपनी मर्जी के अनुसार हजारों करोड़ रुपये खर्च किये हैं या कराये हैं । हमारे इस कथित अथवा परिचित साहित्य जगत के लोगों पर, अशोक जी के साहित्य नगर के नागरिकों पर नजर डाल लीजिए, आपको उनके द्वारा नाना प्रकार से उपकृत लोगों का एक पूरा हुजूम मिल जायेगा । अशोक वाजपेयी एक अति परिचित नाम है, इसीलिये मैंने उनका यहां उल्लेख किया है । उनकी तरह ही और भी कई लोग या लोगों के समूह यही काम कर रहे हैं, संभवतः और भी विकराल रूप में, साहित्यकार के रूप में या साहित्य प्रशासक या दूसरी किसी हैसियत से, शैक्षणिक जगत के भाषाई विभागों और यहां तक कि साहित्य आंदोलनों के नेताओं के रूप में भी । और इन सबके प्रयत्नों से साहित्य कहे जाने वाले पाठ के नाम पर आम तौर पर जो कुछ निर्मित और प्रचारित होता है, वास्तव में देखेंगे तो उसी से हमारा आज का यह कथित साहित्य जगत बना हुआ है । लेकिन अगर इसमें हम साहित्य का सत्य खोजना चाहते हैं, तो वह कभी आपको इस ताने-बाने पर ऊपर-ऊपर से निगाह डालने पर नहीं मिलेगा । जैसे समाज व्यवस्थाओं के नाना रूपों का सत्य उनके तंत्र के स्वरूपों से कभी नहीं मिल सकता है, वह इसके बाहर है, स्वतंत्र है, और इन सबसे उसका क्षुद्रांश ही प्रकाशित होता है, वही स्थिति साहित्य के जगत की भी है ।
इसीलिये यदि हमें इस जगत के सत्य की कोई पड़ताल करनी है तो इसकी व्यवस्था के पूरे ताने-बाने को चीर कर उसमें झांकना होगा, इस व्यवस्था के स्वरूप को मुग्ध भाव से निहारते हुए उसके रूप के बखान से कुछ नहीं होगा, जैसा कि आम तौर पर तमाम प्रकार के सार-संग्रहवादी 'कला विद्वान' किया करते हैं । वे साहित्य के सत्य के नहीं, इसके तंत्र के अंग होते हैं । इस जगत के ताने-बाने को फाड़ देने पर ही वास्तव में इस जगत के सत्य की पहचान होती है, इसके छद्म पर से पर्दा उठता है ।
इसे ही अभिनवगुप्त के लेखन में स्फोट की, मार्क्स में क्रांति की और आज के दर्शनशास्त्रीय विमर्शों में संयोग (event) की संज्ञा दी जाती है ।
आइये, हम विषय को थोड़ा और भी ठोस रूप में एक और कोण से देखते हैं । हिंदी साहित्य की दुनिया में अभी दुनिया भर की पत्रिकाएं निकल रही है । आम तौर पर इनका चरित्र इतना स्थिर, जाना-पहचाना और इस कदर जड़ हो चुका है कि इनमें किसी को सामान्य तौर पर कोई आकर्षण नहीं नजर आता है । इनसे कोई जरा सा भी चमत्कृत नहीं होता है । लेखक खुद की रचना ही पढ़ कर संतुष्ट हो लेते हैं, अन्य चीजों के प्रति उनमें कोई आग्रह नहीं होता है । चारो ओर जैसे एक अजीब प्रकार की मुर्दानगी छाई हुई है । छपाई वगैरह की सुविधाओं में वृद्धि के कारण बहुत सी पत्रिकाएं तो अतीत की मुर्दा सामग्री की चमकती हुई कब्र की तरह की लगती है । आम तौर पर लेखकों की शताब्दियों आदि के मौके पर जो विशेषांक निकाले जाते हैं, वे इसके क्लासिक उदाहरण होते हैं ।
कहने का मतलब है कि इतनी सारी पत्रिकाएं, सेमिनार, सम्मेलन भी पूरे हिंदी साहित्य जगत में गहरे तक पसरे हुए सन्नाटे में जरा भी खलल पैदा करते नहीं दिखाई देते हैं, उल्टे इसे किसी न किसी रूप में गाढ़ा करने की भूमिका ही अदा कर रहे हैं ।
