शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

हिंदी और बाजार

अरुण माहेश्वरी

आज तक चर्चा हमेशा भाषा और मनुष्य की अथवा भाषा और समाज की होती रही है। लेकिन इधर कुछ तबकों से भाषा और बाजार के संबंधों पर चर्चा पर बल दिया जा रहा है। जैसे आदमी के काम में आने वाली हर चीज को एक पण्य, बिकाऊ माल बनाया जा रहा है, प्रकृति से सहज प्राप्त हवा और पानी तक को, श्रम-शक्ति को श्रम के बाजार का पण्य माना ही जाता है वैसे ही क्यों न मनुष्य की तमाम नैसर्गिकताओं को कोरा माल बना कर बेचा जाए! भाषा और बाजार की चर्चा में कहीं न कहीं कुछ इसी प्रकार की समझ काम कर रही होती है -भाषा के पैकेज बना कर उसे बाजार में चलाने की समझ। उसी प्रकार, जैसे वित्तीय उत्पादों के पैकेज, लाइफ स्टाइल अर्थात जीने के तौर तरीकों, स्वास्थ्य-व्यायाम के पैकेज।  और, सारे मामले को कुछ इसप्रकार पेश किया जाता है कि यदि हम भाषा को किसी पैकेजबंद बिकने वाले माल का रूप नहीं देते हैं तो उससे भाषा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। अन्य सभी मालों की तरह भाषा भी एक माल है और मालों का चलन निर्भर करता है बाजार पर, इसीलिये भाषा का अस्तित्व भी समाज नहीं बाजार तय करेगा !

इसे ही कहते है माल की और उसके विचरण के क्षेत्र, बाजार की अंधपूजा। मालांधता। माल जो ईश्वर की तरह मनुष्य द्वारा निर्मित लेकिन उसी की तरह सर्व-व्यापी, सर्वशक्तिमान ! और संसार - महज एक बाजार! बाजार का सच यह है कि इसमें हर चीज अपने मूल रूप को गंवा कर सिर्फ नगद-कौड़ी से विनिमय के लायक माल का रूप ले लेती है, उसकी अपनी चारित्रिक-विशेषता का कोई अर्थ नहीं होता। फिर भी मजे की बात यह है कि इसी बाजार को, वस्तु की अपनी चारित्रिक विशेषता का हनन करने वाले तंत्र को भाषा की तरह के मनुष्य की नैसर्गिकता से, अन्य प्राणियों से उसे विशिष्ट बनाने वाले पहलू से जुड़े विषय के विकास का साधन मान कर बाजार की सर्वस्वता का ढिंढोरा पीटा जाता है।

सवाल है कि ऐसा क्यों है और ऐसा कौन करता है ? मनुष्यों के समाज में, सभ्यता के विकास के साथ ही पठन-पाठन के क्षेत्र के पेशेवरों की भी एक फौज हमेशा से रही है। एक काल में तो भाषा-ज्ञान ही सब ज्ञान का मूल माना जाता था और पंडितों की प्रमुख भूमिका विधार्थियों को भाषा ज्ञान कराने की ही होती थी। भाषाओं के विकास के एक लंबे इतिहास में भाषा स्वयं एक अर्जित सचाई है, लेकिन वह आदमी की अपनी आंतरिक, नैसर्गिक, अभिव्यक्ति की जरूरत से जुड़ी सचाई है, उससे बाहर के किसी बाजार की नहीं।
यदि भाषाओं का भविष्य बाजार पर ही निर्भर है, तो यह तय माना जाना चाहिए कि दुनिया की किसी भी भाषा का कोई भविष्य नहीं है। बाजार को भाषाओं के किसी जटिल या विकसित तंत्र की जरूरत नहीं है। वह तो बहुत सीमित चिन्हों, इशारों के बल पर ही अपना काम चला लेता है। जैसे शेयर बाजार और फाटका बाजारों में तो हमेशा उंगलियों के इशारों से सौदे होते रहे हैं। आज सारी दुनिया का बाजार भाषाओं के प्रयोग से पूरी तरह मुक्त, डिजिटल ऐप्स के जरिये संचालित होने की दिशा में बढ़ रहा है।

इसीलिये, किसी भी भाषा का अस्तित्व, उसका भविष्य कत्तई बाजार के साथ जुड़ी हुई सचाई नहीं है। उसका भविष्य ठीक इसके उल्टे, मनुष्य के अस्तित्व की इस सचाई में निहित है कि आदमी हमेशा एक उपभोक्ता नहीं होता। जीवन में वह हमेशा स्वार्थों और तात्कालिक प्रयोजनों के द्वारा चालित नहीं होता। वह हमेशा बहुत कुछ ऐसा करता होता है, जिसके पीछे कोरे स्वार्थ नहीं होते, कोई तात्कालिक प्रयोजन नहीं होता।

मसलन्, साहित्य को ही लिया जाए। आदमी साहित्य किसी स्वार्थवश नहीं पढ़ता। वह सिर्फ अपनी आत्मिक जरूरतों से, मनुष्य होने की अपनी नैसर्गिकता के कारण पढ़ता है। और सच कहा जाए तो यही वह बिंदु है जहां से भाषा का असली और सबसे गहरा संबंध होता है। भाषा किसी राजा या प्रशासन या शिक्षाशास्त्री के आदेशों की मुहताज नहीं होती। वह सिर्फ संवेदनशील होती है साहित्य के इशारों के प्रति।
हिंदी को ही देख लीजिये। डा. रघुवंश अथवा सरकारी राजभाषा विभाग हिंदी का भाग्य निर्धारित नहीं कर पाये हैं, जबकि इनके प्रकल्पों पर अब तक अरबों रुपये खर्च हो गये हैं। विश्व हिंदी सम्मेलनों से हिंदी भाषा का रत्ती भर भी लाभ हुआ है, कोई नहीं मानेगा। इसके विपरीत, हिंदी कविता की धारा छायावाद को लेते हैं। छायावादियों की भाषा में बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जो आज भी आम बोलचाल की भाषा में दाखिल नहीं हो पाया है, लेकिन जो साहित्य पर विश्वास करते हैं वे भाषा के इस रूप के प्रति तब से लेकर आज तक, समान रूप से उत्साहित है। वही हिंदी भाषी जनता की आधुनिक जरूरतों को पूरा करती है, देश की दूसरी अधिकांश जातीय भाषाओं से उसका एक सहजात रिश्ता कायम करती है; भारत की राष्ट्रीय एकता का आधार तैयार करती है।

इसीलिये कहना न होगा, जब भी भाषा और बाजार के रिश्तों पर अतिरिक्त बल दिया जाता है, तब वह और कुछ नहीं, भाषाओं के खासप्रकार के पेशेवरों की एक मुहिम का हिस्सा होता है।

हम यहां फिर से दोहराना चाहेंगे कि भाषा आदमी की नैसर्गिकता है, अन्य प्राणियों से उसे अलगाने वाली, बुद्धि का सबसे प्रमुख अंग। बल्कि अनेक अर्थों में खुद मनुष्य। और बाजार है मनुष्य की, उसके समाज की एक निर्मिति। इसीलिये भाषा के साथ बाजार के संबंध का विषय मनुष्य के साथ उसकी निर्मिति के संबंध का विषय है। फिर भी मजे की बात यह है कि आज के दौर में, हमारा व्यवहार हमेशा कुछ ऐसा रहता है कि जैसे बाजार को मनुष्य नहीं बल्कि मनुष्य को बाजार तैयार कर रहा है। ज्ञान के स्तर पर इस बात को जानते हुए भी कि बाजार को आदमी ने अपने आर्थिक विनिमय की जरूरतों को पूरा करने के लिये तैयार किया है, व्यवहार के स्तर पर बाजार के प्रति हमारे अंदर एक ऐसी अंधता छायी रहती है मानो आदमी ने अपने सोचने-समझने और निर्णय लेने की सारी क्षमताओं को खुद के बाहर की, बाजार की शक्ति के हवाले कर दिया है। कहना न होगा, हमारा यह सामाजिक व्यवहार एक भ्रम का शिकार होता है, जिसके मूल में हमारा ज्ञान नहीं बल्कि शुद्ध व्यवहार होता है।

सामान्यतया यह माना जाता है कि आदमी की आस्था और विश्वास उसके आत्मिक विषय है, और ज्ञान बाहरी, अर्थात ऐसा विषय जिसे बाहरी उपायों से जांचा-परखा जा सकता है। लेकिन बाजार की प्रमुखता के इस दौर में हमारी आस्था और विश्वास भी हमसे बाहर की वस्तु बन जाते हैं। हम नहीं सोचते, हमारे लिये बाजार सोचता है। बाजार की आस्था और विश्वास प्रमुख हो जाता है, हमारी अपनी आस्था और विश्वास नहीं। जैसे बौद्ध मठों में प्रार्थना का घूमता हुआ चक्र होता है। उस घूमते हुए बेलनाकार डिब्बे में कागज के टुकड़े पर प्रार्थना को लिख कर डाल कर यह मान लिया जाता है कि वह डब्बा प्रार्थना के स्वरों को स्वत: चारों दिशाओं में तरंगित कर दे रहा है। जैसे मनुष्यों का समूह गान, जिसमें शामिल आदमी अपना स्वर जब चाहे मिलाये और जब चाहे थक कर रुक जाए, गान की तान नहीं टूटती।

जाहिर है, भाषा, संगीत या साधना के किसी भी रूप में कर्मकांडी कार्यों का योगदान खुद में एक कोरा भ्रम है, हमारे सामाजिक यथार्थ में निहित भ्रम। इनसे न भाषा का, न मनुष्य की दूसरी किसी नैसर्गिकता का वास्तविक संरक्षण या संबद्र्धन होता है।

हम हिंदी के संदर्भ में ही बाजार की चर्चा करें। भाषाई सर्वेक्षणों पर लगातार काम करने वाले डा. जयंती प्रसाद नौटियाल के अनुसार, आज हिंदी दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के द्वारा बोली और समझे जाने वाली भाषा है। दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा इसे समझता है, जबकि चीनी भाषा मैंडरीन को समझने वालों की संख्या 15.27 प्रतिशत और अंग्रेजी समझने वालों की संख्या 13.85 प्रतिशत बताया गया है। इस बारे में और ज्यादा तथ्यों पर विस्तार से जाने के बजाय यह अकेला तथ्य ही यह बताने के लिये काफी है कि भाषा का संपर्क यदि मनुष्यों की नैसर्गिकता से है तो हिंदी भाषा के अस्तित्व पर किसी प्रकार के खतरे का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है।

लेकिन जब भी हम बाजार को मनुष्य के भाग्य का अंतिम नियंता मान लेंगे तो मामला उलट जाता है। असली बात यह है कि तब सवाल भाषा की रक्षा या विकास का नहीं, बाजार पर हिंदी भाषी लोगों के वर्चस्व का, एक प्रकार के हिंदी अंध-राष्ट्रवाद का हो जाता है। इसका भाषा के अस्तित्व और विकास से कोई संबंध नहीं होता। जैसा कि हमने पहले ही कहा, बाजार को भाषाओं के विकास से कोई मतलब नहीं है। समाज यदि कोरा बाजार होगा तो हिंदी क्या, शायद किसी भी भाषा की जरूरत शेष नहीं रहेगी। मनुष्य ऐप्स का प्रयोग करने वाला ‘एप’ (बंदर) भर होगा। भाषा संबंधी बाजार-चेतना एक प्रकार का पागलपन है। झूठे भय पर टिका पागलपन।

