मंगलवार, 28 मई 2019

बहुलता के हुड़दंगी परिदृश्य में से तानाशाही के सही प्रत्युत्तर की तलाश


—अरुण माहेश्वरी


फेसबुक पर लखनऊ के हिंदी के आलोचक वीरेन्द्र यादव की वाल पर 22 मई को श्री लक्ष्मण यादव की एक पोस्ट पर हमारी नजर पड़ी जिसमें उन्होंने लिखा था — “ Virendra Yadav ने एक पोस्ट में रामचरितमानस को गीता, मनुस्मृति, बंच ऑफ थाट के साथ रखकर इन्हें देशद्रोही सामग्री से बाहर माना, तो हिन्दी के कुछ विद्वान आहत हो गए। कहने लगे कि मानस व गीता को मनुस्मृति व बंच ऑफ थाट के साथ रखना पाप है। ये हमारी साहित्यिक धरोहर हैं, इन्हें बचाना हमारी जिम्मेदारी है। इसके जवाब में वीरेन्द्र यादव ने एक लाइन में शानदार बात कही कि "जिन पुस्तकों में हिन्दू वर्णाश्रम धर्म की सिद्धि है, उन्हें एक कतार में रखने से परेशानी कौन सी है?"

“आपका क्या कहना है? मैं भी यही मानता हूँ कि भारत जैसे मुल्क में अगर कोई भी विचारक या साहित्य किसी भी स्तर पर वर्णाश्रम व्यवस्था व जाति को स्वीकार करता है, तो उन सभी को एक ही कतार में रखकर उनकी कायदे से लानत मलानत करनी चाहिए। क्योंकि अगर आपके ख़्वाबों की दुनिया में तमाम प्रगतिशीलता व प्रतिरोध के साथ वर्णाश्रम व्यवस्था व जाति का स्वीकार है तो यह सबसे खतरनाक़ है। ऐसी रचनाएं व विचार सबसे घातक हैं। गीता और मानस दोनों में यही साम्य है।

“आप भी इस बहस को आगे बढ़ाएँ।”

इस पर अनेक लोगों ने अपने-अपने प्रकार से टिप्पणियां कीं । हमने लिखा कि “दरअसल सभ्यता का इतिहास एक अर्थ में झूठे विश्वासों का भी इतिहास होता है क्योंकि प्रगति का मतलब ही है किसी प्रचलित व्यवस्था और मान्यता को खारिज करना । जो खारिज होता है, वह झूठ ही होता है । जैसे पृथ्वी का चपटी होना या शेषनाग के फन पर टिके होने की तरह का ही विश्वास ले सकते हैं । परम सत्य तो अनादि अनंत अपौरुषेय होता है। लेकिन जो झूठ को लिये हुए हैं, उसी में कहीं उस सच का भी वास होता है जो प्रगति का वाहक होता है । यही इतिहास की द्वंद्वात्मकता है । इसीलिये साहित्य और इतिहास को पूरी तरह से ठुकराने का मतलब है अपने अस्तित्व मात्र से इंकार करना । मानस में जीवन है, सिर्फ वर्ण-व्यवस्था का प्रचार नहीं । और गीता भी महाभारत के पूरे आख्यान का वह हिस्सा है जिसमें भारतीय दार्शनिक चिंतन की एक धारा के उत्कृष्ट रूप को देखा जा सकता है । ऐसी श्रेष्ठ शास्त्रीय कृतियों को बंच आफ़ थाट्स के स्तर के घटिया भाषणों के संकलन के समकक्ष रख कर विचार करना घूंसे से संस्कृति के विषयों को तय करने वाली धृष्टता कहलायेगा ।”

हमारी नजर में वर्ण-व्यवस्था महाभारत में गीता के संवाद से या रामचरित मानस में तुलसी के नजरिये से जुड़ा हुआ वह झूठा सच है जो किसी समय के ठोस तत्वों, अर्थात् खास परिस्थितियों से निर्मित होने के बावजूद वे खुद अपने बूते अनंत काल तक, सनातन सत्य के रूप में बने नहीं रह सकते हैं ।

बहरहाल, हमारे इस कथन पर वीरेन्द्र यादव ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए हमें डी डी कोसांबी के गीता पर लिखे लेख को देखने की सलाह दी और उसका लिंक भी भेजा ।

“Arun Maheshwari ji, संस्कृति पर यह 'घूसे की धृष्टता' डी डी कोसांबी सरीखे विद्वान आजमा चुके हैं। एक बार फिर से उनकी पुस्तक झाड़ पोछ लीजिए। फिलहाल इसे गौर फरमाइए।” http://ddkosambi.blogspot.com/2011/07/agenda-of-gita.html...

इसके साथ ही चौथीराम यादव जी ने लिखा कि “आपका कहना सही है कि मानस और गीता में जीवन है, दर्शन है। लेकिन मेरी समझ से जो सवाल उठाया गया है, वह यह कि क्या किसी व्यक्ति, विचारधारा या साहित्य को धड़ल्ले से देशद्रोही घोषित करने वाले इन पुस्तकों को देशद्रोही घोषित कर सकते हैं ? इन्हें तो वे हिन्दुत्व का प्रतीक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का गौरव समझते हैं।”

वीरेन्द्र यादव को हमने लिखा — “क्लासिक्स के प्रति दृष्टिकोण के विषय को किसी की व्याख्या के हवाले से खारिज करने से बात बनती नहीं है । गीता महाभारत क्लासिक का एक अभिन्न अंग है जिसकी स्वतंत्र महत्ता विल्किन्स के अलग से अंग्रेज़ी अनुवाद के पहले उतनी नहीं थी । और क्लासिक्स क्या होते हैं ? वे स्वयंसंपूर्ण विश्व हैं । उन पर आंशिक रूप में विचार नहीं किया जा सकता है । एक संपूर्ण जीवन संदर्भ में गीता व्यक्ति के धर्मसंकट का समाधान है । लेकिन वह उस महाभारत का एक अंशभर है जिसे सत्ता विमर्श की दुनिया की सर्वश्रेष्ठ गाथा कहा जा सकता है । गीता के संवाद में तत्कालीन सामाजिक नैतिकता और विश्वासों को आधार बनाया गया है जो नयी दुनिया के लिये मान्य नहीं हैं । लेकिन गीता को खारिज करने के लिये उसे आज के काल के 'बंच आफ़ थाट्स' जैसे घटिया विचारों के संकलन के समकक्ष रखना कहीं से भी उचित नहीं है । यह सिर्फ महाभारत जैसे क्लासिक के प्रणेता को लांछित करता है । कौशांबी को हम लंबे काल से पढ़ते रहे हैं । गीता के कर्म सिद्धांत पर विवाद के उनके अपने वाजिब कारण हो सकते हैं । लेकिन उन्होंने या देवीप्रसाद चटर्जी या उनके गुरु एस एन दासगुप्ता ने भी भारतीय दर्शन के इतिहास पर कोई अंतिम बात कह दी हो, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है । वृहत्तर स्वार्थ के लिये व्यक्ति की बलि चाहने वाले हर विचारधारात्मक आग्रह में आपको तत्वत: समानता मिलेगी । बौद्ध दर्शन का शून्यवाद जहां व्यक्ति गौण कर दिया जाता है, क्या है ? इसीलिये, पुनः, किसी के हवाले मात्र से कोई बात नहीं बनती है ।”

चौथीराम जी के इस सवाल का कि आज की हिंदुत्ववादी ताकतें जो अन्यों के साहित्य को राष्ट्र-विरोधी घोषित कर देते हैं, क्या इन ग्रंथों को राष्ट्रद्रोही बताने का साहस कर सकती है, हमारे पास इसीलिये कोई जवाब नहीं था क्योंकि चौथीराम जी नितांत आज के साहित्य और प्राचीन क्लासिक्स के बीच कोई फर्क नहीं कर रहे थे । उनके सवाल का सीधा जवाब देने के बजाय हमने इसे लोगों की चेतना और विश्वास के निकस पर देखते हुए लिखा कि इन प्राचीन ग्रंथों के प्रति ऐसी आस्था “समाज में मौजूद तमाम अंधविश्वासों की श्रेणी में आती है । दरअसल हर समाज की समग्र तस्वीर भेदमूलक होती है जिसे तमाम प्राणियों का, उनके विचारों और विश्वासों से जुड़ी अस्मिताओं का डेरा कहा जा सकता है । ये सब काफ़ी हद तक परस्पर से उदासीन होती हैं, लेकिन साथ ही इनमें एक निश्चित सम्बद्धता भी होती है । इस सामाजिक सम्बद्धता की स्थिर तस्वीर में गति के सूत्र समग्रता पर क्रियाशील होते हैं और सर्वांग रूप से प्रभावशाली होते हैं । वे किसी अंश तक सीमित नहीं होते हैं । इसीलिये आंशिक पहचान से जुड़ी हलचल भी इनके संबंधों को झकझोरती है, जड़ता को तोड़ती है, स्थिति में तरलता लाती हैं । लेकिन इसे ‘अन्य’ को खारिज करके, अर्थात् उससे इंकार करके, उसे काट कर नहीं समझा जा सकता है, उसके साथ एक आलोचनात्मक संबंध की डोर बाँध कर ही यह संभव है । अन्य की अस्मिता से अस्वीकार स्वयं की प्राणीसत्ता की क्रियात्मकता से भी इंकार है । अतीत के सारे रूपों के साथ संबंध पर हमारे अनुसार यह बात लागू होती है ।”

वीरेन्द्र यादव ने लिखा —“Arun Maheshwari दरअसल हमें अपने 'गौरव' ग्रंथों का पुनर्पाठ करते रहना चाहिए। डॉ आंबेडकर ने यूं ही नहीं इसे 'counter revolutionary' टेक्स्ट कहा था। एक बार उनका लिखा भी पढ़ें। बिना decaste मानस के गीता या रामचरित मानस की वैचारिकता को नहीं समझा जा सकता।”

वीरेन्द्र यादव की बात में फिर एक बार अन्य अधिकारी के हवाले से, पहले कोशंबी और अब अंबेडकर के हवाले से, बात कही गई । इस पर हमारी पहली प्रतिक्रिया तो यह थी कि “डाक्टर अंबेडकर के नज़रिये के अपने कारण हो सकते हैं । साहित्य के विद्यार्थी के नाते हमारा अपना नज़रिया होता है ।”

गौरव ग्रंथों के पुनर्पाठ पर हमारी बहुत साफ राय थी — “साहित्य ही तो ऐसा पाठ है जिसका पुनर्पाठ नहीं होता है । इसमें वर्णित चरित्र बदले नहीं जा सकते है । उनके मूल्याँकन का पुनर्संदर्भीकरण (re-contextualisation) हो सकता है । इसी के ज़रिये साहित्य एक प्रकार की अमरता पाता है । क्लासिक्स इसीलिये मरा नहीं करते क्योंकि वे जीवन के नये संदर्भों में नये अर्थों के साथ सामने आते रहते हैं । साहित्य के पाठों को बदलने ( पुनर्पाठ) की कल्पना दुष्कर नहीं, असंभव है ।”

फिर आई डीकास्ट होने की बात । हमने लिखा —“ डीकास्ट या डीक्लास का पहलू आदमी के चित्त की संरचना से जुड़ा हुआ पहलू है । यह किसी कैप्सूल के गटक जाने से हासिल शक्ति की तरह की कोई यांत्रिक परिघटना नहीं है । चित्त का विन्यास सिर्फ प्रत्यक्ष भौतिक यथार्थ का मोहताज नहीं होता । इसमें स्मृतियों से लेकर भविष्य के सपनों तक की भूमिका होती है । इसमें किसी भी समाज के सांस्कृतिक इतिहास का अहम स्थान होता है । भविष्य ही अतीत को पुनर्परिभाषित कर सकता है । यह वर्तमान की जड़ता की ज़मीन से संभव नहीं है । किसी भी परिस्थिति के पूर्ण प्रत्यावर्त्तन, अर्थात खोल को उलट देने का काम नई भविष्यदृष्टि से संपन्न होता है । इसीलिये न क्लास की किसी भी खास पहचान के साथ डीक्लास होना मुमकिन है और न कास्ट की किसी खास पहचान के साथ डीकास्ट । इसीलिये किसी से भी डीक्लास और डीकास्ट होने की माँग का वास्तविक अर्थ हमारे अनुसार मानवतावादी होने की माँग के सिवाय कुछ नहीं है ।”

वीरेन्द्र यादव ने जैसे थोड़ा खीजते हुए ही लिखा, — “डॉ आंबेडकर के कोई व्यक्तिगत कारण नहीं थे। हर लिटरेरी टेक्स्ट अनिवार्यतः सोशल टेक्स्ट भी होता है। डॉ आंबेडकर का विश्लेषण यही सोशल रीडिंग है। उनकी रीडिंग प्लेजर सीकिंग या आस्वादपरक निश्चित रूप से नहीं थी। यदि आपका नजरिया वैल्यू फ्री और महज लिटरेरी है तो फिर हमारे आपके रास्ते भिन्न हैं।”

हमारा जवाब भी उतना ही साफ था — “दया करके साहित्यिक पाठों की महत्ता को कमतर मत समझिये । भाषाएं साहित्य के पाठों से बनती है और वही आदमी के symbolic order का प्रमुख घटक है । सोशल टेक्स्ट से आपके तात्पर्य को मैं समझ नहीं पाया हूँ । यह समाजशास्त्रीय तो कत्तई नहीं है । साहित्य समाजशास्त्रीय लेखन नहीं होता है । और शायद ही कोई संवेदनशील पाठक ऐसा होगा जो पहले पाठ के प्रभाव से अपने को सुरक्षित करके उसे पढ़ता होगा । हम नहीं जानते कि पठन की भी अपनी कोई खास मूल्यपरकता होती है । पाठ के प्रति सजग आलोचनात्मक नज़रिया पाठक के अपने विवेक पर निर्भर करता है ।”

वीरेन्द्र यादव ने यही पर इस विमर्श के सूत्र को काटते हुए लिखा — “Arun Maheshwari दरअसल हमारी आपकी साहित्यिक समझ के बीच एक अंतराल है। इसलिए अब आगे यह संवाद निष्प्रयोज्य है। इसे यहीं विराम देना उचित है। धन्यवाद।”

इसी में एक प्रसंग तुलसीदास की वट वृक्ष की स्थिति का भी आया जिनकी छाया तले कुछ भी नया पनप नहीं सकता है, तो हमें बंगाल के रवीन्द्रनाथ याद आ गये । हमने लिखा —“ बंगाल में रवीन्द्रनाथ के वटवृक्ष से मुक्ति के नारे के साथ शुरू हुए भूखी पीढ़ी आंदोलन के सभी श्रेष्ठ कवि अन्त में रवीन्द्रनाथ के चरणों पर माथा टेके हुए पाये गये । साहित्य के किसी भी महान पाठ के जीवन की तरह ही असंख्य आयाम होते हैं । उसके स्वीकार और अस्वीकार के बीच में कुछ नहीं होता । अस्वीकार का मतलब होता है उसे विचार में ही न लाना । अब यह हमें तय करना है कि उसे अपनी विरासत में शामिल करें या पूरी तरह से काट कर फेंक दें ! क्लासिक्स के प्रति किसी भी उच्छेदकारी दृष्टि की सीमाओं का पता चल जायेगा ।”

इन सब में लक्ष्मण यादव भी कुछ लोगों से अलग चर्चा कर रहे थे । विरेन्द्र यादव के साथ हमारे विमर्श के बीच कुछ और लोग भी छिट-पुट टिप्पणियां कर रहे थे । जैसे प्रवीण यदुवंशी ने पूछा — “सीधा सवाल यह है कि मानस और गीता पवित्र है तो मनुस्मृति अपवित्र कैसे हो गई ?” इसपर जब हमने कहा कि “पवित्रता अपवित्रता का सवाल ही कहाँ पैदा होता है ? जो इन्हें महज़ धर्मग्रंथों की तरह देखते हैं, हम उनसे बात नहीं कर रहे हैं ।” इस पर उनका प्रति-प्रश्न था — “सवाल धर्मग्रन्थ का नहीं है आप चाहे जो समझे। सवाल त्याज्य और ग्रहणशीलता का मामला है। मनुस्मृति, गीता और मानस की श्रेणी से बाहर कैसे है?”