ऐसे एक भयानक मुर्दानगी से भरे ऊबाऊ समय में, जो चीज इसमें एक दरार पैदा करती है, इसके ताने-बाने को लगभग चीरती हुई दिखाई देती है, एक प्रकार के चमत्कार या स्फोट की शक्ल में हमारे सामने आती है, वह क्या और कहां है ? जो इस मुर्दा जगत के ठंडे शरीर में थोड़ी गर्मी पैदा करती है, हमारे सोच को उत्प्रेरित करती है, हमारे अंतर को हर्षित करती है, हमें अपनी ओर खींचती है, जो सिर्फ छपे हुए शब्दों की सजावट भर नहीं है, वह कहां है ? जबकि वही तो साहित्य के अपने स्वातंत्र्य का प्रकाश है । जब हम इस सवाल के साथ इस जगत पर नजर डालते हैं तो अनायास ही हमारी नजर कुछ उपन्यासों, कविताओं, कहानियों की तरह ही इस जगत के अपने एक छोटे से ग्रह या सितारे, कोलकाता से घटिया कागज पर बिना किसी खास साज-सज्जा से निकलने वाली पत्रिका 'लहक' पर भी जाता है । हो सकता है, यह इस जगत के अपने अनेक तारों की तरह का एक ऐसा तारा ही हो जो एक चमक दिखा कर टूट कर कहीं अंतरीक्ष में विलीन हो जायेगा । लेकिन यह अभी जो भूमिका अदा कर रही है, वह कुछ-कुछ बाद्यू के 'सत्य के मुजाहिदीन' की तरह की ही भूमिका है । एक झक्की संपादक, बस अपनी मर्जी को ही प्रमुख मान कर एक पत्रिका से अजीब प्रकार से चारों ओर अंधा-धुंध बमबारी कर रहा है, करा रहा है । अगर इसमें छपाई और सज्जा का कोई आकर्षण नहीं है तो इसे किसी इतर संस्था आदि का अन्य प्रकार का समर्थन भी प्राप्त नहीं है जिससे इसे भी किसी व्यवस्था के खाते में खतियाया जा सके । हम देखते हैं कि इसने अभी साहित्य की इंद्रपुरी के कई इंद्रासनों को हिला रखा है । कुछ सही कुछ गलत, कुछ तार्किक और कुछ अतार्किक, कुछ वामपंथी तो कुछ दक्षिणपंथी का भान देती हुई इसकी बेलौस बेबाक बातें, एक चर्चा का सबब बन जाते हैं । इसमें छप रही चमत्कृत कर देने वाली अनपेक्षित बातों से इस जगत के तंत्र के सिर्फ महाप्रभुओं की नहीं, इस जगत में विचरण करने वाले कई तत्वों की रातों की नींद उड़ने लगती है ।
साहित्य चर्चा में यह जो एक खास प्रकार की लड़ाकू, युयुत्सु भूमिका है, मेरे अनुसार, यह अपने आप में कोई आदर्श-विहीन, दिशाहीन भूमिका नहीं है । जब भी किसी चीज पर सवाल उठाये जाते हैं, उसके सच को निरूपित करने के लिये कुछ जानना चाहते हैं, उसके पहले ही प्रश्नकर्ता यह तय कर लेता है कि वह क्या जानना चाहता है । इस प्रकार हर जांच की अपनी एक विचारधारात्मक मांग होती है और उस जांच की ओर बढ़ने के पहले ही उसके बारे में एक अवधारणा काम कर रही होती है । इसके साथ ही, जो एक बड़ी बात जाहिर होती है वह यह कि इस जगत का सत्य एक नहीं है, अनेक हैं, यह वैविध्य का समुच्चय है ; ब्रह्मांड के अनेक ग्रहों-नक्षत्रों का समुच्चय, जिन सबके अपने-अपने और भी उपग्रह हैं । इन असंख्य प्रकार के संसारों के समुच्चय में हर दुनिया के पास अपना एक सत्य गढ़ने की क्षमता होती है । इसकी विविधता को ऐसे ही, किसी एक आदर्श की बात से खारिज नहीं किया जा सकता है ।
