—अरुण माहेश्वरी
कैंब्रिज एनालिटिका (सीए), फेसबुक, ट्रंप और मोदी की फेसबुक से लोगों के निजी डाटा की चोरी के कांड के बारे में जितना सुनता हूं, आज की दुनिया के कम्युनिस्ट दार्शनिक एलेन बाद्यू बहुत याद आते हैं । 'गणित तत्वमीमांसा है' (Mathematics is ontology) । हेगेल ने दर्शनशास्त्र को तर्कशास्त्र बताया था और बाद्यू उससे और एक कदम आगे उसे बिल्कुल संख्या-तत्व वाले गणितशास्त्र में बदल देते हैं ।
आज आदमी को महज एक डाटा में बदल कर उसकी असंख्य श्रेणियों के जरिये उसके मनोविज्ञान के सूक्ष्मतर पहलुओं तक को नियंत्रित करने का फेसबुक और राजनीतिज्ञों का यह जो काला जादू वाला खेल दिखाई दे रहा है, इसके मूल में कहीं न कहीं दर्शनशास्त्र का यही वैज्ञानिक सत्य काम कर रहा है कि 'गणित तत्वमीमांसा है' ; आदमी के सभी व्यवहारों को एक संख्या तत्व में उतार लिया जा सकता है ! दर्शनशास्त्र को तर्कशास्त्र से और तत्वमीमांसा को अनिवार्य तौर पर गणित से जोड़ कर देख पाने की पश्चिमी जगत की इसी खास विशेषता को रेखांकित करते हुए बाद्यू लिखते हैं कि आदमी की प्राणी सत्ता की असली पहचान गणितीय तत्वमीमांसा (mathematical ontology) से ही मुमकिन है । आधिभौतिक दार्शनिक चिंतन मनुष्य को मूलतः एक वरदान के रूप में देखता है और इसीलिये वह उसकी प्राणीसत्ता की सटीक तत्वमीमांसा नहीं कर सकता है । उसकी मीमांसा में एक प्रकार की ऐसी काव्यात्मकता होती है जिसमें न सिर्फ सामने जो दिखाई देता है, उसी का विसर्जन होता है, बल्कि इसके साथ ही वस्तु के मूल तत्व का भी एक प्रकार से अंत हो जाता है । यह आपको प्राणी के बारे में सिर्फ एक अनुमान तक ले जा सकती है । इस मीमांसा के काव्यात्मक सम्मोहन से बचना मुश्कल होता है, लेकिन सच्चाई यह है कि प्राणी की अपनी तात्विकता किसी अन्य चीज को अपने पास फटकने नहीं देती है, बल्कि वह अपने को तमाम लाग-लपेट से मुक्त निपट नग्न रूप में कायम रखती है । किसी भी सम्मोहक लय में वह अपने को विसर्जित नहीं करती है ।
बाद्यू कहते हैं कि इस आधिभौतिक चिंतन के सम्मोहनकारी प्रभाव से बचने की कोशिश में अक्सर तत्वमीमांसा प्रत्यक्ष के जंगल में फंस जाती है । इसीसे बचने के लिये ही बाद्यू गणितीय तत्वमीमांसा की जरूरत की बात कहते हैं और उसमें यहां तक कह जाते हैं कि युनान को सिर्फ इसी वजह से दर्शनशास्त्र की जन्मभूमि माना जाता है, क्योंकि वहीं पर निगमनात्मक गणित (deductive mathematics) के जरिये, गणितीय क्रियाओं में निहित संरचनात्मक रूपों को निकालने (extraction of structural forms latent in the conduct of numerical operations) की तत्वमीमांसा के लिये जरूरी विमर्श की दिशा में बढ़ा गया था । इस दर्शनशास्त्र-गणित धुरी ने ही युनान को दर्शनशास्त्र की जन्मभूमि कहलाने का हकदार बनाया है । (देखें — Alain Badiou, Being and Event, Bloomsburry, Introduction,page – 10-11)
