अरुण माहेश्वरी
कल एक बहुत अच्छी फिल्म देखी - आंखो देखी। ‘मैं कहता हौं आखन देखी, तू कहता कागद की लेखी।
भारत के उस निम्न-मध्यवित्त के परिवार का सच, जिसकी संख्या 70 करोड़ बतायी जाती है और जिसके आगे और उत्थान पर भारत की प्रगति का बहुत कुछ निर्भर है। वर्षों बाद जैसे हिंदी सिनेमा के पर्दे पर भारत के शहरों की पुरानी संकरी गलियों के नीम अंधेरे घरों में ठहरी हुई जिंदगियों का सच बिना व्यवसायिक विकृति के उकेरा गया है।
वेदांत में आत्म-अनात्म की तरह ही ‘दृष्टि चैतन्य’ भी एक बुनियादी पारिभाषिक पद है। जब तक हम विषयों का प्रत्यक्ष करते हैं, तब तक ही उनका अस्तित्व है तथा ज्योंही हमें उनका प्रत्यक्ष होना बंद हो जाता है, त्योंही वे शून्य में चली जाती है। दृष्टि-सृष्टि। जो अप्रत्यक्ष है, उसकी सत्ता को स्वीकारा नहीं जा सकता। इसीका विलोम है शंकर का मायावाद - दृश्य जगत का लेश मात्र भी अस्तित्व नहीं है।
इस वेदांती विमर्श का ही एक फल है - अनुभव अथवा भोग की लालसा, अपने दृश्य जगत की परिधि के विस्तार की उत्कंठा।
और कहना न होगा, इसी उपक्रम में बेचारा ‘पाल गोमरा’ अपनी जान गंवा देता है।
‘आंखो देखी’ के बाबूजी उदय प्रकाश के ‘पाल गोमरा’ का ही एक और प्रतिरूप है। निम्न-मध्यवर्ग के अन्त:करण का जैविक प्रतिबिंब।
बाबूजी उम्र की ढलान पर पहुंच कर तमाम आस्था-अनास्थावादी भक्तों की तरह कुछ इसप्रकार के एक सोच में फंस जाते हैं कि जो भी खुद को दिखाई न दे, उसपर विश्वास मत करो। परिवार में छोटा भाई और बेटा रोजगार करने लगे थे, इसीलिये बाबूजी अब ऐसी किसी भी खब्त के साथ आराम से जीवन काट सकते थे! परिणाम यह हुआ कि जिस ट्रेवल एजेंसी में बाबूजी काम करते थे, वहां भी ग्राहकों को ऐसी कोई सूचना देने से इंकार करने लगे, जो खुद उनके अनुभव का हिस्सा न रही हो। नौकरी को जाना था, चली गयी। बाबूजी ने सोचा, क्या फर्क पड़ता है, जीवन की गाड़ी तो भाई और बेटा ही खींच लेंगे, मैं अब क्यों झूठी-सच्ची बातों के जंजाल में पड़ा रहूं।
बाबूजी बेहद तर्कशील होगये। संशय उनका स्थायी भाव बन गया। इसके चलते उनके साथ उनके जैसे ही कुछ चेले भी जुट गये। दूसरे आम जनों के लिये मलंग जैसे दिखाई देने वाले बाबूजी या तो पागल थे या फिर पहुंचे हुए कोई फकीर। लेकिन जीवन का ठोस सच यह था कि बाबूजी के नौकरी छोड़ते ही आसन्न आर्थिक संकट के आभास ने उनके परिवार को तोड़ दिया। सदा तर्क के लिये तत्पर बाबूजी को मौन होजाना पड़ा।
तभी बेटे की कुसंगत की वजह से बाबूजी एक जूआघर के संपर्क में आयें ओर चंद रोज के लिये उस जूआघर के मुलाजिम होगये। जूआघर की कमाई ने बेटी का ब्याह भले-भले निपटा दिया। फिर एक बार सारी जिम्मेदारियों से मुक्त बाबूजी ने जूआघर छोड़ा और 28 साल बाद पत्नी के साथ हिल स्टेशन की सैर पर गये।
पहाड़ों का स्वच्छ आकाश, ठंडी हवा, और घाटियों की अनंत गहराइयां। बाबूजी इस दृश्य का उल्लेख करते हुए इस स्वच्छ ठंडी हवा में उड़ने की अनुभूति की बात करते हैं। पत्नी कह बैठती है - यह तो तुम्हारे अनुभव का हिस्सा नहीं है। और, इसी अनुभव को पाने की ललक में बाबूजी एक ऊंचे पहाड़ के सिरे से घाटी की अंतहीन तलहटी की ओर छलांग लगा देते हैं - आसमान में उड़ने लगते हैं !