हमने उन्हें एक साधारण सा जवाब दिया — “मनुस्मृति एक काल की सामाजिक संहिता है । गीता महाभारत क्लासिक का एक अंश । मानस रामकथा का पुनर्सृजन है । इन तीनों के बीच यदि आपको कोई फ़र्क़ लगता है तो वह है । और नहीं तो यह आपकी समझ है ।”

यदुवंशी ने ही रवीन्द्रनाथ के प्रसंग में सवाल किया था कि “माने रवीन्द्र नाथ तुलसी की तरह वर्णाश्रमी व्यवस्था के पोषक थे?” इसके जवाब में हमने लिखा — “रवीन्द्रनाथ आधुनिक काल के व्यक्ति है। लेकिन उनके साहित्य में भक्ति की रहस्यमयता है तो एक प्रगतिशील लेखक चिंतक का यथार्थवाद भी है । इसीलिये बंगाली समाज का कोई अंश ऐसा नहीं है जो उनसे अपने को जोड़ता नहीं है । उनका साहित्य एक संपूर्ण जातीय संस्कृति के सारे उपादानों से भरपूर क्लासिक साहित्य के स्तर का है ।”

गौर करने की बात है कि हम यह बहस 22 मई के दिन कर रहे थे, लोकसभा चुनावों के परिणाम (23 मई) के ठीक पहले दिन । हम सबको यह विश्वास था कि इस चुनाव में मोदी निश्चित तौर पर पराजित होंगे । दक्षिण भारत के अलावा उत्तर भारत में खास तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार का जातिवादी गणित इतना साफ था कि लगता था मोदी इस अस्मिता से जुड़ी बहुलताओं की आधी-अधूरी ही सही, संयुक्त शक्ति का मुकाबला नहीं कर पायेंगे, वे पराजित होंगे । खास तौर पर जिस दिन उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश का कथित 'महागठबंधन' बना, उसी दिन से यह विश्वास हो गया था कि इस बार जातिगत संबंधों की संरचनाओं का सच उत्तर प्रदेश 2014 के परिणामों को पूरी तरह से उलट देगा । और, मोदी को समग्र रूप से संसद में अल्पमत में लाने के लिये इतना ही काफी होगा ।

लेकिन 23 मई को जब चुनाव परिणाम सामने आए, हमारा कल्पित परिदृश्य पूरी तरह से उलट-पुलट चुका था, वे सारे जागतिक सच बिखरे हुए दिखाई देने लगे थे जिनकी अकाट्यता और सनातनता को हमने कम से कम इन चुनावों के जगत के परम सत्य की श्रेणी का मान लिया था ।

और यहीं से हमारे अंदर विचार की एक भिन्न प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ ।

फासीवाद के सर्वाधिकारवादी शासन के जन्म की सामाजिक-सांस्कृतिक जमीन, और उससे पैदा होने वाली प्रगतिशील रचनाकर्मियों के सामने नई चुनौतियों पर विचार की प्रक्रिया । एक दिन पहले ही, महाभारत, मानस की तरह के क्लासिक्स के बारे में हम जिस प्रकार की बहस में लगे हुए थे, वह पूरी बहस अब हमें और भी नये गभितार्थों के संकेत देने लगी ।

ऐसा लगने लगा जैसे क्रमश: हम चिंतन की एक ऐसी अंधेरी सुरंग में प्रवेश कर चुके हैं जिसके अंत का कहीं से कोई संकेत नजर नहीं आता है । आज की दुनिया में एक ओर जनतांत्रिक बहुलता का एक अनोखा हुड़दंगी परिदृश्य उभरने लगा जिसमें मनुष्यता से लेकर पशुता तक की अस्मिता से जुड़े भाषा, जाति, धर्म, लिंग, रीति-रिवाजों, पूजा-अर्चना की विधियों, समलैंगिकता, शरीर और प्रेम के खुले प्रदर्शन, उन्मत्त कामुकता, आदि आदि सबकी स्वतंत्रता को न्यायिक संरक्षण प्रदान करने की नीति-नैतिकता का बोलबाला है । उत्तर-आधुनिक जगत । इसमें मानव अधिकार और जीने का अधिकार, दोनों एक समान है । सभी जीवित शरीरों को मानवीय सुरक्षा ही प्रमुख है, जिसे एक वैज्ञानिक नाम भी दिया जा चुका है - bio ethics ( जैव नैतिकता) । इसे ही मिशेल फुको ने अपने प्रकार से bio-politics (जैव राजनीति) कहा था । जातिवादी, सांप्रदायिक, लैंगिक नफरत और हिंसा में किसी इंसान का नहीं, दलित, मुसलमान और स्त्री के मारे जाने का ठोस सच ही अपने अंतिम सत्य के रूप में दिखाई देता है । मनुष्यता का सत्य, वर्गीय सच पूरी तरह से अदृश्य हो जाता है ।

कहना न होगा, आदमी की अस्मिता के इन खंड खंड पाखंड रूपों को स्वीकृति और सुरक्षा देने की यह खास वैविध्यमय सहिष्णुता ही मनुष्य की सार्विकता के संदर्भ में इस विखंडन के कहीं न कहीं थमने की ज़रूरत का भी तर्क पैदा करती है । अर्थात्, 'अल्पसंख्यकवाद बहुसंख्यकवाद को औचित्य प्रदान करता है' । यहीं से एक ऐसी वैश्विक ज़रूरत के औचित्य का भी जन्म होता है जो भाषाओं और अस्मिताओं के बीच समानता की किसी भाषा को नहीं जानती । उसे ऐसी किसी बहुरूपी एकता और समानता से कोई मतलब नहीं होता है । वह चाहती है एक ऐसी भाषा जो अन्य सभी भाषाओं को नियंत्रित कर सके, ऐसी सत्ता जो तमाम शरीरों को शासित कर सके । तानाशाही या सर्वाधिकारवाद की सत्ता और भाषा । उसे किसी प्रकार की सहिष्णुता का नहीं, हस्तक्षेप करने का अधिकार चाहिए - क़ानूनी हस्तक्षेप और ज़रूरी हो तो दमनकारी, सामरिक हस्तक्षेप का अधिकार । वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका को दुनिया के किसी भी कोने में जाकर बमबारी करने के हस्तक्षेप का अधिकार ।

ऐलेन बाद्यू के शब्दों में 'यह मनुष्यों के सभी भाषाई अतिरेकों की एक प्रकार की क़ीमत अदायगी है ।' बाद्यू से क्षमा प्रार्थना के साथ ही कहना चाहूंगा कि उनके इस पद 'भाषाई अतिरेकों' को सरल सामाजिक रूप में आप 'अस्मिताई अतिरेक' भी कह सकते हैं ।

वीरेन्द्र यादव जब डीकास्ट होने की बात कह रहे थे, उसके प्रत्युत्तर में हमने कहा कि “डीक्लास और डीकास्ट होने की माँग का वास्तविक अर्थ हमारे अनुसार मानवतावादी होने की माँग के सिवाय कुछ नहीं है” । दुनिया का इतिहास देखे तो पायेंगे कि सामाजिक अराजकता और राजसत्ता की तानाशाही के विरुद्ध संस्कृति के जगत की मुख्यधारा मानवतावाद की धारा रही है, जिसे अक्सर कुलीनों का आदर्शवाद, aristocratic idealism भी कहते हैं । समाज के पढ़े-लिखे भले लोगों की संस्कृति की धारा । समाज की सभी श्रेष्ठ साहित्यिक सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने और उनसे सीखते हुए मनुष्य को मनुष्य मानने की धारा । मनुष्य को मनुष्य मानने और उनमें मनुष्यता का बोध जगाने की धारा । शास्त्रीय साहित्यों के अंदर के व्यापक विश्व को उनकी समग्रता में देखने और उनसे निरंतर संस्कारित होने की धारा । वर्गों की चर्चा के साथ ही हमेशा वर्गों के अंत की धारणा को साथ लेकर चलने की धारा । सर्वहारा की तानाशाही को समान अधिकारों के मनुष्यों के समाजवादी जनतंत्र के रूप में देखने की धारा । खंडित अस्मिताओं के बजाय बुद्धि, विवेक और वैज्ञानिक मानसिकता से जुड़े नवजागरण और प्रबोधन की धारा ।

मानवतावाद की इस कुलीन धारा के साहित्य और संस्कृति के जगत में अनंत रूप मिलते हैं। यहाँ तक कि सर्वनकारवाद में भी इन्हीं सरोकारों को पाया जा सकता है । लेखक अपने एकांत में जहाँ तमाम सवालों से घिरा होता है, अतीत की बौद्धिक और अस्तित्व से जुड़ी भव्यताओं की अक्षुण्णता पर उसका अटूट विश्वास ही उस अकेलेपन को उसके लिये सहनीय बनाता है । यद्यपि लेखक का यह विश्वास मात्र रचनाओं के प्रति सामाजिक नज़रिये में बदलावों को प्रभावित नहीं करता । लेकिन अतीत के प्रति, अपनी श्रेष्ठ साहित्यिक धरोहरों के प्रति यह मोह भी समग्र रूप से सामाजिक पतनशीलता के विरुद्ध संघर्ष का एक रूप होता है । नित्शे जैसों में यही एक भिन्न युयुत्सु भाव के साथ नजर आता है । इसमें हम समाज को हेय नजर से देखने की एक प्रकार की आनंददायी कटुता भी देख सकते हैं । रवीन्द्रनाथ 'बंग माता' कविता में जब लिखते हैं — “पुण्ये पापे दुःखे सुखे पतने उत्थाने / मानुष होइते दाओ तोमार सन्ताने” (पुण्य पाप, दुख सुख, पतन और उत्थान में अपनी संतान को मनुष्य होने दो), तो इसके अंत में यहां तक कह देते हैं — “सात कोटि सन्तानेर, हे मुग्ध जननी, रेखेछो बांगाली कोरे, मानुष कोरो नी ।”( सात करोड़ संतानों की हे मुग्ध माता, तुमने इन्हें बंगाली बना के रखा है, मनुष्य नहीं बनाया ) । रवीन्द्रनाथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष के काल में राष्ट्रवाद पर कटाक्ष करने से, कुछ विषयों पर गांधी जी के अवैज्ञानिक नजरिये पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते, जैसे नहीं चूकते उग्र सांप्रदायिक विचारों वाले क्रांतिकारियों के मिथ्याचार को भी बेनकाब करने से । यह मान्य सामाजिक व्यवहारों को नकारने के अकेले लेखक के अंतर को बल देने वाले मानवतावादी विश्वासों का पहलू है ।

यही कुलीनों का आदर्शवाद कम्युनिस्ट विचारों और पदावली से प्रभावित पाब्लो नेरुदा और गैब्रियल गार्सिया मार्केस की तरह के जादूई यथार्थवादियों, पाब्लो पिकासो, आंद्रे ब्रेतां और सल्वाडोर डाली की तरह के अतियथार्थवादियों (surrealists), साहित्य और संस्कृति के जगत के लाक्षणिकतावादी आलोचक रोलाँ बार्थ, मनुष्य के ज्ञान और सत्ता के इतिहासकार मिशैल फुको, भाषा के विखंडनवादी दार्शनिक जॉक दरीदा,  संरचनावादी मानवशास्त्री लेवी स्ट्रास मार्क्सवादी दार्शनिक आल्थुसर से लेकर आज के स्लावोय जिजेक और ऐलेन बाद्यू तक के जीवन में झांकने से आपको समान रूप में मिल जायेगा । यही विश्व युद्ध और शीत युद्ध के काल के यूरोप और एक के बाद एक तानाशाहियों से पीड़ित लैटिन अमेरिका के रचनाकर्मियों की आत्मरक्षा का कवच और अपने प्रकार के प्रतिरोध को तैयार करने का वह उपक्रम भी है जो उन्हें अपने प्रति ही आश्वस्त करता है । कह सकते हैं कि यह एक प्रकार से दीक्षितों के अपने संसार की कहानी है ।

बाद्यू एक जगह लिखते हैं — “पराजय का एक काव्यशास्त्र तो है, लेकिन पराजय का दर्शनशास्त्र नहीं होता है ।” दर्शनशास्त्र ज्ञान मीमांसा का वह रूप है जो अब तक के उन अज्ञात विचारों के प्रति स्वीकृति के साधन जुटाता है जो सत्य होने पर भी सत्य के रूप में सामने आने से हिचक रहे होते हैं ।

यही वजह है कि जब हम मार्क्सवादी होने के नाते बहुलतावाद के (अस्मिताओं के) हुड़दंग से कुलीनों के आदर्शवाद की तरह अपने लिये एक सुरक्षा कवच नहीं तैयार कर पाते हैं, हम उसके दायरे में सिमट कर अपनी मानवीय अस्मिता भर को बचाने से संतुष्ट नहीं होते हैं, उस अज्ञात, सामने आने से झिझकते सत्य की तलाश का रास्ता पकड़ते हैं तब इस कोशिश में हम अक्सर एक प्रकार के ऐसे अधर में लटक जाते हैं, ऐसे द्वंद्व में फंस जाते हैं जिसमें हमारी तात्विक जिज्ञासाएँ सचमुच सबसे भारी तनाव से घिर जाती है । सचमुच, किसी मृत जगत से कैसे कोई एक उक्ति निकालने का चमत्कार कर सकता है !