राजनीति जो जनतंत्र में नागरिकों को लेकर किया जाने वाला एक कारोबार है, उसमें यदि किसी भी प्रकार से नागरिक को महज एक संख्या अर्थात डाटा में बदल दिया जाए, तो इस डाटा पर अधिकार के जरिये नागरिकों पर अधिकार करना कितना आसान हो जाता है, इसी का उदाहरण है कैंब्रिज एनालिटिका, फेसबुक आदि से जुड़ा हुआ यह पूरा प्रकरण जिसने आज भारत की राजनीति को गर्म कर रखा है । यह समूचा मामला प्रकारांतर से बाद्यू के कथन की एक पुष्टि भी करता है ।
इस मामले में अब तक जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे यह साफ पता चलता है कि नागरिकों के जीवन से संबंधित निजी तथ्यों की चोरी और राजनीति में उनके प्रयोग का यह संगठित सिलसिला दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारत में ही सबसे पहले शुरू हुआ था । 2013 से ही मोदी-शाह-आरएसएस गिरोह ने उस बदनाम कैंब्रिज एनालिटिका नाम की ब्रिटिश कंपनी की सेवाओं को लेना शुरू कर दिया था, जिसकी सेवाएं बाद में अमेरिका में ट्रंप ने ली, ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के पक्ष के लोगों ने भी लीं । आज उस कंपनी को सारी दुनिया में एक अपराधी डाटा चोर कंपनी माना जा रहा है । फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग के साथ मिल कर लोगों के डाटा चुरा कर उसने मोदी-शाह, ट्रंप, ब्रेक्सिट आदि अपने राजनीतिक ग्राहकों को मोटी रकम पर बेचा था । दस महीने पहले यूरोपियन यूनियन ने डाटा चोरी के आरोप में व्हाट्स अप और फेसबुक पर लगभग अढाई करोड़ यूरो का जुर्माना लगाया था । ब्रिटेन के सूचना आयुक्त ने भी एक जांच के जरिये कैंब्रिज एनालिटिका और फेसबुक को लोगों के निजी डाटा चुरा कर उससे व्यापर करने का अपराधी पाया और इसी 20 मार्च 2018 को फेसबुक पर पांच लाख पौंड का जुर्माना लगाते हुए कहा है कि आगामी मई महीने में उनके देश का डाटा सुरक्षा कानून पारित हो जाने पर जुर्माने की यह राशि बढ़ कर फेसबुक के कुल वैश्विक कारोबार के 4 प्रतिशत तक चली जायेगी । (देखें — https://www.reuters.com/article/us-facebook-cambridgeanalytica/uk-investigates-facebook-over-data-breach-to-raid-cambridge-analytica-idUSKBN1GW0WX)
20 मार्च को ब्रिटेन में जब सारी दुनिया में कैंब्रिज एनालिटिका का नाम उछला, तभी हमारे देश के सूचना मंत्री रविशंकर प्रसाद भी यहां उछल पड़ें और एक संवाददाता सम्मेलन करके उन्होंने कांग्रेस दल पर यह आरोप लगाया कि पिछले गुजरात चुनाव के वक्त कांग्रेस दल ने इसी बदनाम कंपनी की सहायता से गुजरात के मतदाताओं से जुड़े डाटा की चोरी की थी । रविशंकर प्रसाद अपनी चिर-परिचित वीर रस वाली मुद्रा में फुफकारते हुए जब कांग्रेस को कोस रहे थे तब इन 'भोले पंछी' को यह नहीं पता था कि कैंब्रिज एनालिटिका का नाम उछाल कर वे एक प्रकार से सेम-साइड गोल कर रहे हैं । कांग्रेस ने उनके आरोपों के जवाब में पलट कर वे सारे दस्तावेज आम कर दिये