लेकिन जब साधक, शोधकर्ता के पास कोई सवाल नहीं होते हैं, तभी यह तत्काल समझ लेने की जरूरत है कि वह इस जगत में अपने लिये सिर्फ सुख की तलाश में लगे हुए महज एक पशु की तरह है । उसके लिये साहित्य की हैसियत सिर्फ छपे हुए शब्दों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, उसके लिये यह एक ऐसा उत्तर-आधुनिक किस्म का विश्वास है जिसमें मनुष्यों के संसार को महज शरीरों और भाषाओं का संसार मान लिया जाता है । उसमें इसके सत्य का कोई स्थान नहीं होता है । अगर कोई इसके सत्य की बात भी करता है तो कुछ भारी भरकम खोखले शब्दों, अलंकारों की जुगाली भर करता दिखाई देता है । क्योंकि, सत्य की थाह पाने के लिये प्रत्यक्ष और स्थापित व्यवस्था के ताने-बाने को जिस प्रकार चीरने की जरूरत है, उस जुझारू तेवर का उसमें सर्वथा अभाव होता है ।
इस टिप्पणी की तैयारी के सिलसिले में चार दिन पहले 'अनहद' पत्रिका के संपादक संतोष चतुर्वेदी से बात हो रही थी । एक संपादक के नाते मैं उनसे पूछ रहा था कि आज कौन से लेखक है जिनका लिखा आपको आकर्षित करता है, और वे क्या लिख रहे हैं ? संतोष जी ने बहुत साफ शब्दों में कहा कि सर, आजकल अधिकांश लेखक अपने वाहियात से वाहियात लेखन को सर्वश्रेष्ठ माने हुए प्रायः आत्ममुग्ध रहते हैं । वे न दूसरा कुछ पढ़ते हैं और न ही कुछ सीखना चाहते हैं । उनकी बातों ने हमारी धारणा को पुष्ट किया । सचमुच एक अजीब से आदर्शशून्य विश्वास ने आज के लेखक के मन में घर कर लिया है जिसमें यह संसार सिर्फ मनुष्यों के शरीर अर्थात उनकी काया और भाषा का समुच्चय है । सबकी स्वाभाविकता उनकी निजी लालसाओं के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
ऐसे में आज जरूरत है साहित्य के मुजाहिद वाले एक निश्चयमूलक आदर्श के, स्वातंत्र्य के शिव तत्व को प्राप्त करने की । इस प्रकाश की चेतना शक्ति में किसी इतरस्वाभावानुप्रवेश के योग से कोई लाभ नहीं है । कुल मिला कर मूल बात है इस जगत के प्रत्यक्ष को चीर कर देखने का युयुत्सु भाव । हाइडेगर का एक प्रसिद्ध कथन है कि आप विषय के एकदम तल में प्रवेश कीजिए, आपको विषय की मृत्यु के दर्शन हो जायेंगे । इस जगत की मुर्दानगी को जानने के लिये ही इसके तल में जाना होगा । सन् 1980 के दशक के जमाने में इसी भाव ने हमारी 'कलम' की तरह की छोटी सी पत्रिका ने सोये हुए साहित्य जगत में हलचल पैदा करने में एक अहम भूमिका अदा की थी । आज इसे और गहराई से समझने की जरूरत है ।
अंत में, साहित्य जिंदा रहता है प्रतिवाद में, विद्रोह में, वर्जना-रहित प्रेम में, मनुष्य की अबाध स्वतंत्रता में । साहित्यकार की स्वतंत्रता पर किसी भी किस्म का अनावश्यक दबाव साहित्य की अपनी सत्ता के मूल पर हमले से कम नहीं है, इसे इस क्षेत्र से जुड़े हर किसी को समझने की जरूरत है । यही किसी साहित्य आंदोलन की प्रभावोत्पादकता का भी मूलभूत निर्णायक तत्व है । कल (16 मार्च 2018) के 'टेलिग्राफ' में अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का एक लेख है — The importance of dissatisfaction । इसमें उन्होंने अकादमिक दुनिया के जिस संदर्भ में व्यवस्था से हट कर एक प्रकार की ‘epistemic exteriorty’ तत्वमीमांसक दूरी की जो बात की है, लेखन की दुनिया का तो सत्य ही उस में निहित है ।
1. Alain Badiou, Logics of Worlds, Bloomsbury, 2015, page – 1-9
2. Umberto Eco, On Literature, Vintage Books, page-1
3. Georg Wilhelm Friedrich Hegel, Introductory Lectures on Aesthetics, Penguin, p. 39)
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