दरअसल, यही आज सब जगह मार्क्सवादी प्रगतिशीलों के संकट, तनाव और उनकी वैचारिक विक्षिप्तता की तरह की स्थिति के मूल में है । वे दुनिया की वर्तमान गति से आतंकित होकर अपने खुद के विश्लेषण के औजारों को, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद के औजारों को त्याग दे रहे हैं । भारत में जिन कम्युनिस्ट नेताओं ने वर्ग और जाति संबंधी अंबेडकरपंथियों, लोहियावादियों और अन्य जाति, क्षेत्र, संप्रदाय से जुड़ी अस्मिताओं का झंडा उठा कर चलने वालों से निरंतर बहस करते हुए यहां कम्युनिस्ट आंदोलन की नींव रखी और उसका एक व्यापक आधार बनाया, साहित्य में प्रगतिशीलता एक अखिल भारतीय साहित्यिक परिघटना के रूप में सामने आई, आज मार्क्सवाद की उस मूलभूत ऐतिहासिक भौतिकावादी समझ को ही पार्टियों के राजनीतिक नेतृत्व की विफलताओं, सांगठनिक दुर्बलताओं के चलते होने वाली पराजयों का बुनियादी कारण बता कर उसे त्याग देने पर बल दिया जा रहा है । ब्राह्मण और तीन ठग वाली कहावत पूरी तरह से चरितार्थ हो रही है कि तीन ठगों ने ब्राह्मण को इस कदर भ्रमित कर दिया कि उसने अपने कंधे की बकरी को कुत्ता समझ कर रास्ते में फेंक कर उसे ठगों को सौंप दिया ।

कम्युनिस्ट आंदोलन के अंदर के ऐसे और भी अनेक व्यवहारिक अनुभवों को लिया जा सकता है । बंगाल के रैनेसांस और उसके साथ ही औद्योगीकरण की एक सबसे बड़ी देन थी कि बंगाली समाज में जातिवादी दीवारें लगभग खत्म हो गई थी । कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व पर किस जाति का वर्चस्व है, किसका नहीं, यह कभी विचार का विषय ही नहीं था । वाम मोर्चा के शासन में शिक्षा और भूमि सुधार के कामों के नब्बे फीसदी लाभ अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को ही मिले थे । प्रेम विवाह बंगाल में अनेक सालों से एक आम बात हैं जो जातियों की सामाजिक बाधाओँ को खत्म करने के लिये काफी है । इसीलिये यहां 'अन्य पिछड़ी जातियों' (OBC) का तो कोई अस्तित्व ही नहीं था । लेकिन जब मंडल कमीशन आया, बंगाल में भी दुरबीन लेकर 'अन्य पिछड़ी जातियों' की तलाश शुरू हो गई ।

बंगाली समाज में हिंदू-मुस्लिम पूर्वाग्रह बंगाल के बटवारे की वजह से बने हुए हैं । लेकिन जब से वामपंथियों का राजनीतिक वर्चस्व कायम हुआ, इसकी उग्रता समाप्त होती चली गई । फिर भी मुसलमानों के साथ पूरा न्याय नहीं हो सका, जिसकी ओर सच्चर आयोग ने इशारा भी किया । वाम मोर्चा सरकार ने उसे स्वीकारा और प्रशासनिक तौर पर जरूरी कदम उठाने शुरू किये । इस विषय को सामाजिक तनाव का कारण नहीं बनने दिया । लेकिन दूसरी ओर ममता बनर्जी ने इसी विषय का वाम मोर्चा के खिलाफ जिस उग्रता के साथ राजनीतिक रूप से प्रयोग करना शुरू किया, बंगाल में उस अल्पसंख्यकवाद की जमीन तैयार हुई जिसकी फसल आज भाजपा का बहुसंख्यकवाद काट रहा है । वाम मोर्चा ने कभी भी यहां के मुस्लिम सांप्रदायिक नेताओं से समझौता नहीं किया था ।

इसी प्रकार, केरल का उदाहरण है जहां चुनावी लाभ के लिये मुस्लिम लीग से समझौता किया जाए या नहीं, वाम राजनीति के लिये हमेशा एक सरदर्द का विषय बना रहता है । चुनावी नेताओं के इस मामले में ढुलमुल रवैये से कम्युनिस्ट आंदोलन को दूरगामी नुकसान के अलावा और कुछ नहीं हुआ है । इसके विपरीत, उत्तर भारत के हिंदी भाषी प्रदेशों में कम्युनिस्ट आंदोलन किसिम किसिम के जातिवादियों से समझौतों की भेंट चढ़ गया । तमिलनाडू में क्षेत्रीयतावादियों की भेंट चढ़ा । पुराने कम्युनिस्ट नेताओं ने भारत में अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को मानने पर भी कांग्रेस के शासन में उन्हें आत्म-निर्णय का अधिकार देने की बात से साफ तौर पर इंकार किया था जो एक भारतीय राष्ट्र के निर्माण की व्यापक प्रक्रिया के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का द्योतक था । लेकिन परवर्ती दिनों में अलगाववादी मांगों में भी जनता की जनवादी आकांक्षाओं को देखने और मानने की प्रवृत्ति बढ़ी, जिसका लाभ पंजाब में वामपंथ को नहीं, अकाली दल को मिला ।

भारतीय राजनीति के इन ठोस उदाहरणों से हम नहीं चाहते कि हम यहां जिस दर्शनशास्त्रीय समस्या को उठाना चाहते हैं, उससे ध्यान बट जाए और विषय पर हम सिर्फ दैनंदिन राजनीति के संदर्भों में बात करके पूरे मामले को कुत्सित बना दें । छः साल पहले, 'मार्क्सिस्ट' में अपने एक लेख 'Communalism : Changing Forms and Fortunes' में प्रो. ऐजाज अहमद जब भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के उदय के पीछे आरएसएस के अनेक मोर्चों पर लगातार कामों का ब्यौरा देते हुए उसे ग्राम्शी के द्वारा प्रयुक्त पदावली 'War of Position' से व्याख्यायित कर रहे थे, तभी उस पर तीव्र आपत्ति करते हुए इस लेखक ने अपने लेख 'एजाज अहमद का सांस्कृतिक मार्क्सवाद' में कहा था कि सीपीआई(एम) के राजनीतिक नेतृत्व के इधर के गलत राजनीतिक निर्णयों को भारतीय समाज की कथित सांस्कृतिक संरचना से जोड़ कर देखने का कोई तुक नहीं है । इस सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मार्क्सवाद के सार्वदेशिक सत्य की शक्ति को सबसे अधिक व्याहत किया है । आरएसएस के 'war of position' से कम गतिविधियां कम्युनिस्ट पार्टियों के वर्गीय और जनसंगठनों की नहीं रही है, इसे बताते हुए अपने उसी लेख में लिखा था —

“कभी ऐसा जमाना रहा होगा, जब भारतवर्ष या अखंड भारत महज एक विचार, concept, अवधारणा था । लेकिन आज के भारत का एक सच है, कोरा विचार नहीं । आजादी के बाद के इन तमाम वर्षों में प्रादेशिकता, जातिवाद, संप्रदायवाद आदि से जुड़े तनावों के कई-कई दौर को देखने के बाद इस सच को आज और भी ज्यादा निश्चय के साथ कहा जा सकता है । भारतीय राष्ट्रीयता के सच के तले नाना राष्ट्रीयताओं (जातियताओं), उप-राष्ट्रीयताओं के सच यथार्थ के बजाय महज विचार में तब्दील होते दिखाई दे रहे हैं । किसी समय अखंड भारत का विचार नाना जातियताओं-उपजातियताओं के ठोस खंभों पर टिका दिखाई देता था । देखते-देखते नजारा उलट सा गया है । आज तो भारतीय राष्ट्रीयता के विशाल और ठोस आधार पर तमाम जातियों-उपजातियों के वैचारिक-सांस्कृतिक महल खड़े दिखाई देते हैं ।” ( देखें- अरुण माहेश्वरी; धर्म, संस्कृति और राजनीति; 'एजाज अहमद का सांस्कृतिक मार्क्सवाद',पृष्ठ-83-97)

दरअसल पूरे विषय को भिन्न स्तर पर देखने की जरूरत है । आज के समय में मार्क्स के विचारों की तो चर्चा होती है, लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन ने उनके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद को जीवन के यथार्थ में रूपायित करने के जिन विचारधारात्मक औजारों को तैयार किया है, आज उन पर कितनी चर्चा होती है ? लेनिन, स्तालिन और माओ के कठोर वैचारिक परिश्रम की कितनी छान-बीन होती है ? स्तालिन की वह शानदार किताब 'द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद' जैसे स्तालिन के व्यक्तित्व पर चढ़ी कालिमा की भेंट चढ़ गई, वैसे ही कम्युनिस्ट आंदोलन के अन्य सभी वैचारिक औजारों को भी समाजवाद की दुर्गति को देखते हुए पूरी तरह से त्याग दिया जा रहा है । उनकी समीक्षा, उनका पुनर्संदर्भीकरण, उनके अंदर के सामने न आ पा रहे सत्य को सामने लाने की कोशिश की तनावपूर्ण चुनौतियों को स्वीकारने के बजाय नाना भ्रमवश उन्हें कंधे से फेंक दिया जा रहा है । लेनिन, स्तालिन, माओ के लेखन की चमक के स्रोत तो जैसे हमारे जेहन से ही निकल गये हैं ।

अभी भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों का सर्वोच्च नेतृत्व तक बड़े गर्व से 'जय भीम और लाल सलाम' के नारे लगा कर मार्क्सवाद का एक कथित देशी संस्करण तैयार करने की कोशिश करता दिखाई पड़ता है । पिछले दिनों बांदा में कम्युनिस्टों के द्वारा अंबेडकर को अपनाने के विषय में बाकायदा तीन दिनों का सेमिनार हुआ था । इस बात पर भी गौर नहीं किया गया कि डा. अंबेडकर मूलतः पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यक्ति थे और पूंजीवादी जनतंत्र भी पूरी तरह से बहुलतावादी नहीं होता है । वह अगर एक ओर बहुलता का रक्षक बनता है तो वही दूसरी ओर उसमें वे सारी प्रक्रियाएं भी जारी रहती है जो इन बहुलताओं का अंत करती है । यही पूंजीवादी व्यवस्था की प्रक्रियाओं का सत्य है । इसीलिये जातिवादी अस्मिताएँ पूंजीवाद के विरुद्ध कभी संघर्ष के मजबूत आधार नहीं बन सकती है । इनका प्रतिरोध दिन प्रति दिन कमजोर से कमजोर होने के लिये अभिशप्त होता है ।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास राजनीति की द्वंद्वात्मकता की समझ इतनी कमजोर है कि वह कभी भी दो खेमों के बीच के द्वंद्व की दरारों में निहित सत्य को सामने लाने के उपक्रमों से अपने को जोड़ ही नहीं पाती है । दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पक्षों में एक को पराजित करो, एक को कमजोर करो और हमें विजयी बनाओ की तरह के तर्क कोरी पहेली बन जाते हैं ।

हेगेलियन द्वंद्ववाद, जिसे मार्क्स ने भौतिक आधार पर खड़ा करके द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का महल तैयार किया, उसकी समझ बताती है कि हमेशा दो के द्वंद्व के बीच ही कहीं सत्य छिपा होता है । एलेन बाद्यू के शब्दों में — सिर्फ शरीर हैं और भाषाएं हैं, तथापि सत्य हैं । (There are only bodies and languages, except that there are truths.) समूह है, उनकी अस्मिताएं हैं, लेकिन पूंजीवाद का सच भी है, जैसे समाजवाद का भी सच है । पूंजीवादी जनतंत्र की द्वंद्वात्मकता के बीच भी मनुष्यत्व का सत्य निहित होता है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की भूमिका शोषणविहीन समानता और स्वतंत्रता के इसी मानवीय सत्य को देखने की होती है । वह ऐसी बहुलता का पक्षधर नहीं है जिसमें हमारे कवि धूमिल के शब्दों में घोड़े और घास को समान स्वतंत्रता होती है ।

यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें हमें लेनिन की याद आती है । 'मार्क्सवाद के झंडे तले'('पोद ज्नामेनेम मार्क्सिज्मा') सामाजिक-आर्थिक पत्रिका में जुझारू भौतिकवाद के महत्व को रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं — “यह समझने की जरूरत है कि ठोस दार्शनिक आधार के बिना कोई भी प्रकृतिविज्ञान, कोई भी भौतिकवाद पूंजीवादी विचारों के हमले और पूंजीवादी विश्व दृष्टिकोण की बहाली के खिलाफ इस संघर्ष में टिक नहीं सकता । इस संघर्ष में टिकने और उसे सफलतापूर्वक संपन्न करने के लिए प्रकृतिविज्ञानी का आधुनिक भौतिकवादी होना, उस भौतिकवाद का चेतन पक्षधर होना, जिसका प्रतिनिधित्व मार्क्स करते थे, यानी द्वंद्वात्मक भौतिकवादी होना जरूरी है । (व्ला. ई. लेनिन, जुझारू भौतिकवाद का महत्व, 12 मार्च 1922)

इसके पहले 1920 में, सोवियत संघ में रूस की सर्वहारा संस्कृति (Proletarian Culture) पर पहली कांग्रेस के लिये लेनिन ने जिस प्रस्ताव का मसौदा तैयार किया था उसमें लिखा गया था कि “मार्क्सवाद ने क्रांतिकारी सर्वहारा की विचारधारा का ऐतिहासिक महत्व इसलिये हासिल किया है क्योंकि पूंजीवादी युग की मूल्यवान उपलब्धियों को खारिज करना तो दूर की बात, उल्टे उसने मानव चिंतन और संस्कृति के दो हजार सालों से ज्यादा की हर मूल्यवान चीज को आत्मसात करके नये रूप में अपनाया है । इसी आधार पर और इस दिशा में आगे और काम करके, शोषण के प्रत्येक रूप के खिलाफ संघर्ष के अंतिम चरण सर्वहारा की तानाशाही के व्यवहारिक अनुभवों से अनुप्रेरित हो कर ही सच्ची सर्वहारा संस्कृति के विकास का काम किया जा सकता है ।
(4.Marxism has won its historic significance as the ideology of the revolutionary proletariat because, far from rejecting the most valuable achievements of the bourgeois epoch, it has, on the contrary, assimilated and refashioned everything of value in the more than two thousand years of the development of human thought and culture. Only further work on this basis and in this direction, inspired by the practical experience of the proletarian dictatorship as the final stage in the struggle against every form of exploitation, can be recognised as the development of a genuine proletarian culture.)( On Proletarian Culture)

अब तक की मानव इतिहास की सारी मूल्यवान उपलब्धियों को आत्मसात करना और उसे नये रूप में अपनाना, यह किसी भी प्रकार के उच्छेदवादी नजरिये से सर्वथा अलग है । इसीलिये भौतिकवाद को कोरे विशेषणों में तब्दील करके प्राचीनतावाद के जुर्म से बचने का कोई तुक नहीं है । कहने की जरूरत नहीं कि भारत के कई मार्क्सवादी इतिहासकार भी इतिहास की अपनी सरल 'वर्गीय' व्याख्याओं से इस रोग के लिये काफी जिम्मेदार पाये जाते हैं ।

दरअसल, बहुलता के उस प्रतीकात्मक या न्यायिक स्वरूप में भटकने की जरूरत नहीं है जनतांत्रिक व्यवस्था जिसे बनाये रखने के साथ ही उसकी समाप्ति को मान कर चलती है । जरूरत उसके द्वंद्वात्मक सच को, जो नजर आता है और जो नजर नहीं आता, उसके बीच के सत्य को पकड़ कर चलने की है । वह शोषण की व्यवस्था का सच है । जनतंत्र का सर्वाधिकारवाद के खिलाफ शीत युद्ध समाजवाद के अंत के लिये था । आतंकवाद के विरुद्ध स्वतंत्र दुनिया का शीत युद्ध में भी साम्राज्यवादियों के विश्वप्रभुत्व के सच को ओझल नहीं किया जा सकता है । पूंजीवादी दलों की सोशल इंजीनियरिंग क्या है ? वामपंथ खत्म हो रहा है, वह दिखाई देता है । लेकिन जो दिखाई नहीं दे रहा है, और जो व्यतीत हो कर दिखाई दे रहा है, उनके बीच कौन सी बात इस अंत को रूप दे रही है, उसे जानने की जरूरत है । 

अन्त में, हेगेल के द्वंद्ववाद का मतलब है कि सभी विरोधों का सार तत्व एक तीसरा सत्य है जो दो अन्यों के बीच निहित होता है । हर विरोध इस तीसरे की उपस्थिति का सूचक होता है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उसी का पता देता है । भारत की राजनीति की निर्मिति अभी फासीवाद और जनतंत्र के बीच के विरोध से है । इसीमें भारत की जनता की आर्थिक-सामाजिक मुक्ति की लड़ाई छिपी हुई है । इसी विरोध के मध्य से उसे सामने लाना है । 













सोमवार, 20 मई 2019

पिइरो ज्राफा और हरेकृष्ण कोनार

 —अरुण माहेश्वरी

आज (8 मई 2019) के ‘ टेलिग्राफ़’ में प्रभात पटनायक का एक लेख है - पहले के प्रतीक पुरुषों ( आइकॉन्स) का विस्मरण ( Forgetting earlier icons) ।

प्रभात ने अपने लेख में दो व्यक्तियों का ज़िक्र किया है - इटली के पिइरो ज्रा़फा (Piero Sraffa) और बंगाल के हरेकृष्ण कोनार ।