जिनसे पता चलता है कि यह कंपनी तो 2012 से ही मोदी-आरएसएस की सेवा में लगी हुई है । टीवी चैनलों पर भाजपा के साथ इस कंपनी के गाढ़े संबंधों के और भी तमाम तथ्य आने लगे, और अंत में देखा गया कि रविशंकर प्रसाद ने सीधे फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग को 'भारत बुला लेने' की एक हास्यकर गीदड़ भभकी देकर अपनी ओर से मामले को रफा-दफा कर दिया । लेकिन जो चीज एक बार आम लोगों की नजरों में आ चुकी है, उसे किसी की मर्जी मात्र से इतनी आसानी से इस प्रकार गायब नहीं किया जा सकता है । आज यह मामला भारत की पूरी राजनीति का एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है ।
बहरहाल, इस विषय से हमारे सामने दूसरे और भी कई बड़े सवाल उठ खड़े होते हैं । सबसे पहला सवाल तो यही है कि जनतांत्रिक चुनावों को भ्रष्ट बनाने का यह जो रोग भारत में सबसे पहले लगा था, वह उस समय तक दुनिया में किसी चर्चा का विषय क्यों नहीं बन पाया जब तक वह एक भारी संक्रामक रोग की तरह कई समुद्र पार करके अमेरिका तक नहीं पहुंच गया ? इसीसे पता चलता है कि हमारा समाज किस हद तक एक सड़े हुए समाज में बदल चुका है । विदेशी कंपनियां और सरकारें अपने तमाम प्रकार के भौतिक और वैचारिक विषाणुओं के उत्पादन की प्रयोगशाला के रूप में बेढड़क इस जमीन का इस्तेमाल करती है और उन्हें आरएसएस-मोदी की तरह के राष्ट्र-विरोधी कामों के घुटे हुए स्वार्थी तत्व बड़ी आसानी से अपनी सारी सेवाएं देने के लिये यहां पलक पांवड़े बिछाये मिल जाते हैं ; बल्कि वे इन घिनौने कामों के लिये उन्हें बाकायदा नियुक्त करते हैं । और भी शर्मनाक बात यह है कि भारत के इन अनैतिक राजनीतिज्ञों की मुट्ठी में आज यहां का पूरा मीडिया भी है जिसका अपना कोई जमीर नहीं बचा है । यह गुलाम मीडिया इनकी तमाम काली करतूतों पर पर्दादारी में लगा रहता है । कहीं से किसी को कुछ सुराग हाथ भी लग जाए तो उसे दबाने में उसकी ज्यादा दिलचस्पी होती है ।
जब अमेरिका में ट्रंप की अप्रत्याशित जीत के बाद इस विषय पर चर्चा शुरू हुई तो उसके बाद ही चर्चा के क्रम में मानव जीवन के इस नये युग को परिभाषित करने वाले एक नये पद, उत्तर-सत्य (post-truth) का जन्म हो गया । सत्य के परे, झूठ और झूठ और झूठ के रसातल में ही डूबे हुए जीवन के नये युग का । इसमें पूर्व से आदमी के मानस में किसी विश्वास के रूप में बैठा हुआ झूठ ही नहीं काम करता है, बल्कि यह जान-बूझ कर गढ़ा जा रहा, फैलाया जा रहा और अपनाया जा रहा झूठ है । उत्तर-सत्य की राजनीति की कई अजीबो-गरीब लाक्षणिकताओं को भी लक्ष्य किया गया । इसमें बहुत गहरे तक बौद्धिकता की, पढ़े-लिखे लोगों की खिल्ली उड़ाने का एक प्रमुख भाव होता है, क्योंकि इसे आजमाने वाले नेता यह जानते हैं कि जिन लोगों को वे संबोधित कर रहे हैं, उनका सच के ऊपर से, समझदार और बुद्धिमान माने जाने वाले लोगों के ऊपर से विश्वास पहले ही उठ चुका हैं !