इसीलिये भाषाओं के विकास की असली गारंटी साहित्य के विकास में है। जैसे सामाजिक विकास की भी असली गारंटी बाजार से मुक्ति और मनुष्यों के समतापूर्ण समाज के विकास में है। भाषा का पण्यीकरण सिर्फ एक सीमित समुदाय, भाषा के पेशेवरों के हितों को साधने का साधन हो सकता है। इससे भाषा के अपने विकास का कोई संबंध नहीं है।

यह बाजारंधता एक प्रकार का उन्माद है। मनोविश्लेषक इसप्रकार के उन्माद के लिए एक ऐसे पागल का चुटकुला सुनाते हैं, जो यह मान लेता है कि वह मनुष्य नहीं, मक्के की एक दाना भर है। पागलखाने में इलाज के बाद जब वह समझ जाता है कि वह मक्के का दाना नहीं बल्कि मनुष्य है, तो उसे पागलखाने से छोड़ दिया जाता है। लेकिन बहुत जल्द ही वह, बाहर एक मुर्गे को देखकर इतना डर जाता है कि फिर पागलखाने में आजाता है। डाक्टरों ने जब उससे पूछा कि तुम तो जानते हो कि तुम मनुष्य हो, फिर किस बात का डर है? तो वह कहता है, मैं तो जानता हूं कि मैं मनुष्य हूं, लेकिन वह मुर्गा इस बात को नहीं जानता। यह है मुर्गे का, अर्थात बाहर के बाजार का आतंक ! निष्ठा आंतरिक विषय नहीं, बाहरी विषय हो जाती है।

कहना न होगा, मनुष्य अगर कोरा उपभोक्ता पशु होगा तो उसको भाषा की कोई प्रयोजनीयता नहीं रहेगी, किसी भी भाषा की नहीं। लेकिन, मनुष्य अपनी अस्मिता के लिये हर क्षण जूझने वाला प्राणी है। यही उसका असली प्राणी-सत्य है। और इसी में भाषा का भविष्य भी सुरक्षित है। किसी बाजार का पण्य बनने में कदापि नहीं ।

सोमवार, 7 सितंबर 2015

शक्तिवानों की हंसी !

अरुण माहेश्वरी


लेखकों और विवेकवान बुद्धिजीवियों पर लगातार जानलेवा हमलों के प्रतिवाद में उदयप्रकाश ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया। इसका हिंदी के व्यापक लेखक समुदाय को जहां गर्व है तो वहीं कुछ बुरी तरह आहत। उनकी प्रतिक्रियाओं से लगता है जैसे किसी सुंदर औरत को देखकर अचानक ही कोई चीखने लगे - देखो वह कितनी बेशर्म है, अपने कपड़ों के पीछे पूरी नंगी है!

इस बारे में हमारा इशारा खास तौर हंसी और कोप के स्थायी भाव में रहने वाले क्रमश: सुधीश पचौरी और विष्णु खरे की टिप्पणियों की ओर है।

हम जानते हैं कि इनकी प्रतिक्रियाओं के पीछे शायद ही कोई निजी संदर्भ होगा। लेकिन यह इनकी एक खास तात्विक समस्या है। तथाकथित विचारधाराविहीनता के युग की तात्विक समस्या। विचारधाराओं की अनेक अतियों से उत्पन्न आदर्शहीनता की समस्या।

वे हर चीज पर हंसना चाहते हैं, हर आदर्श को दुत्कारना चाहते हैं। क्योंकि यह मान कर चलते हैं कि आदर्शों के प्रति अति-निष्ठा ही सर्वाधिकारवाद की, सारी अनैतिकताओं की जननी है।

लेकिन भूल जाते हैं इसके विलोम को। यदि अति-आदर्श-निष्ठा अनैतिकता की धात्री है तो अति-अनैतिकता-भोग किस आदर्श की धात्री है ? क्या वह पाप पर टिके आदर्श की, यथास्थितिवादी अनैतिकता की जननी नहीं है। क्योंकि, अपने मूल से रूपांतरण तो हर अति का होता है।

सच कहा जाए तो इनकी हंसी, इनका कोप यथास्थितिवाद की जड़ता से पैदा होने वाली हंसी और कोप है। यह पाप पर टिके आज के नैतिक-नायक, ‘उपभोक्ता मनुष्य’ की हंसी और कोप है। वे इतराते हैं अपनी जड़ता पर, यथास्थिति से जुड़ी अपनी अनैतिक शक्तिशाली अस्मिता पर।

अगर हम ध्यान से देखे तो पायेंगे कि किसी भी रचनात्मक अस्मिता की पहचान कहीं से कुछ ‘तुड़े-मुड़े’ होने में ही होती है, जो स्वाभाविक तौर पर हंसोड़ों की हंसी का विषय भी हो सकता है। लेकिन जब भी कोई प्राणी अपने इस अलग रूप को गंवा कर सामान्य हो जाता है, उसी समय सचाई यह है कि वह शून्य में विलीन हो जाता है, या किसी नये विशेष, जड़-रूप को धारण कर लेता है।

‘खमा अन्नदाता’ की गुहार के साथ जीवन के आनंद में डूबना रचनात्मक शून्यता है। वैचारिक क्षेत्र में ऐसे ‘शून्यों’ की शक्ति उनके विचारों से नहीं, इतर स्रोतों से आती है। ‘गंभीरता झूठ को छिपाने का उपाय है’, इसीलिये ये गंभीरता का भान भी नहीं करते। और सच कहा जाए तो ये दूसरे भी किसी से यह उम्मीद नहीं करते कि उन्हें या उनकी कही बातों को गंभीरता से लिया जाए।

इसीलिये हम कहते हैं कि इनकी शक्ति इनके विचारों में नहीं, इनकी शक्तिशाली सामाजिक स्थिति, तिकड़मबाजियों, शुद्ध रूप से विचारों के बाहर की चीज में, किसी वैचारिक हिंसा अथवा लोभ-लालच के काम में निहित है। माक्र्स विचारधारात्मक बंधनों से प्रेरित लोगों के बारे में कहते थे - ‘वे नहीं जानते, लेकिन कर रहे है।’ लेकिन इन विचारधाराहीनों के बारे में हम कहेंगे - ‘वे जानते हैं, वे क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं।’

उनकी हंसी या उनका कोप एक नाचीज लेखक पर शक्तिशालियों की हंसी और शक्तिशालियों का कोप है। हर शक्तिशाली चाहता है कि कोई उसकी हंसी या कोप को गंभीरता से न ले। ‘जीवन में खुशी और गम तो लगे ही रहते हैं!’ लेकिन फिर भी सच यह है कि जो उनके हंसने-रोने को जितनी ज्यादा गंभीरता से लेता है, वही यथास्थिति की तानाशाही के लिये सबसे बड़ा सरदर्द और खतरा होता है। जैसे आज उदयप्रकाश बन गये हैं। एक बेचारा लेखक! नाचीज ! अपनी पूरी मर्यादा और साहस के साथ उतर पड़ा है ऐसी चीज का विरोध करने जो उसके वश में नहीं है, उससे कहीं ज्यादा बड़ी और डरावनी है !

आज का असली नायक तो वह है जो अंबर्तो इको की शब्दावली में, अपनी कैद में हंसा करता है। एक ईमानदार कायर, जो भूलवश नायक हो गया है। वह मर कर भी नहीं मरता, मार कर भी नहीं मारता। बस चुप्पी साधे रहता है। दूसरे उसे भय, श्रद्धा और कामना का ‘रहस्य’ बना देते हैं।

और, जो भले लोग खास प्रकार की तटस्थता, ‘ब्रह्मांडीय संतुलन’ बनाये रखने की जिम्मेदारियों को ओढ़े हुए हैं, वे भी ‘नाचीज’ से अलग प्रकार की दूरी बना कर चलने के आभिजात्य के उदाहरण पेश करते हैं।
सुधीश पचौरी कहते है, उदयप्रकाश ने ऐसा करके अपना ‘पाप प्रक्षालन’ किया है। जब रवीन्द्रनाथ ने नाइट की पदवी लौटायी, तब भी कई राज-भक्तों ने इसी पाप-प्रक्षालन के मंत्र का जाप किया था !

बहरहाल, कुल मिला कर लगता है, रघुवीर सहाय ने इन्हें देख कर ही शायद कहा था - ‘‘लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कह कर आप हंसे/सबके सब है भ्रष्टाचारी, कह कर आप हंसे/ कितने आप सुरक्षित हैं जब मैं लगी सोचने/सहसा मुझे अकेला पाकर, फिर से आप हंसे।’’

रविवार, 6 सितंबर 2015

रवीन्द्रनाथ, छायावाद और हिंदी आलोचना

अरुण माहेश्वरी

3 नवंबर 2006। लगभग नौ साल पूरे हो रहे हैं। इसी तारीख को दर्ज करके कम्प्यूटर पर रवीन्द्रनाथ पर लिखने का बीड़ा उठाया था। मोटे तौर पर एक खाका तैयार था। हिंदी में उन पर अब तक जो भी देखा, इतना कम लगता था कि क्षोभ होता था। तय किया, इस कमी को पूरा किया जायेगा ; अधिकतम विस्तार के साथ उस जीवन और कृतित्व को समेटा जायेगा। अलग से एक रैक पर रवीन्द्र रचनावली के भारी-भरकम सोलह खंड, प्रभात कुमार मुखोपाध्याय के ‘रवीन्द्रजीवन’ के चार खंड, प्रशांतकुमार पाल के ‘रविजीवन’ के नौ खंड, नेपाल मजुमदार के ‘भारते जातीयता उ अन्तरजातीयता एवं रवीन्द्रनाथ’ के पांच खंड, साहित्य अकादमी द्वारा हिंदी में प्रकाशित रवीन्द्रनाथ की रचनाओं, अन्नदाशंकर राय, शंखो घोष आदि-आदि की लगभग एक सौ किताबों को सजा लिया। 

अपने प्रकल्प के मंगलाचरण के तौर पर मजरूह की गजल के एक बंद ‘‘ मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर/लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया’’ और खुद रवीन्द्रनाथ के एक गीत को लिखा - बाहर से न देखो ऐसे मुझे,/मत देखो मुझे बाहर/न मिलूंगा अपने दुख और सुख में,/न खोजो मेरी पीड़ा मेरे हृदय में,/नहीं देख पाओंगे मुझे मेरे चेहरे में,/हे कवि खोजते जहां वहां नहीं रे।/ जो-मैं मूरत सपनों की लुकछिप करता,/जो-मैं अपने को समझने में नहीं समझता, /अपने ही गीतों से खुद हारता,/मैं वह कवि, कौन पकड़ सकता मुझे।/मनुष्य आकार में जो बंधे चौखट में,/हर पल गिरते भू पर,/कांपते जो स्तुति-निंदा के ज्वर से,/हे कवि नहीं मिलेगा उनके जीवनचरित में।‘‘ 

अपने सिर्फ एक सवाल की नौका के साथ रवीन्द्र साहित्य के इस विशाल समंदर में उतर पड़ा कि आखिर ‘‘एक ऐसे अकुंठ, अखंड और संपूर्ण मानवता को समर्पित रवीन्द्रनाथ के समान विराट और वैभवशाली व्यक्तित्व का भारत की तरह के गरीब और गुलाम देश में निर्माण संभव कैसे हुआ ? 