प्रभात ने बताया है कि ज्रा़फा इटली के महान कम्युनिस्ट अंतोनिओ ग्राम्शी के उन कम्युनिस्ट मित्रों में एक थे जो फासिस्टों की जेल में ग्राम्शी से हमेशा मिला करते थे और उनके ‘प्रिजन नोटबुक’ के लिये सामग्री जुटा कर देने वालों में एक थे । प्रभात ने कुछ लोगों की बातों के हवाले से इस बात के भी संकेत दिये हैं कि शायद प्रिजन नोटबुक की पांडुलिपि को जेल से बाहर लाने में भी उनकी भूमिका थी । प्रभात ने उन्हें इटली में कम्युनिस्ट पार्टी के जन्म के साथ भी जुड़ा बताया है ।

बहरहाल, पिइरो ज्रा़फा मूलत: एक अर्थशास्त्री थे । 1898 में इटली के तुरिन शहर में उनका जन्म हुआ था, अर्थात वे ग्राम्शी से सात साल छोटे थे । उनके पिता भी एक प्रोफेसर थे । स्थानीय विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1921 में वे लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में आगे की पढ़ाई के लिये चले गये जहाँ वे दो साल रहे । वहीं पर उनका पहली बार जॉन मेनर्ड केन्स से संपर्क हुआ । केन्स ने उनसे ‘मैन्चेस्टर गार्डियन’ पत्रिका के लिये इटली की बैंकिंग प्रणाली पर एक लेख लिखवाया था । ज्रा़फा ने इस लेख में इटली के फासिस्टों पर प्रहार किया था जिस पर मुसोलिनी सरकार ने तीव्र प्रतिक्रिया की थी । लेकिन इसके बावजूद नवंबर 1923 में इटली की पेरूजा विश्वविद्यालय में राजनीतिक अर्थशास्त्र और सार्वजनिक वित्त विषय पर उन्हें लेक्चररशिप की नियुक्ति मिल गई ।

पेरूजा विश्वविद्यालय में इन लेक्चर के आधार पर ही उनका प्रबंध तैयार हुआ - ‘Sulle relazioni fra costo e quantita prodotta’ (On the relations between cost and quantity produced)। अपने इस प्रबंध में ज्रा़फा ने आल्फ्रेड मार्शल के सिद्धांत में उत्पादन में मुनाफ़े में गिरावट, स्थिरता, और वृद्धि के आधार का एक विश्लेषण किया था । इसी के आधार पर वे कैलियरी विश्वविद्यालय में राजनीतिक अर्थशास्त्र विभाग में पूर्ण प्रोफ़ेसर के पद पर आ गये । इस पद पर वे जीवन की अंतिम घड़ी तक बने रहे । यहाँ तक कि जब वे देश छोड़ कर चले गये, उन्हें प्रोफ़ेसर पद से नहीं हटाया गया और उन्होंने उससे अपनी सारी आमदनी को विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को दान कर दिया । उनके इस लेखन की इतनी प्रशंसा हुई कि इसके एक अंश का अंग्रेज़ी में अनुवाद करके 1926 के लंदन के रॉयल इकोनोमिक सोसाइटी के ‘The Economic journal’ में प्रकाशन किया गया ।

ज्रा़फा ने अपने इस लेख के प्रारंभ में ही लिखा था : “ अर्थनीतिशास्त्र की आज की परिस्थिति की अचरज भरी बात यह है कि इसमें सारे अर्थशास्त्री माल के प्रतियोगितामूलक मूल्य के विषय में एकमत है जिसे वे माँग और आपूर्ति की ताक़तों के बीच मूलभूत समरूपता पर आधारित मानते हैं और यह मान कर चलते हैं कि किसी भी माल विशेष के मूल्य को तय करने वाले मूल कारणों को बहुत सरलता से समझा जा सकता है और उन्हें एक साथ रख कर सामूहिक माँग और आपूर्ति के आपस में मिलने वाले वक्रों (curves) के युग्म से व्यक्त किया जा सकता है । पिछली सदी में राजनीतिक अर्थशास्त्र में माल के मूल्य के सिद्धांत पर चले तीव्र विवादों की तुलना में यह बिल्कुल अन्य स्थिति है जिससे लग सकता है मानो विचारों के उन संघातों के बीच से किसी परम सत्य के प्रकाश को ही हासिल कर लिया गया है । “ (ज्रा़फा, 1926, पृष्ठ - 535)
(A striking feature of the present position of economic science is the almost unanimous agreement at which economists have arrived regarding the theory of competitive value, which is inspired by the fundamental symmetry existing between the forces of demand and those of supply, and is based upon the assumption that the essential causes determining the price of particular commodities may be simplified and grouped together so as to be represented by a pair of intersecting curves of collective demand and supply. This state of things is in such marked contrast with the controversies on the theory of value by which political economy was characterised during the past century that it might almost be thought that from these clashes of thought the spark of an ultimate truth had at length been struck. )

इससे जाहिर है कि ज्रा़फा ने अपने समय की मुख्यधारा के सर्वमान्य विचार से खुद को अलग किया था । उन्होंने इस प्रकार की सर्व-सम्मत मूल्य संबंधी मोडम थ्योरी में एक ऐसे काले धब्बे को देखा था जो इस थ्योरी के पूरे ‘संगतिपूर्ण’ ढाँचे को ढहा देने के लिये काफ़ी था ।

हमें यह देख कर कम्युनिस्ट दार्शनिक एलेन बाद्यू की बात याद आई - “सत्य हमेशा वह होता है जो ज्ञान में छिद्र पैदा करता है । सत्य/ ज्ञान के युग्म के विचार में हर चीज़ दाव पर लगी होती है ।”
( A truth is always that which makes a hole in a knowledge. Everything is at stake in the thought of the truth/knowledge couple.) सत्य किसी स्थिर संतुलन में नहीं, संतुलन को प्राप्त करने की तरल प्रक्रिया में, संतुलन में दिखाई देने वाली दरारों, छिद्रों में निहित होता है ।

और, कहना न होगा, प्रभात के लेख के अलावा ज्रा़फा के बारे में हमारी जिज्ञासा को आगे और बढ़ाने के लिये यही काफ़ी था ।

ज्रा़फा मूल्य के बारे में माँग और आपूर्ति के संबंधों के सिद्धांत की आम राय में कैसे एक काला धब्बा देख रहे थे ?

जिसे आपूर्ति का वक्र (curve) कहते हैं, वह मुनाफ़े में वृद्धि और गिरावट (increasing and diminishing returns) के योग पर आधारित होता है। ज्रा़फा का कहना था कि इस वक्र के स्तंभ इतने कमजोर हैं कि वे मूल्य संबंधी इसके सारे बोझ का वहन नहीं कर सकते हैं ।

मांग और आपूर्ति के बीच का पाठ्य पुस्तकों वाला यह संतुलन क्या है ? इस विषय पर वे उदाहरण के आधार पर अपनी चर्चा को आगे बढ़ाते है । किसी भी एक बाज़ार में (मसलन् वाइन की माँग के वक्र में ) बदलाव को पहले उस बाज़ार के संतुलन को बिगाड़ने वाले प्रभाव के रूप में लिया जाता है (वाइन की क़ीमत और उसके उत्पादन की मात्रा में बदलाव के तौर पर ), और फिर उसके कारण अन्य बाज़ारों पर असर को इसमें शामिल किया जाता है । उस बाज़ार में जहाँ सबसे पहला परिवर्तन होता है, क़ीमत और मात्रा में बदलाव में वाइन बनाने के लिये अंगूर की माँग पर और वाइन के वैकल्पिक बीयर की माँग पर असर शामिल है । अब यदि इसके अन्य बाज़ारों पर प्रभाव को बाजार के संतुलन पर परवर्ती प्रभाव के रूप में लिया जाए, न कि उसके मूल स्थान पर प्रभाव की तरह, और यदि इन प्रारंभिक प्रभाव को इतना मामूली मान ले कि उन्हें पहले चरण में ही नज़रंदाज़ किया जा सकता है, तभी मामूली फ़र्क़ के संदर्भ में किसी अन्य बाजार के आपूर्ति और माँग के पूरी तरह से स्वतंत्र वक्रों पर विचार किया जा सकता है ।

इसी बिंदु पर ज्रा़फा मुनाफ़े के अलग-अलग स्वरूपों पर विचार करने की बात कहते हैं । पहला,  वह जो कंपनी विशेष का अपना मुनाफ़ा होता है । दूसरा, कंपनी विशेष का नहीं बल्कि उस पूरे उद्योग से संबद्ध होता है । और तीसरे प्रकार का मुनाफ़ा इन दोनों, अर्थात् कंपनी विशेष, उद्योग विशेष, दोनों से ही बाहर की स्थिति से जुड़ा होता है । ज्रा़फा बताते हैं कि पहले प्रकार के मुनाफ़े का प्रतियोगिता से कोई पूर्ण संगतिपूर्ण संबंध नहीं होता है । जबकि मुनाफ़े के तीसरे स्वरूप का भी इस आंशिक संतुलन से कोई संपर्क नहीं होता क्योंकि वह इन सबसे स्वतंत्र होता है । एकमात्र मुनाफ़े का दूसरा स्वरूप, जो कंपनी और उद्योग से जुड़ा होता है, ज्रा़फा कहते हैं कि मार्शल की थ्योरी के विश्लेषण से प्रतियोगिता की बिल्कुल आदर्श परिस्थिति (perfect competition ) में आपूर्ति के वक्र के विश्लेषण से इसका कोई मेल बैठाया जा सकता है । लेकिन इसे बिल्कुल ठोस रूप में देख पाना हमेशा संदेहास्पद होता है, क्योंकि इसके तरल बने रहने के दूसरे तमाम कारण होते है । प्रभात ने अपने लेख में perfect  और imperfect प्रतियोगिता की श्रेणियों की चर्चा की है, लेकिन इन दोनों के बीच फ़र्क़ की इसीलिये कोई साफ़ समझ नहीं बन पाती है क्योंकि यथार्थ में कभी भी perfect की तरह की ठोस धारणा का कोई अस्तित्व नहीं होता है ।  perfect हमेशा किसी भी परिस्थिति की क्रियात्मकता का पहलू होता है, परिस्थिति की तस्वीर हमेशा perfect/imperfect होगी, दार्शनिक बाद्यू की शब्दावली में one/multiple, और हमारे अभिनवगुप्त की पदावली में भेदाभेद । अथवा मुनाफे के संदर्भ में इसे consistent returns या inconsistent returns से व्याख्यायित किया जा सकता है ।

बहरहाल, तीसरे प्रकार के मुनाफ़े का आंशिक संतुलन के मामले से कोई मेल नहीं बैठता है क्योंकि इसे उद्योगों के उत्पादन में अलग-अलग खर्चों (लागतों) से होने वाले बदलाव से अलग नहीं किया जा सकता है, जो बाकी सभी उद्योगों पर भी लागू होते हैं, उनसे संबद्ध होते हैं ।

जैसे यदि जमीन की समान मात्रा में अंगूर उगाया जाए और बीयर के उत्पादन में लगने वाली हाप्स उगाई जाए, तो अंगूर से होने वाले लाभ की बदौलत जमीन के दाम बढ़ जाते हैं और वह दाम हाप्स की फसल पर भी लागू होते हैं । इस प्रकार दोनों उद्योगों में समान परिवर्तन होता है । इसीलिये उद्योग के बाहर होने वाले परिवर्तनों से उद्योग के अंदर के मुनाफे पर भी असर पड़ता है । यही वजह है कि उत्पादन के साधनों के मामलों में दूसरे उद्योगों में आने वाले बदलाव को यूं ही दरकिनार नहीं किया जा सकता है । जब किसी उद्योग में लागत में आने वाले बदलाव का दूसरे उद्योगों पर असर नहीं पड़ता है तब वह मामला उस उद्योग का अपना अंदुरूनी मामला होता है । जमीन सीमित है और इसीलिये जमीन पर लागत बढ़ने पर उसका प्रभाव प्रत्येक चीज पर पड़ेगा । यही वजह है कि कंपनी के बाहर और उद्योग के अंदर की लागत के बढ़ने पर एक उद्योग पर पड़ने वाला असर अन्य उद्योग को भी प्रभावित कर सकता है, उनका भी संतुलन ( मूल्य और मात्रा का संतुलन ) बिगाड़ सकता है । यदि दूसरी बातें पूर्ववत् रहे तो माना जा सकता है कि यह परवर्ती प्रकार का अर्थात् उद्योग के बाहर के बदलावों का प्रभाव होगा ।

इसी के आधार पर ज्राफा ने 1925 में यह निष्कर्ष निकाला कि उत्पादन की मात्रा में मामूली बदलाव के संदर्भ में प्रतियोगिता की आदर्श स्थिति में मुनाफ़े को स्थिर रखा जा सकता है और आपूर्ति के वक्र का विश्लेषण आसान हो जाता है ।

ज्रा़फा ने इसी विचार को 1926 के अपने आलेख के पहले हिस्से में दोहराया था और कहा था कि इससे मूल्य और मुनाफ़े के बारे में शास्त्रीय सिद्धांत की पुष्टि होती है । 'पुराना और अब बेकार हो चुका सिद्धांत जो प्रतियोगिता मूल्य को उत्पादन की लागत पर आधारित करता है, वही सही साबित हो रहा है ।' फिर भी ज्राफा अपने इस नतीजे से संतुष्ट नहीं थे । वे यह स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि क्या लागत की मात्रा मात्र से ही चीजों के मूल्य निर्धारित होते हैं ? उनके सामने दो विकल्प थे । बिल्कुल आदर्श प्रतिद्वंद्विता ( जिसमें मांग और आपूर्ति के संतुलन का कोई मायने नहीं हो)  अथवा मांग और आपूर्ति का आंशिक संतुलन ( जिसमें खुली प्रतिद्वंद्विता की प्रमुखता न हो ) । इनमें से उनको किसी एक को त्यागना जरूरी था । ज्राफा के अध्येताओं ने यह लक्षित किया है कि वे शुरू में आदर्श प्रतिद्वंद्विता की बात को मानते थे, लेकिन बाद में आंशिक संतुलन को मानने लगे थे । ज्राफा के इस 'आंशिक ढांचे' को मान कर चलने के प्रस्ताव का तब अन्य लोगों पर काफी असर पड़ा था । इस विषय पर तीस के दशक में आगे हुई बहस में खास तौर पर जौन रौबिन्सन आदि इसे ही ले उड़े थे । लेकिन ज्राफा ने उस वक़्त की बहस में भाग नहीं लिया ।

बहरहाल, इस पूरे विषय को विस्तार से यहां रखने का एक ही मकसद है कि ज्राफा के अध्येताओं ने यह भी लक्षित किया था कि बाद की इस पूरी बहस में ज्राफा के हस्तक्षेप को केन्स ने अपने संपादकीय नोट में नकारात्मक और विध्वंसकारी आलोचना कहा । देखें — (1. Critical essays on Piero Sraffa's legacy in economics / edited by Heinz D. Kurz ;
Piero Sraffa's contributions to economics: a brief survey ; Heinz D. Kurz and Neri Salvadori , page – 6)

ज्राफा ने भी इसे राबर्टसन को दिये जवाब में माना था कि “मैं मार्शल की थ्योरी की मान्यताओं को देखने की कोशिश कर रहा हूं ; यदि राबर्टसन इसे अत्यंत गैर-यथार्थवादी मानते हैं तो मेरी उनके प्रति सहानुभूति है । लगता है कि हम इस बात पर सहमत है कि किसी थ्योरी की व्याख्या इस प्रकार से नहीं की जा सकती है जो उसे तार्किक लिहाज से पूरी तरह आत्म-संपूर्ण बना दे, और साथ ही जिन तथ्यों की उसे व्याख्या करनी है उनसे भी मेल बैठाती चले । श्रीमान राबर्टसन का निदान गणित को खारिज करने का निदान है और उनके अनुसार मेरा निदान तथ्यों को खारिज करने में हैं ; इस परिस्थिति में मेरा कहना है कि शायद मार्शल थ्योरी को ही खारिज कर दिया जाना चाहिए ।”
(I am trying to find what are the assumptions implicit in Marshall's theory; if MrRobertson regards them as extremely unreal, I sympathise with him. We seem tobe agreed that the theory cannot be interpreted in a way which makes it logically self-consistent and, at the same time, reconciles it with the facts it sets out toexplain. Mr Robertson's remedy is to discard mathematics, and he suggests that my remedy is to discard the facts; perhaps I ought to have explained that, in thecircumstances, I think it is Marshall's theory that should be discarded. ”) (वही, पृष्ठ – 8)

