अरुण माहेश्वरी
आज (16 अप्रैल 2015) ‘इंडिया टीवी’ पर हिटलर के यातना शिविर औस्वित्श पर एक रिपोर्ट दिखाई जा रही थी। औस्वित्श अर्थात हिटलर के हौलोकास्ट का एक विशाल वध-स्थल। नर्क की अकल्पनीय यातनाएं देकर 60 लाख से अधिक यहूदियों की हत्या के रूह को कंपा देने वाले पैशाचिक कर्म की अकल्पनीय कहानी। जो भी इस हौलोकास्ट के इतिहास से और उसके औस्वित्श की तरह के यातना शिविरों के भूगोल से परिचित है, उनके रौंगटों को खड़ा कर देने के लिये इस शब्द का उच्चारण ही काफी होता है। सभ्यता के इतिहास का यह एक ऐसा भयावह पृष्ठ है, जिसे अपनी स्मृति का हिस्सा बना कर चैन का एक पल भी नहीं बिताया जा सकता है। यह आदमी के जीवन के उन क्षणों की तरह है, जिन्हें विस्मृत करके ही शायद आदमी आगे की सुध ले सकता है।
लेकिन इंडिया टीवी पर औस्वित्श की रिपोर्ट को देखते वक्त हमारे दिमाग में कुछ दूसरी ही बातें घूमने लगी थी। अभी कुछ दिन पहले ही हम हिंदी के स्वनामधन्य कवि अशोक वाजपेयी की कविताओं के संकलन ‘विवक्षा’ को उलट-पलट रहे थे। सब जानते हैं, भारत के एक सांस्कृतिक दूत के रूप में अशोक जी ने दुनिया के अनेक देशों की यात्रा की है। वे औस्वित्श भी गये थे। एक कवि का औस्वित्श जाना उसके लिये कितना भारी हो सकता है, इसे हम सहज ही समझ सकते हैं। इन यातना शिविरों से चरम नृशंसताओं के आतंक की स्मृतियां ताउम्र उसका पीछा नहीं छोड़ सकती। निस्संदेह, अशोक जी भी कांप उठे होंगे। औस्वित्श ने उनकी रचनाशीलता को हमेशा के लिये कितना और किस प्रकार बदला, इसका तो कोई सही अंदाज नहीं लगा सकता, लेकिन उनके संकलन से पता चलता है कि उन्होंने औस्वित्श पर तीन कविताएं लिखी।
इंडिया टीवी की रिपोर्ट के वक्त अनायास ही हमें अशोक जी की उन कविताओं की याद आगयी। ‘बचे हुए को बीते हुए की तरह (आश्विट्ज़-1)’, ‘अगर हो सके (आश्विट्ज़-2)’, और ‘उनके पास (आश्विट्ज़-3)’।
हम अभी तक औस्वित्श नहीं गये हैं, लेकिन उसके इतिहास से जरूर परिचित है। और इतने परिचय भर से ही इस शब्द की ध्वनि मात्र हमारी रीढ़ की हड्डी में आतंक की एक लहर बन कर दौड़ जाती है। लेकिन औस्वित्श की धरती पर खड़े हमारे कवि अशोक वाजपेयी में इस अनुभूति की रचनात्मक परिणति कैसे-कैसे बिंबों में होती है, देख कर आश्चर्य होता है। उन पर भय, आतंक, क्रोध, दुख या लाचारी के बजाय एक अजीबोगरीब ग्लानि और पाप का निजी बोध छाया हुआ दिखाई देता है। उनकी पहली कविता ‘बचे हुए को बीते हुए की तरह’ की शुरू की पंक्तियां हैं –
‘‘मैं बचे हुए को बीते हुए की तरह देखना चाहता हूं
हरे के विवर में उभरती पीले की दरार की तरह’’
और वर्तमान के अतीत वाले विवर की पीली दरार से वे अपने अंदर बने जिस बिंब में प्रवेश करते है, वह इस प्रकार है -
‘‘मैं नहीं था उस अधरात की गहमागहमी में
जब वे उन सबको मवेशियों की तरह ठेले में भरकर
वधस्थल की ओर ऐसी फुरती और जतन से ले गए थे
जैसे भोलेभाले लोगों को सुबह किसी जरूरी अनुष्ठान के लिए
पूजाघर ले जाया जा रहा हो।’’
और आगे पैदा होता है उनका पाप-बोध :
‘‘...मैं नहीं खड़ा था निर्विकार सिगरेट के कश लेते हुए
...मैंने शब्दों को जली हुई हड्डियों की राख के ढेर से
कभी नहीं उठाया
...मैंने भव्य संगीत नहीं सुना
...फिर भी
क्यों लगता है मुझे कि मैं जिम्मेदार हूं;
...मैं नहीं था
पर होता तो चुप होता। ’’
जिन्होंने भी रेल की बोगियों में ठूस-ठूस कर मृत्यु शिविरों में भेजे जाने वाले यहूदी कैदियों की दर्दनाक कहानियों के दृश्यों को सिनेमा के पर्दे पर ही देखा है, वे जानते है कि कैसे ‘जतन’ से उन कैदियों को इन मृत्यु शिविरों तक पहुंचाया जाता था कि उनमें से कितनों का तो रास्ते में ही दम घुट जाता था। इसके अलावा अशोक जी को इसमें जो ‘जतन’ दिखाई दिया वह भी ऐसा-वैसा नहीं, धार्मिक कर्म-कांडों से जुड़ी ‘पवित्र आस्था और निष्ठा’ का जतन ! बलि के बकरे का वध और हजारों मनुष्यों का सामूहिक वध - क्या सादृश्य है !
और उनका यह पाप-बोध ! ‘‘...मैं नहीं खड़ा था निर्विकार सिगरेट के कश लेते हुए/...मैंने शब्दों को जली हुई हड्डियों की राख के ढेर से कभी नहीं उठाया/...मैंने भव्य संगीत नहीं सुना/...फिर भी/क्यों लगता है मुझे कि मैं जिम्मेदार हूं;/...मैं नहीं था/पर होता तो चुप होता।’’ क्या कहेंगे इसे ?
हौलोकास्ट के एक प्रसिद्ध शोधकर्ता माइकेल बेरेनबॉम ने हिटलर के पूरे राज्य तंत्र को एक ‘जनसंहारकारी राज्य’ कहा था। उन्होंने लिखा हैं कि ‘‘देश की आधुनिक नौकरशाही का हर हिस्सा हत्या के इस काम में शामिल था। चर्च और गृह मंत्रालय ने यह सिनाख्त की थी कि कौन-कौन यहूदी है; डाकघरों ने उन तक निष्काषन और अलग रहने के आदेशों को पहुंचाया था; वित्त मंत्रालय ने यहूदियों की संपत्ति को जब्त कर लिया; जर्मन कंपनियों ने यहूदी मजदूरों को निकाल बाहर किया और यहूदी शेयरधारकों के शेयरों को निरस्त कर दिया।’’
नौकरशाही संवेदनहीन होती है। राज्य के आदेशों पर अमल का एक पूरी तरह से बोधशून्य औजार; मानव के सहज बोध तक को गंवा चुकी नि:स्व और विरेचित प्राणीसत्ताओं का समूह। संस्कृति और सभ्यता के बाने में जन्म लेकर यही जीवात्मा अपने ‘शुद्ध चित्त’ और ‘मुक्त मन’ के साथ राज्य के भयावह अपराधों के सामने सिर्फ बिसूर सकती है, अधिक से अधिक आत्म-ग्लानि और पाप-बोध से भर जाती है। यह तब है जब हम इस प्रकार के पाप बोध को एक पारदर्शी ईमानदारी मान लेते हैं। अन्यथा, सामान्य तौर पर तो शक्तिवानों का कला-प्रेम कला की सामाजिक प्रतिष्ठा का लाभ उठाने की चालाक कोशिश भर होती है।
फिर भी, कहते हैं ना कि आदमी के अपने चित्त में ही भ्रान्त-अभ्रान्त सारे बोधों का उदय होता है और इन बोधों का प्रकट होना ही उसके वर्तमान के प्रत्यक्ष का आधार होता है। कविता में कवि अपने भीतर-बाहर को, असली-नकलीपन को भी जाहिर कर ही देता है। उसे आप निपट नंगा देख सकते हैं। दुनिया के एक जघन्यतम जन-संहार से पशुबलि के वध की स्मृति और हत्यारों की उस कतार में कहीं खुद को खड़ा देखने का पाप बोध - हमें लगता है अशोक वाजपेयी के साहित्य के नगर में प्रवेश की दो महत्वपूर्ण कुंजी है, कविता में व्यक्त नकली संवेदना, कृत्रिमता और उसकी अपरिणत रचनात्मकता और उनकी निजी प्राणी-सत्ता का वस्तु सच, जिनसे उनकी रचना और विचार के तहखानों में कुछ गहरे तक जाया जा सकता है।
सालों पुरानी बात है, 1970 के दशक के उत्तराद्र्ध की। सन ्‘75 के आपातकालीन अनुभवों के बाद के बेहद उत्तेजनाओं से भरे संक्रमण के काल की। चंद्रभूषण तिवारी आरा से ‘वाम’ पत्रिका निकालते थे। उसके एक संपादकीय का शीर्षक था - पहचान के दो और मुहावरे : ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जबरजोत’।
भाववादी चिंतन की एक सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह किसी भी वस्तु को उसके वस्तु रूप में देखने के बजाय पहले उसे विचार की एक अमूर्त सामान्य श्रेणी में तब्दील करता है और फिर उस अमूर्त विचार से वस्तु के निरूपण की ओर उतने ही रहस्यमय ढंग से बढ़ता है जैसे कोई एक ही विचार-तत्व मात्र से आलू, टमाटर जैसी नाना ठोस वस्तुओं को पैदा करने की कोशिश करें। भेद को अभेद में तब्दील करके फिर अभेद से भेद की ओर उल्टी दिशा में बढ़ना, ताकि वस्तु को अतिन्द्रिय रहस्यमयता प्रदान की जा सके, वस्तु का मूल्य उसके स्वाभाविक गुण से नहीं, एक काल्पनिक चिंतन में निहित किया जा सके।