इसी में जुड़ा हुआ है मीडिया के विस्फोट का पहलू । इसके चलते खास-खास विश्वसनीय सूचना केंद्रों के बिखराव से झूठ और अफवाहों के केंद्रों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । सारी दुनिया में 'व्हाट्स अप' इंडस्ट्री तो झूठ की फैक्ट्री मानी जाती है । इसके ग्रुप के सदस्य आपस में ही एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, और किसी पर नहीं । इस प्रकार के केंद्रों से फैलाये जाने वाले झूठ की काट भी मुश्किल होती है । फलतः मीडिया में सारी बहसें झूठ पर ही केंद्रित हो जाती है । जीवन के असली विषय पीछे छूट जाते हैं । भारत के टीवी मीडिया पर जब मोदी के आईटी सेल का छोड़ा हुआ दूसरा कोई मुद्दा नहीं होता है तब किम जोंग उन या सीरिया, इराक की कहानियां छाई रहती है ।
इस उत्तर-सत्य की राजनीति की सबसे बुरी बात यह है कि इसमें समय के साथ अपने आप सुधार की कोई गुंजाईश नहीं होती है । जिस किसी ने यह सोचा होगा कि सत्ता पर आने के बाद मोदी जैसे झूठ बोलने वाले व्यक्ति में जिम्मेदारी का बोध पैदा हो जायेगा, उसे सिवाय निराशा के न आज तक कुछ हाथ लगा है और न आगे लगने वाला है । आम जनता में बढ़ता हुआ अविश्वास और एक प्रकार का विच्छिन्नता बोध इस प्रकार की राजनीति के लिये उर्वर जमीन तैयार करता है ; कुल मिला कर फासीवाद बल पाता है । (देखें — https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_18.html)
इसी सिलसिले में हम आते हैं फेसबुक पर । दुनिया में संचार की दुनिया का बादशाह, इस माध्यम ने आज लोगों की अभिव्यक्ति मात्र के एक सबसे प्रभावशाली माध्यम का रूप ले लिया है । लेकिन हमारे देखते ही देखते, अपने अस्तित्व के तर्क के चलते ही, यह स्वयं में अब एक सबसे बड़ी समस्या बन गया है । अभी के पूरे प्रकरण के केंद्र में फेसबुक ही है ।
पिछले दिनों अपनी “वर्चस्व की राजनीति का वर्ष 2015 और फेसबुक की इबारतें” पुस्तक की भूमिका, 'फेसबुक और हम' लिखते वक्त अनायास ही हमने उसमें काफी विस्तार से इस माध्यम के अपने मूल व्यवसायिक स्वरूप की एक जांच की थी । तभी हमने इसके पूरे बिजनेस मॉडल में खुफियागिरी को एक अनिवार्य तत्व के रूप में पाया था । हमने लिखा था कि “अपने विज्ञापनदाताओं को चुनिंदा रूप से उन लोगों तक पहुंचाना, जो विज्ञापनदाता के उत्पाद में दिलचस्पी रख सकते हैं — यह फेसबुक का सबसे प्रमुख काम है । खुफियागिरी पर आधारित इस कारोबार के आगे और कितने भयानक रूप सामने आ सकते हैं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है । फेसबुक और गूगल के पास किसी भी व्यक्ति की मानसिकता, उसकी रूचि और उसकी गतिविधियों के बारे में जितनी सूचनाएं होती है, उतनी तो दुनिया की किसी सरकार के पास भी नहीं होती है । गूगल के बारे में यह खबर भी है कि उसने अमेरिका के खुफिया तंत्र से अपने तार जोड़ लिये हैं और सीआईए, एफबीआई की तरह की संस्थाओं के साथ उसके बाकायदा व्यापारिक संपर्क कायम हो चुके हैं ।” इसे ही हमने फेसबुक की बदनामी और उसके अस्तित्व के लिये एक खतरे की घंटी के रूप में देखा था जो इससे लोगों को दूर रहने का सबब बन सकता है । और अगर फेसबुक का प्रयोग करने वाले ही इससे विरत हो जाते हैं तो कहना न होगा, इसका पूरा बिजनेस मॉडल ही ध्वस्त हो जायेगा । इसीलिये हमारा मानना था कि फेसबुक की तरह के लोगों से संपर्क के आधार पर टिके व्यवसायिक स्वरूपों में ही इनके ध्वंस के कारण भी मौजूद हैं । (देखें— https://chaturdik.blogspot.in/2017/12/blog-post_15.html)
