—अरुण माहेश्वरी
2018 भी गया । देखते-देखते हमने गिन लिये 2014 से 2018 तक के दुख भरे पांच साल ।
इस काल की शुरूआत हुई थी जब हमारे प्रिय लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने नरेन्द्र मोदी के चरित्र को भांपते हुए 2013 में ही कहा था कि मोदी के सत्ता पर आने पर वे भारत छोड़ कर चला जाना पसंद करेंगे । अनंतमूर्ति इनके शासन में आने के बाद ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे । लेकिन मोदी कंपनी से जुड़े आतंकवादियों ने मोदी के आने के पहले से ही नरेंद्र दाभोलकर की हत्या (2013) से अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का जो सिलसिला शुरू किया था, पानसारे और कलबुर्गी की हत्याओं (2015) और गौरी लंकेश की हत्या (2016) से अनंतमूर्ति के उस कथन की सचाई को प्रमाणित कर दिया कि मोदी शासन भारत को स्वतंत्रता-प्रेमी लेखकों और बुद्धिजीवियों के रहने के लिये उपयुक्त जगह नहीं रहने देगा । और अब इस काल के अंतिम समय में ही हाल यह है कि चंद महीनों पहले ही ‘अर्बन नक्सल’ के झूठे और घृणित अभियोगों पर मोदी-शाह ने खुद केंद्रीय स्तर से पहल करके हमारे देश के कुछ बहुत सभ्य और उच्च स्तर के बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर रखा है ।
इसी दौर में 2016 की नोटबंदी हुई जब आम गरीब लोगों को सरकार ने बैंकों के धक्के लगवा कर दौड़ा-दौड़ा कर मारा था । उस समय की चोटों के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं । गांव-शहर के किसान मजदूरों ने शायद ऐसा दुष्ट शासन पहले कभी नहीं देखा होगा । फटी बिवाईं से रिसते खून के साथ किसानों ने राजधानी शहरों में न जाने कितने मार्च किये, लेकिन शासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी । मजबूरन, अब आगामी 8-9 जनवरी 2019 के दो दिन देश भर के मजदूरों ने पूरी तरह से काम बंद करके अपने प्रतिवाद को दर्ज कराने का फैसला किया है ।
कहना न होगा, विगत पांच सालों की यह अवधि सचमुच एक ऐसे गतिरोध की अवधि रही है जब सारी चीजें जैसे संज्ञा-शून्य होकर जड़वत होती चली गई थी । जीवन के तमाम क्षेत्रों को जैसे काल की लंबी काली छाया ने घेर कर ठप कर दिया । कहीं किसी गति का नामो-निशान नजर नहीं आता है । यहां तक कि खेतों को आंखों के सामने चर रहे पशुओं को भी फटी आंख से निहारते रहने के अलावा किसान के पास अपनी फसल को बचाने का कोई उपाय शेष नहीं रह गया था । यह अजीब प्रकार के गोरखधंधों में फंसे लोगों का ऐसा शासन है जिसमें देश की हर समस्या का समाधान पाकिस्तान को गालियां दे कर ढूंढा जाता है । सन्निपात की स्थिति में फंसे लोगों की तरह ये लोग गाहे-बगाहे भगोड़े साधुओं की संगत में उन्मत्त हो कर राम मंदिर का जाप करने लगते हैं ।
इन पांच सालों ने जब पूरे राष्ट्र को बिल्कुल ठहर जाने के लिये मजबूर कर दिया, तभी सचमुच जैसे एक प्रवाह में बहते जा रहे जीवन को अपने अंतर में देखने की सुध भी आई है । राष्ट्र की सोई हुई आंखें अब खुलने लगी है । और अब जब लोगों ने करवट बदलनी शुरू की है, हम साफ तौर पर परिवर्तन के एक नये झंझावात के स्वरों को सुन पा रहे हैं । जो पागलों की तरह नाच रहे थे कि अब तो हम आने वाले पचासों साल तक इस देश की छाती पर मूंग दलेंगे, देखते-देखते भारत के लोगों ने उन्हें गरेबां पकड़ कर सत्ता की गद्दी से निकाल फेंकना शुरू कर दिया है ।
जनता के इस नये तेवर की झलक सबसे पहले गुजरात के चुनाव में देखने को मिली । फिर कर्नाटक में इनके मंसूबों को मात दिया गया । और अब इस साल के अंत तक तीन राज्यों में इनकी सरकारें ध्वस्त हुई । बाकी दो राज्यों में इनका कोई चिन्ह भी नहीं दिखाई दिया । और यह सब तब हुआ जब इन्होंने बेशुमार धन, सत्ता के सारे औजारों को पूरी बेशर्मी के साथ झोंक दिया था और किसी भी प्रकार के राजनीतिक दुराचार के हथकंडों से बाज नहीं आए थे । अजीत जोगी और मायावती की तरह की तैयार की गई बाधाएं भी जनाक्रोश के सामने कहीं टिक नहीं पाईं ।