जो लोग भी साहित्य मात्र या कविता मात्र का झंडा उठाये घूमते हैं, साहित्य के स्वतंत्र-स्वायत्त संसार का एक रहस्यमय जगत रचते हैं, उनकी मूल प्रवृत्ति साहित्य के वस्तु रूप पर ऐसी रहस्यमयता का आवरण डालने की ही होती है। चंद्रभूषण जी ने अपने संपादकीय में साहित्य या कविता की इसी काल्पनिक एकतानता के रहस्य को भेदने के लिये आलोक धन्वा की कविता ‘गोली दागो पोस्टर’ और अशोक वाजपेयी की कविता ‘जबरजोत’ को नमूने के तौर पर लिया था। उनका संपादकीय इसप्रकार शुरू होता है - ‘‘इधर की कविता के बारे में इस तरह का सामान्यीकरण अक्सर किया जाता है जिससे एक समग्र रचनात्मक स्थिति सूचित हो - गोया वे तमाम रचनाएं जो इधर अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से या काव्य संग्रहों के द्वारा आई हैं, किसी सदृश प्रेरणा के तहत अथवा समान आवश्यकता या उद्देश्य से परिचालित होकर लिखी गई हों। ऐसा करते समय इधर के रचनाकारों की परस्पर भिन्न सामाजिक स्थिति तथा रचना में व्यक्त उनके भिन्न सामाजिक दृष्टिकोण को नजरंदाज कर दिया जाता है और महज कुछ स्थूल समानताओं- जैसे विषय की एकरूपता और अभिव्यक्ति के बाहरी लक्षणों आदि के चलते यह मान लिया जाता है कि ये किसी संगठित चेतना या सामूहिक उपक्रम के परिणाम है।’’
चंद्रभूषण जी कहते है कि समान सामाजिक अभिप्रायों से जुड़ी रचनाओं को एक अन्विति में समझना जरूरी होने पर भी, ‘‘उससे कम जरूरी उस छद्म सादृश्य का अनावरण भी नहीं है जो विषय की एकरूपता अथवा अभिव्यक्ति की सपाटता आदि की आड़ में आज की कविता की वास्तविक पहचान को तथा उसके विभाजक बिंदुओं को आवृत्त कर रहा है।’’
इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘मिलते-जुलते प्रसंगों पर आधारित’ आलोक धन्वा और अशोक वाजपेयी की दो कविताओं को अपने विश्लेषण के लिये चुना था जो दोनों ही उनकी नजर में ‘अपर्याप्त रचनात्मक परिणति के चलते औसत स्तर’ की कविताएं थी। यहां हम चंद्रभूषण जी के उस पूरे संपादकीय के विषय को नहीं लाना चाहता। आलोक धन्वा की कविता का विस्तृत विश्लेषण करते हुए अंत में वे लू शुन को उद्धृत करते है कि ‘गाली गलौज करने और धमकियां देने को संघर्ष करना हरगिज नहीं कहा जा सकता।’
और, अशोक वाजपेयी की ‘जबरजोत’ के बारे में, वे शुरूआत इस प्रकार करते हैं - ‘‘आलोक के विपरीत, अशोक वाजपेयी ने इसे तमाम भावात्मक प्रतिक्रियाओं से बचाते हुए बड़ी ही सतर्कता के साथ लघुकथा की सुशीतल शैली में प्रस्तुत किया है, बिल्कुल नपे-तुले शब्दों में संक्षिप्त, सरलीकृत और रचनाकार तथा उसके एक समीक्षक की निगाह में प्रिसाइज भी। एक मुश्किल और उलझे हुए प्रसंग को (और अवश्य ही इस नाते उसके यत्किंचित् विस्तृत होने की अपेक्षा थी) यहां इस तरह आसान बनाते हुए पेश किया गया है जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो...इस तरह पूरी समस्या को बेहद मकेनिकल अंदाज में, महज कार्यकारण शैली के सहारे सिर्फ आंतरिक स्तर पर हल होते दिखाया गया है। ...आलोक की कविता में जो समस्या उन्हें इतना विकल करती प्रतीत होती है, उसे भी महज एक आंतरिक कोशिश में चुटकी बजाकर हल कर दिया गया है -‘जमीन के एक जरा से टुकड़े को अपना मानकर उसने नाधा हल और पहली बार अपने को बैलों से अलग कर लिया।’
अर्थात समस्या सिर्फ ‘‘निर्णय लेने की, चुनाव करने की अथवा पहचानने की’’ थी। ‘अपनी आंतरिक छलांग में ही अब तक की बंधी हुई नियति का वह अतिक्रमण कर जाता है, इसके बाद कहीं कोई अवरोध नहीं रह जाता-यहां तक कि जमीन दखल कर लेने की प्रक्रिया भी बड़े निर्विरोध ढंग से संपन्न होती दिखाई देती है’’। इसके बाद अशोक वाजपेयी फिर एक बार साभिप्राय इस कविता में प्रवेश करते है ‘अस्तित्व-बोध के बाद व्यर्थता-बोध’ के आधुनिकता-बोध की श्रृंखला को पूरा करने।
टिप्पणी के अंत में चंद्रभूषण जी कहते हैं - ‘‘आलोक की कविता की मुख्य सीमा वस्तुत: यही है कि उनकी संवेदनात्मक तीव्रता कविता के भीतर की सामग्री से निष्पन्न नहीं होती’’ और ‘‘अशोक वाजपेयी की मुख्य समस्या जो कुछ घटित हो रहा है (सामाजिक जीवन में ही नहीं, कविता में भी) उसे ढंकने की है...उसे रूपांतरित करने की...मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ में एक निश्चित और महत्वपूर्ण प्रसंग को कविता में जगह देकर एक सर्वथा भ्रामक निष्कर्ष के साथ कविता में ओझल करने की। क्या इस अंत से उस छद्म पर कोई रोशनी नहीं पड़ती? जहां तक रचनाओं के भीतर उन्हें जगह देने की बात है यह भी आकस्मिक नहीं है-इससे उस बढ़ते हुए दबाव की स्पष्ट सूचना मिलती है जो उनके रचना-वृत्त को, उनके आभिजात्य को तोड़ते हुए उसके भीतर प्रवेश कर रहा है, वहां दूसरी ओर इस बात की भी सूचना मिलती है कि रचनाकार का व्यक्तित्व स्वयं उसके समक्ष कई तरह के अवरोध प्रस्तुत करता है...। यह जानकारी के अभाव की, उसके घटने-बढ़ने की अथवा अनुभवों की कमी आदि की समस्या नहीं है, बल्कि जानकारी के बदलने की है।’’
औस्वित्श की कविताएं 2001 की है और ‘जबरजोत’ 1970 की । पूरे तीन दशकों का अंतराल, लेकिन आदमी में जैसे रंच मात्र का भी कोई फर्क नहीं। जग-जाहिर विकट सचाइयों के बीच आदमी के अपने ‘स्वायत्त संसार’ का इतना सख्त खोल ! उनका खास निजी रहस्य - एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली हुई कोरी कृत्रिमता और बनावटीपन और मानव त्रासदियों तथा मुक्ति के सभी मानवीय प्रयत्नों के प्रति आधुनिकतावादी अभिजन की कुटिल शीतलता और निर्दयता का वास-स्थान। यही तो है उनके ‘विवक्षा’ की अविवक्षित विवक्षा, अर्थात निष्प्राण, ऊसर काव्य-चित्रों का प्रमुख स्रोत। आनंदवद्र्धन ने भी प्रतीयमानता को, अर्थात जीवन के यथार्थ को ही काव्य चारुता या सौन्दर्य का नियत स्रोत माना था। राममूर्ति त्रिपाठी जी की शब्दावली में -‘‘जहां-जहां चारुता प्रतीत होती है, वहां-वहां प्रतीयमानता के अस्तित्ववश ही।’’ लेकिन अविवक्षित प्रतीयमानता काव्य नहीं, स्पंदनहीन, मृत शब्दचित्रों का कारण बनती है - अनुभूति से लेकर अभिव्यक्ति तक, रचना की कृत्रिमता का एक निरवध पाखंड, अपर्याप्त रचनात्मक परिणतियों वाले औसत कवि का रचना-संसार !
अशोक वाजपेयी की एक पंक्ति है ‘समय के बाहर कदम रखना भाषा से बाहर जाना है’। वे हमेशा समय को लाते जरूर हैं, लेकिन उसे झुठलाने के लिये। काव्यशास्त्र में जिसे अविवक्षित प्रतीयमानता कहते हैं। कपोलकल्पनाओं में यथार्थ का संपुट सिर्फ इसलिये ताकि उलझन में फंसा पाठक बुद्धि के बाजीगरों के काल्पनिक विचारों को यथार्थ मान लें और यथार्थ को कोरी कपोलकल्पना। अशोक जी की उपरोक्त पंक्ति के पहले की पंक्ति है -‘‘न होना भाषा या कविता में सम्भव ही नहीं है’’। बिल्कुल सच है। कविता में बैठी यही प्राणी-सत्ता, ‘प्रतिभा’, ‘सरस्वती’ नामक परवाग्देवता ही अभिमत अर्थ का प्रकाशन करती है। मुश्किल यह है कि इस मामले में तो तोते की जान माइकेल बेरेनबॉम द्वारा पूर्व-वर्णित तंत्र के पिंजरे में फंसी हुई है। सप्राण काव्यचारुता की सृष्टि के लिये जरूरी है उस पिंजरे से इस प्राणी-सत्ता की मुक्ति की, इसके विसर्जन की। तभी विवक्षित यथार्थ का संस्पर्श रचना में प्राणों का संचार कर सकता है।
दरअसल, रचनाशीलता का पहला पाठ है, अपनी सीमाओं से चिपकी चेतना से मुक्ति का प्रयास। यह एक गहरे आत्म-संघर्ष का विषय है। निराला, मुक्तिबोध की तरह का आत्म-संघर्ष, जिसकी परिणति विक्षिप्तावस्था तक जा सकती है! यहां सवाल निराला, मुक्तिबोध का किसी डंडे की तरह प्रयोग करने का नहीं है। हिंदी के सभी छोटे-बड़े श्रेष्ठ रचनाकारों, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, राहुल, मुक्तिबोध, यशपाल, नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, हरीश भादानी, मार्कण्डेय, भैरवप्रसाद गुप्त, अमृतलाल नागर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, मोहन राकेश, भवानी प्रसाद मिश्र, शलभ श्रीराम सिंह, ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ से लेकर आज के सबसे सक्रिय उदय प्रकाश आदि तक - सबका यही सच है। यहां तक कि अज्ञेय का भी। हमारा सवाल सिर्फ इतना है कि सत्ता-तंत्र के सहारे दिन-रात अपने मठों की साहित्य-कला-संगीत की महफिलों को सजाने में मुब्तिला, और अपनी ‘पीठ’ की सुरक्षा के लिये हमेशा गोटियां बैठाने में फंसे ‘कवि’ से क्या रचनात्मक उद्रेक के ऐसे किसी खतरे के आस-पास जाने की भी कल्पना की जा सकती है!