दरअसल एक राजनीतिक अर्थशास्त्री के तौर पर 1926 के अपने आलेख में ज्रा़फा के विश्लेषण का उद्देश्य “उत्पादन के विभिन्न चरणों में मुनाफ़े के बटवारे की प्रक्रिया और एक देश में सभी उद्योगों में मुनाफ़ों के सामान्य स्तर के क़ायम होने प्रक्रिया को समझना था ।” (देखें -1926, page -550 और Eatwell and Patrick 1987)

ज्रा़फा 1920 के दशक में (1927 में ) कैम्ब्रिज में लैक्चरर बने । यहाँ मूल्य के बारे में विकसित सिद्धांत पर उन्होंने जब अपने व्याख्यान दिये, तभी इस विषय पर मार्शल के निदान पर उनमें संदेह पैदा हो गया था । 1930 में वे मार्शल पुस्तकालय के लाइब्रेरियन बने और कैम्ब्रिज में उन्हें अर्थशास्त्र के स्नातक स्तर तक के पाठन का दायित्व दिया गया ।

कैम्ब्रिज में आने के बाद ही उन्होंने केन्स को अपनी उन प्रस्थापनाओं के बारे में बताया था जिनके आधार पर बाद में उनकी किताब ‘पण्यों के ज़रिये पण्यों का उत्पादन’ ( Production of Commodities by means of Commodities) आई थी । उन दिनों केन्स की पुस्तक ‘Treatise on Money’ और ‘General Theory of employees Interest and Money’ पर एक विवाद के छिड़ जाने से उनकी इस पांडुलिपि के प्रकाशन में विलंब हो गया । ज्रा़फा 1930 में Royal Economic Society के प्रकल्प के रूप में डेविड रेकार्डो के लेखन और पत्रों के एक संकलन, 'The works and correspondence of David Ricardo' के संपादन का काम संभाला, जिसकी चर्चा प्रभात पटनायक ने भी की है और जिसके लिये उन्हें 1961 में स्वीडिश रॉयल अकादमी का गोल्डेन मेडल मिला ।

बहरहाल, जब अक्तूबर 1930 में केन्स की ‘Treatise on Money’ पर अकादमिक दुनिया में विवाद पैदा हुआ तब ज्राफा ने कैम्ब्रिज में केन्स का जम कर समर्थन किया था और उस विवाद में ज्राफा के ज्ञान और पुख्ता तर्कों से उनकी अपनी एक अलग पहचान बनी थी । कैम्ब्रिज में तब केन्स के समर्थन में किये गये अर्थशास्त्रियों के सेमिनार को केन्स सर्कश के नाम से जाना जाता था जिसमें ज्राफा ने काफी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था । यद्यपि यह भी कहा जाता है कि तुनकमिजाज माने जाने वाले ज्राफा के मन में किताब लिखने के केन्स के तरीके के बारे में अच्छे विचार नहीं थे । खास तौर पर केन्स की ‘General Theory’ को लेकर उन्होंने अपने को उस सर्कश से अलग कर लिया ।

1931 में ‘Treatise’ की समीक्षा करते हुए फ्रेडरिख अगस्त वान हायेक की एक किताब आई — ‘Prices and Production’ (कीमतें और उत्पादन) । अपनी इस समीक्षा में हायेक ने औसत मांग की कमी के आधार पर आर्थिक संकट की व्याख्या करने से इंकार किया था । आर्थिक संकट को उन्होंने उत्पादन की गलत दिशा को दोषी बताया । बैंकें ब्याज की दरों को संतुलन की दर से कम रखती हैं । केन्स ने हायेक का जवाब देने की कोशिश की लेकिन कहीं न कहीं वे हायेक की बात के पीछे के तर्क को पकड़ने से चूक रहे थे । हायेक के तर्क जिन संतुलनकारी सिद्धांतों पर टिके हुए थे, उन Paretian general equilibrium theory और Bawerkian theory of capital and interest से वे परिचित नहीं थे । चूंकि ज्राफा अर्थशास्त्रीय चिंतन की उत्पादन में दक्षता (efficiency in production) से जुड़ी इन धाराओं से वाकिफ थे इसीलिये केन्स ने हायेक को उत्तर देने के लिये ज्राफा की मदद ली ।

इसी उपक्रम में सन् 1932 में ज्राफा की पुस्तक आई — Dr. Hayek on Money and Capital । हायेक ने भी इस प्रबंध का जवाब दिया था ।

इसी में यह बात सामने आई कि मुद्रा सिर्फ विनिमय का साधन नहीं होती, उसका अपना भी एक मूल्य होता है । जिस अर्थ-व्यवस्था में मुद्रा का गला घोटा जाता है, वह अर्थ-व्यवस्था मुद्राविहीन अर्थ-व्यवस्था की तरह का आचरण करने लगेगी, अर्थात वस्तुओं के आदान-प्रदान की बार्टर प्रणाली वाली व्यवस्था जैसी बन जायेगी । इसीलिये ज्राफा को लगा कि इसमें हायेक जरूर किसी न किसी एक चीज को देखने से चूक रहे हैं । ज्राफा ने  इसे हायेक के स्वैच्छिक संचय (voluntary savings) और जबरिया संचय (forced savings) के संदर्भ में देखने की कोशिश की । स्वैच्छिक संचय अर्थात भविष्य के लिये वर्तमान से समझौता । श्रम की स्थिर परिस्थिति और तकनीक में लगातार विकास से जिसमें पूंजीवादी उत्पादन का चक्का तेजी से घूमता है, प्रति व्यक्ति खपत का बढ़ना अनिवार्य है । इससे उसी अनुपात में सकल आमदनी खपत और मशीनों में लगेगी । अर्थात् सकल बचत प्रभावित होगी । ऐसे में जब तक नया और स्थायी संतुलन (equilibrium) कायम नहीं हो जाता तब तक के संक्रमण के काल में ही सिर्फ शुद्ध बचत में वृद्धि होगी ।

हेंस द क्रुज और नेरी सल्वाडोरी ने अपने उपरोक्त लेख में यह बताया है कि ज्राफा हायेक की जिस बात की ओर इशारा कर रहे थे, हायेक के लिये वह विचार का विषय ही नहीं था । उनकी समझ थी कि संतुलनकारी दर से नीचे ब्याज की दरों को तय करने पर उत्पादकों अथवा उपभोक्ताओं पर कर्ज बढ़ता है और इससे उत्पादन के औसत काल लंबा खिंचने में उत्पादक को लाभ होता है । इसमें किसी भी प्रकार से श्रमिक की खपत को नियंत्रित करने, अर्थात् जबरिया बचत की भूमिका होती है । उपभोक्ता के कर्ज में वृद्धि की मुद्रास्फीति से पूंजी का संकुचन होता है और प्रति व्यक्ति खपत में गिरावट आती है । इसमें अन्ततः आमदनियां बढ़ेगी और चूंकि उपभोक्ता की पसंद में कोई बदलाव नहीं आता है तो खपत की मांग बढ़ेगी, उपभोक्ता सामग्रियों की कीमतें बढ़ेगी, अर्थात् पूंजी के चक्र का कम घूमना लाभदायी हो जाता है । इससे पूंजी की प्रक्रिया में घट-बढ़ की प्रक्रिया से एक आर्थिक संकट का रूप सामने आता है । बैंकें अन्ततः अपनी भूल को सुधार लेती है, इस अनुमान पर एक महंगी यात्रा करके व्यवस्था फिर अपने मूल संतुलन पर लौट आता है ।
इस प्रकार एक नया संतुलन कायम होता है । दिलचस्प है कि हायेक के मत में उत्पादक को कर्ज के रूप में मुद्रास्फीति के 'कृत्रिम उत्प्रेरक' से जहां कोई लाभ नहीं होगा वहीं उपभोक्ता के कर्ज के रूप में इस उत्प्रेरक से नुकसान होगा क्योंकि उससे बचत के प्रभाव को रोका जाता है । उपभोक्ताओं के कर्ज के रूप में मुद्रास्फीति वस्तुतः पूंजी को कम करेगी और पूरी व्यवस्था के एक ऐसे नये संतुलन की ओर ठेल देगी जिसमें प्रति व्यक्ति खपत कमतर होगी ।

ज्राफा हायेक के इस सिद्धांत में नियंत्रित मुद्रा की अर्थ-व्यवस्था की गति-प्रकृति को तय करने में एक भूमिका को देखते हैं । इसके विपरीत ज्राफा ब्याज की दर और संतुलनकारी दर की जगह मुद्रा अर्थव्यवस्था की विशेषता के तौर पर एक नई अवधारणा पेश करते हैं — ब्याज की अपनी दर (own rate of interest) की अवधारणा ।

बहरहाल, ज्राफा की इस भूमिका से केन्स उन पर बहुत खुश हुए थे । इससे कहते हैं कि उनकी General Theory के प्रकाशन के रास्ते की बाधा खत्म हो गई । केन्स ने ज्राफा की 'ब्याज की अपनी दर' की अवधारणा की यह कह कर तरफदारी की कि यह अपने पास नगदी रखने न रखने की इच्छा (liquidity preference) पर निर्भर है । ज्राफा केन्स की इस दलील से खुश नहीं थे ।(वही, पृ : 10) उनकी नजर में किसी चीज को अपने पास रखने से मिलने वाले लाभ का 'own particular rate of interest' से कोई संबंध नहीं है । यदि कीमत में कोई बदलाव न हो तो प्रत्येक पण्य पर ब्याज की दर समान ही लागू होगी ।

1940 के दशक में रॉयल इकोनोमिक सोसाइटी के तत्वावधान में रेकार्डों के लेखन और पत्रों का संकलन प्रकाशित हुआ जिसे 1961 में स्वीडिश रॉयल अकादमी के गोल्ड मेडल सोडरस्ट्रौम मिला जिसका प्रभात ने भी अपने लेख में उल्लेख किया है । इस संकलन की भूमिका में ज्राफा ने आल्फ्रेड मार्शल की मूल्य की क्लासिकल थ्योरी से रेकार्डो के आधार पर अपने मतभेद जाहिर किये थे ।

ज्राफा के बारे में इन तमाम बातों को रखने का एक ही मतलब है कि उनसे पता चलता है कि वे मूलतः एक अर्थशास्त्री थे । उन्होंने पूरा जीवन एक अध्यापक के रूप में काटा । उनके सार्वजनिक राजनीतिक जीवन की कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है । इसीलिये यदि वे ग्राम्शी से अपने संपर्कों के नाते कम्युनिस्ट राजनीति के आइकन हो सकते है तो उन नींव के पत्थरों की तरह काम करने वाले लोगों को पेश करने वाले आइकन, जिनके राजनीतिक योगदान का प्रकट रूप से कभी मूल्यांकन नहीं किया जाता है ।

अब हम आते है, पश्चिम बंगाल के कामरेड हरेकृष्ण कोनार के बारे में । कोनार हमारी अपनी निजी स्मितियों के जीवंत हिस्से है । 1964 में सीपीआई से टूट कर सीपीआई(एम) के गठन के बाद जिन तीन नेताओं के नाम से सीपीएम को जाना जाता था उनमें ज्योति बसु, प्रमोद दाशगुप्त के अलावा तीसरा नाम हरेकृष्ण कोनार का ही था । जनता के बीच उनकी लोकप्रियता ज्योति बसु से कम नहीं थी । आम सभाओं में हमेशा एक घंटा से ज्यादा बोलने वाले कामरेड कोनार के भाषणों की ख्याति ऐसी थी कि बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार समरेश बसु ने एक जगह लिखा है कि घरों की औरतें अपनी रसोई का काम उस दिन शाम के पहले ही पूरा कर लिया करती थी जिस दिन उनके इलाके में हरेकृष्ण कोनार का भाषण होने वाला होता था ।

पश्चिम बंगाल में 1967 में जब पहली संयुक्त मोर्चा सरकार बनी थी तभी कोनार उसमें भूमि और भूमि राजस्व मंत्री हुए थे और 1969 की दूसरी संयुक्त मोर्चा सरकार में भी वे उसी विभाग के मंत्री रहे । अपने मंत्रित्व के छोटे से काल में उन्होंने बंगाल के कृषि क्षेत्र पर कितनी गहरी छाप छोड़ी थी इसे हम यहां तत्कालीन सरकारी अधिकारी देवव्रत बंदोपाध्याय के उस लेख के जरिये देना चाहेंगे जो उन्होंने पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार के संदर्भ में ‘इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के 27 मई 2000 के अंक में लिखा था और जिसमें मूलतः हरेकृष्ण कोनार और विनय चौधुरी का स्मरण किया गया था। देवव्रत बंदोपाध्याय को हरेकृष्ण कोनार ने लैंड रेकर्ड एंड सर्वेज का निदेशक नियुक्त किया था। बाद में पहली वाम मोर्चा सरकार के समय जब विनयकृष्ण चैधरी भूमि और भूमि सुधार मंत्री बनें तब उन्होंने देवव्रत बंदोपाध्याय को केंद्र सरकार से बुला कर भूमि सुधार आयुक्त बनाया और राज्य में भूमि सुधार के कामों की मुख्य जिम्मेदारी प्रशासनिक स्तर पर उन्हें सौंपी गयी। श्री बंदोपाध्याय ने अपने इस लेख का प्रारंभ ही इन पंक्तियों से किया हैः
”इतिहास का यह एक अनूठा व्यंग्य ही है कि पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार के दो चरणों के प्रत्येक चरण में एक-एक दृढ़प्रतिज्ञ नेता उसे दिषा देने और उसका नेतृत्व करने के लिये उपस्थित था। एक थे हरेकृष्ण कोनार और दूसरे थे विनय चौधुरी। कोई भी दूसरे दो व्यक्ति कुछ मायनों में इतने एक जैसे नहीं हो सकते है और कुछ मायनों में एक दूसरे से इतने भिन्न जितने   हरेकृष्ण कोनार और विनय चौधुरी थे। दोनों अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध, ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद के सिद्धांतों के प्रति गहरी आस्था रखने वाले, निजी जीवन में निस्पृह और काम के प्रति निष्ठावान व्यक्ति थे। व्यक्तित्व के लिहाज से कोनार जैसे किसी अंधड़ की तरह - चक्रावात की तरह - थे, जो अपने रास्ते की किसी भी बाधा को न स्वीकारते हुए समूचे विरोध के बीच से अपना रास्ता बना लेते थे। वे एक दृढ़ क्रांतिकारी थे जिसने कार्यनीतिगत कारणों से अस्थायी रूप में संसदीय रास्ते को अपनाया था। ... कोनार का आतंकित करने वाला तेवर साठ के दशक के अंतिम वर्षों में पश्चिम बंगाल के समाज और राजनीति पर भूपतियों की जकड़बंदी को तोड़ने तथा प्रशासन की जड़ता को खत्म करने के लिये जरूरी था।