न जाने कितनी छोटी-छोटी इच्छाओं, वासनाओं से बना है यह निम्नवित्त का जीवन, जैसे विशाल समंदर में उतार दी गयी कागज की कोई नौका। उठती-गिरती लहरों के साथ डोलती, हवा के थपेड़ों से उलट-पुलट होती और पता नहीं कब, अचानक ही किसी अतल गहराई में अपना अस्तित्व गंवा बैठती।
इस कमजोर जीवन में दहलीज के बाहर कदम रखना ही जैसे मृत्यु को निमंत्रण देना है! लेकिन बात बाबूजी के गिर कर मर जाने की नहीं है, बात उस ऊंचाई से छलांग लगा कर उड़ने की क्षणिक अनुभूतियों की है।
जीवन कुछ इसीप्रकार चल रहा है - नित नये अनुभवों की तलाश में रोज खत्म होरही जिंदगियों की श्रंखला में।
27.03.2014
कल एक बहुत अच्छी फिल्म देखी - आंखो देखी। ‘मैं कहता हौं आखन देखी, तू कहता कागद की लेखी।
भारत के उस निम्न-मध्यवित्त के परिवार का सच, जिसकी संख्या 70 करोड़ बतायी जाती है और जिसके आगे और उत्थान पर भारत की प्रगति का बहुत कुछ निर्भर है। वर्षों बाद जैसे हिंदी सिनेमा के पर्दे पर भारत के शहरों की पुरानी संकरी गलियों के नीम अंधेरे घरों में ठहरी हुई जिंदगियों का सच बिना व्यवसायिक विकृति के उकेरा गया है।
वेदांत में आत्म-अनात्म की तरह ही ‘दृष्टि चैतन्य’ भी एक बुनियादी पारिभाषिक पद है। जब तक हम विषयों का प्रत्यक्ष करते हैं, तब तक ही उनका अस्तित्व है तथा ज्योंही हमें उनका प्रत्यक्ष होना बंद हो जाता है, त्योंही वे शून्य में चली जाती है। दृष्टि-सृष्टि। जो अप्रत्यक्ष है, उसकी सत्ता को स्वीकारा नहीं जा सकता। इसीका विलोम है शंकर का मायावाद - दृश्य जगत का लेश मात्र भी अस्तित्व नहीं है।
इस वेदांती विमर्श का ही एक फल है - अनुभव अथवा भोग की लालसा, अपने दृश्य जगत की परिधि के विस्तार की उत्कंठा।
और कहना न होगा, इसी उपक्रम में बेचारा ‘पाल गोमरा’ अपनी जान गंवा देता है।
‘आंखो देखी’ के बाबूजी उदय प्रकाश के ‘पाल गोमरा’ का ही एक और प्रतिरूप है। निम्न-मध्यवर्ग के अन्त:करण का जैविक प्रतिबिंब।
बाबूजी उम्र की ढलान पर पहुंच कर तमाम आस्था-अनास्थावादी भक्तों की तरह कुछ इसप्रकार के एक सोच में फंस जाते हैं कि जो भी खुद को दिखाई न दे, उसपर विश्वास मत करो। परिवार में छोटा भाई और बेटा रोजगार करने लगे थे, इसीलिये बाबूजी अब ऐसी किसी भी खब्त के साथ आराम से जीवन काट सकते थे! परिणाम यह हुआ कि जिस ट्रेवल एजेंसी में बाबूजी काम करते थे, वहां भी ग्राहकों को ऐसी कोई सूचना देने से इंकार करने लगे, जो खुद उनके अनुभव का हिस्सा न रही हो। नौकरी को जाना था, चली गयी। बाबूजी ने सोचा, क्या फर्क पड़ता है, जीवन की गाड़ी तो भाई और बेटा ही खींच लेंगे, मैं अब क्यों झूठी-सच्ची बातों के जंजाल में पड़ा रहूं।
बाबूजी बेहद तर्कशील होगये। संशय उनका स्थायी भाव बन गया। इसके चलते उनके साथ उनके जैसे ही कुछ चेले भी जुट गये। दूसरे आम जनों के लिये मलंग जैसे दिखाई देने वाले बाबूजी या तो पागल थे या फिर पहुंचे हुए कोई फकीर। लेकिन जीवन का ठोस सच यह था कि बाबूजी के नौकरी छोड़ते ही आसन्न आर्थिक संकट के आभास ने उनके परिवार को तोड़ दिया। सदा तर्क के लिये तत्पर बाबूजी को मौन होजाना पड़ा।
तभी बेटे की कुसंगत की वजह से बाबूजी एक जूआघर के संपर्क में आयें ओर चंद रोज के लिये उस जूआघर के मुलाजिम होगये। जूआघर की कमाई ने बेटी का ब्याह भले-भले निपटा दिया। फिर एक बार सारी जिम्मेदारियों से मुक्त बाबूजी ने जूआघर छोड़ा और 28 साल बाद पत्नी के साथ हिल स्टेशन की सैर पर गये।
पहाड़ों का स्वच्छ आकाश, ठंडी हवा, और घाटियों की अनंत गहराइयां। बाबूजी इस दृश्य का उल्लेख करते हुए इस स्वच्छ ठंडी हवा में उड़ने की अनुभूति की बात करते हैं। पत्नी कह बैठती है - यह तो तुम्हारे अनुभव का हिस्सा नहीं है। और, इसी अनुभव को पाने की ललक में बाबूजी एक ऊंचे पहाड़ के सिरे से घाटी की अंतहीन तलहटी की ओर छलांग लगा देते हैं - आसमान में उड़ने लगते हैं !
न जाने कितनी छोटी-छोटी इच्छाओं, वासनाओं से बना है यह निम्नवित्त का जीवन, जैसे विशाल समंदर में उतार दी गयी कागज की कोई नौका। उठती-गिरती लहरों के साथ डोलती, हवा के थपेड़ों से उलट-पुलट होती और पता नहीं कब, अचानक ही किसी अतल गहराई में अपना अस्तित्व गंवा बैठती।
इस कमजोर जीवन में दहलीज के बाहर कदम रखना ही जैसे मृत्यु को निमंत्रण देना है! लेकिन बात बाबूजी के गिर कर मर जाने की नहीं है, बात उस ऊंचाई से छलांग लगा कर उड़ने की क्षणिक अनुभूतियों की है।
जीवन कुछ इसीप्रकार चल रहा है - नित नये अनुभवों की तलाश में रोज खत्म होरही जिंदगियों की श्रंखला में।
27.03.2014
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