इसी की नियति है एक लीकबद्ध जीवन की अपरिणत कवि-कांक्षा। ‘भाषा में ही होने’ की ऊपर जो चर्चा है, जिसे ‘समय में होना’ भी कहा गया है, दरअसल उपलब्ध भाषा के बंद ढांचे की कैद को स्वीकारना है। अशोक वाजपेयी का ‘समय’ जीवन का गतिशील यथार्थ नहीं है। एक कोरी परिपाटी है। आदमी के हर परिवर्तनकामी प्रयत्न के विरुद्ध निश्चेष्ट, ‘निरवध काल-तत्व’ से उत्पन्न व्यर्थताबोध का घटाटोप है। उपलब्ध भाषा तो व्याकरण, प्रचलित प्रयोगों और मुहावरों की बंदिशों भरी दमनमूलक व्यवस्था होती है। यह भले ही सत्ता की उपज न हो, लेकिन परंपरागत ज्ञान के घटक के नाते सत्ता का एक रूप जरूर है। उपलब्ध भाषा, उसके मुहावरों, उसके बद्धमूल प्रयोगों को अस्वीकार कर या उससे छल करके ही साहित्य पाठक को ताजगी का, एक प्रकार की मुक्ति का अनुभव कराता है। रचनात्मक साहित्य नये विचारों और भावों के वाहक के रूप में भाषा की बंदिशों से विद्रोह का साधन होता है। लेकिन अशोक जी !
‘विवक्षा’ की पहली कविता है -
‘‘घाटी में जाकर गुम होगई एक पगडंडी
वह जो चलते चलते पगडंडी पर
उसी में समा गया
घाटी तक पहुंचा वह’’
सन् ‘64 की एक कविता है - निश्शब्द
‘‘एक ऊंची इमारत की पांचवी मंजिल की
एक खिड़की से
एक आदमी ने अपने को बाहर फेंक दिया है
मेरे शब्द उछलकर
उसे बीच में ही झेल लेना चाहते हैं
पर मैं हूं
कि दौड़ कर लिफ्ट में चढ़
दफ्तर जाता हूं
पता लगाने
कि नई जगह नियुक्ति कब होगी!
...निश्शब्द
घर जाता हूं!’’
एक शोर से भरे जीवन की यह निश्शब्दता किसी रचनात्मक विस्फोट में व्यक्त होती, तो भला कैसे? उल्टे, शोर ही अपने होने का सगल बन गया - शिक्षा, साहित्य और संस्कृति विभाग का शोर ! कहते है न, आदमी बनता है महाबली जीवन की परिस्थितियों से ही ! सन् ‘80 में प्रेमचंद शताब्दी के समय कोलकाता में साहित्य अकादमी के सेमिनार में अमृत राय अपनी सफाई दे रहे थे कि वे तो किसी डाकमुंशी के बेटे नहीं थे ! डा. महादेव साहा कह रहे थे कि प्रेमचंद ने तो गांव में घर बना दिया था, अम्मा (शिवरानी देवी) झींकती रह गयी, लेकिन किसी भाई में उस घर में जाकर एक रात बिताने की भी इच्छा नहीं हुई! एक लीक पकड़ कर मोक्ष प्राप्ति की चाहत की, अर्थात लिफ्ट को लपकते-लपकते हांफ उठे जीवन की ही परिणति है - औस्वित्श में खड़े होने पर हत्यारों की कतार में शामिल होने का आभास सताने लगता है ! इसी कारण उनकी कविता ईश्वर के टोटके से भी कभी मुक्त नहीं हुई।
यह मामला सिर्फ कविता तक ही सीमित नहीं है। ‘कविता का गल्प’ उनके साहित्य और कविता संबंधी लेखों का संकलन है। इन लेखों में कविता की चर्चा बिल्कुल उसी प्रकार से की गयी है जिसके बारे में हम भाववादी चिंतन के सिलसिले में पहले ही कह चुके हैं, जिसकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह किसी भी वस्तु को उसके वस्तु रूप में देखने के बजाय पहले उसे विचार की एक अमूर्त सामान्य श्रेणी में तब्दील करता है और फिर उस अमूर्त विचार से वस्तु के निरूपण की ओर उतने ही रहस्यमय ढंग से बढ़ता है। भेद को अभेद में तब्दील करके फिर अभेद से भेद की ओर उल्टी दिशा में यात्रा ताकि वस्तु को अतिन्द्रिय रहस्यमयता प्रदान की जा सके, वस्तु का मूल्य उसके स्वाभाविक गुण से नहीं, एक काल्पनिक चिंतन में निहित किया जा सके। इसे कहते है किसी विचार-तत्व मात्र से आलू, टमाटर जैसी नाना ठोस वस्तुओं को पैदा करने का चमत्कार। अनोखे ढंग से कविता लुप्त हो जाती है और वे उसे फिर किसी नये रूप में खोज लाते हैं। अभेद का आत्म-विभेदीकरण, वैसे ही जैसे सारे द्रव्यों में होता है ईश्वर का प्रगटीकरण !
इस संकलन के लेखों में कविता के बारे में की गयी इनकी कपोलकल्पनाओं की झांकियां देखिये - ‘‘कविता अपने को फिर से जान रही है...कविता एक अशुद्ध कला है क्योंकि भाषा एक अशुद्ध व्यापार है...कविता की चिन्ता अधिक से अधिक सचाई है, सत्य नहीं...कविता की नैतिकता ही यह है कि वह जो ब्यौंरे अपनी सचाई गढ़ने के लिये चुनती है...कविता सत्यकथा या संशोधन नहीं करती : वह सचाई से अपने गल्प गढ़ती है...यह आकस्मिक नहीं कि कविता का सच दूसरे किसी सच में अंतर्भूत होने का लगातार प्रतिरोध करता है...कविता ने यह समझना शुरू कर दिया है कि वह गल्प है...जिसे हम छायावाद के नाम से जानते हैं और जिसे आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्णयुग माना जाता है वह बुनियादी तौर पर कविता का आंदोलन था...नयी कविता कविता के पुनराविष्कार का आंदोलन था...नयी कविता का श्रेष्ठ सोचती-विचारती कविता है...कविता का संसार इधर बहुत व्यापक हुआ है...प्रतीक्षा करना कविता की आदत है - आखिर प्रतीक्षारत शब्द कविता की एक परिभाषा भी है... आज कविता का समय है...कविता अपनी समावेशिता में स्वतंत्रता को चरितार्थ करती है जबकि राजनीति हमेशा ही अपवर्जन और बहिष्कार से काम बनाती है...कविता मनुष्य की एकमात्र ऐसी संसद है जहां से कोई वापस नहीं भेजा जाता...कविता अंतत: और बुनियादी तौर से स्वतंत्रता है...कविता चुनाव नहीं करती...कविता अन्तत: मनुष्य की परम मुक्ति की स्थायी राजनीति है...जब सारे दरवाजे मनुष्य पर भेड़ दिये जाते हैं तो कविता, सारे खतरों के बावजूद, एक दरवाजा खुला-अधखुला रखती है...कविता मनुष्य की अदम्य उत्तरजीविता, उसकी असमाप्य जिजीविषा का सबसे प्रबल साक्ष्य है, आदि-आदि। कहना न होगा, कविता के बारे में विचार के नाम पर तमाम प्रकार की कपोलकल्पनाओं का खजाना है यह संकलन।
क्या इन और इतनी सारी बातों से कोई जान सकता है कि कविता क्या है और क्या नहीं ! यह आपको कफ, वात, पित्त सबके एक साथ बिगड़ जाने पर सन्निपात की दशा लग सकती है। दरअसल यह कविता मात्र के प्रति एक ऐसे सांस्कृतिक सम्मोहक इंद्रजाल की सृष्टि की कोशिश है ताकि मौलिक और नकल का भेद दिखाई न दे और कविता को सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बना कर उसके प्रति पूजा भाव पैदा किया जा सके। अंध आस्था का ऐसा कोई ज्वर जब तक पूरे साहित्य जगत को ग्रस नहीं लेता, इस बात की संभावना नहीं बन सकती जिसमें एक ही कतार में निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, हरीश भादानी, केदारनाथ अग्रवाल, उदयप्रकाश आदि आदि के साथ ही अशोक वाजपेयी से लेकर अन्तरराष्ट्रीय कवि कुमार विश्वास और ‘लालू चालिसा’ के चारण महापुरुष को कैसे खड़ा किया जा सके। (हिंदी आलोचना की कमोबेस ऐसी ही स्थिति पर ‘लहक’ के पिछले अंक में इसी लेखक ने एक लेख लिखा था।) सात पसेरी एक भाव। कविता के एक ही खाते में सारा संसार! और ऐसी अमूर्त और अद्भुत सर्वसमावेशी कपोलकल्पनाओं के जादूई पिटारे से जब कोई भक्तों को एक-एक कर ठोस कविताओं की सूरत दिखाता है तो वह कितना रहस्यमय, करिश्माई और जादूई होता है, इसे हम आसानी से समझ सकते हैं। देश-काल का नामो-निशान मिटा दिया जाता है, चौतरफा, ईश्वरीय रहस्य का बोलबाला होता है, ‘सरस्वती’ बोलने लगती है ! भक्त के लिये आराध्य के निभ्र्रान्त, और अविवादित सत्य का उद्घाटन होता है!
अशोक वाजपेयी के साहित्य के स्वायत्त, बल्कि जादूई संसार की नागरिकता का यही है पूरा सच! इसकी नागरिकता किसी नकली विश्वविद्यालय की फर्जी डिग्री की तरह है कि किसी भी तिकड़म से साहित्यकार का एक तमगा हासिल करके समाज के ‘पूजनीय देवताओं’ की कतार में खड़े हो जाने का गौरव प्राप्त कर लो। गंगा’ में एक डुबकी से सारे पापों से मुक्ति की आध्यात्मिक बाजीगरी ! काव्यानुभूति मात्र को सात्विक मनोदशा मानने का ‘शुक्लवाद’। निर्मला जैन ने अपनी किताब ‘दिल्ली शहर दर शहर’ में बड़े विस्तार से अकादमी अवार्ड, फलाना अवार्ड, ढीमका अवार्ड के रहस्य को खोला है। बताया है कि कैसे डा. नगेन्द्र ने भारत भूषण अग्रवाल को घेर कर चालाकी से अपने लिये साहित्य अकादमी अवार्ड झटका था और कैसे भारत भूषण अग्रवाल ने डा. नगेन्द्र से खायी मात की खीज को नामवर सिंह को अवार्ड दिला कर उतारा था। सेलिब्रिटीज बनने-बनाने के भद्दे खेलों पर ‘ साहित्यिक-सत्कर्म’ की पर्दादारी का कर्मकांड!