23 जुलाई 1974 के दिन कामरेड कोनार की मृत्यु होगयी।
का. कोनार की कार्य-पद्धति के बारे में टिप्पणी करते हुए देवव्रत बंदोपाध्याय ने लिखा है: “ यद्यपि संयुक्त मोर्चा मतदाताओं के भारी समर्थन के साथ सत्ता में आया था, तथापि उसे भारतीय संविधान, स्थापित मूलभूत कानूनों, सरकारी कार्रवाई के बारे में न्यायपालिका की राय तथा चली आरही कानूनी और प्रशासनिक विधियों और व्यवहारों के कड़े मानदंडों की सीमा में सख्ती के साथ काम करना था। किसी भी स्थापित मानदंड पर खतरे का अर्थ था ऐसी केंद्रीय सरकार द्वारा तत्काल भंग कर दिया जाना जो दोस्ताना कत्तई नहीं थी।”

श्री बंदोपाध्याय लिखते हैं कि हरेकृष्ण कोनार ने दूसरों के खिलाफ तय किये गये नियमों के प्रयोग से ही उन्हें परास्त करने की कुसाग्रता का परिचय दिया। भारत के संविधान में संगठन बनाने और शांतिपूर्ण सभा-समावेश करने का मूलभूत अधिकार दिया हुआ था। इसके अलावा भारत के साक्ष्य कानून के अनुसार किसी भी दस्तावेजी प्रमाण को भारी मात्रा में मौखिक सबूत की ताकत के आधार पर खारिज किया जा सकता है ; भारत के फौजदारी कानून की धारा 110 में यह व्यवस्था है कि किसी भी व्यक्ति को जो बुरा आचरण करता है, उसे सही रास्ते पर लाने के लिये उस पर जनता का दबाव पैदा किया जा सकता है। इसमें ऐसा कही भी नहीं कहा गया है कि फौजदारी कानून की धाराओं का प्रयोग सिर्फ किसानों और मजदूरों के खिलाफ ही किया जा सकता है। यदि किसी भी स्थान पर खेतिहर मजदूर और बंटाईदार किसी भी उद्देश्य से शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठे होते हैं और जमींदारों द्वारा शांति में खलल पैदा की जाती है तो वैसी स्थिति में शांति को बनाये रखने के लिये फौजदारी कानून जमींदारों पर लागू होगा। कानून के इन सभी प्राविधानों को मिला कर ही व्यापक जनता की हिस्सेदारी के जरिये  कानूनी भूमि सुधार का का.कोनार का वह फार्मूला तैयार हुआ था जिस पर पहली संयुक्त मोर्चा सरकार के काल से शुरू हुए अमल ने पश्चिम बंगाल के गांवों में एक तूफान ला दिया। श्री बंदोपाध्याय ने कोनार के इस नुस्खे को ”एक साधारण, सख्त और उतना ही अभिनव“ बताया है।

श्री बंदोपाध्याय लिखते हैं कि कोनार ने किसानों द्वारा किसी की भी निजी संपत्ति पर जबरिया कब्जे की किसी भी नीति को कभी स्वीकृति नहीं दी, जबकि हर जगह जमींदार ‘बेनामी जमीन’ रखे हुए थे। वे जानते थे कि किसान प्रकृति से ही संरक्षणवादी होता है। उसकी मानसिकता में किसी की निजी संपत्ति को छूना पाप था। शोषण की प्रक्रिया में अपनी जमीन गंवा देने पर भी वे उस जमीन को अपनी निजी संपत्ति नहीं मानते थे। गैर-कानूनी तरीके से हथियाई गयी जमीन पर भी गैर-कानूनी ढंग से कब्जा करने को वे पाप और अनैतिक मानते थे। इसीलिये बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में यदि कोई उन्हें बेदखल करेगा तो उनमें अपने अधिकारों के लिये लड़ने का साहस और संकल्प नहीं होगा। इसे समझते हुए ही कोनार ने अतिरिक्त जमीन को सरकार के कब्जे में लेने का कानूनी तरीका अपनाया। जमीन जब सरकारी होगयी तो फिर उसका क्या होगा, यह सरकार की नीति से जुड़ा मसला है, इसमें किसी की निजी संपत्ति के अधिकार का मामला नहीं आता है। इसप्रकार एक क्रांतिकारी किंतु प्रकृत यथार्थवादी कोनार ने पश्चिम बंगाल में मूलभूत भूमि सुधार का अपना रास्ता तैयार किया।

अब रहा मामला तथ्यों को जानने का कि कितनी जमीन बेनामी और किस प्रकार से रखी हुई है और उसे किस प्रकार कब्जे में लेकर भूमिहीनों के बीच बांटा जाए। इसके लिये का. कोनार ने अपने विभाग को कुछ ठोस मामलों के अध्ययन के काम में लगाया। उनसे इस बारे में गहराई से जांच करने के लिये कहा गया कि गुप्त ढंग से किस प्रकार हदबंदी से अधिक जमीन को रखा गया है और कैसे जमींदारों से यह जमीन कानूनी ढंग से हासिल की जा सकती है। मंत्री के इस निर्देश पर 1967 में ही एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी जिसका शीर्षक था: ” पश्चिम बंगाल में भू हदबंदी के उल्लंघन पर एक प्रतिवेदन“। इस पुस्तिका में किये गये विश्लेषण से समूची अतिरिक्त जमीन को सरकार के हाथ में लेने का आगे का जो तरीका उभर का सामने आया, वह श्री बंदोपाध्याय के अनुसार इस प्रकार था:
1. भू-हदबंदी से अतिरिक्त जमीन रखने वाले परिवारों या संदिग्ध परिवारों की सिनाख्त करना;
2. इन प्रत्येक परिवार के पास वास्तव अर्थ में जो जमीन है उसकी सिनाख्त करना और वे किस प्रकार के फर्जी कागजातों के जरिये उन्हें बेनामी करके रखे हैं, इसे खोजना;
3. उपयुक्त सबूतों को जुटा कर सभी अतिरिक्त जमीन पर सरकार का कब्जा करने के लिये अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया को शुरू करना ताकि वे सबूत ऊंचे स्तर के प्रशासनिक पंचाटों अथवा कानूनी अदालतों में टिक सके;
4. अर्ध-न्यायिक प्रक्रिया के उपरांत सरकार द्वारा ले ली गयी जमीन पर कब्जा करना;
5. इस जमीन को कानून के अनुसार अथवा निर्धारित प्राथमिकता के अनुसार भूमिहीनों या गरीब किसानों के बीच बांटना;
6. पट्टे पर दी गयी ऐसी जमीन पर से गैर-कानूनी बेदखली को रोकने के लिये एक तरीका अपनाना;
7. पट्टे पर जमीन पाने वाले साधनविहीन किसानों को महाजनों के फंदे से बचाने के लिये कुछ ऋण वगैरह मुहैय्या करवाना।

उपरोक्त समूचे विवरण से जाहिर है कि बेनामी और अतिरिक्त जमीन के बारे में सही जानकारी के सबसे प्रामाणिक श्रोत स्थानीय खेत मजदूरों, बंटाईदारों और रैयतों के अलावा और कोई नहीं हो सकते थे, जो उन जमीनों की जुताई का काम किया करते थे। यही पर पश्चिम बंगाल में किसानों के सबसे बड़े संगठन किसान सभा की भूमिका प्रमुख होगयी। अतिरिक्त और बेनामी जमीन के बारे में सारे तथ्यों को जुटाने के काम में कामरेड कोनार ने किसान सभा को उतार दिया। सरकारी तंत्र द्वारा जमींदारों के फर्जी कागजातों की तुलना में खेत मजदूरों के मौखिक सबूतों को तरजीह दी जाने लगी। यह पूरी तरह से कानूनी था। यह देख कर जमींदारों के हौसले पस्त होने लगे। वे यह विश्वास ही नहीं कर सकते थे कि पुश्त दर पुश्त उनकी हाजिरी बजाने वाले खेत मजदूर और बंटाईदार इतना साहस जुटा लेंगे कि अदालत में खड़े हो कर उन्हीं के खिलाफ गवाही देने लगेंगे। इस दौर में किसान सभा के आंदोलन ने सदियों से दबे-कुचले लोगों को सिर उठा कर खड़े होने और सच पर अडिग रहने का अनोखा साहस प्रदान किया। इसप्रकार जो चीज एक चिंगारी के रूप में शुरू हुई थी, उसने देखते ही देखते पूरे पश्चिम बंगाल में जैसे एक दावानल का रूप ले लिया। हर रोज संगठित किसान आंदोलन की ओर से और स्वतःस्फूर्त ढंग से किसानों की ओर से भारी मात्रा में बेनामी जमीन के साक्ष्य पेश किये जाने लगे और देखते ही देखते, तीन साल से भी कम अवधि में पूरी तरह से कानूनी पद्धति का पालन करते हुए 10 लाख एकड़ अतिरिक्त जमीन सरकार के हाथ में आगयी जिसे बाद में कानून की अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकी। अकेली इस प्रक्रिया ने पश्चिम बंगाल में सामंती शक्तियों के आर्थिक और सामाजिक प्रभुत्व की रीढ़ को तोड़ दिया।

गांवों के शक्ति-संतुलन को बदलने के एक और चरण में किसान सभा ने ऐतिहासिक भूमिका अदा की और वह थी, सरकार द्वारा जमींदारों से हथियाई गयी जमीन को भूमिहीनों के बीच वितरण के मामले में। किसान सभा के झंडे तले भूमिहीनों को भूमि दिये जाने से अन्य राजनीतिक ताकतों के साथ ही एक सबसे करारा झटका नक्सलवादियों की तरह के अराजकतावादियों को लगा जो किसानों के संगठित आंदोलन के बजाय उन्हें अराजकतावाद की दिशा में ढकेल देना चाहते थे। संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा जमीन दिये जाने की इस पहलकदमी ने गांवों में वामपंथी आंदोलन और किसान सभा की जड़ों को बेहद मजबूत कर दिया । जो नक्सलपंथी उन दिनों इस भूमि सुधार को एक छल और धोखा बताया करते थे, उनके ही नेता चारु मजुमदार की लगभग 12 एकड़ अतिरिक्त जमीन को सरकार ने कब्जे में ले लिया था । तब चारु मजुमदार की पत्नी ने सरकार को पत्र लिखा था कि किस प्रकार भ्रष्ट नौकरशाही उनसे उनकी आमदनी के इस अकेले साधन को भी छीन ले रही है।

कहना न होगा इसके साथ ही बंगाल के गांवों में नक्सलियों का आधार समाप्त होगया और वे शहरी आतंकवादियों के अलावा और कुछ नहीं रह गये।

यह थी कामरेड हरेकृष्ण कोनार की पश्चिम बंगाल में हुए भूमि सुधार में भूमिका की एक अनोखी कहानी । कोनार सचमुच अपने जीवित काल में ही बंगाल में कींवदंती का रूप ले चुके थे । बंगाल में वामपंथी आंदोलन का कोई अध्येता हरेकृष्ण कोनार को न जाने, यह हमारे लिये एक अचरज की बात है । यह सच है कि कोनार की मृत्यु 1974 में ही हो गई थी । इसके तीन साल बाद 1977 में पश्चिम बंगाल में पहली वाम मोर्चा सरकार का गठन हुआ ।

उपरोक्त इन विस्तृत ब्यौरों से कम से कम इतना तो साफ है कि प्रभात पटनायक ने विस्मृत आइकन के उदाहरण के तौर पर जिन दो व्यक्तित्वों का जिक्र किया है, उनमें वास्तव में आपस में कोई समानता नहीं रही है । एक शुद्ध रूप से अध्यापक थे और दूसरा अत्यंत लोकप्रिय जन-नेता । वैसे आइकन्स का दायरा उतना ही विस्तृत होता है जितना विस्तृत है जीवन के असंख्य रूप । इसीलिये उनके विस्मरण के विषय पर किसी भी क्षेत्र के आइकन की बात को लेकर चर्चा की जा सकती है । लेकिन जहां तक ज्राफा का संबंध है, वे अर्थशास्त्र के अध्यापक थे और अर्थशास्त्र की दुनिया में अगर उनकी कोई ख्याति है तो 'केन्स सर्कश' के एक सक्रिय और बुद्धिमान सदस्य के रूप में ही ज्यादा है । रेकार्डों के लेखन के संकलन के उनके संपादन का भी बेहद सम्मान किया जाता है । निश्चित तौर पर एक श्रेष्ठ अध्यापक और शोधकर्ता के रूप में वे अपने समय में अर्थशास्त्र के विद्यार्थियों के लिये एक आइकन रहे हैं । अर्थशास्त्र के विद्यार्थी उनके कामों का आज भी काफी गंभीरता से अध्ययन करते हैं । जहां तक हरेकृष्ण कोनार का सवाल है, बंगाल में कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में उनका विशेष स्थान हमेशा सुरक्षित रहेगा । उनका व्यक्तित्व उनके समय के आगे भी बेहद प्रासंगिक रहा है । 1977 में वाममोर्चा सरकार के बनने के बाद 34 सालों के शासन में भूमि-सुधार, और पंचायती राज का जो सबसे महत्वपूर्ण काम हुआ, उस पूरे काम के साथ कोनार का नाम अभिन्न रूप से जुड़ा रहा है । जहां तक नये युग के नये आइकन का सवाल है, यह सच है कि हर युग के द्वंद्व उसके अपने ही आइकन्स के जरिये मूर्त होते हैं ।


शुक्रवार, 17 मई 2019

नमूना चरित्रों से यथार्थ के समग्र आकलन की समस्या

-अरुण माहेश्वरी

आज के ‘टेलिग्राफ’ में वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने वाराणसी के एक मोदी भक्त (converted) दुर्गेश जयसवाल के मनोविज्ञान का चित्रण किया है । वह भक्त है, क्योंकि अपने विश्वास पर अटल, और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है । वह जानता है कि उसके नज़रिये में दोष है, लेकिन इसे मान ले, यह नामुमकिन है ।
संकर्षण के अनुसार उसका मानना है कि वह पाकिस्तान में रह रहा है । वाराणसी में उसके घर मोहल्ले का ठिकाना देने के बाद संकर्षण कहते है कि उसके दिमाग में इस ठिकाने का एक ही अर्थ है- पाकिस्तान । हिंदुओं के धर्म-कर्म की प्रमुख भूमि वाराणसी दुर्गेश के लिये पाकिस्तान है, अथवा पाकिस्तानियों से भरी हुई है । “हम लोग अपने ही देश में घिर गये हैं, साँस नहीं ले सकते । इससे बचने के लिये मोदी जी का होना बहुत ज़रूरी है, और वह कुछ करें, नहीं करें, इससे कोई मतलब नहीं ।”

संकर्षण लिखते हैं कि यह बिल्कुल संभव है कि बेरोज़गार नौजवान दुर्गेश सचमुच ऐसा ही महसूस कर रहा हो - अपने घर में घुट रहा हो । उसका इलाका गंगा किनारे का सघन इलाक़ा है । इसमें बड़ी आबादी मुसलमानों की है । “कैसे कोई उनके साथ सहज रह सकता है । दम घुटता है, यह नहीं चल सकता । भारत हमारा देश है और हम पाकिस्तान में रह रहे हैं ।”
दुर्गेश का कज्जाकपुरा का इलाक़ा क्या और क्यों है, इससे उसको कोई मतलब नहीं है । वह जो मानता है वही ध्रुव सत्य है । पूरा देश यही है । “पूरा इंडिया ही पाकिस्तान से भरा हुआ है, और इसके लिये मोदी जी चाहिए । सत्तर साल में एक काम नहीं हुआ था, वह काम मोदी जी ने किया ।” वह एक काम क्या हुआ, इसे वह बताने की ज़रूरत नहीं समझता, हर कोई जानता है । उसका इशारा भारत की सबसे बड़ी अल्पसंख्यकों की आबादी को अलग-थलग करने, उसे अवांछित और त्याज्य, बल्कि दुश्मन बताने की ओर था ।

संकर्षण लिखते हैं कि दुर्गेशयहीं पर नहीं रुकता । उन्हें ‘अन्य’ बताना तो पहला क़दम है । यह यहीं पर ख़त्म नहीं होता । इसे आगे ले जाना है । “ हम लोग कुचले जा रहे हैं अपने ही देश में, अभी ग़ुलाम है, इसका कुछ करना होगा । इसीलिये मोदीजी की अभी ज़रूरत है ।