अब, इसी बागी तेवर के साथ लोग 2019 के चुनाव का इंतजार कर रहे हैं । 8-9 जनवरी की देश-व्यापी श्रमिक हड़ताल के आह्वान से इसी लड़ाई का बिगुल बजाया गया है । इस हड़ताल में सभी दलों के ट्रेडयूनियन संगठन और किसान संगठन शामिल हैं ।
संघर्ष का यह बिगुल ही इस बात का भी ऐलान है कि 2019 का चुनाव भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक प्रत्यावर्त्तन का चुनाव साबित होने वाला है । आजादी की लड़ाई से हमारे राष्ट्र ने धर्म-निरपेक्षता, सामाजिक न्याय और जनतंत्र की जो दिशा पकड़ी थी, उसी शुद्ध आधार पर देश की आगे के दिनों की राजनीति को फिर से स्थापित करने का समय आ रहा है । इस लड़ाई के प्रति जो आज भी आशंकित है कि यह फिर उन हालातों में लौटने का सबब तो नहीं होगा जिनसे मोदी की तरह का तत्व पैदा हुआ था, वे या तो सचमुच इतिहास की गति के बारे में भ्रमित हैं या जानबूझ कर भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं ।
हम यह साफ देख रहे हैं कि मोदी सरकार ने समाज के सभी स्तरों पर जिस तीव्र और गहरे आक्रोश को पैदा कर दिया है, वह अभी दबा हुआ, बस फूटना चाहता है । 2019 का चुनाव उसी विस्फोट को प्रत्यक्ष करेगा । यह राजनीति में व्यापक जन-शक्ति की भूमिका के एक नये अध्याय का प्रारंभ होगा । भारत का आगे का रास्ता बदलेगा । नई राजनीति दलाल पूंजीपतियों को ठुकरा कर मेहनतकशों के हितों पर केंद्रित होगी, इसका हमें दृढ़ विश्वास है ।
इसीलिये आइये ! हम दोनों हाथ खोल 2019 के युद्ध का स्वागत करें । जनतंत्र की भूलुंठित पताका को आसमान में ऊंचा उठाएँ ! नये साल का जश्न मनाएँ !
2018 भी गया । देखते-देखते हमने गिन लिये 2014 से 2018 तक के दुख भरे पांच साल ।
इस काल की शुरूआत हुई थी जब हमारे प्रिय लेखक यू आर अनंतमूर्ति ने नरेन्द्र मोदी के चरित्र को भांपते हुए 2013 में ही कहा था कि मोदी के सत्ता पर आने पर वे भारत छोड़ कर चला जाना पसंद करेंगे । अनंतमूर्ति इनके शासन में आने के बाद ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे । लेकिन मोदी कंपनी से जुड़े आतंकवादियों ने मोदी के आने के पहले से ही नरेंद्र दाभोलकर की हत्या (2013) से अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का जो सिलसिला शुरू किया था, पानसारे और कलबुर्गी की हत्याओं (2015) और गौरी लंकेश की हत्या (2016) से अनंतमूर्ति के उस कथन की सचाई को प्रमाणित कर दिया कि मोदी शासन भारत को स्वतंत्रता-प्रेमी लेखकों और बुद्धिजीवियों के रहने के लिये उपयुक्त जगह नहीं रहने देगा । और अब इस काल के अंतिम समय में ही हाल यह है कि चंद महीनों पहले ही ‘अर्बन नक्सल’ के झूठे और घृणित अभियोगों पर मोदी-शाह ने खुद केंद्रीय स्तर से पहल करके हमारे देश के कुछ बहुत सभ्य और उच्च स्तर के बुद्धिजीवियों को जेल में बंद कर रखा है ।
इसी दौर में 2016 की नोटबंदी हुई जब आम गरीब लोगों को सरकार ने बैंकों के धक्के लगवा कर दौड़ा-दौड़ा कर मारा था । उस समय की चोटों के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं । गांव-शहर के किसान मजदूरों ने शायद ऐसा दुष्ट शासन पहले कभी नहीं देखा होगा । फटी बिवाईं से रिसते खून के साथ किसानों ने राजधानी शहरों में न जाने कितने मार्च किये, लेकिन शासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी । मजबूरन, अब आगामी 8-9 जनवरी 2019 के दो दिन देश भर के मजदूरों ने पूरी तरह से काम बंद करके अपने प्रतिवाद को दर्ज कराने का फैसला किया है ।