बहरहाल, अशोक जी की 74वीं सालगिरह के मौके पर उनकी ‘साहित्य की नागरिकता पर’ टिप्पणी करते हुए फेसबुक पर इस लेखक ने लिखा था -
“एक ओर है वैश्वीकरण। दुनिया को एक ही ढांचे में ढालने की जिद। एक से शहर, एक से गांव, खान-पान-पहनावा, जीवन का ऊपरी रूप सर्वत्र एक सा। और अंदर - एक सी विषमता, एक सी लाचारी, एक सा ही आतंक। सारी दुनिया पर एक सर्वशक्तिमान ईश्वर का राज्य। ‘विश्व ग्राम’ और सर्वमान्य, सर्वपूज्य, गांव का सामंत अमेरिका - अकेला पंच। संयुक्त परिवार का एक कर्ता और बाकी सब भर्ता। सारे संसाधनों पर उसकी मिल्कियत, सारी खोजों पर उसका कॉपीराइट। हरीश भादानी के एक संकलन का शीर्षक है - ‘एक अकेला सूरज खेले’। सबको रोशनी और अंधेरा बांटने वाला। फुकुयामा जैसे कुछ की नजरों में - ‘सबका राजा राम’। अर्थात ‘रामराज्य’। सभ्यता का अंतिम पायदान। अब सबको और कुछ नहीं करना है सिवाय इसके कि - ‘राम का गुनगान करिये, सभ्यता का मान करिये’।
“और दूसरी ओर है, आदमी-आदमी की असंख्य स्वायत्त-स्वतंत्र नागरिकताओं का गान। राष्ट्र की नागरिकता, धर्म की नागरिकता, जाति की नागरिकता, राजनीति की नागरिकता, अर्थशास्त्र की नागरिकता, साहित्य की नागरिकता, संस्कृति की नागरिकता, पर्यावरण की नागरिकता, नारीवाद की नागरिकता, दलितवाद की नागरिकता, बस्ती, मोहल्ला और कुटुंब से लेकर अकेले आदमी तक की नागरिकता। कुल मिला कर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, कहीं भी धूनी रमा कर, आसन बिछा कर बैठ जाओ। नागरिकता न हो जैसे आत्मलीनता (ऑटिज्म) का ही एक और नया नाम हो! आधा-अधूरा, लुंज-पुंज जीवन - चमकदार पैकेजिंग में!
“अमेरिकी प्रभुत्व का विश्वग्राम और ‘आत्मलीन’ नागरिक। एक की मुट्ठी में सब कुछ और बाकी अपनी धुनों में लीन, जिनके पास समग्र बोल कर कुछ भी नहीं। कितने पूरक लगते हैं ये एक दूसरे के !
“समानता, न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे पर टिका विश्व-समाज अगर कोरे वागाडम्बरों और लफ्फाजियों से तैयार नहीं होगा तो अपनी-अपनी नागरिकताओं से बंधे आत्मलीनों से भी कत्तई नहीं बनेगा। समकालीन सार्वजनिक जीवन के प्रश्नों और राजनीतिक संघर्षों के प्रति तटस्थता खुद को हेय बनाने के उपक्रम जैसा है। जीवन के तमाम पक्षों पर यथार्थमूलक और पैनी नजर की जरूरत है, अध्ययन और सजगता की जरूरत है, समग्रता की, एक समग्र विश्वदृष्टिकोण की जरूरत है। यह सब मनुष्यता की जरूरत है।
“आज भी यह सोच कर रोमांच होता है कि सारी दुनिया को सोचने-विचारने का एक नया ढंग देने वाला कार्ल मार्क्स ‘पूंजी’ जैसी अमरकृति की रचना करने के बाद भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक असंतुष्ट प्राणी ही था। वह इस अभिलाषा के साथ ही इस संसार से विदा हुआ था कि काश बाल्जाक के उपन्यासों पर वह अच्छी तरह से काम कर पाता!
“कहने का तात्पर्य यही है कि बहुविध अध्ययन और सोच मनुष्य की एक प्रमुख जरूरत है। लेकिन विचार का यह संस्कार जहां विश्वविद्यालयों के आत्मलीन विभागों की कक्षाओं से पाना बिल्कुल असंभव है। वैसे ही, छोटी-छोटी नागरिकताओं के स्वायत्त संसारों के मुखियाओं के विचारों से भी मुमकिन नहीं है।“
इसमें और जोड़ते हुए कहना उचित होगा कि कविता या साहित्य की स्वायत्तता का यह सोच जीवन की सार्वभौमिकता के विरोध पर टिका हुआ सोच है। यह चुनिंदा लोगों की खामखयाली का सोच है। शुक्ल जी ने लिखा था - ‘‘साहित्य क्या है ? ... साहित्य उन श्रेष्ठ मनुष्यों की शिक्षा और वार्ता है जिन्हें अपनी जाति के प्रतिनिधि के रूप में बोलने का अधिकार प्राप्त है और जिनके शब्दों में उनके स्वदेशीय बंधुगण अपने-अपने भावों का प्रतिबिम्ब देखते हैं और अपने अनुभव के सारांश का पता लगाते हैं।’’(रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि, भाग-3, सं. नामवर सिंह, पृ : 32, जोर हमारा)
जहां आपने जीवन के ठोस संदर्भों में इन ‘श्रेष्ठ मनुष्यों’ की गोल-मोल बातों को टटोलना शुरू किया, उनके भीतर से बोलती आदमी की क्षुद्रता सातों सुरों में अपना आलाप शुरू कर देती है। खास तौर, 1988 के बाद, जब से सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद का पराभव शुरू हुआ, शुद्ध व्यर्थता बोध पर टिकी इन निरर्थक प्रगल्भित बातों की तो जैसे बांबी ही खुल गयी।
1990 में लिखे गये ‘कविता का गल्प’ लेख में वे कहते हैं -‘‘कविता अपने को फिर से जान रही है और अपने पर अविश्वास कर रही है - आपको याद होगा कि इतालो कालविनो ने राजनीति को भी ऐसा ही करने की सलाह दी है। बल्कि पिछले दो वर्षों से संसार की राजनीति में यही हो रहा है : राजनीति इतनी तेजी से इसलिए बदल रही है कि वह अपने को जानकर अपने पर अविश्वास कर रही है।’’ (कविता का गल्प, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ : 15, जोर हमारा)
उनका ‘साहित्य का प्रजातंत्र’ समाजवाद के पराभव की राजनीति से किसप्रकार जुड़ा हुआ है, इसे वे साफ शब्दों में स्वीकारते हैं। उनके शब्दों में, ‘‘साहित्य का प्रजातंत्र अपने विरोधियों या प्रतिलोम का दमन या बहिष्कार करके नहीं चलता है : इसीलिए सर्वसत्तावादी व्यवस्थाएं सबसे अधिक साहित्य से घबड़ाती हैं। क्योंकि अंत:सलिल या भूमिगत रहकर भी साहित्य मनुष्य के प्रजातांत्रिक अस्तित्व और सबके समानाधिकार की धारणाएं और सपने जीवित रखता है। हम याद करें कि इधर यूरोप में जो हो रहा है और जिसे यूरोप का प्रजातांत्रिकीकरण कहा जा रहा है उसके नेतृत्व की अगली पंक्ति में लेखक और कलाकार है।’’ (वही, पृ : 16, जोर हमारा)
1990 में जब यह लेख लिखा गया था, उस समय तक ब्रिटेन में थैचरिज्म का बोलबाला था। अमेरिका में रोनाल्ड रेगन और जार्ज एच.डब्लू. बुश का लंबा 15 सालों से (1981-1993) रिपब्लिकन शासन चल रहा था। यही था - ‘यूरोप के प्रजातंत्रीकरण’ का दौर ! सचाई यह है कि ऐसे ‘प्रजातंत्रीकरण’ से लोग इतने अतिष्ठ हो गये थे कि साल-दो साल बाद ही वहां के लोगों ने ही बड़ी शिद्दत से उन्हें विदा कर दिया। थैचर का टिना (There is no alternative) एक भारी मजाक का विषय बन गया।
इसे ही कहते है, किसी घटना के बाद उसकी लकीर पीटने का तत्वविदों का पुश्तैनी धंधा। दर्शन की भाषा में कहे तो इतिहास को घटित करने वाले अचेतन ‘परम चित्त’ को घटना के बाद में आत्म-चेतस बनाने का तात्विक खेल !
कहना न होगा, जैसे ‘कविता’ वैसे ही ’राजनीति’ और जैसी राजनीति वैसी ही कविता और कविता-साहित्य के बारे में सोच भी। अशोक जी की तमाम बातों के रहस्य का जैसे ही आप पीछा करेंगे, वे ऐसे साहित्य के नगर की ओर आपको खींच ले जायेंगे जिसके नागरिक उन महान गुणों की खान हैं जिनकी अन्यथा कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। यह एक रहस्य है जिसकी अपनी कोई सचाई नहीं है और यही रहस्य साहित्य का स्वायत्त संसार है। बिना किसी गुणावगुण का संसार, इसीलिये जांच-परख की हर कसौटी से परे। इसके छल की खोल में लेखक की सारी कमियां, उसकी अपरिणत रचनाशीलता, उसके राजनीतिक पूर्वाग्रह, उसकी क्षुद्रता और कपट भी - सब छिप जाते हैं। बस मूल्य रह जाता है इस स्वायत्त नगर के महापौर द्वारा नागरिकता के सर्टिफिकेट का। पिछले दिनों अशोक जी ने जनसत्ता के अपने स्तंभ में अनायास ही अपने नगर के ऐसे प्रमाणपत्र प्राप्त नागरिकों की सूची भी जारी की थी - बहुत छोटी सी चार-पांच जनों की सूची थी। अशोक जी ने आज जिस ‘बूढ़े गिद्ध’ की गद्दी को जबर्दस्ती झटक रखा है, उस पीठ के सबसे वरिष्ठ और स्वाभाविक हकदार को भी उस सूची में रखा गया हैं। पता नहीं आडवाणीजी की तरह नरेन्द्र मोदी की बगल में मुंह पर पट्टी बांधे बैठ कर उन्हें कैसा लगता होगा !