बहरहाल, हम एक ऐसे काल में इस पूरे कांड के जरिये नागरिकों को महज एक डाटा में तब्दील होता हुआ देख रहे हैं, जिसे कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) का काल भी कहते हैं । अब तक मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले कामों को आगे कम्प्यूटर द्वारा स्व-संचालित रोबोट किस्म की मशीनें करेगी । ऐसे समय में यदि सचमुच मनुष्य की प्राणी-सत्ता को महज एक डाटा में बदल दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं होगा जब इन डाटा के जरिये रोबोट मनुष्यों के समाज को नियंत्रित करने लगेगा । डाटा के जरिये चुनावों को प्रभावित करने की बात का यही तो मूल अर्थ भी है जो मानव सभ्यता मात्र के लिये एक बड़े खतरे का संकेत है । ऐसे निष्कर्षों को बाद्यू की गणितीय तत्व मीमांसा की पूरी अवधारणा से भी निकाला जा सकता है ।
कैंब्रिज एनालिटिका (सीए), फेसबुक, ट्रंप और मोदी की फेसबुक से लोगों के निजी डाटा की चोरी के कांड के बारे में जितना सुनता हूं, आज की दुनिया के कम्युनिस्ट दार्शनिक एलेन बाद्यू बहुत याद आते हैं । 'गणित तत्वमीमांसा है' (Mathematics is ontology) । हेगेल ने दर्शनशास्त्र को तर्कशास्त्र बताया था और बाद्यू उससे और एक कदम आगे उसे बिल्कुल संख्या-तत्व वाले गणितशास्त्र में बदल देते हैं ।
आज आदमी को महज एक डाटा में बदल कर उसकी असंख्य श्रेणियों के जरिये उसके मनोविज्ञान के सूक्ष्मतर पहलुओं तक को नियंत्रित करने का फेसबुक और राजनीतिज्ञों का यह जो काला जादू वाला खेल दिखाई दे रहा है, इसके मूल में कहीं न कहीं दर्शनशास्त्र का यही वैज्ञानिक सत्य काम कर रहा है कि 'गणित तत्वमीमांसा है' ; आदमी के सभी व्यवहारों को एक संख्या तत्व में उतार लिया जा सकता है ! दर्शनशास्त्र को तर्कशास्त्र से और तत्वमीमांसा को अनिवार्य तौर पर गणित से जोड़ कर देख पाने की पश्चिमी जगत की इसी खास विशेषता को रेखांकित करते हुए बाद्यू लिखते हैं कि आदमी की प्राणी सत्ता की असली पहचान गणितीय तत्वमीमांसा (mathematical ontology) से ही मुमकिन है । आधिभौतिक दार्शनिक चिंतन मनुष्य को मूलतः एक वरदान के रूप में देखता है और इसीलिये वह उसकी प्राणीसत्ता की सटीक तत्वमीमांसा नहीं कर सकता है । उसकी मीमांसा में एक प्रकार की ऐसी काव्यात्मकता होती है जिसमें न सिर्फ सामने जो दिखाई देता है, उसी का विसर्जन होता है, बल्कि इसके साथ ही वस्तु के मूल तत्व का भी एक प्रकार से अंत हो जाता है । यह आपको प्राणी के बारे में सिर्फ एक अनुमान तक ले जा सकती है । इस मीमांसा के काव्यात्मक सम्मोहन से बचना मुश्कल होता है, लेकिन सच्चाई यह है कि प्राणी की अपनी तात्विकता किसी अन्य चीज को अपने पास फटकने नहीं देती है, बल्कि वह अपने को तमाम लाग-लपेट से मुक्त निपट नग्न रूप में कायम रखती है । किसी भी सम्मोहक लय में वह अपने को विसर्जित नहीं करती है ।
बाद्यू कहते हैं कि इस आधिभौतिक चिंतन के सम्मोहनकारी प्रभाव से बचने की कोशिश में अक्सर तत्वमीमांसा प्रत्यक्ष के जंगल में फंस जाती है । इसीसे बचने के लिये ही बाद्यू गणितीय तत्वमीमांसा की जरूरत की बात कहते हैं और उसमें यहां तक कह जाते हैं कि युनान को सिर्फ इसी वजह से दर्शनशास्त्र की जन्मभूमि माना जाता है, क्योंकि वहीं पर निगमनात्मक गणित (deductive mathematics) के जरिये, गणितीय क्रियाओं में निहित संरचनात्मक रूपों को निकालने (extraction of structural forms latent in the conduct of numerical operations) की तत्वमीमांसा के लिये जरूरी विमर्श की दिशा में बढ़ा गया था । इस दर्शनशास्त्र-गणित धुरी ने ही युनान को दर्शनशास्त्र की जन्मभूमि कहलाने का हकदार बनाया है । (देखें — Alain Badiou, Being and Event, Bloomsburry, Introduction,page – 10-11)