भारी उत्साह से काम शुरू किया। कुल-गोत्र की कहानी कहने के साथ ही दो पीढ़ी पहले के पूर्वजों का किस्सा शुरू होगया। उनसे अभिन्न बांग्ला नवजागरण का विशाल इतिहास। राज राममोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, यंग बंगाल, ब्रह्मो समाज और फैलता हुआ ठाकुर परिवार। परिवार क्या, खुद में एक इतिहास, कई पीढि़यों के अपने काल के दक्काक लोगों का एक भारी जमावड़ा। इन सारे महानों को पार करके रवीन्द्रनाथ तक पहुंचने के पहले ही सांसों को और दम की जरूरत महसूस होने लगी। आगे 12 साल की उम्र से लेकर 80 साल की उम्र तक तमाम प्रकार की विधाओं में उनके लगातार लेखन, एक संगीतकार, चित्रकार और नाटकों के अभिनेता-निदेशक के रूप में बिना किसी ओर-छोर वाला उनका अभावनीय सम्मोहक जीवन भी दिख रहा था। कहना न होगा, इस समंदर की यात्रा में उतरने के उत्साह के ज्वार में उतनी ही तेजी से भाटा आने में देर न लगी। देखते-देखते उसे निहारते हुए ही नौ साल बीत गये। जो दो-चार सौ पन्ने लिखे, उसमें अब तक उनके पूर्वजों की देहरी पार कर रवीन्द्रनाथ के अपने घर तक ही नहीं पहुंच पाया। पता चल गया कि क्यों बांग्ला में सैकड़ों ऐसे शोधकर्ता हैं जिन्होंने अपने जीवन में सिर्फ और सिर्फ रवीन्द्रनाथ पर ही काम किया और प्रशांतकुमार पाल की तरह अपनी लंबी जिन्दगी के अंत तक काम को पूरा न कर पाने की गहरी पीड़ा के साथ विदा होगये। 

जिस किसी ने रवीन्द्रनाथ की बौद्धिक संरचना के तंतुओं को समग्रता में पकड़ने की कोशिश की, प्राय: सबकी एक ही दशा रही। सत्यजीत राय ने उनपर एक डाक्यूमेंट्री बनाई, जो बनने का नाम ही नहीं ले रही थी। नियत समय से दुगुना समय बीत गया। अंत में हार कर, कमियों की बिना परवाह किये, उन्होंने उसे पूरा किया और उस काम से मुक्त हुए। अपनी इस डाक्यूमेंट्री के बारे में उन्होंने कहा कि तीन कथा चित्रों को बनाने में मुझे जितनी मेहनत लगती, उतनी इस एक वृत्त चित्र के निर्माण में लगी है। 

बिल्कुल ताजा प्रसंग है सुधीर कक्कड़ का। उन्होंने बीड़ा उठाया रवीन्द्रनाथ की मनोवैज्ञानिक जीवनी लिखने का। उनके जीवन के कुछ विशेष सूत्रों ने, खास तौर पर रवीन्द्रनाथ की भाभी कादम्बरी देवी के साथ उनके संबंधों की गूढ़ता ने इस मनोविश्लेषक को आकर्षित किया था। लेकिन शीघ्र ही अपने काम को ‘युवा रवीन्द्रनाथ’ तक सीमित रखते हुए उन्होंने रोडिन के लिये रिल्के के शब्दों को दोहराते हुए किसी प्रकार पूरा किया कि ‘‘यह किसी जलप्रपात में एक प्याले को लेकर खड़े होने के समान था।’’ अपनी मुश्किल का बयान करते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘ 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के ब्रिटिश शासन के बंगाल में एक ऐसे ऊंची जाति के ब्राह्मण परिवार में रवि का बचपन तैयार हुआ जो कहीं से पुरातनपंथी नहीं था, बल्कि हिंदू परंपरा और पश्चिम से प्रेरित आधुनिकता के बीच की दरार को जी रहा था। बाल मनोवैज्ञानिक रेले स्पिज के एक कथन में कहूंगा, बालक रवि बिना किसी इतिहास के पैदा हुआ था; बहुत जल्द ही उसके पूर्वज और कलकत्ता के जोड़ासांको का ठाकुर परिवार उसे अपना इतिहास देने वाला था।’’

और जिसकी बौद्धिक आकृति को पूरा नहीं जाना, तो उसकी रचनात्मकता की सही पहचान कैसे हो ! 

हिंदी में कथित रूप से आलोचना की एक ‘दूसरी परंपरा’ की धारा लाने वाले हजारीप्रसाद द्विवेदी शांतिनिकेतन में लगभग बीस साल तक रहे। खुद रवीन्द्रनाथ के साथ उन्होंने ग्यारह साल बिताये। उन्हें बहुत ही करीब से देखा। लेकिन ‘मृत्युंजय रवीन्द्रनाथ’ में उनके बारे में जो और जब भी लिखा, उस प्रगट ‘विराट’ की सिर्फ आरती ही उतारते रह गये। न उन्होंने बांग्ला नवजागरण को छुआ, न रवीन्द्रनाथ के परिवार को और न ही उनके कर्ममय विशाल जीवन को। कवि की बौद्धिक आकृति को जानने की कोई जरूरत ही नहीं महसूस की। गुरुदेव के न रहने पर उन्होंने क्या गंवाया उसका यह चित्र देखिये : 

‘‘गुरुदेव उत्सव स्थल पर पधारते थे। शंखध्वनि से वायुमंडल मुखरित हो उठता था। मैं वेद मंत्रों से गुरुदेव का स्वागत करता था। आचार्य नन्दलाल बोस और उनके शिष्यों द्वारा रचित मनोहर आलम्पिन से सजा हुआ सभा स्थल मांगल्यगान से गूंज उठता था और गुरुदेव स्मित हास्य के साथ आसन ग्रहण करते। उनकी उपस्थिति में अपूर्व परिपूर्णता थी। जहां वे उपस्थित होते वहां सब कुछ भरा-भरा लगता। जब ‘‘शतकाण्डो दुश्चयवनो’’ मंत्र के पाठ के बाद उनके दूर्वादल बांधता तो वे बड़े स्नेह से हाथ बढ़ा देते - मेरा यह परम सौभाग्य आज विलुप्त होगया है।’’

रवीन्द्रनाथ पर उनके विश्लेषणात्मक नजरिये की हद यही थी - ‘‘रवीन्द्रनाथ महामानव थे। दीर्घकालीन तपस्या के बाद मनुष्य ने जिन महनीय गुणों को पाया है, उनमें एकत्र सुलभ थे। उनका हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। वे युग गुरू थे।’’

निस्संदेह, रवीन्द्रनाथ का युग महामानवों की उत्पत्ति का युग था। यह वह युग था जब वारेन हेस्टिंग्स और सर विलियम जोन्स के प्राच्यवाद के चलते कर्मकांडों में डूबे एक समाज के घरों में पड़ी पांडुलिपियों ने न सिर्फ पश्चिमी दुनिया को प्राचीन भारत के दर्शन से आश्चर्यचकित कर दिया था, बल्कि खुद भारतवासियों को उनके हत-भाग्य से निकाल कर एक नये गौरव का अहसास कराया। यह भारतीय साहित्य के एक नये युग का अवतरण था। अचानक ही पुरानी दरबारी दुनिया की सीमाएं टूट गई, नयी दुनिया की चमक के साथ दरबारी जमाने के प्रेत गायब होगये। यह एक नई दुनिया की खोज थी। नये व्यापार और वाणिज्य के जरिए भारत की एक नई आर्थिक अखंडता की जमीन तैयार हुई। बंगाल का नया साहित्य प्राचीन क्लासिकल युग का प्रतिबिंब बना। भारत का यह युग महामानवों की मांग करता था और इसने चिंतनशक्ति में, आवेग एवं चरित्र में, बहुज्ञता एवं विद्या में महामानवों को जन्म दिया। यह भारतीय पूंजीवाद के जन्म की कहानी का भी प्रारंभबिंदु था। राजा राममोहन राय, द्वारकानाथ ठाकुर की तरह इसके अग्रदूतों में पूंजीवाद की सीमाओं से परे अपने युग की साहसिकता कूट-कूट कर भरी हुई थी। देश-देश की यात्रा करने वाले, अनेक भाषाओं में पारंगत, अनेक क्षेत्रों में ख्यातिलब्ध। उस युग के नायक अभी तक ‘उत्तरवर्तियों’ की तरह श्रम-विभाजन की दासता से नहीं बंधे थे। उसके एकांगीपन और संकुचनकारी प्रभावों से अछूते थे। समकालीन आंदोलनों और व्यवहारिक संघर्षों के बीच ही प्राय: उन सभी का जीवन और दूसरे क्रियाकलाप चला करते थे। वे किसी न किसी पक्ष के लिए लड़ते थे। किताबी कीड़े बहुत कम पाये जाते थे। 

रवीन्द्रनाथ भी ऐसे ही एक युगीन महामानव थे। लेकिन कत्तई ऐसे महामानव नहीं जो आलोचना की किसी नई धारा के जनक के लिए सिर्फ निहारने और पूजा करने की वस्तु बनें, जैसा कि द्विवेदी जी के लेखन में दिखाई देता है। रवीन्द्रनाथ के शांतिनिकेतन में वे मुख्यत: मंत्रोच्चार के काम में लगे हुए एक पुजारी थे, और वहां से हिंदी आलोचना में वे साहित्य द्वारा संस्कारित श्रद्धा और सम्मान से भरे ‘स्तुति-भाव’ के साथ, परमेश के प्रति सर्वात्मना विसर्जन के भाव के साथ आएं। थकाने वाली दूसरी किसी भी कवायद से बचते हुए भक्ति की विश्रान्ति का मार्ग तलाशने वाले आलोचना शास्त्र के साथ। साहित्य और आलोचना में भगवान और भक्त के रिश्तों वाली, शिक्षा जगत में गुरु और शिष्य वाली, विधि-विधान वाली उत्सवमुखी आलोचना की ‘दूसरी परंपरा’ के साथ। संकुचित ‘उत्तरवर्तियों’ के एक ऐसे आलोचना-शास्त्र के साथ, जिससे ‘कवि ने यह कहा है’, ‘लेखक यह कहना चाहता है’ वाली गद्य-पद्य की व्याख्या वाली बिल्कुल खास शैली की, जिसे आज ‘अध्यापकीय शैली’ कहा जा सकता है, नींव पड़ी। साहित्य के बारे में काव्यशास्त्री आनंदवर्द्धन के मंत्र ‘सहृदयहृदयाह्लदिशब्दार्थमयत्वमेव काव्यलक्षणम्’, अर्थात सहृदय के हृदय को आह्लाद का अनुभव कराने की ध्वजा लहराते हुए। 

द्विवेदी जी ने रवीन्द्रनाथ के जीवन को कभी भी अपने चिंतन का विषय नहीं बनाया। उनका भक्तिभाव गुरुदेव के जीवन के प्रति किसी यथार्थ चेतना से नहीं पैदा होता है। उनके इस भाव की अपनी खुद की एक द्वंद्वात्मकता है, एक सचाई है जो एक अलग प्रकार की साहित्य चेतना पैदा करती है। यह एक खास साहित्य-संस्कार है, जो ‘सहृदयों’ के बीच अपना सामाजिक चरित्र ग्रहण करता है। इसीलिये चेतन-अवचेतन, किसी भी रूप में क्यों न हो, यह कोई कोरी कल्पना नहीं है। आदमी इसकी ओर किसी आलोचना-भाव से नहीं, श्रद्धा, भय और कामना के भाव के चलते आकर्षित होता है और अपनाता है। इसके विपरीत, विषय के प्रति जैसे ही आपमें यथार्थ चेतना पैदा होती है, भक्ति के भाव की यह द्वंद्वात्मक शक्ति खत्म हो जाती है। और, रचना की यथार्थ चेतना ही आलोचना है, जिसका सहृदयों को आह्लादित करने वाले भाव से वैसा ही संबंध है जो बर्फ का आग से संबंध होता है। यह सिर्फ एक साहित्य-संस्कार नहीं है। 