बहरहाल, अशोक वाजपेयी के इस स्वायत्त संसार के राजनीतिक सूत्र कैसे और किससे जुड़े हुए हैं, इसकी अब और ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं है।
आज (16 अप्रैल 2015) ‘इंडिया टीवी’ पर हिटलर के यातना शिविर औस्वित्श पर एक रिपोर्ट दिखाई जा रही थी। औस्वित्श अर्थात हिटलर के हौलोकास्ट का एक विशाल वध-स्थल। नर्क की अकल्पनीय यातनाएं देकर 60 लाख से अधिक यहूदियों की हत्या के रूह को कंपा देने वाले पैशाचिक कर्म की अकल्पनीय कहानी। जो भी इस हौलोकास्ट के इतिहास से और उसके औस्वित्श की तरह के यातना शिविरों के भूगोल से परिचित है, उनके रौंगटों को खड़ा कर देने के लिये इस शब्द का उच्चारण ही काफी होता है। सभ्यता के इतिहास का यह एक ऐसा भयावह पृष्ठ है, जिसे अपनी स्मृति का हिस्सा बना कर चैन का एक पल भी नहीं बिताया जा सकता है। यह आदमी के जीवन के उन क्षणों की तरह है, जिन्हें विस्मृत करके ही शायद आदमी आगे की सुध ले सकता है।
लेकिन इंडिया टीवी पर औस्वित्श की रिपोर्ट को देखते वक्त हमारे दिमाग में कुछ दूसरी ही बातें घूमने लगी थी। अभी कुछ दिन पहले ही हम हिंदी के स्वनामधन्य कवि अशोक वाजपेयी की कविताओं के संकलन ‘विवक्षा’ को उलट-पलट रहे थे। सब जानते हैं, भारत के एक सांस्कृतिक दूत के रूप में अशोक जी ने दुनिया के अनेक देशों की यात्रा की है। वे औस्वित्श भी गये थे। एक कवि का औस्वित्श जाना उसके लिये कितना भारी हो सकता है, इसे हम सहज ही समझ सकते हैं। इन यातना शिविरों से चरम नृशंसताओं के आतंक की स्मृतियां ताउम्र उसका पीछा नहीं छोड़ सकती। निस्संदेह, अशोक जी भी कांप उठे होंगे। औस्वित्श ने उनकी रचनाशीलता को हमेशा के लिये कितना और किस प्रकार बदला, इसका तो कोई सही अंदाज नहीं लगा सकता, लेकिन उनके संकलन से पता चलता है कि उन्होंने औस्वित्श पर तीन कविताएं लिखी।
इंडिया टीवी की रिपोर्ट के वक्त अनायास ही हमें अशोक जी की उन कविताओं की याद आगयी। ‘बचे हुए को बीते हुए की तरह (आश्विट्ज़-1)’, ‘अगर हो सके (आश्विट्ज़-2)’, और ‘उनके पास (आश्विट्ज़-3)’।
हम अभी तक औस्वित्श नहीं गये हैं, लेकिन उसके इतिहास से जरूर परिचित है। और इतने परिचय भर से ही इस शब्द की ध्वनि मात्र हमारी रीढ़ की हड्डी में आतंक की एक लहर बन कर दौड़ जाती है। लेकिन औस्वित्श की धरती पर खड़े हमारे कवि अशोक वाजपेयी में इस अनुभूति की रचनात्मक परिणति कैसे-कैसे बिंबों में होती है, देख कर आश्चर्य होता है। उन पर भय, आतंक, क्रोध, दुख या लाचारी के बजाय एक अजीबोगरीब ग्लानि और पाप का निजी बोध छाया हुआ दिखाई देता है। उनकी पहली कविता ‘बचे हुए को बीते हुए की तरह’ की शुरू की पंक्तियां हैं –
‘‘मैं बचे हुए को बीते हुए की तरह देखना चाहता हूं
हरे के विवर में उभरती पीले की दरार की तरह’’
और वर्तमान के अतीत वाले विवर की पीली दरार से वे अपने अंदर बने जिस बिंब में प्रवेश करते है, वह इस प्रकार है -
‘‘मैं नहीं था उस अधरात की गहमागहमी में
जब वे उन सबको मवेशियों की तरह ठेले में भरकर
वधस्थल की ओर ऐसी फुरती और जतन से ले गए थे
जैसे भोलेभाले लोगों को सुबह किसी जरूरी अनुष्ठान के लिए
पूजाघर ले जाया जा रहा हो।’’
और आगे पैदा होता है उनका पाप-बोध :
‘‘...मैं नहीं खड़ा था निर्विकार सिगरेट के कश लेते हुए
...मैंने शब्दों को जली हुई हड्डियों की राख के ढेर से
कभी नहीं उठाया
...मैंने भव्य संगीत नहीं सुना
...फिर भी
क्यों लगता है मुझे कि मैं जिम्मेदार हूं;
...मैं नहीं था
पर होता तो चुप होता। ’’
जिन्होंने भी रेल की बोगियों में ठूस-ठूस कर मृत्यु शिविरों में भेजे जाने वाले यहूदी कैदियों की दर्दनाक कहानियों के दृश्यों को सिनेमा के पर्दे पर ही देखा है, वे जानते है कि कैसे ‘जतन’ से उन कैदियों को इन मृत्यु शिविरों तक पहुंचाया जाता था कि उनमें से कितनों का तो रास्ते में ही दम घुट जाता था। इसके अलावा अशोक जी को इसमें जो ‘जतन’ दिखाई दिया वह भी ऐसा-वैसा नहीं, धार्मिक कर्म-कांडों से जुड़ी ‘पवित्र आस्था और निष्ठा’ का जतन ! बलि के बकरे का वध और हजारों मनुष्यों का सामूहिक वध - क्या सादृश्य है !
और उनका यह पाप-बोध ! ‘‘...मैं नहीं खड़ा था निर्विकार सिगरेट के कश लेते हुए/...मैंने शब्दों को जली हुई हड्डियों की राख के ढेर से कभी नहीं उठाया/...मैंने भव्य संगीत नहीं सुना/...फिर भी/क्यों लगता है मुझे कि मैं जिम्मेदार हूं;/...मैं नहीं था/पर होता तो चुप होता।’’ क्या कहेंगे इसे ?
हौलोकास्ट के एक प्रसिद्ध शोधकर्ता माइकेल बेरेनबॉम ने हिटलर के पूरे राज्य तंत्र को एक ‘जनसंहारकारी राज्य’ कहा था। उन्होंने लिखा हैं कि ‘‘देश की आधुनिक नौकरशाही का हर हिस्सा हत्या के इस काम में शामिल था। चर्च और गृह मंत्रालय ने यह सिनाख्त की थी कि कौन-कौन यहूदी है; डाकघरों ने उन तक निष्काषन और अलग रहने के आदेशों को पहुंचाया था; वित्त मंत्रालय ने यहूदियों की संपत्ति को जब्त कर लिया; जर्मन कंपनियों ने यहूदी मजदूरों को निकाल बाहर किया और यहूदी शेयरधारकों के शेयरों को निरस्त कर दिया।’’
नौकरशाही संवेदनहीन होती है। राज्य के आदेशों पर अमल का एक पूरी तरह से बोधशून्य औजार; मानव के सहज बोध तक को गंवा चुकी नि:स्व और विरेचित प्राणीसत्ताओं का समूह। संस्कृति और सभ्यता के बाने में जन्म लेकर यही जीवात्मा अपने ‘शुद्ध चित्त’ और ‘मुक्त मन’ के साथ राज्य के भयावह अपराधों के सामने सिर्फ बिसूर सकती है, अधिक से अधिक आत्म-ग्लानि और पाप-बोध से भर जाती है। यह तब है जब हम इस प्रकार के पाप बोध को एक पारदर्शी ईमानदारी मान लेते हैं। अन्यथा, सामान्य तौर पर तो शक्तिवानों का कला-प्रेम कला की सामाजिक प्रतिष्ठा का लाभ उठाने की चालाक कोशिश भर होती है।
फिर भी, कहते हैं ना कि आदमी के अपने चित्त में ही भ्रान्त-अभ्रान्त सारे बोधों का उदय होता है और इन बोधों का प्रकट होना ही उसके वर्तमान के प्रत्यक्ष का आधार होता है। कविता में कवि अपने भीतर-बाहर को, असली-नकलीपन को भी जाहिर कर ही देता है। उसे आप निपट नंगा देख सकते हैं। दुनिया के एक जघन्यतम जन-संहार से पशुबलि के वध की स्मृति और हत्यारों की उस कतार में कहीं खुद को खड़ा देखने का पाप बोध - हमें लगता है अशोक वाजपेयी के साहित्य के नगर में प्रवेश की दो महत्वपूर्ण कुंजी है, कविता में व्यक्त नकली संवेदना, कृत्रिमता और उसकी अपरिणत रचनात्मकता और उनकी निजी प्राणी-सत्ता का वस्तु सच, जिनसे उनकी रचना और विचार के तहखानों में कुछ गहरे तक जाया जा सकता है।
सालों पुरानी बात है, 1970 के दशक के उत्तराद्र्ध की। सन ्‘75 के आपातकालीन अनुभवों के बाद के बेहद उत्तेजनाओं से भरे संक्रमण के काल की। चंद्रभूषण तिवारी आरा से ‘वाम’ पत्रिका निकालते थे। उसके एक संपादकीय का शीर्षक था - पहचान के दो और मुहावरे : ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जबरजोत’।
भाववादी चिंतन की एक सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वह किसी भी वस्तु को उसके वस्तु रूप में देखने के बजाय पहले उसे विचार की एक अमूर्त सामान्य श्रेणी में तब्दील करता है और फिर उस अमूर्त विचार से वस्तु के निरूपण की ओर उतने ही रहस्यमय ढंग से बढ़ता है जैसे कोई एक ही विचार-तत्व मात्र से आलू, टमाटर जैसी नाना ठोस वस्तुओं को पैदा करने की कोशिश करें। भेद को अभेद में तब्दील करके फिर अभेद से भेद की ओर उल्टी दिशा में बढ़ना, ताकि वस्तु को अतिन्द्रिय रहस्यमयता प्रदान की जा सके, वस्तु का मूल्य उसके स्वाभाविक गुण से नहीं, एक काल्पनिक चिंतन में निहित किया जा सके।