राजनीति जो जनतंत्र में नागरिकों को लेकर किया जाने वाला एक कारोबार है, उसमें यदि किसी भी प्रकार से नागरिक को महज एक संख्या अर्थात डाटा में बदल दिया जाए, तो इस डाटा पर अधिकार के जरिये नागरिकों पर अधिकार करना कितना आसान हो जाता है, इसी का उदाहरण है कैंब्रिज एनालिटिका, फेसबुक आदि से जुड़ा हुआ यह पूरा प्रकरण जिसने आज भारत की राजनीति को गर्म कर रखा है । यह समूचा मामला प्रकारांतर से बाद्यू के कथन की एक पुष्टि भी करता है ।
इस मामले में अब तक जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे यह साफ पता चलता है कि नागरिकों के जीवन से संबंधित निजी तथ्यों की चोरी और राजनीति में उनके प्रयोग का यह संगठित सिलसिला दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में भारत में ही सबसे पहले शुरू हुआ था । 2013 से ही मोदी-शाह-आरएसएस गिरोह ने उस बदनाम कैंब्रिज एनालिटिका नाम की ब्रिटिश कंपनी की सेवाओं को लेना शुरू कर दिया था, जिसकी सेवाएं बाद में अमेरिका में ट्रंप ने ली, ब्रिटेन में ब्रेक्सिट के पक्ष के लोगों ने भी लीं । आज उस कंपनी को सारी दुनिया में एक अपराधी डाटा चोर कंपनी माना जा रहा है । फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग के साथ मिल कर लोगों के डाटा चुरा कर उसने मोदी-शाह, ट्रंप, ब्रेक्सिट आदि अपने राजनीतिक ग्राहकों को मोटी रकम पर बेचा था । दस महीने पहले यूरोपियन यूनियन ने डाटा चोरी के आरोप में व्हाट्स अप और फेसबुक पर लगभग अढाई करोड़ यूरो का जुर्माना लगाया था । ब्रिटेन के सूचना आयुक्त ने भी एक जांच के जरिये कैंब्रिज एनालिटिका और फेसबुक को लोगों के निजी डाटा चुरा कर उससे व्यापर करने का अपराधी पाया और इसी 20 मार्च 2018 को फेसबुक पर पांच लाख पौंड का जुर्माना लगाते हुए कहा है कि आगामी मई महीने में उनके देश का डाटा सुरक्षा कानून पारित हो जाने पर जुर्माने की यह राशि बढ़ कर फेसबुक के कुल वैश्विक कारोबार के 4 प्रतिशत तक चली जायेगी । (देखें — https://www.reuters.com/article/us-facebook-cambridgeanalytica/uk-investigates-facebook-over-data-breach-to-raid-cambridge-analytica-idUSKBN1GW0WX)
20 मार्च को ब्रिटेन में जब सारी दुनिया में कैंब्रिज एनालिटिका का नाम उछला, तभी हमारे देश के सूचना मंत्री रविशंकर प्रसाद भी यहां उछल पड़ें और एक संवाददाता सम्मेलन करके उन्होंने कांग्रेस दल पर यह आरोप लगाया कि पिछले गुजरात चुनाव के वक्त कांग्रेस दल ने इसी बदनाम कंपनी की सहायता से गुजरात के मतदाताओं से जुड़े डाटा की चोरी की थी । रविशंकर प्रसाद अपनी चिर-परिचित वीर रस वाली मुद्रा में फुफकारते हुए जब कांग्रेस को कोस रहे थे तब इन 'भोले पंछी' को यह नहीं पता था कि कैंब्रिज एनालिटिका का नाम उछाल कर वे एक प्रकार से सेम-साइड गोल कर रहे हैं । कांग्रेस ने उनके आरोपों के जवाब में पलट कर वे सारे दस्तावेज आम कर दिये जिनसे पता चलता है कि यह कंपनी तो 2012 से ही मोदी-आरएसएस की सेवा में लगी हुई है । टीवी चैनलों पर भाजपा के साथ इस कंपनी के गाढ़े संबंधों के और भी तमाम तथ्य आने लगे, और अंत में देखा गया कि रविशंकर प्रसाद ने सीधे फेसबुक के मार्क जुकरबर्ग को 'भारत बुला लेने' की एक हास्यकर गीदड़ भभकी देकर अपनी ओर से मामले को रफा-दफा कर दिया । लेकिन जो चीज एक बार आम लोगों की नजरों में आ चुकी है, उसे किसी की मर्जी मात्र से इतनी आसानी से इस प्रकार गायब नहीं किया जा सकता है । आज यह मामला भारत की पूरी राजनीति का एक महत्वपूर्ण विषय बना हुआ है ।