दरअसल, उत्तरवर्तियों के, लकीर पीटने वालों के सारे शास्त्रों की कुछ ऐसी ही खास विडंबनाएं होती हैं। कार्ल मार्क्स ने जर्मनी में पूंजीवाद के विलंबित विकास की विडंबनाओं पर ‘पूंजी’ में एक बहुत सटीक टिप्पणी की है। वे लिखते हैं -‘‘जर्मनी में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली उस वक्त सामने आई, जब उसका विरोधी स्वरूप इंगलैंड और फ्रांस में भीषण संघर्ष में अपने को पहले ही प्रकट कर चुका था। इसके अलावा इसी बीच जर्मन सर्वहारा वर्ग ने जर्मन बुर्जुआ वर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट वर्ग-चेतना प्राप्त कर ली थी। इसप्रकार, जब आखिर वह घड़ी आई कि जर्मनी में राजनीतिक अर्थशास्त्र का बुर्जुआ विज्ञान संभव प्रतीत हुआ, ठीक उसी समय वह वास्तव में असंभव होगया।’’

बांग्ला नवजागरण के संदर्भ में हिंदी नवजागरण की और उससे जुड़े दूसरे सभी सामाजिक-सांस्कृतिक उपादानों की भी ऐसी ही प्रमुख विडंबना से नजर चुरा कर हम इसके बारे में शायद एक कदम भी आगे नहीं जा सकते हैं। 

जिस समय रवीन्द्रनाथ विश्व साहित्य पर छाये हुए थे, भारत की राष्ट्रीय सांस्कृतिक अस्मिता उनके कर्मोद्दम से मूर्तिमान हो रही थी और शांतिनिकेतन में उनकी एक-एक रचना के पीछे का इतिहास लिखा जा रहा था, उसी समय हिंदी आलोचना के प्रवर्त्तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल रवीन्द्रनाथ की रचनाओं के बारे में फतवा दे रहे थे कि ‘‘वे अधिकतर ‘पाश्चात्य ढांचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद लेकर चली थी।’’ वे ‘‘ईसाई संतों के छायाभास (फैंटासमाटा) तथा योरोपीय काव्यशास्त्र में प्रवर्त्तित आध्यात्मिक प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अनुकरण पर रची’’ गई छायावादी रचनाएं है और इस रास्ते पर चलने के लिये वे हिंदी के ‘कुछ नए’ कवियों को फटकार रहे थे कि ‘‘यह अपना क्रमश: बनाया हुआ रास्ता नहीं था। इनका दूसरे साहित्य क्षेत्र में प्रकट होना, कई कवियों का इसपर एक साथ चल पड़ना और कुछ दिनों तक इसके भीतर अंग्रेजी और बंगला की पदावली का जगह-जगह ज्यों का त्यों अनुवाद रखा जाना, ये बातें मार्ग की स्वतंत्र उद्भावना नहीं सूचित करती।’’

शुक्ल जी आगे और कहते हैं -‘‘रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तु विन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना को ही साध्य मान लिया गया। शैली की इन विशेषताओं की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रही।’’

रवीन्द्रनाथ में ‘पाश्चात्य ढांचे का आध्यात्मिक रहस्यवाद’, ‘ईसाई संतों का छायाभास’ ! शुक्ल जी की ये ‘अभिनव खोज’ हिंदी आलोचना की एक ऐसी मूल्यवान विरासत है, जिसे छोड़ना उसे शायद कभी गंवारा नहीं हुआ। (अपवाद - डा. नामवर सिंह) क्योंकि बिना इसके वह रवीन्द्रनाथ के ‘रहस्यवाद’ से दो-दो हाथ कैसे करती, कैसे अपनी श्रेष्ठता का बखान करती। क्योंकि, जो डा.रामविलास शर्मा खुद वैदिक साहित्य, उपनिषदों से लेकर भक्ति साहित्य के रहस्यवाद के कट्टर झंडाबरदार रहे हैं, वे रवीन्द्रनाथ के रहस्यवाद में ‘पाश्चात्य आध्यात्मिकता’ और ‘ईसाईयत’ की इस चर्चा के बिना कैसे उन्हें अस्वीकारते !

बहरहाल, रवीन्द्रनाथ और डा. रामविलास शर्मा पर हम बाद में आयेंगे। रवीन्द्रनाथ के प्रति उनके विकर्षण-आकर्षण की कुछ अलग ही कहानी है। अभी इतना ही कि हिंदी आलोचना की पहली परंपरा ने रवीन्द्रनाथ को अस्वीकारा क्योंकि उसे छायावादियों की ‘रहस्यात्मकता, अभिव्यंजना के लाक्षणिक वैचित्र्य, वस्तु विन्यास की विश्रृंखलता, चित्रमयी भाषा और मधुमयी कल्पना’ को ठुकराना था। और दूसरी परंपरा ने अपने इस ‘सावधान पंडित’ की बातों पर कान न देते हुए भी उन्हें अपनाया तो इसलिए क्योंकि वे भगवान-स्वरूप थे, परमेश, श्रद्धा, भय और कामना के विषय थे। चमत्कार को नमस्कार। 

जहां तक शुक्ल जी का संबंध है, उनकी इतिहास-दृष्टि के साथ कोई निश्चित विश्व-दृष्टि जुड़ी हुई थी, यह दावा तो उनके बड़े से बड़े प्रशंसक भी नहीं करते। डा. शर्मा की किताब ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ में शुक्ल जी के लेखन के साथ उनके व्यक्तित्व के संपर्क की शायद ही कोई कहानी हो, क्योंकि सामान्यत: ‘नवजागरण’ से जुड़े ‘महामानवीय व्यक्तित्व’ की धारणा की जरा भी झलक उनके व्यक्तित्व में दिखाई नहीं देती। 

फिर भी वे हिंदी ‘नवजागरण’ के अग्रदूत है ! इसके चलते इस पूरे विवेचन में सिद्धांत-चिंतन की ऐसी बड़ी-बड़ी खाइयां पैदा हो गयी है कि आसानी से उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मसलन्, वीरभारत तलवार के ‘वामपंथी अवसरवाद’ को लताड़ने और शुक्ल जी को सामंती दृष्टि से मुक्त बताने के लिये डा. शर्मा सामंतवाद की भी ऐसी अलग-अलग श्रेणियां गढ़ लेते हैं, जो ‘गुणात्मक रूप में भिन्न है’। 1 ‘अंग्रेजों के पहले का सामंतवाद’ और ‘अंग्रेजों के बाद का सामंतवाद’। हमारा बुनियादी सवाल है कि जो चीजें ‘गुणात्मक रूप से भिन्न’ हो, तर्कशास्त्र का ऐसा कौन सा तकाजा है कि उन्हें एक श्रेणी में ही रखा जाए ? यह किसी ढांचे में दरार बताने वाली कोरी लाक्षणिकताओं की बात नहीं है। जब ढांचा उस दरार को पाट कर पूर्ववत टिका रहता है तो फिर ‘गुणात्मक रूप से भिन्नता’ पैदा नहीं हो सकती।  

शुक्ल जी के बारे में डा.शर्मा के लेखन की शैली देखिये : 

‘‘शुक्ल जी ने धार्मिक कर्मकांड, वर्ण-भेद आदि की आलोचना को अंशत: नहीं माना है, लेकिन सच्चे लोक-कल्याणकारी कार्यों का विरोध करने के कारण उस आलोचना को आदर्श नहीं माना।‘‘

‘यह सच है फिर भी...’ वाली शैली सच को झुठलाने की शैली होती है। नरेन्द्र मोदी ने 2002 का जन-संहार कराया, यह सच है फिर भी उसने गुजरात का विकास किया। यह प्रकारांतर से मोदी के 2002 के कुकृत्य का समर्थन है। ऐसे ही शुक्ल जी ने धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना को नहीं माना, यह सच है फिर भी इसलिए नहीं माना क्योंकि वह ‘सच्चे लोक-कल्याण’ का विरोधी था। यह शुक्ल जी के कर्मकांडी और वर्णवादी नजरिये का समर्थन है। 

और, छायावाद ! बांग्ला में तो कविता की ऐसी धारा का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया है। हिंदी में जिन चार कवियों, प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी के नाम से छायावाद जाना जाता है, वे रवीन्द्रनाथ की तरह महामानव नहीं थे। नवजागरण से जुड़े व्यक्तित्वों के चरित्र, चिंतनशक्ति, आवेग, बहुज्ञता और समकालीन आंदोलनों तथा व्यवहारिक संघर्षों में भागीदारी, किसी न किसी पक्ष को लेकर लड़ने वाले जुझारूपन का उनमें कोई उदाहरण नहीं मिलता। 

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, जो प्रसादजी को बहुत करीब से जानते थे, वे भी जब प्रसाद जी के व्यक्तित्व पर लिखते हैं तो उनके ‘बनारसी रंग’ की बात करते हैं। कहते हैं - ‘‘प्रसाद जी के पतले ओठों में सरल आत्मीय मुस्कान खूब फबती थी। पान का हल्का रंग उनके ओठों को ताजगी और चमक दिए रहता था। प्रसादजी घर पर प्राय: खद्दर के कुर्ते और धोती में रहा करते थे; परंतु बाहर निकलने पर रेशमी कुर्ता, रेशमी गांधी टोपी, महीन खद्दर की धोती, रेशमी चादर या दुपट्टा, फुल स्लीपर जूते और एक छड़ी हाथ में रहती थी।‘‘ और, जहां तक प्रसादजी के बारे में एक ‘नये साहित्य-युग के निर्माता’, ‘नव्य दर्शन के उद्भावक’, ‘भविष्यद्रष्टा’ ‘आगम के विधायक कलाकार’ वाली बातें हैं, ये सब एक साधक की अन्त:प्रज्ञा की उपज है, नवजागरण के व्यक्तित्वों से जुड़े किसी सामाजिक कर्मोद्दम की नहीं ! 

आचार्य वाजपेयी को यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होती है कि ‘‘छायावाद के संबंध में लिखता हुआ मैं संभवत: एक भी आतंककारिणी बात न कह सकूंगा। संसार की परम प्रसिद्ध आध्यात्मिक जागृतियों के साथ हिंदी की नवीन काव्य-प्रगति की तुलना करने और साधारण-से-साधारण कवियों को उमर खैयाम अथवा रवीन्द्रनाथ सिद्ध करने के लिए एक दूसरे प्रकार की लेखनी, एक दूसरे प्रकार के उत्साह की आवश्यकता है। मुझसे ऐसी आशा करना व्यर्थ होगा।’’

आचार्य वाजपेयी को जिस ‘आतंककारी उत्साह’ से परहेज था, डा. रामविलास शर्मा में वही उत्साह कूट-कूट कर भरा हुआ था। उन्होंने मान लिया था कि नवजागरण तो चंद लेखकों की प्रयोगशाला से तैयार होने वाली वस्तु है। शिवनाथ शास्त्री, रमेशचंद्र दत्त, प्रभात कुमार मुखोपाध्याय आदि से लेकर सुशोभन सरकार, सुकुमार सेन, निहार रंजन रे आदि की तरह के कुछ बड़े शोधकर्ताओं और अन्य लेखकों की एक फौज ने तुमार बांधा और बांग्ला रिनेसांस तैयार होगया ! इसीलिए पूरे उत्साह से वे खुद भी ग्रंथों का पहाड़ तैयार करके हिंदी नवजागरण को पैदा करने के काम में जुट गये। लगभग पूरा जीवन खपा दिया। फिर भी, यह सच है कि ‘निराला की साहित्य साधना’ के तीन खंड भी निरालाजी को एक बड़े और महत्वपूर्ण कवि के अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़े किसी बहुज्ञ, चिंतनशील नवजागरणकालीन व्यक्तित्व का रूप नहीं दे पायें। न अपने साथ या अपने पीछे हिंदी नवजागरण का ढोल पीटने वालों की कोई फौज तैयार कर पाये। 