संकर्षण लिखते हैं कि उसके इस जुनून को ही आप मोदी की सबसे प्रभावशाली सर्जिकल स्ट्राइक कह सकते हैं । उन्होंने भारत के बहुसंख्यकों के एक बड़े हिस्से में एक गहरी अल्पसंख्यक ग्रंथी को पैदा कर दिया है । यह प्रकल्प दुर्गेश के पैदा होने के पहले ही शुरू हो गया था, लेकिन यह विषाणु काफ़ी फैल गया है । इससे लोगों के मन-मस्तिष्क में गुस्सा, संदेह, घृणा, हताशा, प्रताड़ना का भाव उमड़ता-घुमड़ता रहता है ।

संकर्षण कहते हैं कि देखने में तो वह एक सामान्य आदमी लगता है । उसके सिर पर सिंग नहीं है । वह मैगी नूडल्स पसंद करता है, बाइक पर घूमता है, पीछे लड़की को बैठाने से परहेज़ नहीं करता । एक दिन में अपने फ़ोन पर 1.5 जीबी डाटा की खपत करता है । प्यारी सी मुस्कान भी देता है । आईसीसी क्रिकेट का दीवाना है । बीच में अपने को सपा का सदस्य भी कहता है ।

सपा, जो मुसलमानों को अपना वोट बैंक मानती है ? दुर्गेश कहता है - “सपा के साथ वही एक समस्या है, नहीं तो हमको कोई परेशानी नहीं है । मेरी पसंद की पार्टी वही है । लेकिन मोदी इन सबके ऊपर है । वे ज़रूरी है ।”

दुर्गेश के बारे में संकर्षण के इस पूरे ब्यौरे से यह साफ़ है कि वह बाक़ी जीवन में कितना ही सामान्य क्यों न दिखाई देता हो, वास्तव में वह एक जुनूनियत के मनोरोग का शिकार हो चुका है । वह अल्पसंख्यकों के ख़ात्मे तक कल्पना करता है । अर्थात् प्रज्ञा ठाकुर की तरह के आतंकवादी की भूमिका में कत्तई असहज नहीं है ।

ऐसे एक मनोरोगी के उदाहरण से संकर्षण इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा कमोबेस ऐसा ही हो गया है, अर्थात् मनोरोगी । इसीलिये न उस पर बेरोज़गारी के सवाल का कोई असर पड़ रहा है और न ही राफ़ेल और ‘चौकीदार चोर है’ के नारे का ।

इसे ही कहते है, प्रस्तुतीकरण से उत्पन्न समस्या ।यथार्थ हमेशा बहुरूपी, बहुआयामी होता है । उसके जिस रूप को आप प्रस्तुत करेंगे, वैसा निष्कर्ष निकाल लेंगे ।

दुर्गेश अपने को सपा समर्थक कहता है, लेकिन मोदी भक्त । उसके चरित्र का यह द्वैत, उसके अंदर की यह दरार हमें बहुत कुछ ऐसा कहती है, जिसे संकर्षण जैसे पत्रकार नहीं सुन पाते है । यही वह दरार है जिसमें से बेरोज़गारी, चौकीदार चोर है और न्याय की तरह के विषय चरित्र में प्रवेश करते हैं और उसकी कथित भक्ति की एकान्विति को चूर-चूर कर देते हैं ।

हो सकता है कि दुर्गेश का मामला कुछ ज़्यादा ही बिगड़ चुका मामला हो, लेकिन यह मामला बहुमत के लोगों का नहीं है । दुर्गेश की तरह ही उनके अंदर भी जीवन की समस्याओं के विषयों का स्थान है और वे अपने पर लदे हुए सांप्रदायिक प्रचार को झाड़ कर उन्हें तरजीह देते हैं । इसके प्रमाण के लिये नमूना सर्वेक्षण नहीं, पिछले दिनों हुए राज्यों के चुनाव और उपचुनाव को देखना ज़्यादा भरोसेमंद होगा । यहीं पर आकर आँकड़े एक नमूना चरित्र के प्रस्तुतीकरण की एकांगिता की समस्या की तुलना में कहीं ज़्यादा बड़े यथार्थ को सामने लाते हैं ।

यहाँ पूरा मामला परिस्थिति-निर्भर है । कल चुनाव के परिदृश्य पर एक शुद्ध दार्शनिक चर्चा में हम प्रस्तुति और परिस्थिति के इसी विषय की चर्चा कर रहे थे । जर्मनी में हिटलर एक खास विश्व परिस्थिति में एक बड़ी आबादी को यहूदी-विरोध और विश्व-विजय के उन्माद से भरने में सफल हुआ था । उसके बाद से ये प्रवृत्तियाँ आतंकवाद की अनेक सूरतों में दुनिया में सामने आती रही है, लेकिन जनतंत्र के अंदर से किसी दूसरे हिटलर के जन्म की गुंजाइश नहीं बनी है । आतंकवाद हर समाज में हमेशा कुछ सिरफिरों को ही प्रभावित कर पाया है जो अंतत: समाज में अल्पमत के साबित हुए हैं ।

मोदी का उभार भी बहुमत के मतों से नहीं हुआ है ।

इसीलिये दुर्गेश मोदी के दुष्प्रचार का शिकार बने एक मनोरोगी चरित्र को तो जरूर पेश करता है, लेकिन वह समाज का बहुमत नहीं है । संकर्षण का यह आकलन कि जीवन की समस्याओं को उठाने वाले पहलू भारत के ग़रीबों को प्रभावित नहीं कर रहे हैं, एक पूरी तरह से आत्मनिष्ठ निष्कर्ष है ।

यहाँ हम संकर्षण ठाकुर की इस रिपोर्ट के लिंक को दे रहे है :


https://epaper.telegraphindia.com/imageview_270595_1613821_4_71_18-05-2019_4_i_1_sf.html

चुनावी परिदृश्य पर एक शुद्ध दार्शनिक चर्चा ; परिस्थिति के जीवंत भेदाभेदमूलक स्वरूप में मोदी का कोई स्थान संभव नहीं है

-अरुण माहेश्वरी


जब से 2019 के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई, जीत के लक्ष्य को पाने के लिये सभी प्रतिद्वंद्वी शक्तियों के बीच परिदृश्य में व्याप्त भेदों में प्रवेश कर अपने प्रकार से उन्हें साधने की एक प्रक्रिया शुरू हो गई । इसे आजकल की चालू शब्दावली में कुछ हद तक सोशल इंजीनियरिंग भी कहते हैं, क्योंकि भारतीय परिदृश्य की संरचना में जातियाँ एक महत्वपूर्ण उपस्थिति मानी जाती है । हेगेल-मार्क्स की पदावली में परिस्थिति के द्वंद्वात्मकता और भारतीय तंत्रशास्त्र में भेद में एक अभेद का प्रवेश ;  भेदों को एक दिशा में साधने के लिये ही उसमें जीत के एक परम लक्ष्य की भूमिका ।

मगर सच्चाई यह है कि कोई भी परम, अर्थात इतिहास में एक खास वक़्त की ऐतिहासिक परिणति या अभेद इस प्रक्रिया में कभी भी पूरी तरह से ठोस रूप में मौजूद नहीं होता है, वह एक दिशा या लक्ष्य ही होता है । इस प्रक्रिया में उसका अस्तित्व सिर्फ क्रियात्मक (operational) होता है । और अंत तक भी, चूँकि इतिहास की प्रक्रिया का कोई अंत नहीं होता, यह परम सत्य द्वंद्वात्मकता के, भेद में प्रविष्ट अभेद से भेदाभेद के तरल सत्य में ही निहित होता है, अलग से इसकी कोई ठोस सत्ता नहीं होती ।

इस प्रक्रिया के बारे में आज के काल के प्रमुख दार्शनिक एलेन बाद्यू अपनी भाषा में प्राणीसत्ता के संदर्भ में One (अभेद) और Multiplicity (भेद) की व्याख्या करते हुए लिबनिज के एक सूत्र - ‘What is not a being is not a being’ की तर्ज़ पर कहते हैं कि “ For if being is one, then one must posit that what is not one, the multiple, is not.” ( क्योंकि यदि कोई प्राणीसत्ता अभेद है तो जो अभेद नहीं है, अर्थात् भेद, वह वह नहीं है) ।

इसी संदर्भ में वे कहते है कि हर चीज को उसके प्रस्तुतीकरण से जाना जाता है । और जब एक ही चीज को अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है, तब सवाल उठता है कि क्या किसी एक प्रस्तुतीकरण को वस्तु की प्राणी सत्ता मानने का कोई तुक है ? बल्कि यदि वस्तु का कोई प्रस्तुतीकरण होता है तो यह मान कर चलना होगा कि उसके एक नहीं, अनेक स्वरूप हैं । इसके अलावा जो कुछ सामने है, उसके बाहर भी तो उसमें बहुत कुछ ऐसा होता है जो तब तक सामने नहीं आया है ।

इस प्रकार बाद्यू के शब्दों में हम एक ऐसी जगह पहुँच जाते हैं जहाँ किसी को भी एक और अनेक, अभेद और भेद की वे सारी बातें जिनमें दर्शनशास्त्र का जन्म होता है और जिनमें वह मुब्तिला रहता है, कोरी बकवास लगने लगेगी ।

इसी चर्चा में बाद्यु कहते हैं कि इससे हम इसके अलावा किसी दूसरे नतीजे पर नहीं पहुँच सकते हैं कि - एक (अभेद) कुछ नहीं होता है । ( The decision can take no other form than following : the one is not.)

फिर भी वे मानते हैं कि इसका तात्पर्य यह नहीं है कि (अभिनवगुप्त से लेकर ) मनोविश्लेषक लकान जब चित्त (symbolic) के संदर्भ में कहते हैं कि उसकी एकात्मकता (Oneness) होती है अर्थात् उसमें अभेद होता है, वह गलत है । इसमें सारा मुद्दा एक प्राणी सत्ता के बारे में पूर्व-धारणाओं (जिनसे मुक्त होना होता है) के एक निश्चित रूप (one) और ‘उसके मौजूदा रूप’ ( there is) की धारणा के बीच के फ़र्क़ को पकड़ने पर टिक जाती है । जो अभी नहीं है, वह क्या हो सकता था ? सही कहा जाए तो किसी मौजूदा रूप की बात में ही उसके एक निश्चित रूप की, एकात्मता को मानने की बात भी शामिल है ।

इसी बिंदु पर बाद्यु यह ऐलान करते हैं कि एकात्मता (one) (अभेद), जो नहीं है, पूरी तरह से क्रियाशीलता के रूप में मौजूद रहती है । (solely exists as operation) । दूसरे शब्दों में, जिसे एक कहते है वह कुछ नहीं है, एक सिर्फ एक गिनती है । तब सवाल है कि क्या भेद या अनेकता भी कुछ नहीं है ? इस पर बाद्यू कहते हैं कि हाँ, कोई भी प्राणीसत्ता उसके प्रस्तुतीकरण से ही भेदमूलक होती है ।

इसीलिये, निष्कर्षत: वे कहते हैं कि भेदमूलकता प्रस्तुतीकरण से जुड़ा विषय है ; एक अथवा अभेद, इस प्रस्तुतीकरण के संदर्भ में, क्रियात्मकता है ; प्राणीसत्ता (आत्म) की प्रस्तुति है । वह न एक है (क्योंकि खुद प्रस्तुति का ही एक की गिनती में होना मुनासिब नहीं है) , न अनेक ( क्योंकि अनेकता अर्थात् भेद पूरी तरह से प्रस्तुति का विषय है ) ।

इस प्रकार जो सामने हैं उसे परिस्थिति कहा जा सकता है, भेद की प्रस्तुति । हर परिस्थिति अपने में एक अभेदमूलक क्रियात्मक तत्व को ग्रहण करती है । यही किसी भी परिस्थिति के विन्यास की सबसे साधारण परिभाषा है ; इसी से एक अभेद के तहत भेदमूलकता का स्वरूप बनता है ।

परिस्थिति के विन्यास के इसी स्वरूप को व्यक्त करने के लिये सार्वलौकिक सटीक पद के तौर पर बाद्यू one/ multiple के युग्म का प्रस्ताव देते हैं, जो हमारे अभिनवगुप्त के पद ‘भेदाभेद’ से ज़रा भी अलग नहीं है । आगे वे भेद को inconsistent multiplicity कहते हैं और अभेद को consistent multiplicity बताते हैं । (देखें - Alain Badiou ; Being and Event; Bloomsbury; The One and the Multiple : A priori conditions of any possible Ontology; page -25-27)

बहरहाल, हम यहाँ अपने बिल्कुल तात्कालिक चुनावी परिदृश्य को इसी दार्शनिक सूत्रीकरण की रोशनी में देखना चाहते हैं ।

जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, यह परिदृश्य तैयार होता है, सोशल इंजीनियरिंग और चुनावी गठबंधनों से । राजनीतिक यथार्थ की भेदमूलक संरचना की मूलभूत स्वीकृति से । क़ायदे से इसमें चुनावी प्रक्रिया की अपनी क्रियात्मकता के अभेद तत्व के ज़रिये इसके अंतिम स्वरूप के लिये जगह छोड़ी जानी चाहिए थी । जनतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया की भेदाभेदमूलक परिणति का वही आदर्श रूप हो सकता है । यह संसदीय जनतंत्र की वेस्टमिनिस्टर प्रणाली की अपनी विशेषता है । राष्ट्रपति प्रणाली में जनतंत्र के इस भेदाभेदमूलक स्वरूप को उस पद पर बने रहने की अवधि की सीमा से सुनिश्चित किया जाता है ।

मगर, भाजपा ने इसमें खास तौर पर शुरू से ही प्रधानमंत्री के रूप में मोदी को रख कर उसके भेदाभेदमूलक विन्यास को पहले ही एक तयशुदा ‘मोदी नेतृत्व’ की अभेद अनिवार्यता, जनतांत्रिक प्रक्रिया से तानाशाही के उदय से बाँध दिया है । उसने चुनावी प्रक्रिया की क्रियात्मकता के लिये कोई विशेष जगह नहीं छोड़ी है, क्योंकि भाजपा में मोदी के अलावा किसी के लिये कोई जगह नहीं बची है । यह चुनाव के अभेद की क्रियात्मकता का भी एक प्रकार का अस्वीकार है । और इसके चलते भाजपा में एक प्रकार की पंगुता को निमंत्रण भी है । 

दूसरी ओर, विपक्ष की ताक़तों ने भेदमूलक परिस्थिति में मोदी-विरोधी गठजोड़ क़ायम करके आगे के परिणाम को चुनावी प्रक्रिया के अभेद की क्रियात्मकता पर छोड़ा है । वहाँ मोदी को पराजित करने के बाद की भेदाभेद की संरचना के लिये पूरी गुंजाइश बनी हुई है ।

और कहना न होगा, यही वह बिंदु है जहाँ विपक्ष मोदी से भारी हो जाता है जिसने अपने विन्यास में अभेद की क्रियात्मकता को खुल कर खेलने की अनुमति दी है । चुनाव की प्रक्रिया की क्रियात्मकता का अर्थ है मतदाताओं की स्वतंत्र क्रियाशीलता । और सभी जानते हैं कि मोदी चुनावी प्रक्रिया में ही मतदाताओं की स्वतंत्रता को कोई मौक़ा देना नहीं चाहते ; वे चुनाव के अभेद को खारिज करना चाहते हैं । यह जनतंत्र की परिस्थिति में हर प्रकार की तानाशाही की ताकतों की एक सामान्य समस्या है ।

मोदी अपने संपूर्ण प्रभुत्व के लक्ष्य को हासिल कर पाए,  इसके लिये ज़रूरी है कि उन्हें किसी भी वजह से जनता का असाधारण अतिरिक्त समर्थन हासिल हो जाए । लेकिन सवाल उठता है कि क्या विगत पाँच साल में परिस्थिति में ऐसी कोई भी वजह तैयार हुई है कि जिसे मोदी को असाधारण जन-समर्थन का कारण माना जा सके ?