जो लोग भी साहित्य मात्र या कविता मात्र का झंडा उठाये घूमते हैं, साहित्य के स्वतंत्र-स्वायत्त संसार का एक रहस्यमय जगत रचते हैं, उनकी मूल प्रवृत्ति साहित्य के वस्तु रूप पर ऐसी रहस्यमयता का आवरण डालने की ही होती है। चंद्रभूषण जी ने अपने संपादकीय में साहित्य या कविता की इसी काल्पनिक एकतानता के रहस्य को भेदने के लिये आलोक धन्वा की कविता ‘गोली दागो पोस्टर’ और अशोक वाजपेयी की कविता ‘जबरजोत’ को नमूने के तौर पर लिया था। उनका संपादकीय इसप्रकार शुरू होता है - ‘‘इधर की कविता के बारे में इस तरह का सामान्यीकरण अक्सर किया जाता है जिससे एक समग्र रचनात्मक स्थिति सूचित हो - गोया वे तमाम रचनाएं जो इधर अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से या काव्य संग्रहों के द्वारा आई हैं, किसी सदृश प्रेरणा के तहत अथवा समान आवश्यकता या उद्देश्य से परिचालित होकर लिखी गई हों। ऐसा करते समय इधर के रचनाकारों की परस्पर भिन्न सामाजिक स्थिति तथा रचना में व्यक्त उनके भिन्न सामाजिक दृष्टिकोण को नजरंदाज कर दिया जाता है और महज कुछ स्थूल समानताओं- जैसे विषय की एकरूपता और अभिव्यक्ति के बाहरी लक्षणों आदि के चलते यह मान लिया जाता है कि ये किसी संगठित चेतना या सामूहिक उपक्रम के परिणाम है।’’
चंद्रभूषण जी कहते है कि समान सामाजिक अभिप्रायों से जुड़ी रचनाओं को एक अन्विति में समझना जरूरी होने पर भी, ‘‘उससे कम जरूरी उस छद्म सादृश्य का अनावरण भी नहीं है जो विषय की एकरूपता अथवा अभिव्यक्ति की सपाटता आदि की आड़ में आज की कविता की वास्तविक पहचान को तथा उसके विभाजक बिंदुओं को आवृत्त कर रहा है।’’
इसी उद्देश्य से उन्होंने ‘मिलते-जुलते प्रसंगों पर आधारित’ आलोक धन्वा और अशोक वाजपेयी की दो कविताओं को अपने विश्लेषण के लिये चुना था जो दोनों ही उनकी नजर में ‘अपर्याप्त रचनात्मक परिणति के चलते औसत स्तर’ की कविताएं थी। यहां हम चंद्रभूषण जी के उस पूरे संपादकीय के विषय को नहीं लाना चाहता। आलोक धन्वा की कविता का विस्तृत विश्लेषण करते हुए अंत में वे लू शुन को उद्धृत करते है कि ‘गाली गलौज करने और धमकियां देने को संघर्ष करना हरगिज नहीं कहा जा सकता।’
और, अशोक वाजपेयी की ‘जबरजोत’ के बारे में, वे शुरूआत इस प्रकार करते हैं - ‘‘आलोक के विपरीत, अशोक वाजपेयी ने इसे तमाम भावात्मक प्रतिक्रियाओं से बचाते हुए बड़ी ही सतर्कता के साथ लघुकथा की सुशीतल शैली में प्रस्तुत किया है, बिल्कुल नपे-तुले शब्दों में संक्षिप्त, सरलीकृत और रचनाकार तथा उसके एक समीक्षक की निगाह में प्रिसाइज भी। एक मुश्किल और उलझे हुए प्रसंग को (और अवश्य ही इस नाते उसके यत्किंचित् विस्तृत होने की अपेक्षा थी) यहां इस तरह आसान बनाते हुए पेश किया गया है जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो...इस तरह पूरी समस्या को बेहद मकेनिकल अंदाज में, महज कार्यकारण शैली के सहारे सिर्फ आंतरिक स्तर पर हल होते दिखाया गया है। ...आलोक की कविता में जो समस्या उन्हें इतना विकल करती प्रतीत होती है, उसे भी महज एक आंतरिक कोशिश में चुटकी बजाकर हल कर दिया गया है -‘जमीन के एक जरा से टुकड़े को अपना मानकर उसने नाधा हल और पहली बार अपने को बैलों से अलग कर लिया।’
अर्थात समस्या सिर्फ ‘‘निर्णय लेने की, चुनाव करने की अथवा पहचानने की’’ थी। ‘अपनी आंतरिक छलांग में ही अब तक की बंधी हुई नियति का वह अतिक्रमण कर जाता है, इसके बाद कहीं कोई अवरोध नहीं रह जाता-यहां तक कि जमीन दखल कर लेने की प्रक्रिया भी बड़े निर्विरोध ढंग से संपन्न होती दिखाई देती है’’। इसके बाद अशोक वाजपेयी फिर एक बार साभिप्राय इस कविता में प्रवेश करते है ‘अस्तित्व-बोध के बाद व्यर्थता-बोध’ के आधुनिकता-बोध की श्रृंखला को पूरा करने।
टिप्पणी के अंत में चंद्रभूषण जी कहते हैं - ‘‘आलोक की कविता की मुख्य सीमा वस्तुत: यही है कि उनकी संवेदनात्मक तीव्रता कविता के भीतर की सामग्री से निष्पन्न नहीं होती’’ और ‘‘अशोक वाजपेयी की मुख्य समस्या जो कुछ घटित हो रहा है (सामाजिक जीवन में ही नहीं, कविता में भी) उसे ढंकने की है...उसे रूपांतरित करने की...मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ में एक निश्चित और महत्वपूर्ण प्रसंग को कविता में जगह देकर एक सर्वथा भ्रामक निष्कर्ष के साथ कविता में ओझल करने की। क्या इस अंत से उस छद्म पर कोई रोशनी नहीं पड़ती? जहां तक रचनाओं के भीतर उन्हें जगह देने की बात है यह भी आकस्मिक नहीं है-इससे उस बढ़ते हुए दबाव की स्पष्ट सूचना मिलती है जो उनके रचना-वृत्त को, उनके आभिजात्य को तोड़ते हुए उसके भीतर प्रवेश कर रहा है, वहां दूसरी ओर इस बात की भी सूचना मिलती है कि रचनाकार का व्यक्तित्व स्वयं उसके समक्ष कई तरह के अवरोध प्रस्तुत करता है...। यह जानकारी के अभाव की, उसके घटने-बढ़ने की अथवा अनुभवों की कमी आदि की समस्या नहीं है, बल्कि जानकारी के बदलने की है।’’
औस्वित्श की कविताएं 2001 की है और ‘जबरजोत’ 1970 की । पूरे तीन दशकों का अंतराल, लेकिन आदमी में जैसे रंच मात्र का भी कोई फर्क नहीं। जग-जाहिर विकट सचाइयों के बीच आदमी के अपने ‘स्वायत्त संसार’ का इतना सख्त खोल ! उनका खास निजी रहस्य - एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैली हुई कोरी कृत्रिमता और बनावटीपन और मानव त्रासदियों तथा मुक्ति के सभी मानवीय प्रयत्नों के प्रति आधुनिकतावादी अभिजन की कुटिल शीतलता और निर्दयता का वास-स्थान। यही तो है उनके ‘विवक्षा’ की अविवक्षित विवक्षा, अर्थात निष्प्राण, ऊसर काव्य-चित्रों का प्रमुख स्रोत। आनंदवद्र्धन ने भी प्रतीयमानता को, अर्थात जीवन के यथार्थ को ही काव्य चारुता या सौन्दर्य का नियत स्रोत माना था। राममूर्ति त्रिपाठी जी की शब्दावली में -‘‘जहां-जहां चारुता प्रतीत होती है, वहां-वहां प्रतीयमानता के अस्तित्ववश ही।’’ लेकिन अविवक्षित प्रतीयमानता काव्य नहीं, स्पंदनहीन, मृत शब्दचित्रों का कारण बनती है - अनुभूति से लेकर अभिव्यक्ति तक, रचना की कृत्रिमता का एक निरवध पाखंड, अपर्याप्त रचनात्मक परिणतियों वाले औसत कवि का रचना-संसार !
अशोक वाजपेयी की एक पंक्ति है ‘समय के बाहर कदम रखना भाषा से बाहर जाना है’। वे हमेशा समय को लाते जरूर हैं, लेकिन उसे झुठलाने के लिये। काव्यशास्त्र में जिसे अविवक्षित प्रतीयमानता कहते हैं। कपोलकल्पनाओं में यथार्थ का संपुट सिर्फ इसलिये ताकि उलझन में फंसा पाठक बुद्धि के बाजीगरों के काल्पनिक विचारों को यथार्थ मान लें और यथार्थ को कोरी कपोलकल्पना। अशोक जी की उपरोक्त पंक्ति के पहले की पंक्ति है -‘‘न होना भाषा या कविता में सम्भव ही नहीं है’’। बिल्कुल सच है। कविता में बैठी यही प्राणी-सत्ता, ‘प्रतिभा’, ‘सरस्वती’ नामक परवाग्देवता ही अभिमत अर्थ का प्रकाशन करती है। मुश्किल यह है कि इस मामले में तो तोते की जान माइकेल बेरेनबॉम द्वारा पूर्व-वर्णित तंत्र के पिंजरे में फंसी हुई है। सप्राण काव्यचारुता की सृष्टि के लिये जरूरी है उस पिंजरे से इस प्राणी-सत्ता की मुक्ति की, इसके विसर्जन की। तभी विवक्षित यथार्थ का संस्पर्श रचना में प्राणों का संचार कर सकता है।
दरअसल, रचनाशीलता का पहला पाठ है, अपनी सीमाओं से चिपकी चेतना से मुक्ति का प्रयास। यह एक गहरे आत्म-संघर्ष का विषय है। निराला, मुक्तिबोध की तरह का आत्म-संघर्ष, जिसकी परिणति विक्षिप्तावस्था तक जा सकती है! यहां सवाल निराला, मुक्तिबोध का किसी डंडे की तरह प्रयोग करने का नहीं है। हिंदी के सभी छोटे-बड़े श्रेष्ठ रचनाकारों, प्रेमचंद, निराला, प्रसाद, राहुल, मुक्तिबोध, यशपाल, नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, हरीश भादानी, मार्कण्डेय, भैरवप्रसाद गुप्त, अमृतलाल नागर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, मोहन राकेश, भवानी प्रसाद मिश्र, शलभ श्रीराम सिंह, ध्रुवदेव मिश्र ‘पाषाण’ से लेकर आज के सबसे सक्रिय उदय प्रकाश आदि तक - सबका यही सच है। यहां तक कि अज्ञेय का भी। हमारा सवाल सिर्फ इतना है कि सत्ता-तंत्र के सहारे दिन-रात अपने मठों की साहित्य-कला-संगीत की महफिलों को सजाने में मुब्तिला, और अपनी ‘पीठ’ की सुरक्षा के लिये हमेशा गोटियां बैठाने में फंसे ‘कवि’ से क्या रचनात्मक उद्रेक के ऐसे किसी खतरे के आस-पास जाने की भी कल्पना की जा सकती है!