कहना न होगा, विगत पांच सालों की यह अवधि सचमुच एक ऐसे गतिरोध की अवधि रही है जब सारी चीजें जैसे संज्ञा-शून्य होकर जड़वत होती चली गई थी । जीवन के तमाम क्षेत्रों को जैसे काल की लंबी काली छाया ने घेर कर ठप कर दिया । कहीं किसी गति का नामो-निशान नजर नहीं आता है । यहां तक कि खेतों को आंखों के सामने चर रहे पशुओं को भी फटी आंख से निहारते रहने के अलावा किसान के पास अपनी फसल को बचाने का कोई उपाय शेष नहीं रह गया था । यह अजीब प्रकार के गोरखधंधों में फंसे लोगों का ऐसा शासन है जिसमें देश की हर समस्या का समाधान पाकिस्तान को गालियां दे कर ढूंढा जाता है । सन्निपात की स्थिति में फंसे लोगों की तरह ये लोग गाहे-बगाहे भगोड़े साधुओं की संगत में उन्मत्त हो कर राम मंदिर का जाप करने लगते हैं ।
इन पांच सालों ने जब पूरे राष्ट्र को बिल्कुल ठहर जाने के लिये मजबूर कर दिया, तभी सचमुच जैसे एक प्रवाह में बहते जा रहे जीवन को अपने अंतर में देखने की सुध भी आई है । राष्ट्र की सोई हुई आंखें अब खुलने लगी है । और अब जब लोगों ने करवट बदलनी शुरू की है, हम साफ तौर पर परिवर्तन के एक नये झंझावात के स्वरों को सुन पा रहे हैं । जो पागलों की तरह नाच रहे थे कि अब तो हम आने वाले पचासों साल तक इस देश की छाती पर मूंग दलेंगे, देखते-देखते भारत के लोगों ने उन्हें गरेबां पकड़ कर सत्ता की गद्दी से निकाल फेंकना शुरू कर दिया है ।
जनता के इस नये तेवर की झलक सबसे पहले गुजरात के चुनाव में देखने को मिली । फिर कर्नाटक में इनके मंसूबों को मात दिया गया । और अब इस साल के अंत तक तीन राज्यों में इनकी सरकारें ध्वस्त हुई । बाकी दो राज्यों में इनका कोई चिन्ह भी नहीं दिखाई दिया । और यह सब तब हुआ जब इन्होंने बेशुमार धन, सत्ता के सारे औजारों को पूरी बेशर्मी के साथ झोंक दिया था और किसी भी प्रकार के राजनीतिक दुराचार के हथकंडों से बाज नहीं आए थे । अजीत जोगी और मायावती की तरह की तैयार की गई बाधाएं भी जनाक्रोश के सामने कहीं टिक नहीं पाईं ।
अब, इसी बागी तेवर के साथ लोग 2019 के चुनाव का इंतजार कर रहे हैं । 8-9 जनवरी की देश-व्यापी श्रमिक हड़ताल के आह्वान से इसी लड़ाई का बिगुल बजाया गया है । इस हड़ताल में सभी दलों के ट्रेडयूनियन संगठन और किसान संगठन शामिल हैं ।
संघर्ष का यह बिगुल ही इस बात का भी ऐलान है कि 2019 का चुनाव भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक प्रत्यावर्त्तन का चुनाव साबित होने वाला है । आजादी की लड़ाई से हमारे राष्ट्र ने धर्म-निरपेक्षता, सामाजिक न्याय और जनतंत्र की जो दिशा पकड़ी थी, उसी शुद्ध आधार पर देश की आगे के दिनों की राजनीति को फिर से स्थापित करने का समय आ रहा है । इस लड़ाई के प्रति जो आज भी आशंकित है कि यह फिर उन हालातों में लौटने का सबब तो नहीं होगा जिनसे मोदी की तरह का तत्व पैदा हुआ था, वे या तो सचमुच इतिहास की गति के बारे में भ्रमित हैं या जानबूझ कर भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं ।
हम यह साफ देख रहे हैं कि मोदी सरकार ने समाज के सभी स्तरों पर जिस तीव्र और गहरे आक्रोश को पैदा कर दिया है, वह अभी दबा हुआ, बस फूटना चाहता है । 2019 का चुनाव उसी विस्फोट को प्रत्यक्ष करेगा । यह राजनीति में व्यापक जन-शक्ति की भूमिका के एक नये अध्याय का प्रारंभ होगा । भारत का आगे का रास्ता बदलेगा । नई राजनीति दलाल पूंजीपतियों को ठुकरा कर मेहनतकशों के हितों पर केंद्रित होगी, इसका हमें दृढ़ विश्वास है ।
इसीलिये आइये ! हम दोनों हाथ खोल 2019 के युद्ध का स्वागत करें । जनतंत्र की भूलुंठित पताका को आसमान में ऊंचा उठाएँ ! नये साल का जश्न मनाएँ !
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