उनका यह कहना कि ‘‘राममोहन राय को विधवाओं की प्राणरक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ा, इसी तरह विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती को संघर्ष करना पड़ा और साहित्यकारों में द्विज और शूद्र का भेद मिटाने के लिए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को संघर्ष करना पड़ा’’ निराला की प्रशंसा नहीं बल्कि परिहास लगता है। जिस छायावाद को उन्होंने ‘साम्राज्य विरोधी चेतना के निखार का साहित्य’ कहा था, उसी सांस में यह भी लिखा कि ‘‘ ‘छायावादी’ साहित्य पढ़ते समय साम्राज्य विरोधी चेतना, सामंत विरोधी मूल्य जैसी चीजें अप्रासंगिक मालूम होती है।’’ इसके बाद ‘किंतु’ के साथ वे इतना और जोड़ देते हैं कि ‘‘जहां छायावादी कलाकार, पत्रकारिता वाले गद्य की ठोस धरती पर पांव रोपे हुए, साधारण पाठकों से बात करते हैं, वहां साम्राज्य विरोधी चेतना और सामन्त विरोधी मूल्य जैसी चीजें निहायत प्रासंगिक ही नहीं, इतनी प्रासंगिक मालूम होती है कि उनके बिना उस गद्य का विवेचन हो ही नहीं सकता।’’ 

निरालाजी कवियों के लिये ‘महाप्राण’ होगये, और सदा रहेंगे भी, लेकिन हिंदी समाज के लिये अब तक वे सिर्फ ‘वर दे वीणा वादिनी’ के रचयिता, पाठ्य पुस्तकों के कवि है। 

और जहां तक डा. शर्मा के ‘हिंदी नवजागरण’ प्रकल्प का सवाल है, मृत्यु के साल भर पहले उनके ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ शीर्षक से आए दो भारी-भरकम खंडों में अगर कुछ सबसे ज्यादा उपेक्षित, बल्कि कहा जाए अनाथ छोड़ दिया गया विषय है तो, वह ‘हिंदी नवजागरण’ का विषय ही है। भारतेंदु, निराला के साहित्य की चर्चा उसी प्रकार हुई है जिसप्रकार रवीन्द्रनाथ, सुब्रह्मण्यम भारती की - उनके साहित्य में जातीय (भारतीय) चेतना के संदर्भ में। 

इस पूरे उपक्रम का दुखद पक्ष यह रहा कि डा. शर्मा की साहित्य संबंधी चिंताएं बेठौर होगई। छायावादी कवियों के बड़े साहित्यिक अवदान को सही ढंग से रेखांकित करने में वे असमर्थ साबित हुए। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि बांग्ला भाषा के नये संस्कार का जो काम रवीन्द्रनाथ के साहित्य के जरिये संपन्न हुआ, हिंदी के चार छायावादी कवियों की सारी सीमाओं, ‘‘शैली की दूरारूढ़ साधना में ही लीन हो जाने के कारण अर्थभूमि के विस्तार की ओर उनकी दृष्टि न रहने के’’ शुक्ल जी के सारे कोप वचनों के बावजूद इन्हीं के जरिये हिंदी भाषा के नये संस्कार का काम पूरा हुआ और छायावाद हिंदी साहित्य की एक घटना बन गया। 

कोई भी बात तभी किसी घटना का रूप लेती है जब वह उसके कारण की, कर्ता की सीमाओं का अतिक्रमण करके उससे बहुत व्यापक प्रभाव उत्पन्न करती है। हिंदी साहित्य में छायावाद के साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ। 

साहित्य की एक सबसे प्रमुख भूमिका भाषा की सामूहिक विरासत को जीवंत बनाये रखने में है। भाषा न किसी राजनेता के और न ही किसी शिक्षाशास्त्री के आदेश-निर्देश की मुहताज होती है। वह संवेदनशील होती है साहित्य के इशारों के प्रति। छायावादियों की भाषा में बहुत कुछ ऐसा हो सकता है जो आज भी आम बोलचाल की भाषा में दाखिल नहीं हो पाया है, लेकिन जो साहित्य पर विश्वास करते हैं वे भाषा के इस रूप के प्रति तब से लेकर आज तक, समान रूप से उत्साहित है। यह हिंदी भाषी जनता की आधुनिक जरूरतों को पूरा करती है, देश की दूसरी अधिकांश जातीय भाषाओं से उसका एक सहजात रिश्ता कायम करती है; भारत की राष्ट्रीय एकता का आधार तैयार करती है। नामवर सिंह ने बिल्कुल सही छायावादी काव्य-सौंदर्य को उसकी सामाजिक भूमिका संबंधी विवेचन के केंद्र में रखने पर जोर दिया था। 

और जहां तक डा. शर्मा के इतिहास लेखन का प्रश्न है, आज के काल में इतिहास लेखन जिसप्रकार इतिवृत्तात्मकता, पुरातत्व, भाषाशास्त्र और समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र आदि का एक साझा उपक्रम है, डा. शर्मा उसे भी अपने ग्रंथों की प्रयोगशाला से उसी प्रकार गढ़ देना चाहते थे, जैसे वे हिन्दी नवजागरण को पैदा करना चाहते थे। इसमें महत्व किसी शोध की प्रामाणिकता का नहीं, अपने पूर्वाग्रह को प्रमाणित करने का होता है।  

याद आती है पंचतंत्र की कहानियों का मूल संस्कृत से अनुवाद करने वाले कृष्णदत्त शर्मा की लंबी भूमिका की जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पंचतंत्र : मानव जीवन का ज्ञानकोष’ के प्रारंभ में दिया है। इस भूमिका में वे इन कहानियों के पीछे के प्रयोजन की एक कहानी सुनाते हैं। लिखते हैं - 

‘‘दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक एक नगर था। यहां अमर सिंह नामका एक राजा राज्य करता था। उसका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था। वह स्वयं विभिन्न कलाओं में निपुण था और विद्वानों का आदर करता था। उसके तीन पुत्र थे - बहु शक्ति, उग्र शक्ति और अनंत शक्ति। ये तीनों के तीनों अत्यंत उद्दंड और विद्या-विमुख थे। अधिक संपत्ति से संतान बिगड़ जाती है। ...राजकार्य में व्यस्त रहने के कारण राजा पहले तो राजपुत्रों पर विशेष ध्यान नहीं दे पाया। फिर जब उसका ध्यान गया और उसे समस्या की गंभीरता का अहसास हुआ तब तक बहुत देरी हो चुकी थी। ...ऐसे पुत्रों को गद्दी का वारिस नहीं बनाया जा सकता था। ...तब एक दिन उसने अपने मंत्रियों और राज्याश्रित विद्वानों की एक सभा बुलाई और उनके सामने अपनी समस्या रखी। ...ऐसे पुत्र से क्या लाभ...अपने पुत्रों के बारे में यह टिप्पणी करने के बाद राजा ने आगे कहा, ‘‘जैसे भी इन राजकुमारों की बुद्धि का विकास हो वैसा उपाय आप लोग करें।’’

‘‘...राजा के इन शब्दों को सुन कर सभा में निस्तब्धता छा गई। अधिकांश मंत्री और विद्वान राजपुत्रों की उद्दण्डता और विद्या-विमुखता से परिचित थे। तब एक पंडित ने मौन तोड़ते हुए कहा, ‘‘राजन बारह वर्ष तो व्याकरणशास्त्र के अध्ययन में लगते हैं, चाणक्य आदि के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन आदि के कामशास्त्र का अध्ययन करना होगा। इसप्रकार धर्म, अर्थ और कामशास्त्र के ज्ञान के बाद कहीं जाकर बुद्धि जागती है। ’’

‘‘उस सभा में सुमति नामका एक मंत्री बैठा था। उसने कहा, ‘‘मनुष्य का जीवन अनित्य है। इन राजकुमारों के लिए तो किसी संक्षिप्त शास्त्र पर विचार कीजिए। कहा भी गया है, व्याकरणशास्त्र का कोई वार-पार नहीं। अवस्था थोड़ी और विघ्न बहुत है। इसलिए हंस के नीर-क्षीर विवेक की तरह हमें असार को त्याग कर सार को ग्रहण करना चाहिए।’’

‘‘अपना सुझाव देते हुए सुमति ने आगे कहा : ‘‘इस सभा में समस्त शास्त्रों में निष्णात छात्रों के बीच यशस्वी विष्णु शर्मा नामक विद्वान है। आप इन पुत्रों को उन्हें सौंप दीजिए। वे उन्हें जल्द ही प्रबुद्ध बना देंगे। 

‘‘यह सुन कर राजा ने विष्णु शर्मा को बुला कर कहा : भगवन ! कृपा करके मेरे इन पुत्रों को जैसे भी संभव हो वैसे अनुपम विद्वान बना दीजिए। इसके बदले में आपको सौ ग्रामों का मालिक बना दूंगा।

‘‘यह सुन कर विष्णु शर्मा ने राजा से कहा : ‘देव ! आप तथ्य की बात सुने। सौ गांव लेकर भी मैं विद्या को बेचूंगा नहीं। फिर भी यदि मैंने आपके पुत्रों को छ: महीने के अन्दर-अन्दर नीति शास्त्र में पारंगत नहीं बना दिया तो मैं अपना नाम बदल दूंगा। ...यदि मैं छ: महीने के अंदर आपके पुत्रों को नीति शास्त्र का अप्रतिम ज्ञाता न बना दूं तो ईश्वर मुझे स्वर्ग की गति न दे।’’

इसी उपक्रम में विष्णु शर्मा ने नीति शास्त्र के पूरे विषय को पांच भागों में विभाजित किया और विषय के अनुरूप पांच केंद्रीय कहानियों की सृष्टि कर डाली। हर कहानी एक कहानी न होकर अनेक कहानियों का तंत्र है। तंत्र का अर्थ है एक प्रकार की संरचनात्मक व्यवस्था, जिसमें हर कहानी अलग-अलग भी हो और केंद्रीय कहानी का अंग भी। इसप्रकार कुल पांच कहानी-तंत्र हुए। इसीलिये पुस्तक को नाम दिया पंचतंत्र। ’’
इन सब कहानियों के पात्र तो पशु-पक्षी है, लेकिन उनके मारफत जिस नीति शास्त्र का बखान किया गया है वह मनुष्यों के लिये है। विष्णु शर्मा एक खास, सीमित प्रयोजन से राजा के बिगड़ैल बेटों को तुरत-फुरत शिक्षित करने के लिए अपने जाने शास्त्रों का निचोड़ पेश कर रहे थे। उनके लिये महत्व इन निचोड़ों का था, किन पात्रों से उन्हें पेश किया जा रहा है, वह महत्वहीन था। दरबार के दूसरे पंडित चिंतित थे कि इतने कम समय में कैसे किसी को सारे शास्त्रों का विद्वान बनाया जा सकता है, लेकिन विष्णु शर्मा बिल्कुल निश्चिंत थे। उन्हें तो कुछ रोचक कथाओं से नीति कथनों को राजकुमारों को रटाना था। उन्होंने पशु-पक्षियों के कथोपकथन से सारे शास्त्रों के ऐसे गुटके तैयार किये कि आज भी वे ज्ञान के शार्टकट की तलाश में लगे लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। कान में मंत्र फूंकने वाला ऐसा साहित्य आज भी हर रोज रचा जाता है। 

लेकिन गौर करने की बात यह है कि पंचतंत्र की ये कहानियां जो खास प्रयोजन के लिये रची गई, कभी भी पाणिनी के व्याकरण, चाणक्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के काम शास्त्र का स्थान नहीं ले पाई। 