बहरहाल, इस विषय से हमारे सामने दूसरे और भी कई बड़े सवाल उठ खड़े होते हैं । सबसे पहला सवाल तो यही है कि जनतांत्रिक चुनावों को भ्रष्ट बनाने का यह जो रोग भारत में सबसे पहले लगा था, वह उस समय तक दुनिया में किसी चर्चा का विषय क्यों नहीं बन पाया जब तक वह एक भारी संक्रामक रोग की तरह कई समुद्र पार करके अमेरिका तक नहीं पहुंच गया ? इसीसे पता चलता है कि हमारा समाज किस हद तक एक सड़े हुए समाज में बदल चुका है । विदेशी कंपनियां और सरकारें अपने तमाम प्रकार के भौतिक और वैचारिक विषाणुओं के उत्पादन की प्रयोगशाला के रूप में बेढड़क इस जमीन का इस्तेमाल करती है और उन्हें आरएसएस-मोदी की तरह के राष्ट्र-विरोधी कामों के घुटे हुए स्वार्थी तत्व बड़ी आसानी से अपनी सारी सेवाएं देने के लिये यहां पलक पांवड़े बिछाये मिल जाते हैं ; बल्कि वे इन घिनौने कामों के लिये उन्हें बाकायदा नियुक्त करते हैं । और भी शर्मनाक बात यह है कि भारत के इन अनैतिक राजनीतिज्ञों की मुट्ठी में आज यहां का पूरा मीडिया भी है जिसका अपना कोई जमीर नहीं बचा है । यह गुलाम मीडिया इनकी तमाम काली करतूतों पर पर्दादारी में लगा रहता है । कहीं से किसी को कुछ सुराग हाथ भी लग जाए तो उसे दबाने में उसकी ज्यादा दिलचस्पी होती है ।
जब अमेरिका में ट्रंप की अप्रत्याशित जीत के बाद इस विषय पर चर्चा शुरू हुई तो उसके बाद ही चर्चा के क्रम में मानव जीवन के इस नये युग को परिभाषित करने वाले एक नये पद, उत्तर-सत्य (post-truth) का जन्म हो गया । सत्य के परे, झूठ और झूठ और झूठ के रसातल में ही डूबे हुए जीवन के नये युग का । इसमें पूर्व से आदमी के मानस में किसी विश्वास के रूप में बैठा हुआ झूठ ही नहीं काम करता है, बल्कि यह जान-बूझ कर गढ़ा जा रहा, फैलाया जा रहा और अपनाया जा रहा झूठ है । उत्तर-सत्य की राजनीति की कई अजीबो-गरीब लाक्षणिकताओं को भी लक्ष्य किया गया । इसमें बहुत गहरे तक बौद्धिकता की, पढ़े-लिखे लोगों की खिल्ली उड़ाने का एक प्रमुख भाव होता है, क्योंकि इसे आजमाने वाले नेता यह जानते हैं कि जिन लोगों को वे संबोधित कर रहे हैं, उनका सच के ऊपर से, समझदार और बुद्धिमान माने जाने वाले लोगों के ऊपर से विश्वास पहले ही उठ चुका हैं !
इसी में जुड़ा हुआ है मीडिया के विस्फोट का पहलू । इसके चलते खास-खास विश्वसनीय सूचना केंद्रों के बिखराव से झूठ और अफवाहों के केंद्रों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है । सारी दुनिया में 'व्हाट्स अप' इंडस्ट्री तो झूठ की फैक्ट्री मानी जाती है । इसके ग्रुप के सदस्य आपस में ही एक-दूसरे पर विश्वास करते हैं, और किसी पर नहीं । इस प्रकार के केंद्रों से फैलाये जाने वाले झूठ की काट भी मुश्किल होती है । फलतः मीडिया में सारी बहसें झूठ पर ही केंद्रित हो जाती है । जीवन के असली विषय पीछे छूट जाते हैं । भारत के टीवी मीडिया पर जब मोदी के आईटी सेल का छोड़ा हुआ दूसरा कोई मुद्दा नहीं होता है तब किम जोंग उन या सीरिया, इराक की कहानियां छाई रहती है ।