इसी की नियति है एक लीकबद्ध जीवन की अपरिणत कवि-कांक्षा। ‘भाषा में ही होने’ की ऊपर जो चर्चा है, जिसे ‘समय में होना’ भी कहा गया है, दरअसल उपलब्ध भाषा के बंद ढांचे की कैद को स्वीकारना है। अशोक वाजपेयी का ‘समय’ जीवन का गतिशील यथार्थ नहीं है। एक कोरी परिपाटी है। आदमी के हर परिवर्तनकामी प्रयत्न के विरुद्ध निश्चेष्ट, ‘निरवध काल-तत्व’ से उत्पन्न व्यर्थताबोध का घटाटोप है। उपलब्ध भाषा तो व्याकरण, प्रचलित प्रयोगों और मुहावरों की बंदिशों भरी दमनमूलक व्यवस्था होती है। यह भले ही सत्ता की उपज न हो, लेकिन परंपरागत ज्ञान के घटक के नाते सत्ता का एक रूप जरूर है। उपलब्ध भाषा, उसके मुहावरों, उसके बद्धमूल प्रयोगों को अस्वीकार कर या उससे छल करके ही साहित्य पाठक को ताजगी का, एक प्रकार की मुक्ति का अनुभव कराता है। रचनात्मक साहित्य नये विचारों और भावों के वाहक के रूप में भाषा की बंदिशों से विद्रोह का साधन होता है। लेकिन अशोक जी !
‘विवक्षा’ की पहली कविता है -
‘‘घाटी में जाकर गुम होगई एक पगडंडी
वह जो चलते चलते पगडंडी पर
उसी में समा गया
घाटी तक पहुंचा वह’’
सन् ‘64 की एक कविता है - निश्शब्द
‘‘एक ऊंची इमारत की पांचवी मंजिल की
एक खिड़की से
एक आदमी ने अपने को बाहर फेंक दिया है
मेरे शब्द उछलकर
उसे बीच में ही झेल लेना चाहते हैं
पर मैं हूं
कि दौड़ कर लिफ्ट में चढ़
दफ्तर जाता हूं
पता लगाने
कि नई जगह नियुक्ति कब होगी!
...निश्शब्द
घर जाता हूं!’’
एक शोर से भरे जीवन की यह निश्शब्दता किसी रचनात्मक विस्फोट में व्यक्त होती, तो भला कैसे? उल्टे, शोर ही अपने होने का सगल बन गया - शिक्षा, साहित्य और संस्कृति विभाग का शोर ! कहते है न, आदमी बनता है महाबली जीवन की परिस्थितियों से ही ! सन् ‘80 में प्रेमचंद शताब्दी के समय कोलकाता में साहित्य अकादमी के सेमिनार में अमृत राय अपनी सफाई दे रहे थे कि वे तो किसी डाकमुंशी के बेटे नहीं थे ! डा. महादेव साहा कह रहे थे कि प्रेमचंद ने तो गांव में घर बना दिया था, अम्मा (शिवरानी देवी) झींकती रह गयी, लेकिन किसी भाई में उस घर में जाकर एक रात बिताने की भी इच्छा नहीं हुई! एक लीक पकड़ कर मोक्ष प्राप्ति की चाहत की, अर्थात लिफ्ट को लपकते-लपकते हांफ उठे जीवन की ही परिणति है - औस्वित्श में खड़े होने पर हत्यारों की कतार में शामिल होने का आभास सताने लगता है ! इसी कारण उनकी कविता ईश्वर के टोटके से भी कभी मुक्त नहीं हुई।
यह मामला सिर्फ कविता तक ही सीमित नहीं है। ‘कविता का गल्प’ उनके साहित्य और कविता संबंधी लेखों का संकलन है। इन लेखों में कविता की चर्चा बिल्कुल उसी प्रकार से की गयी है जिसके बारे में हम भाववादी चिंतन के सिलसिले में पहले ही कह चुके हैं, जिसकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह किसी भी वस्तु को उसके वस्तु रूप में देखने के बजाय पहले उसे विचार की एक अमूर्त सामान्य श्रेणी में तब्दील करता है और फिर उस अमूर्त विचार से वस्तु के निरूपण की ओर उतने ही रहस्यमय ढंग से बढ़ता है। भेद को अभेद में तब्दील करके फिर अभेद से भेद की ओर उल्टी दिशा में यात्रा ताकि वस्तु को अतिन्द्रिय रहस्यमयता प्रदान की जा सके, वस्तु का मूल्य उसके स्वाभाविक गुण से नहीं, एक काल्पनिक चिंतन में निहित किया जा सके। इसे कहते है किसी विचार-तत्व मात्र से आलू, टमाटर जैसी नाना ठोस वस्तुओं को पैदा करने का चमत्कार। अनोखे ढंग से कविता लुप्त हो जाती है और वे उसे फिर किसी नये रूप में खोज लाते हैं। अभेद का आत्म-विभेदीकरण, वैसे ही जैसे सारे द्रव्यों में होता है ईश्वर का प्रगटीकरण !
इस संकलन के लेखों में कविता के बारे में की गयी इनकी कपोलकल्पनाओं की झांकियां देखिये - ‘‘कविता अपने को फिर से जान रही है...कविता एक अशुद्ध कला है क्योंकि भाषा एक अशुद्ध व्यापार है...कविता की चिन्ता अधिक से अधिक सचाई है, सत्य नहीं...कविता की नैतिकता ही यह है कि वह जो ब्यौंरे अपनी सचाई गढ़ने के लिये चुनती है...कविता सत्यकथा या संशोधन नहीं करती : वह सचाई से अपने गल्प गढ़ती है...यह आकस्मिक नहीं कि कविता का सच दूसरे किसी सच में अंतर्भूत होने का लगातार प्रतिरोध करता है...कविता ने यह समझना शुरू कर दिया है कि वह गल्प है...जिसे हम छायावाद के नाम से जानते हैं और जिसे आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्णयुग माना जाता है वह बुनियादी तौर पर कविता का आंदोलन था...नयी कविता कविता के पुनराविष्कार का आंदोलन था...नयी कविता का श्रेष्ठ सोचती-विचारती कविता है...कविता का संसार इधर बहुत व्यापक हुआ है...प्रतीक्षा करना कविता की आदत है - आखिर प्रतीक्षारत शब्द कविता की एक परिभाषा भी है... आज कविता का समय है...कविता अपनी समावेशिता में स्वतंत्रता को चरितार्थ करती है जबकि राजनीति हमेशा ही अपवर्जन और बहिष्कार से काम बनाती है...कविता मनुष्य की एकमात्र ऐसी संसद है जहां से कोई वापस नहीं भेजा जाता...कविता अंतत: और बुनियादी तौर से स्वतंत्रता है...कविता चुनाव नहीं करती...कविता अन्तत: मनुष्य की परम मुक्ति की स्थायी राजनीति है...जब सारे दरवाजे मनुष्य पर भेड़ दिये जाते हैं तो कविता, सारे खतरों के बावजूद, एक दरवाजा खुला-अधखुला रखती है...कविता मनुष्य की अदम्य उत्तरजीविता, उसकी असमाप्य जिजीविषा का सबसे प्रबल साक्ष्य है, आदि-आदि। कहना न होगा, कविता के बारे में विचार के नाम पर तमाम प्रकार की कपोलकल्पनाओं का खजाना है यह संकलन।
क्या इन और इतनी सारी बातों से कोई जान सकता है कि कविता क्या है और क्या नहीं ! यह आपको कफ, वात, पित्त सबके एक साथ बिगड़ जाने पर सन्निपात की दशा लग सकती है। दरअसल यह कविता मात्र के प्रति एक ऐसे सांस्कृतिक सम्मोहक इंद्रजाल की सृष्टि की कोशिश है ताकि मौलिक और नकल का भेद दिखाई न दे और कविता को सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बना कर उसके प्रति पूजा भाव पैदा किया जा सके। अंध आस्था का ऐसा कोई ज्वर जब तक पूरे साहित्य जगत को ग्रस नहीं लेता, इस बात की संभावना नहीं बन सकती जिसमें एक ही कतार में निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, हरीश भादानी, केदारनाथ अग्रवाल, उदयप्रकाश आदि आदि के साथ ही अशोक वाजपेयी से लेकर अन्तरराष्ट्रीय कवि कुमार विश्वास और ‘लालू चालिसा’ के चारण महापुरुष को कैसे खड़ा किया जा सके। (हिंदी आलोचना की कमोबेस ऐसी ही स्थिति पर ‘लहक’ के पिछले अंक में इसी लेखक ने एक लेख लिखा था।) सात पसेरी एक भाव। कविता के एक ही खाते में सारा संसार! और ऐसी अमूर्त और अद्भुत सर्वसमावेशी कपोलकल्पनाओं के जादूई पिटारे से जब कोई भक्तों को एक-एक कर ठोस कविताओं की सूरत दिखाता है तो वह कितना रहस्यमय, करिश्माई और जादूई होता है, इसे हम आसानी से समझ सकते हैं। देश-काल का नामो-निशान मिटा दिया जाता है, चौतरफा, ईश्वरीय रहस्य का बोलबाला होता है, ‘सरस्वती’ बोलने लगती है ! भक्त के लिये आराध्य के निभ्र्रान्त, और अविवादित सत्य का उद्घाटन होता है!
अशोक वाजपेयी के साहित्य के स्वायत्त, बल्कि जादूई संसार की नागरिकता का यही है पूरा सच! इसकी नागरिकता किसी नकली विश्वविद्यालय की फर्जी डिग्री की तरह है कि किसी भी तिकड़म से साहित्यकार का एक तमगा हासिल करके समाज के ‘पूजनीय देवताओं’ की कतार में खड़े हो जाने का गौरव प्राप्त कर लो। गंगा’ में एक डुबकी से सारे पापों से मुक्ति की आध्यात्मिक बाजीगरी ! काव्यानुभूति मात्र को सात्विक मनोदशा मानने का ‘शुक्लवाद’। निर्मला जैन ने अपनी किताब ‘दिल्ली शहर दर शहर’ में बड़े विस्तार से अकादमी अवार्ड, फलाना अवार्ड, ढीमका अवार्ड के रहस्य को खोला है। बताया है कि कैसे डा. नगेन्द्र ने भारत भूषण अग्रवाल को घेर कर चालाकी से अपने लिये साहित्य अकादमी अवार्ड झटका था और कैसे भारत भूषण अग्रवाल ने डा. नगेन्द्र से खायी मात की खीज को नामवर सिंह को अवार्ड दिला कर उतारा था। सेलिब्रिटीज बनने-बनाने के भद्दे खेलों पर ‘ साहित्यिक-सत्कर्म’ की पर्दादारी का कर्मकांड!