इरफान हबीब, रोमिला थापर, रामशरण शर्मा आदि सभी गंभीर इतिहासकारों की दिक्कत यह है कि वे इतिहास के अनुशासन से बंधे हुए लोग रहे हैं, किसी इतर प्रयोजन से नहीं। इसीलिये जो बातें इतिवृत्तों, पुरातत्व, भाषाशास्त्र, नृतत्व, भूगोल, जनांतिकी और समाजविज्ञान की कठोर कसौटियों पर खरी नहीं उतरती, उन पर वे इतिहास की कपोल-कल्पनाओं का महल तैयार करने से कतराते रहे हैं। यहां तक कि अर्थशास्त्र के साथ भी इतिहास के गहरे संबंधों को वे समझते हैं। वे ऐतिहासिक साक्ष्यों के अध्ययन के बारे में विकसित हो रही नई तकनीकों के प्रति भी सचेत लोग है। इसीलिये नये तथ्यों के प्रति संवेदनशील भी है। लेकिन हमारे डा. शर्मा इतिहास का इस्तेमाल करते है अपने इतर उद्देश्यों को साधने के लिए। बांग्ला नवजागरण के मुकाबले हिंदी नवजागरण की श्रेष्ठता स्थापित करने, अंग्रेजों के मुकाबले भारतीयों की श्रेष्ठता, तुर्कों के मुकाबले हिंदुओं की और अंत में आते-आते आर्य नस्ली श्रेष्ठता का झंडा लहराने के लिये। अंग्रेज न आते तो भारत का ज्यादा भला होता, मुसलमान न आते तो और भी भला होता, और आर्य तो यहीं के थे, इसलिये आर्यों का शुद्ध रक्त सारी श्रेष्ठताओं का स्वत: सिद्ध खजाना है। जैसे इतिहास के किसी भी किस्से को सिर्फ यह कह कर खत्म कर दिया जाए कि यदि आदिम साम्यवाद की स्थिति बनी रहती तो फिर समानता की लड़ाई ही नहीं करनी पड़ती। इतिहास न हो, जैसे घर की खेती हो। 

सवाल उठता है कि दूसरी संस्कृतियों से अन्तर्क्रिया के प्रति डा. शर्मा में इतनी विरक्ति क्यों थी ? क्या दुनिया में कोई भी संस्कृति पूरी तरह से पृथ्थकृत रह सकती है ? फिर क्यों हम, हम और सिर्फ हम ? हंटिंगटन के ‘सम्यता के संघर्ष’ की तरह, ‘अन्य’ के साथ हमेशा युद्धरत ! गौर करने की बात यह है कि ऐसे ‘हम बनाम अन्य’ के युद्ध में संस्कृतियों के खुद के अंतर्विरोधों, वैकल्पिक, जन-साधारण की संस्कृतियों के लिये कोई जगह नहीं होती। नामवर जी की शब्दावली में यह है - ‘इतिहास की शव साधना’। हम कहेंगे भेड़ और भेडि़ये की कहानी को चरितार्थ करने के लिये कोरे गड़े मुर्दे उखाड़ना। उपनिवेशवादियों के सभ्यता- अभियान का ही दूसरा जातीय सांस्कृतिक प्रतिरूप। डा. शर्मा का इतिहास संबंधी काम भारत के अतीत के बारे में जितना नहीं बताता उससे कहीं ज्यादा उनके खुद के बारे में बताता है।  

कहना न होगा, अगर गंभीरता से देखा जाए तो यह पूरी प्रक्रिया ही विचार की एक खास खोजी धारा है जिसका आप्त वाक्य है - प्रमाण का दूसरा मुख्य साध्य अनुमान है। यह विचार के विषय को विचार का उत्पाद बनाने, उसका निरूपण करने की प्रक्रिया है। यह वस्तु से सोच का निरूपण नहीं बल्कि खास सोच के अनुरूप वस्तु का निरूपण है। फिर वह कैसे भी क्यों न हो। इसके लिये मनुष्यों के बजाय ‘कौवी और काला सांप’, ‘बगुला और केंकड़ा’, ‘शेर और खरगोश’, ‘जू और खटमल’ आदि को ही पात्र क्यों न बनाना पड़े !  
डा. शर्मा अपनी अंतिम पुस्तक में श्रेष्ठताओं के अपने बाकी उपख्यानों के ताम-जाम को झाड़ कर, अपनी दूसरी सभी संपदाओं को छोड़ कर जब ‘आर्यामी’ की झंडाबरदारी के निपट तत्व-रूप में आते हैं, तब वे हिंदी नवजागरण को तो भूल जाते हैं, लेकिन जिन रवीन्द्रनाथ को याद करने से उन्होंने सारी उम्र परहेज बरता, उनपर लगभग चालीस पेज खर्च कर देते हैं। 
जिन रवीन्द्रनाथ ने लिखा -‘‘हे आर्य, हे अनार्य आओ, आओ हिन्दू-मुसलमान/आज आओ तुम अंग्रेज, ख्रीस्टान आओ/ मन को पवित्र कर आओ ब्राह्मण, सबके हाथ पकड़ो -/ हे पतित, आओ, अपमान का सब भार उतार दो।/मां के अभिषेक के लिए शीघ्र आओ/ सबके स्पर्श से पवित्र किये हुए तीर्थ-जल से/ मंगल-घट तो अभी भरा ही नहीं गया है-/इस भारत के महामानव के सागर-तट पर।’
उन रवीन्द्रनाथ का आर्य श्रेष्ठता के आख्यान के लिए, आज के पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु नदी के बजाय सिर्फ भारत की सीमाओं में ही बहने वाली कपोल-कल्पित वैदिक सरस्वती नदी के तट पर वेद-मंत्रों को रचने वाली हड़प्पा-पूर्व की आर्यों की श्रेष्ठ और शुद्ध सारस्वत सभ्यता का आज के आधुनिक युग में भी झंडा गाड़ने के लिये इस्तेमाल करना उनकी स्मृति के प्रति एक प्रकार के अनादर सा प्रतीत होता है। इतिहासकार अभी तक हड़प्पा सभ्यता की लिपि ही नहीं पढ़ पाये हैं, और डा. शर्मा ने घर बैठे कोरे अनुमानों के बल पर हड़प्पा-पूर्व का पूरा इतिहास रच दिया। कहना न होगा, यह प्रकृति के सारे इंतजामों में व्याप्त प्रयोजन की तरह ही डा. शर्मा का प्रयोजनवाद है, जिसकी सेवा में भारतीय नवजागरण के सारे अग्रदूतों को उन्होंने इकट्ठा कर दिया है, बशर्ते वे ‘हिंदू’ हो।  

इति।    

1.‘अंग्रेजी राज से पहले का सामंत वर्ग अंग्रेजी राज के सामंत वर्ग से गुणात्मक रूप में भिन्न था।’ - (पृष्ठ- 215)




अब ख़बरदार ! ये सब नहीं चलेगा !

- सरला माहेश्वरी 

औरंगज़ेब मुस्लिम कट्टरपंथी था
वो हत्यारा था, अत्याचारी था,
समावेशी भारतीय संस्कृति को नहीं मानता था
लो, मिटा दिया राजपथ से उसका नाम
रख दिया उसकी जगह पर एक अच्छा नाम
एक अच्छे मुसलमान का नाम !

अब तो करोगे यक़ीन !
मानोगे कि हम हैं हिंदुस्तान के सच्चे वारिस !

और गाँधी !
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी !
"ईश्वर, अल्लाह तेरे नाम, सबको सम्मति दे भगवान "
उनकी हत्या ! और हत्या का उत्सव !
क्या इसलिये कि वो नहीं थे तुम्हारे जैसे !
तुम्हारे जैसे महान परम्परावादी, राष्ट्रप्रेमी !

और गोविंद पानसारे !
अरे वही शिवाजी पर लिखी थी ना किताब
बताया था कि शिवाजी नहीं थे कट्टर
वे तो समावेशी शासक थे
फिर क्यों मार डाला पानसारे को !

ओह ! वो शिवाजी की वीरता को ...
धर्मनिरपेक्ष बताकर कलंकित कर रहा था !

और ये कलबुर्गी !
पुरालेख और वचन साहित्य के विशेषज्ञ
कट्टरपंथ और अंधविश्वास के खिलाफ लड़ रहे थे
मूर्तिपूजा का विरोध कर रहे थे !

विवेकानंद भी तो कहते थे ...
तुम्हारे शास्त्रों को फेंक दो ...
गर नहीं दे सकते भूखे को रोटी ...
खुद सोचो, गर सही लगे तब विश्वास करो !

और वो दाभोलकर
वो भी तो यही कह रहे थे
पाखंडियों, झूठे तांन्त्रिकों पर मत करो विश्वास
मत मारो दुर्बल और असहाय को
वे तो चल रहे थे विकास के रास्ते पर
डिजिटल इंडिया के रास्ते पर !

ओह ! तुम्हारा डिजिटल इंडिया !
उनसे एकदम अलग है, कोई मेल नहीं है !

हमारा डिजिटल इंडिया समावेशी है
पंडे, पुजारी, तांत्रिक,ढोंगी, घनघोर आस्थावादी
सब को देता है पूरा सम्मान
उन जैसे अनास्थावादियों का यहाँ नहीं है कोई काम
ये हमारी समावेशी संस्कृति का अपमान है
ये तो सरासर देशद्रोह है

देखो ! हम देशभक्त
यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकते
देखो ! इसीलिये कानून भी बना दिया है
अब ख़बरदार ! ये सब नहीं चलेगा !
भागो ! नहीं तो कर देंगें जेल के अंदर !
और नहीं माने तो, जानते ही हो !

इस दुनिया से ही उठा देंगे ।

शनिवार, 5 सितंबर 2015

करना चाहता हूँ तुमसे कुछ बातें

- सरला माहेश्वरी




(मैसूर विश्वविद्यालय के अध्यापक प्रोफ़ेसर के. एस. भगवान को बजरंग दल के लोगों ने मौत के घाट उतारने की धमकी दी है । प्रो. भगवान कर्नाटक में एक विवेकवादी, वैज्ञानिक मानसिकता के प्रचारक प्रखर बुद्धिजीवी माने जाते है । प्रो.कलबुर्गी की हत्या के बाद इन्हें कहा गया था कि अगला निशाना अब प्रो. भगवान को ही बनाया जायेगा । इस पर प्रो. भगवान की प्रतिक्रिया थी, तुम हमें मार सकते हो, हमारे विचारों को नहीं । इन्हीं प्रो. भगवान को समर्पित सरला माहेश्वरी की कविता :)