इस उत्तर-सत्य की राजनीति की सबसे बुरी बात यह है कि इसमें समय के साथ अपने आप सुधार की कोई गुंजाईश नहीं होती है । जिस किसी ने यह सोचा होगा कि सत्ता पर आने के बाद मोदी जैसे झूठ बोलने वाले व्यक्ति में जिम्मेदारी का बोध पैदा हो जायेगा, उसे सिवाय निराशा के न आज तक कुछ हाथ लगा है और न आगे लगने वाला है । आम जनता में बढ़ता हुआ अविश्वास और एक प्रकार का विच्छिन्नता बोध इस प्रकार की राजनीति के लिये उर्वर जमीन तैयार करता है ; कुल मिला कर फासीवाद बल पाता है । (देखें — https://chaturdik.blogspot.in/2018/02/blog-post_18.html)
इसी सिलसिले में हम आते हैं फेसबुक पर । दुनिया में संचार की दुनिया का बादशाह, इस माध्यम ने आज लोगों की अभिव्यक्ति मात्र के एक सबसे प्रभावशाली माध्यम का रूप ले लिया है । लेकिन हमारे देखते ही देखते, अपने अस्तित्व के तर्क के चलते ही, यह स्वयं में अब एक सबसे बड़ी समस्या बन गया है । अभी के पूरे प्रकरण के केंद्र में फेसबुक ही है ।
पिछले दिनों अपनी “वर्चस्व की राजनीति का वर्ष 2015 और फेसबुक की इबारतें” पुस्तक की भूमिका, 'फेसबुक और हम' लिखते वक्त अनायास ही हमने उसमें काफी विस्तार से इस माध्यम के अपने मूल व्यवसायिक स्वरूप की एक जांच की थी । तभी हमने इसके पूरे बिजनेस मॉडल में खुफियागिरी को एक अनिवार्य तत्व के रूप में पाया था । हमने लिखा था कि “अपने विज्ञापनदाताओं को चुनिंदा रूप से उन लोगों तक पहुंचाना, जो विज्ञापनदाता के उत्पाद में दिलचस्पी रख सकते हैं — यह फेसबुक का सबसे प्रमुख काम है । खुफियागिरी पर आधारित इस कारोबार के आगे और कितने भयानक रूप सामने आ सकते हैं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है । फेसबुक और गूगल के पास किसी भी व्यक्ति की मानसिकता, उसकी रूचि और उसकी गतिविधियों के बारे में जितनी सूचनाएं होती है, उतनी तो दुनिया की किसी सरकार के पास भी नहीं होती है । गूगल के बारे में यह खबर भी है कि उसने अमेरिका के खुफिया तंत्र से अपने तार जोड़ लिये हैं और सीआईए, एफबीआई की तरह की संस्थाओं के साथ उसके बाकायदा व्यापारिक संपर्क कायम हो चुके हैं ।” इसे ही हमने फेसबुक की बदनामी और उसके अस्तित्व के लिये एक खतरे की घंटी के रूप में देखा था जो इससे लोगों को दूर रहने का सबब बन सकता है । और अगर फेसबुक का प्रयोग करने वाले ही इससे विरत हो जाते हैं तो कहना न होगा, इसका पूरा बिजनेस मॉडल ही ध्वस्त हो जायेगा । इसीलिये हमारा मानना था कि फेसबुक की तरह के लोगों से संपर्क के आधार पर टिके व्यवसायिक स्वरूपों में ही इनके ध्वंस के कारण भी मौजूद हैं । (देखें— https://chaturdik.blogspot.in/2017/12/blog-post_15.html)
बहरहाल, हम एक ऐसे काल में इस पूरे कांड के जरिये नागरिकों को महज एक डाटा में तब्दील होता हुआ देख रहे हैं, जिसे कृत्रिम बुद्धि (artificial intelligence) का काल भी कहते हैं । अब तक मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले कामों को आगे कम्प्यूटर द्वारा स्व-संचालित रोबोट किस्म की मशीनें करेगी । ऐसे समय में यदि सचमुच मनुष्य की प्राणी-सत्ता को महज एक डाटा में बदल दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं होगा जब इन डाटा के जरिये रोबोट मनुष्यों के समाज को नियंत्रित करने लगेगा । डाटा के जरिये चुनावों को प्रभावित करने की बात का यही तो मूल अर्थ भी है जो मानव सभ्यता मात्र के लिये एक बड़े खतरे का संकेत है । ऐसे निष्कर्षों को बाद्यू की गणितीय तत्व मीमांसा की पूरी अवधारणा से भी निकाला जा सकता है ।
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