बहरहाल, अशोक जी की 74वीं सालगिरह के मौके पर उनकी ‘साहित्य की नागरिकता पर’ टिप्पणी करते हुए फेसबुक पर इस लेखक ने लिखा था -
“एक ओर है वैश्वीकरण। दुनिया को एक ही ढांचे में ढालने की जिद। एक से शहर, एक से गांव, खान-पान-पहनावा, जीवन का ऊपरी रूप सर्वत्र एक सा। और अंदर - एक सी विषमता, एक सी लाचारी, एक सा ही आतंक। सारी दुनिया पर एक सर्वशक्तिमान ईश्वर का राज्य। ‘विश्व ग्राम’ और सर्वमान्य, सर्वपूज्य, गांव का सामंत अमेरिका - अकेला पंच। संयुक्त परिवार का एक कर्ता और बाकी सब भर्ता। सारे संसाधनों पर उसकी मिल्कियत, सारी खोजों पर उसका कॉपीराइट। हरीश भादानी के एक संकलन का शीर्षक है - ‘एक अकेला सूरज खेले’। सबको रोशनी और अंधेरा बांटने वाला। फुकुयामा जैसे कुछ की नजरों में - ‘सबका राजा राम’। अर्थात ‘रामराज्य’। सभ्यता का अंतिम पायदान। अब सबको और कुछ नहीं करना है सिवाय इसके कि - ‘राम का गुनगान करिये, सभ्यता का मान करिये’।
“और दूसरी ओर है, आदमी-आदमी की असंख्य स्वायत्त-स्वतंत्र नागरिकताओं का गान। राष्ट्र की नागरिकता, धर्म की नागरिकता, जाति की नागरिकता, राजनीति की नागरिकता, अर्थशास्त्र की नागरिकता, साहित्य की नागरिकता, संस्कृति की नागरिकता, पर्यावरण की नागरिकता, नारीवाद की नागरिकता, दलितवाद की नागरिकता, बस्ती, मोहल्ला और कुटुंब से लेकर अकेले आदमी तक की नागरिकता। कुल मिला कर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’, कहीं भी धूनी रमा कर, आसन बिछा कर बैठ जाओ। नागरिकता न हो जैसे आत्मलीनता (ऑटिज्म) का ही एक और नया नाम हो! आधा-अधूरा, लुंज-पुंज जीवन - चमकदार पैकेजिंग में!
“अमेरिकी प्रभुत्व का विश्वग्राम और ‘आत्मलीन’ नागरिक। एक की मुट्ठी में सब कुछ और बाकी अपनी धुनों में लीन, जिनके पास समग्र बोल कर कुछ भी नहीं। कितने पूरक लगते हैं ये एक दूसरे के !
“समानता, न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे पर टिका विश्व-समाज अगर कोरे वागाडम्बरों और लफ्फाजियों से तैयार नहीं होगा तो अपनी-अपनी नागरिकताओं से बंधे आत्मलीनों से भी कत्तई नहीं बनेगा। समकालीन सार्वजनिक जीवन के प्रश्नों और राजनीतिक संघर्षों के प्रति तटस्थता खुद को हेय बनाने के उपक्रम जैसा है। जीवन के तमाम पक्षों पर यथार्थमूलक और पैनी नजर की जरूरत है, अध्ययन और सजगता की जरूरत है, समग्रता की, एक समग्र विश्वदृष्टिकोण की जरूरत है। यह सब मनुष्यता की जरूरत है।
“आज भी यह सोच कर रोमांच होता है कि सारी दुनिया को सोचने-विचारने का एक नया ढंग देने वाला कार्ल मार्क्स ‘पूंजी’ जैसी अमरकृति की रचना करने के बाद भी अपने जीवन के अंतिम दिनों में एक असंतुष्ट प्राणी ही था। वह इस अभिलाषा के साथ ही इस संसार से विदा हुआ था कि काश बाल्जाक के उपन्यासों पर वह अच्छी तरह से काम कर पाता!
“कहने का तात्पर्य यही है कि बहुविध अध्ययन और सोच मनुष्य की एक प्रमुख जरूरत है। लेकिन विचार का यह संस्कार जहां विश्वविद्यालयों के आत्मलीन विभागों की कक्षाओं से पाना बिल्कुल असंभव है। वैसे ही, छोटी-छोटी नागरिकताओं के स्वायत्त संसारों के मुखियाओं के विचारों से भी मुमकिन नहीं है।“
इसमें और जोड़ते हुए कहना उचित होगा कि कविता या साहित्य की स्वायत्तता का यह सोच जीवन की सार्वभौमिकता के विरोध पर टिका हुआ सोच है। यह चुनिंदा लोगों की खामखयाली का सोच है। शुक्ल जी ने लिखा था - ‘‘साहित्य क्या है ? ... साहित्य उन श्रेष्ठ मनुष्यों की शिक्षा और वार्ता है जिन्हें अपनी जाति के प्रतिनिधि के रूप में बोलने का अधिकार प्राप्त है और जिनके शब्दों में उनके स्वदेशीय बंधुगण अपने-अपने भावों का प्रतिबिम्ब देखते हैं और अपने अनुभव के सारांश का पता लगाते हैं।’’(रामचंद्र शुक्ल, चिंतामणि, भाग-3, सं. नामवर सिंह, पृ : 32, जोर हमारा)
जहां आपने जीवन के ठोस संदर्भों में इन ‘श्रेष्ठ मनुष्यों’ की गोल-मोल बातों को टटोलना शुरू किया, उनके भीतर से बोलती आदमी की क्षुद्रता सातों सुरों में अपना आलाप शुरू कर देती है। खास तौर, 1988 के बाद, जब से सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद का पराभव शुरू हुआ, शुद्ध व्यर्थता बोध पर टिकी इन निरर्थक प्रगल्भित बातों की तो जैसे बांबी ही खुल गयी।
1990 में लिखे गये ‘कविता का गल्प’ लेख में वे कहते हैं -‘‘कविता अपने को फिर से जान रही है और अपने पर अविश्वास कर रही है - आपको याद होगा कि इतालो कालविनो ने राजनीति को भी ऐसा ही करने की सलाह दी है। बल्कि पिछले दो वर्षों से संसार की राजनीति में यही हो रहा है : राजनीति इतनी तेजी से इसलिए बदल रही है कि वह अपने को जानकर अपने पर अविश्वास कर रही है।’’ (कविता का गल्प, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ : 15, जोर हमारा)
उनका ‘साहित्य का प्रजातंत्र’ समाजवाद के पराभव की राजनीति से किसप्रकार जुड़ा हुआ है, इसे वे साफ शब्दों में स्वीकारते हैं। उनके शब्दों में, ‘‘साहित्य का प्रजातंत्र अपने विरोधियों या प्रतिलोम का दमन या बहिष्कार करके नहीं चलता है : इसीलिए सर्वसत्तावादी व्यवस्थाएं सबसे अधिक साहित्य से घबड़ाती हैं। क्योंकि अंत:सलिल या भूमिगत रहकर भी साहित्य मनुष्य के प्रजातांत्रिक अस्तित्व और सबके समानाधिकार की धारणाएं और सपने जीवित रखता है। हम याद करें कि इधर यूरोप में जो हो रहा है और जिसे यूरोप का प्रजातांत्रिकीकरण कहा जा रहा है उसके नेतृत्व की अगली पंक्ति में लेखक और कलाकार है।’’ (वही, पृ : 16, जोर हमारा)
1990 में जब यह लेख लिखा गया था, उस समय तक ब्रिटेन में थैचरिज्म का बोलबाला था। अमेरिका में रोनाल्ड रेगन और जार्ज एच.डब्लू. बुश का लंबा 15 सालों से (1981-1993) रिपब्लिकन शासन चल रहा था। यही था - ‘यूरोप के प्रजातंत्रीकरण’ का दौर ! सचाई यह है कि ऐसे ‘प्रजातंत्रीकरण’ से लोग इतने अतिष्ठ हो गये थे कि साल-दो साल बाद ही वहां के लोगों ने ही बड़ी शिद्दत से उन्हें विदा कर दिया। थैचर का टिना (There is no alternative) एक भारी मजाक का विषय बन गया।
इसे ही कहते है, किसी घटना के बाद उसकी लकीर पीटने का तत्वविदों का पुश्तैनी धंधा। दर्शन की भाषा में कहे तो इतिहास को घटित करने वाले अचेतन ‘परम चित्त’ को घटना के बाद में आत्म-चेतस बनाने का तात्विक खेल !
कहना न होगा, जैसे ‘कविता’ वैसे ही ’राजनीति’ और जैसी राजनीति वैसी ही कविता और कविता-साहित्य के बारे में सोच भी। अशोक जी की तमाम बातों के रहस्य का जैसे ही आप पीछा करेंगे, वे ऐसे साहित्य के नगर की ओर आपको खींच ले जायेंगे जिसके नागरिक उन महान गुणों की खान हैं जिनकी अन्यथा कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। यह एक रहस्य है जिसकी अपनी कोई सचाई नहीं है और यही रहस्य साहित्य का स्वायत्त संसार है। बिना किसी गुणावगुण का संसार, इसीलिये जांच-परख की हर कसौटी से परे। इसके छल की खोल में लेखक की सारी कमियां, उसकी अपरिणत रचनाशीलता, उसके राजनीतिक पूर्वाग्रह, उसकी क्षुद्रता और कपट भी - सब छिप जाते हैं। बस मूल्य रह जाता है इस स्वायत्त नगर के महापौर द्वारा नागरिकता के सर्टिफिकेट का। पिछले दिनों अशोक जी ने जनसत्ता के अपने स्तंभ में अनायास ही अपने नगर के ऐसे प्रमाणपत्र प्राप्त नागरिकों की सूची भी जारी की थी - बहुत छोटी सी चार-पांच जनों की सूची थी। अशोक जी ने आज जिस ‘बूढ़े गिद्ध’ की गद्दी को जबर्दस्ती झटक रखा है, उस पीठ के सबसे वरिष्ठ और स्वाभाविक हकदार को भी उस सूची में रखा गया हैं। पता नहीं आडवाणीजी की तरह नरेन्द्र मोदी की बगल में मुंह पर पट्टी बांधे बैठ कर उन्हें कैसा लगता होगा !
बहरहाल, अशोक वाजपेयी के इस स्वायत्त संसार के राजनीतिक सूत्र कैसे और किससे जुड़े हुए हैं, इसकी अब और ज्यादा चर्चा करने की जरूरत नहीं है।