हाथों में बंदूक़ लेकर
बिना सोचे-समझे निर्दोषों की हत्या करने वालों !
एक बार, नहीं
गोली चलाने से पहले
बार -बार देखो !
अपने हाथों को गौर से देखो !
छू कर महसूस करो अपने हाथों को
माथे पर ज़ोर डालकर याद करो उन हाथों को
अपनी माँ के उन हाथों को ...
अनगिनत बार उन हाथों ने प्यार से चूमा था तुम्हें
तुम्हारी हर गल्ती के लिये खुद को ही कोसा था उसने
याद करो पिता के उन हाथों को
तुम्हारी हँसी के लिये प्यार से हवा में उछालते थे तुम्हें
और भर लेते थे सावधानी से अपने हाथों में
हाँ, हाँ, याद करो उस प्यार को...
उस विश्वास को ...
जीने के लिये,जिंदगी के लिये
बहुत, बहुत ज़रूरी होता है
किसी का प्यार, किसी का विश्वास
किसी का साथ ...
हर एक अदद इंसान के लिये
याद करो !
याद करो कि तुम एक इंसान हो
तुम नहीं हो एक मशीन !
कम्प्यूटर के पर्दे पर
नादान बच्चे की तरह नक़ली दुश्मन को मारकर
तुम नहीं कर सकते अपना मनोरंजन
सोचो क्या हो ...
गर गल्ती से उस बच्चे के हाथ में आ जाय तुम्हारी
असली बंदूक़ !
खेल-खेल में चलाने लगे वो अंधाधुँध गोलियाँ
लगा दे तुम पर ही निशाना
धाँय ! धाँय ! धाँय !
काँप रहे हैं ना तुम्हारे हाथ !
सोचो ! सोचो ! क्या होगा ...
गर हम सब बन जायें एक मशीन ...
एक हत्यारी मशीन !
चलाने लगें एक-दूसरे पर ऐसे ही गोलियाँ
बन जायें अपने-अपने
इलाक़ों के सरदार
फिर रात-दिन जाग-जागकर बनाएँ रणनीतियाँ
घात की, प्रतिघात की,विस्तार की
शक और भय के घेरों में बंद
आये नजर चारों ओर
बस दुश्मन और दुश्मन
जैसे राजमहलों के षड़यंत्र
बेटा कर दे बाप की हत्या !
भाई कर दे भाई की हत्या !
हम सब बन जायें
बस लोभ-लालच
नफ़रत और सत्ता के पुर्ज़े
बिना सोचे-समझे रणभूमि में सज जाएँ
मिलते ही आदेश, चला दें गोली
गर नहीं बनना चाहते
तुम सत्ता के पुर्ज़े
तो आओ मेरी हत्या से पहले
मैं तुमसे करना चाहता हूँ
अपने घर में शांति से कुछ बातें
मुझे पूरा यक़ीन है
मैं समझा सकता हूँ तुमको
इंसान को मशीन में तब्दील करने का राज
सभी तानाशाहों को चाहिये होती है
तुम जैसी मशीनें ! तबाही की मशीनें !
मशीनें नहीं जानती, फिर भी वे करती हैं !
वे बहुत
हाँ, हाँ बहुत डरते हैं इंसानों से
देखो ! तुम्हें भी तो डरा दिया था उन्होंने
पानसारे, डाभोलकर, कलबुर्गी और मुझ जैसे बुढ्ढे इंसानों से
अब बताओ तुम मेरे पास बैठे हो
लग रहा है कोई डर मुझसे !
नहीं ना !
इंसान नहीं डरा करते इंसानों से
सिर्फ हैवान ही डरा करते हैँ इंसानों से
ये धरती बहुत सुंदर है
आओ ! इसे ख़ुशहाल बनाएँ
आओ मिलकर इंसान बनाएँ।
मैं भगवान दास
मारे जाने से पहले करना चाहता हूँ
तुमसे कुछ बातें।

बुधवार, 2 सितंबर 2015

कल्पना देवी की दुआ

(कोलकाता के निकटवर्ती बाली नगरपालिका में एक सहायक-इंजीनियर प्रणव अधिकारी के घर पर जब राज्य के भ्रष्टाचार-निरोधी ब्यूरो के अधिकारियों ने 16 अगस्त को छापा मारा तो उसके घर के कोने-कोने, यहां तक कि बिस्तर, सोफे की गद्दियों और बाथरूम के कमोड तक से हजार और पांच सौ रुपये के इतने बंडल मिले कि छापा मारने वाले उन्हें गिनते-गिनते थक गये। जिसे रुपयों का पहाड़ कहते हैं, वही स्थिति थी। 20 करोड़ से ज्यादा नगद रुपये पाये गये।
दूसरे दिन सभी स्थानीय अखबारों के प्रथम पेज पर उन रुपयों के ढेर की फोटो छपी थी। इसके बाद ही आनंदबाजार पत्रिका में प्रणव अधिकारी की मां की भी एक तस्वीर छपी है जो एक बस्ती के अपने खपरैल वाले घर के सामने खड़ी अपने घूसखोर बेटे की खबर से अवाक थी। इस मां पर सरला माहेश्वरी की कविता :)



पाँच-पाँच बेटों की माँ
कल्पना देवी !
कबूतरों के दड़बे जैसे घर की मालकिन
कल्पना देवी !
कहाँ गये ...
तुम्हारे पाँचों कबूतर !
तुम्हारी आँखों के तारे
माँ-बाप के राज-दुलारे !
कमज़ोर बुढ़ापे के सहारे !
कल्पना देवी !
आज अख़बार में देखी
तस्वीर तुम्हारी !
खबर जानकर थी
तुम हैरान, परेशान !
बेटे के संग-मरमरी
घर में उग आये थे
रुपयों के बड़े-बड़े झाड़
कैसे करें गिनती
चकरा गये थे, जाँच-अधिकारी !
तुम्हारा
हिसाबी-किताबी कंजूस बेटा !
कैसे बन गया ऐसा करामाती !
तैर रहा था घूस के रुपयों के तालाब में !
पी रहा था पानी जैसे जल की मछली!
और तुम्हें भनक भी नहीं लगी !
कैसे भला लगती कोई भनक
तुम्हारी ईँटों की खाली दीवार
जमती रही उसपर बस काई
पर प्लास्टर और रंग की
कभी आई नहीं कोई महक
कल्पना देवी !
अरे तुम तो मूर्ति बन गयी हो
पत्थर की मूर्ति !
उभर आये हैं, अचानक ही चोट के गहरे निशान
आँखों में सूखा हुआ आँसू
देख रहा है वही पुराना
मुड़ा-तुड़ा एक सौ का नोट
रोज कमाके लाता था तुम्हारा मज़दूर पति !
वो एक सौ का नोट
जैसे अनगिनत अरमानों की जोट !
जोड़-जोड़कर, तोड़-तोड़कर
बड़े कर दिये पाँच-पांच कमाऊ पूत
तुम्हारे अरमानों के पंख
लेकर उड़ गये अपने-अपने आकाशों में
लौटकर कभी वापस आये नहीं
तुम्हारे कबूतरों के खाँचे में !
पचास वर्ष ! तुम आज भी
वहीं बैठी हो इंतज़ार में
आये कोई एक तो कबूतर वापस
चुनने, बचा कर रखा दाना-पानी !
कितना..लम्बा...इंतजार...
अब बड़े-बड़े घरों में
रहने लगे हैं तुम्हारे कमाऊ पूत
"चीफ़ की दावत" में जी-जान से जुटे हैं तुम्हारे पूत
तुम जैसे बूढ़े माँ-बाप
अब हैं उनके लिये शर्म और संताप !
सुनो ! कल्पना देवी !
क्या अब भी नहीं निकलती
कोई बद्-दुआ तुम्हारे मुँह से !
क्या अब भी माँगती नहीं कोई नयी दुआ !
बुदबुदा रहे हैं तुम्हारे होंठ !
सुन रही हूँ मैं कल्पना देवी !
कह रही हो शायद तुम ...
अगले जन्म मोहे बिटिया ही ...।

शानदार, ज़बर्जस्त, ज़िन्दाबाद !

-सरला माहेश्वरी

टीम इंडिया !
सवा सौ करोड़ की टीम इंडिया !
"शानदार ! जबरजस्त ! ज़िंदाबाद"
हटते नहीं दुखों के पहाड़ !
बरस दर बरस, पीढ़ी दर पीढ़ी !
जीना मरना एक समान !
दशरथ माँझी ज़िंदाबाद !
पहाड़ ! पत्थर के पहाड़ !
देवता पत्थर के ज़िंदाबाद !
बर्बाद जीवन रहा आबाद !
आदाब ! टीम इंडिया आदाब !
भूख ! ग़रीबी ! ज़िंदाबाद !
ज़ुल्म-ओ-शोषण ज़िंदाबाद !
छूआछूत ज़िंदाबाद !
जात-पात ज़िंदाबाद !
धर्म के झगड़े ज़िंदाबाद !
हत्या, आत्महत्या, ज़िंदाबाद !
टीम इंडिया ज़िंदाबाद !
ज़िंदाबाद ! जिंदाबाद !
टीम इंडिया का कप्तान ज़िंदाबाद !
दशरथ माँझी मुर्दाबाद !
छाया से ही दिन बर्बाद !
छूने से जीवन बर्बाद !
हे राम ! हे राम !
टीम इंडिया में नहीं
तुम्हारा कोई काम !
"शानदार ! जबरजस्त ! ज़िंदाबाद !
हिम्मत ही बलवान
कोशिश ही भगवान
पहाड़ खुद जायेगा हार !
दशरथ माँझी ज़िंदाबाद !
"शानदार, जबरजस्त, जिंदाबाद" !

सुनो ! मैं कलबुर्गी बोल रहा हूँ

कट्टरपंथियों के हाथों मारे गये कन्नड़ के प्रगतिशील विचारक और शोधकर्ता डा. एम एम कलबुर्गी को सरला माहेश्वरी की काव्यांजलि :


सुनो ! कान खोलकर सुनो !
सुनो ! मैं कलबुर्गी बोल रहा हूँ !
अरे...रे...डरो मत !
मैं कोई भूत नहीं हूँ !
मैं जिंदा हूँ !
तुम्हारी गोलियाँ नहीं मार सकती मुझे !
अभी-अभी जारी किये हैं मैंने
अपने शोध के नतीजे !
विश्व मानव समुदाय ने लगा दी है उसपर
अपनी स्वीकृति की मुहर !
अरे...र...
तुम अभी भी डर रहे हो !
गोलियाँ चलाते नहीं काँपते तुम्हारे हाथ !
उस समय तुम्हें डर भी नहीं लगता !
पर देखो,अब मैं तुम्हारे काम ...
हाँ, हाँ, तुम्हारे काम की चीज़ बता रहा हूँ
सुनो ! मेरे शोध के नतीजे बता रहे हैं...
तुम्हारी जिंदगी के बहुत कम दिन बचे हैं ...
असल में तुम्हारे डीएनए में ही गड़बड़ है ...
उसमें जिंदगी की आवश्यक कोशिका ही नहीं है
अरे, वही विवेक की कोशिका ...
वही कोशिका तो जीवन के लिये ज़रूरी प्रोटीन बनाती है
इसीसे तो जीवन का रस बनता है
और वही कोशिका तुम्हारे अंदर नहीं है...
"सर जी मुझे बचा लीजिये !
आप तो बहुत ज्ञानी हैं, कुछ भी कीजिये !"
"मैं, मैं मरना नहीं चाहता ...
सर जी कोई उपाय कीजिये"
हाँ, हाँ एक उपाय है !
तुम्हारे डीएनए की उस लुप्त कोशिका को जिंदा करना होगा !
"सर जी कुछ भी करिये,पर मुझे बचाइये"
ठीक है ! पर फिर तुम वो नहीं रहोगे जो अभी हो ...
तुम्हारा कायान्तर करना होगा
जैसे प्लास्टिक सर्जरी के बाद होता है ...
तुम्हें एक नया शरीर मिलेगा
इसके लिये इस शरीर को छोड़ना होगा ...
तो, हो बदलने के लिये तैयार...
चलो ! शुरु करते हैं आपरेशन...।

क्या रखा है नाम में

-सरला माहेश्वरी


लो दे दिया !
हाँ ! हाँ ! दे दिया है
सरकार ने तुम्हें उपहार !
कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर
कर दिया है
"कृषि विकास और किसान कल्याण "
अब तो ख़ुश हो ना !
दिला रहे हैं, मुझे विश्वास !
अब नहीं होगी मुझे कोई चिंता-फ़िकर !
नया नाम कर देगा मेरा कल्याण !
सोच रहा हूँ
मैं ग़रीब, गँवार किसान
मैंने भी तो रखे थे कई नाम
पर मुश्किलें नहीं हुई आसान
पहले बेटे को
नाम दिया था, धनपत
पर रहा ग़रीब का ग़रीब
बदला नहीं कभी उसका नसीब
दूजा बेटा, जीतेन्द्र
पर रहा हमेशा
हारा ही हारा
आख़िर जीवन से भी गया हार
मेरे मालिक !
कैसे करूँ विश्वास, आपके दिये इस नाम का !
नाम से कहाँ बदलती है क़िस्मत !
नहीं बरसती "अच्छे दिन" की रहमत !
आपने तो पहले भी कहा था "फ़ील गुड" !
पर मुझे तो ये चुभता रहा जैसे कोई कील !
किसान क्रेडिट कार्ड
शाइनिंग इंडिया
जन-धन योजना
कितने नाम, कितने फ़रमान !
सब लेते रहे मेरा ही बलिदान !
और अब आपने नाम भी दिया तो इतना बोदा नाम !
'कल्याण', यहाँ भी पिछड़ा ही रख दिया !
कहाँ डिजिटल इंडिया और कहाँ 'कल्याण'
निर्मल बाबा के दरबार की कृपा जैसा !
हँसता था पोता मेरा !
अब आप ही बताइये कैसे भरोसा करूँ ?
कम से कम नाम तो फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी में रख देते
आप तो इसमें उस्ताद हैं
जैसे स्किल इंडिया
स्टार्ट-अप इंडिया
स्टैंड-अप इंडिया
टीम इंडिया
चलिये कोई बात नहीं
मेरे लिये तो आप बस
इतना ही कर दो
कि ... ...
खड़ा रह सकूँ अपनी ज़मीन पर
कर के गर्व से ऊँचा सर
नहीं डरा पाये मुझे कोई शैतान
हरा-भरा रहे मेरा खेत-खलिहान
कर दो बस इतना ही उपकार ।
क्या रखा है नाम में !

हिन्दी में पुरस्कारों की बरसात और उसी अनुपात में लेखकों की गिरती साख !

-अरुण माहेश्वरी

आज टीवी के एक हिन्दी चैनल में नीचे की पट्टी पर हिन्दी के कुछ लेखकों को मिले पुरस्कारों की सूचना देख रहा था । फ़ेसबुक पर तो हर रोज़ कोई न कोई लेखक अपने पुरस्कृत होने का जश्न मनाता हुआ दिखाई देता हैं । आज अगर हिसाब लगाया जाए तो देश के गाँव, प्रखंड, जिलों, क़स्बों, महानगरों में हिन्दी के लेखकों को मिलने वाले पुरस्कारों की संख्या हज़ारों में होगी । 'वागर्थ' जैसी पत्रिकाओं में छपने वाले अधिकांश लेखकों को हम दो-चार पुरस्कारों से कम की कलंगियां लगाये नहीं देखते हैं ।

इतने सारे पुरस्कार लेकिन किताबों की बिक्री ! हिन्दी में साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री आज नहीं के बराबर है । 99 प्रतिशत किताबें 500 से कम छापी जाती हैं । इनमें भी अधिकांश किसी इतर उद्देश्य की पूर्ति के लिये, सिर्फ़ 100-200 छापी जाती हैं । प्रकाशक पाठकों के लिये नहीं, सरकारी खरीदों के लिये किताबें छापते हैं और जितनी किताबों की ख़रीद का आदेश जुगाड़ करते हैं, उससे बमुश्किल दस किताबें ही अतिरिक्त छापने का जोखिम उठाते हैं ।

हिन्दी का साहित्य समाज में जितना अधिक अप्रासंगिक होता जा रहा है, उसी अनुपात में हिन्दी साहित्य पर पुरस्कारों की संख्या बढ़ती जा रही है । इसे उलट कर इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हिन्दी में पुरस्कारों की संख्या जितनी बढ़ती जा रही है, समाज में साहित्य की प्रासंगिकता उतनी ही घटती जा रही है ।

सच यह है कि लेखकों ने आम लोगों और उनके जीवन के संघर्षों से अपना नाता तोड़ लिया हैं, तो आम लोगों ने भी लेखकों से अपना संबंध तोड़ लिया है । अभी के तमाम लेखक किसी न किसी प्रकार से सरकारी तंत्र के अंग हैं । वे इस तंत्र के सेवक हैं । जनता के सेवक होना तो दूर की बात, वे व्यापक जन-समाज के हिस्से भी नहीं हैं । सरकारी तंत्र में रहते हुए परस्पर एक-दूसरे को उपकृत करना, पुरस्कार लेने और देने की जोड़-तोड़ में ही इनकी ज़िंदगियाँ बीत रही हैं ।

तंत्र और जनता दो विपरीत ध्रुव हैं । तंत्र का अंग बन कर जनता का लेखक नहीं बना जा सकता । जीवन के संघर्षों में निहित रचनाशीलता के मूल स्रोत से कट जाने के कारण यह लेखक थोथा आलंकारिक लेखन करने के लिये अभिशप्त होता है ।

ऐसी स्थिति में आज पुरस्कार किसी की श्रेष्ठता के नहीं, लेन-देन के इस पूरे व्यापार में उसके लंबे हाथों और उसकी पहुँच का प्रमाण-पत्र बन कर रह गये हैं ।

यही वजह है कि आज हिन्दी का बड़े से बड़ा लेखक भी यह दावा नहीं कर सकता है कि हिन्दी भाषी समाज में उसकी कोई पूछ है, लोग उसे पहचानते हैं और किसी भी विषय पर उसकी राय का कोई महत्व है । किसी भी सामाजिक-राजनीतिक विषय पर आज हिन्दी के लेखकों से शायद ही कोई राय माँगता है । यह विचार का एक गंभीर विषय है । लेखकों-बुद्धिजीवियों की लगभग ख़त्म हो रही सामाजिक साख में पुरस्कारों के इस गोरख-धंधे की भूमिका पर भी विचार की ज़रूरत है ।

जन गणना और सांप्रदायिकता

-अरुण माहेश्वरी

कहाँ तो माँग की जा रही थी कि जन-गणना में जातियों के आधार पर तैयार आँकड़ों को प्रकाशित किया जाए, लेकिन केंद्र की सांप्रदायिक सरकार ने धार्मिक समुदायों की जनगणना रिपोर्ट जारी कर दी । और वह भी इस प्रकार की विकृत सुर्खियों के साथ कि देश में मुसलमानों की संख्या बढ़ी है, जबकि हिंदुओं की कम हुई है । तथ्य यह है कि मुसलमानों की संख्या में इस एक दशक में साढ़े तीन करोड़ की वृद्धि हुई है, जबकि हिंदुओं की संख्या चौदह करोड़ बढ़ी है ।
सिर्फ यही नहीं, पिछले तीन दशकों में इस दशक में मुसलमानों की आबादी में सबसे कम वृद्धि हुई है । इस दशक में मुस्लिम आबादी में 24.6 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है, जबकि इसके पहले के दो दशकों में वृद्धि की यह दर क्रमश: 32.88 और 29.53 प्रतिशत थी । इसी प्रकार हिंदुओं की संख्या में वृद्धि की दर घट कर 16.76 प्रतिशत हो गई जो पिछले दो दशकों में क्रमश: 22.71 और 19.92 प्रतिशत थी ।
मूल बात यह है कि आबादी में वृद्धि की दर में कुल मिला कर गिरावट जारी है जो स्वागतयोग्य है और किसी भी विवेकवान व्यक्ति को इसी पर बल देने की ज़रूरत है । आबादी में घट-बढ़ का सीधा संबंध अलग-अलग समुदायों के अलग-अलग वर्गों की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति से है और इस मामले में सभी धार्मिक समुदायों में कोई फर्क नहीं पाया जाता है । इस विषय पर जातिगत आँकड़ों से कुछ रोशनी गिर सकती है । ज़रूरत इस बात की है कि अलग-अलग आर्थिक वर्गों से जुड़े आँकड़े पेश किये जाएं ताकि सामाजिक-आर्थिक ग़ैर-बराबरी को ख़त्म करने की सुसंगत नीतियों के आधार पर आबादी के बारे में ठोस कदम उठाये जा सके ।
अख़बारों में बिल्कुल सही कहा गया है कि अचानक इस प्रकार की सांप्रदायिक रंग से रंगी रिपोर्ट को जारी करके नरेन्द्र मोदी बिहार में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज़ कर वहाँ आगामी चुनाव में अपनी नैया को डूबने से बचाना चाहते हैं ।

यह कैसा राजनय !

-अरुण माहेश्वरी

हमारे मित्र चैतन्य नागर ने भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे एक-दूसरे के खिलाफ गर्जन-तर्जन को देखते हुए अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि ‘‘ पकिस्तान को जिंदा रहने के लिए भारत चाहिए; भारत को ऑक्सीजन की सप्लाई के लिए चाहिए पाक. दोनों एक दूसरे के अस्तित्व के लिए बड़े जरुरी हैं.’’ इस मामले में हम कहना चाहेंगे कि यह जरूरत भारत और पाकिस्तान के अस्तित्व के लिये नहीं, बल्कि भारत की सांप्रदायिक ताकतों और पाकिस्तान के फौजी संस्थान के अस्तित्व के लिये है।
अमेरिकी शोधकर्ता जे.ए.कुर्रान, जूनियर ने पिछली सदी के पचास के दशक में ही आरएसएस पर अपने शोध में लिखा था कि भारत में आरएसएस की स्थिति भारत-पाकिस्तान संबंधों पर निर्भर है। जब ये संबंध बिगड़ेंगे, आरएसएस को अतिरिक्त बल मिलेगा, और इसमें सुधार से आरएसएस के लिए प्रतिकूलता बढ़ेगी। पाकिस्तान के फौजी सत्ता संस्थान के साथ भी यही स्थिति है।
लेकिन भारत में गांधी जी की राय थी कि पाकिस्तान में कुछ भी क्यों न हो, भारत हमेशा धर्म-निरपेक्ष रहेगा। इसी समझ ने भारतीय समाज को पिछले सत्तर साल में अंदर से मजबूत किया है। इसके विपरीत यदि पाकिस्तान के फौजियों की नकल की जाती है तो इसका परिणाम भी पाकिस्तान की सामाजिक समस्याओं जैसा ही होगा। आपस में लड़ता हुआ, अंदर से कमजोर। भारत के जिस शासन अपने अस्तित्व के लिये पाकिस्तान के शासन की नकल की जरूरत होगी, वह अंतत: इस समाज को भी उसी तर्ज पर तबाह करने का अपराधी साबित होगा।
पाकिस्तान में भी अच्छी-खासी तादाद ऐसे लोगों की है जो भारत के साथ अच्छे संबंधों पर बल देते हैं। वहां की आम जनता में यही भावना प्रबल है। इसीलिये चुनावों में जीतने के लिये वहां कट्टर भारत-विरोध की राजनीति उतनी कारगर नहीं होती है। लेकिन वहां फौज एक अलग और समानांतर सत्ता-केंद्र है। उसके दबाव से चुनी हुई सरकारें मुक्त नहीं हो पाती है। खास तौर पर तब तो और भी, जब भारत का शासन सीधे तौर पर उनके लिये खतरा पैदा करता दिखाई देने लगता है।
ऐसे में, इस भारतीय उपमहाद्वीप में शांति और स्थिरता के लिये भारत सरकार की जिम्मेदारी प्रमुख है। जो सरकार यह नहीं समझेगी और ईट का जवाब पत्थर से देने की भाषा में बात करेगी, वह इस पूरे क्षेत्र की तबाही का सबब बनेगी। भारत की भी।