मोदी का अपना आकलन था कि वे अपने पैसों की अपार शक्ति और झूठे प्रचार के ज़रिये ऐसी परिस्थिति तैयार कर लेंगे जिसमें चुनाव की प्रक्रिया की स्वाभाविक क्रियाशीलता को वे अवरुद्ध करके खुद को उस पर थोप पायेंगे । इसमें उन्होंने चुनाव आयोग सहित कई संवैधानिक संस्थाओं पर अपनी जकड़बंदी को भी अपनी शक्ति में शामिल कर रखा था ।

लेकिन मोदी के ये मंसूबे क्या कहीं से भी पूरे होते दिखाई दिये हैं ?

मीडिया पर मोदी की इजारेदारी का कारगर विकल्प साबित हुआ है सोशल मीडिया । उसी ने मोदी की ट्रौल सेना का भी भरपूर प्रत्युत्तर दिया है। और जहाँ तक आर्थिक संसाधनों का सवाल है, विपक्ष की सभी पार्टियों की अपने-अपने दायरों में स्वतंत्र गतिविधियों के चलते इस मामले में विपक्ष कभी भाजपा से बहुत ज्यादा विपन्न नहीं दिखाई दिया है । उल्टे मोदी के धन का केंद्रीय भंडार अनेक क्षेत्रों में फ़िज़ूलख़र्ची का शिकार हुआ है । संघी कार्यकर्ता के पास वैसे ही मोदी-मोदी रटने अलावा राजनीतिक लिहाज़ से कहने के लिये कुछ नहीं है । वह चुनाव में प्रचार के काम के बजाय पार्टी के द्वारा लुटाये जा रहे धन को बटोरने में ज़्यादा दिलचस्पी रख रहा है ।

ऊपर से, मोदी ने इसी बीच यह भी साफ़ कर दिया है कि उन्होंने चुनाव के पहले जो भी सोशलइंजीनियरिंग की थी, वह कोरे छल के अलावा कुछ नहीं था । एनडीए नामक गठजोड़ में किसी भी भेद की कोई जगह नहीं है, यह मोदी नामक एक अभेद की महज़ एक लाश है, अर्थात् जिसमें कोई गतिशीलता नहीं है । यह भी किसी परम सत्य के ठोस रूप में न होने की सच्चाई का ही एक दूसरा रूप है । इसीलिये चुनावोत्तर परिस्थिति में एनडीए के बाहर की छोड़ियें, एनडीए के अंदर की ताक़तें भी उसमें मोदी की संरचना में प्रवेश करने से परहेज़ करेगी । मोदी का संग ग़ुलामी के पर्याय के अलावा कुछ नहीं होगा, यह सब जानते है । और सबका यह जानना ही मोदी के इस चुनाव से ग़ायब हो जाने को भी साबित करता है ।

इन सभी संदर्भों में हमारी दृष्टि में इस बार के चुनाव का सत्य पूरी तरह से मोदी विरुद्ध खड़ा है । यह एक जनतांत्रिक प्रक्रिया में हिटलर की विडंबना के समान है । उनकी पराजय का स्वरूप कितना बड़ा और गहरा होगा, इसका चुनाव परिणाम के पहले कोई सटीक अनुमान नहीं लगा सकता है । लेकिन उनकी बुरी हार सुनिश्चित है ।


विद्या-भंजकों का प्रदर्शन ; यह बंगाल की अस्मिता पर हमला है


-अरुण माहेश्वरी

कल अमित शाह जब मध्य कोलकाता के धर्मतल्ला से उत्तरी कोलकाता में विवेकानंद के निवास तक ‘जय श्री राम’ के उद्घोष के साथ रवाना हुए उसी समय यह साफ़ नजर आ रहा था कि यह चुनावी रोड शो नहीं, बंगाल के खिलाफ भाजपा का एक रण-घोष है । बंगाल की संस्कृति को पैरों तले रौंद डालने की धृष्टता का ऐलान है । जेएनयू, हैदराबाद विश्वविद्यालय सहित देश के सभी शिक्षा प्रतिष्ठानों में पिछले पाँच साल से जिन अपढ़ गुंडों ने उपद्रव मचा रखा हैं, वे संगठित होकर देश की सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता के मान-सम्मान को कुचलने के लिये उतर पड़े हैं ।

ऐसा लगता है कि अमित शाह ने जान-बूझ कर कोलकाता के प्राण-स्थल कालेज स्ट्रीट के क्षेत्र को पदाघात के लिये चुना है ताकि एक ही वार में बंगाल की अस्मिता को कुचल कर ख़त्म कर दिया जाए । भगवा गुंडों का तांडव कोलकाता विश्वविद्यालय से शुरू हुआ और इसने खास निशाना बनाया प्राचीन विद्यासागर कालेज को। वहाँ पथराव, आगज़नी के साथ ही उनका प्रमुख निशाना था, भाजपाइयों का चक्षुशूल, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की मूर्ति । उस मूर्ति को कुछ उसी प्रकार के रोष के साथ तोड़ा गया जिसका परिचय उन्होंने कभी अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहाते वक़्त दिया था । बाबरी मस्जिद को वे अपनी ग़ुलामी का प्रतीक मानते थे और शिक्षा और संस्कृति को अपनी सनातन आदिमता का दुश्मन । मोदी ने कई बार आधुनिक शिक्षा के प्रति अपनी घृणा को नाना प्रकार से व्यक्त किया है । उनके भक्तों ने आज बंगाल और कोलकाता में शिक्षा के प्रांगण में अपनी उसी नफ़रत का नग्न नृत्य किया ।

कहना न होगा, कोलकाता में कल अमित शाह और उनके लोगों ने भारत की राजनीति के एक और शर्मनाक अध्याय की रचना की है ।

राज्य की मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया है कि अमित शाह के साथ लगभग पंद्रह हज़ार लोगों की जो भीड़ थी उनमें बड़ी संख्या में बग़ल के बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश के अलावा सुदूर राजस्थान से बटोर कर लाये गये लोग भी शामिल थे । यदि मुख्यमंत्री के इस आरोप में जरा भी सचाई है तो कहना होगा, यह प्रथम तो बंगाल पर किये गये एक बाहरी आक्रमण का प्रतीक, मोदी की राजनीति के खास गुजराती मॉडल की पुनरावृत्ति है जिसमें ऐन चुनाव के वक़्त वे वाराणसी को गुजरात से लाये गये लोगों से पाट देते रहे हैं । दूसरा, मुख्यमंत्री के इस कथन में बंगाल में आगे तीव्र प्रादेशिक उत्तेजना के एक ऐसे नये दौर के सूत्रपात के संकेत भी छिपे हैं जो सालों से इस प्रदेश में बने हुए मज़बूत प्रादेशिक भाईचारे की जड़ों को हिला सकते हैं।

मोदी-अमित शाह ने भारत के कोने-कोने में अभी जिस तरह सभी प्रकार के विभाजनकारियों से हाथ मिला कर अलगाववाद की आग सुलगा रखी है, लगता है उन्होंने बंगाल को भी उसी की चपेट में लेने की एक योजना बना ली है ।

बहरहाल, 19 मई को बंगाल में चुनाव का आख़िरी चरण है जिसमें कोलकाता और निकटवर्ती उत्तर और दक्षिण 24 परगना दिलों की 9 सीटों का मतदान होना है । इसके पहले ही भाजपा की इस गुंडागर्दी ने इस पूरे क्षेत्र में उसके खिलाफ जिस ग़ुस्से और आक्रोश को जन्म दिया है, उसकी साफ़ छाप मतदान में देखने को मिलेगी ।

आज कोलकाता और पूरे बंगाल में ममता बनर्जी ने इस गुंडागर्दी के प्रतिवाद में भारी प्रदर्शन का ऐलान किया है। इसी प्रकार वामपंथियों और कांग्रेस ने भी कोलकाता सहित पूरे प्रदेश में बंगाल के शिक्षा क्षेत्र और बंगाल की सांस्कृतिक अस्मिता पर मोदी ब्रिगेड के इस जघन्य हमले के विरोध में व्यापक प्रदर्शनों का कार्यक्रम अपनाया है ।

बाहरी तत्वों को इकट्ठा करके अमित शाह के इस युद्ध के तेवर ने बंगाल में भाजपा की कब्र खोदने का ही काम किया है, इसमें कोई शक नहीं है ।



सोमवार, 6 मई 2019

यह भारतीय राजनीति से मोदी की अंतिम विदाई का चुनाव होगा


-अरुण माहेश्वरी


पेशेवर राजनीतिक विश्लेषणों की समस्या है कि वे समग्र राजनीतिक परिदृश्य में अलग-अलग ताक़तों की पृथक उपस्थिति को देखने पर इतना अधिक बल देने लगते हैं कि उन्हें इन सबके एक समग्र परिदृश्य में उपस्थिति के कारणों पर विचार करना बेकार लगने लगता है । दरअसल इस परिदृश्य का यदि कोई एक सच है तो उसका इसके संघटकों के पृथक-पृथक स्वरूप से कोई संपर्क नहीं है । राजनीतिक सापेक्षतावाद इस पृथकता के बयान से आगे नहीं जा सकता है । इन पृथकताओं के बावजूद इनके लिये किस एक चीज़ का मायने हैं, जो उन्हें एक जगह पर बनाए रखती है, उसके बारे में वह कुछ नहीं कहता है ।

सभी पृथक-पृथक दलों को साथ रखने वाला यह बाहरी सत्य है संसदीय जनतंत्र ।

ध्यान देने लायक़ बात यह है कि मोदी और आरएसएस सत्ता पर इस संसदीय जनतंत्र की प्रक्रिया से ही आए हैं, लेकिन इसके अंदर होते हुए भी वे इस सत्य के प्रति ज़रा भी निष्ठावान नहीं है । इनकी हरचंद कोशिश इस अलग-अलग शक्तियों के बीच के प्रतियोगितामूलक संपर्क की जगह अपने संपूर्ण वर्चस्व को क़ायम करने और अन्य ताक़तों के समूल नाश पर केंद्रित होती है ।

मोदी एनडीए के नेता के रूप में सत्ता पर आए लेकिन पाँच साल के अपने शासन की अवधि में एक बार भी एनडीए की औपचारिक बैठक तक करने की नहीं सोची । उनकी सारी शक्ति आने वाले पचासों साल के लिये देश की अन्य सभी राजनीतिक ताक़तों को समाप्त कर देने और समाज के सभी स्तरों को पूरी तरह से अकेले अपनी जकड़ में लेने की योजनाओं और साज़िशों पर केंद्रित रही ।

इसीलिये न कहा जाता है, मोदी जनतांत्रिक नहीं फासीवादी है ।

लेकिन संसदीय जनतंत्र में मोदी का पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता पर आना ही यह बताता है कि संसदीय जनतंत्र के ताने-बाने के बखान मात्र से इसका संपूर्ण सत्य जाहिर नहीं होता है । सिर्फ वस्तु-स्थिति के बखान से उसके अन्दर के अन्य चालक नियमों का कोई अंदाज नहीं मिलता है ।

मसलन्, बाज़ार अर्थ-व्यवस्था की योजनाबद्ध अर्थ-व्यवस्था पर जीत से एक का पक्ष मज़बूत और दूसरे का पक्ष कमजोर नहीं हो जाता है । कोई भी सत्य साबित होता है पूरी व्यवस्था से पृथक रूप में, न कि व्यवस्था के परिणाम के रूप में, अर्थात् स्वयं के तर्कों से ।

जब किसी भी व्यवस्था के अंदर पल रहा कोई सत्य अपने को उसकी चालू प्रक्रिया से अलग करके स्थापित करता है, इसी पृथ्कीकरण को इतिहास में संक्रमण का बिंदु कहते हैं । इसीलिये कोई भी सच्चा विश्लेषण कोरे ढाँचागत तथ्यों में नहीं, बल्कि अनोखे ढंग से घटित होने वाली स्थितियों में निहित होता है, जो किसी परिघटना के एक प्रकार के अभावनीय अवशेष के रूप में सामने आता है ।

मोदी का आना-जाना कोई मायने नहीं रखता, लेकिन मायने रखता है, उसका यही अवशिष्ट रूप । विगत पाँच साल के अनुभव बताते हैं कि मोदी फासीवाद के एक मुजाहिद है, बल्कि उनकी उत्कटता को देखते हुए कहा जा सकता है - मरजीवड़ा मुजाहिद । वह संसदीय जनतंत्र को अपसारित कर फासीवाद के, आज के आधुनिक युग में एक व्यक्ति की तानाशाही वाली राजशाही व्यवस्था के सत्य की स्थापना के लक्ष्य के लिये नियोजित व्यक्ति है ।

मोदी का यही सत्य उन्हें संसदीय जनतंत्र के बाक़ी सभी खिलाड़ियों से अलग करता है । और यह, मोदी को बाक़ी सबसे आगे अलग-थलग रखने वाला एक मूलभूत सत्य भी साबित होगा । प्रतिद्वंद्विता में सामयिक लाभ के लिये कुछ ताक़तें इसके साथ जा सकती है, लेकिन पिछले पाँच साल के अनुभव के बाद भी यदि कोई मोदी से किसी प्रकार का समझौता करता है, तो यह मान कर चलना होगा कि वह भी सांप्रदायिक फासीवाद की मोदी की मुहिम का एक सचेत हिस्सा है । अन्यथा, आज न्यूनतम जनतांत्रिक निष्ठा की विपक्षी शक्ति भी मोदी की अधीनता को स्वीकारने के पहले सौ बार विचार करेगी ।

इस बार मोदी की पराजय के बाद के चुनावोत्तर परिदृश्य को अंतिम रूप देने में संसदीय जनतंत्र के इस सत्य की भूमिका को समझे बिना जो लोग मायावती, केसीआर, वाईएसआर या नवीन आदि की भूमिका को संदेह की नजर से देख रहे हैं, बल्कि यहाँ तक कि नीतीश, पासवान और एआईएडीएमके की तरह के घटकों के भी मोदी के साथ ही रहने को अंतिम सत्य मान रहे हैं, वे ग़लत साबित होने के लिये अभिशप्त हैं ।

इसीलिये, इस बार के चुनाव में हम मोदी की भारतीय राजनीति से अंतिम विदाई को ही इस चुनाव के अंतिम सत्य के रूप में साफ़ देख पा रहे हैं । मोदी की बुरी हार की ख़बरों से इसकी ज़मीन बिल्कुल पुख़्ता होने के समाचार आने लगे हैं ।

शनिवार, 4 मई 2019

एक अशिक्षित नेतृत्व से भारत को मुक्त करने का समय आ गया है

—अरुण माहेश्वरी



आदमी के गठन में उसके इर्द-गिर्द के लोगों की उससे की जाने वाली अपेक्षाओं की बड़ी भूमिका होती है । आतंकवादियों की सोहबत में रहने वाला आदमी हमेशा अपने आतंकवादी मित्रों की अपेक्षाओं में ही खरा उतरने की कोशिश करता रहता है ।

इस प्रकार निकट के लोगों की नज़रें आदमी की सूरत को तैयार करने में एक प्रकार की अदृश्य लेजर बीम की तरह, न दिखाई देने वाली छैनी की तरह काम करती रहती है ।

पढ़ाई-लिखाई आदमी को इस नितांत निजी परिवेश की सीमा से बाहर निकलने में मददगार होती है ।

अपने ही दायरे में सिमटा आदमी एक प्रकार से अंधा होता है । वह उसी जगह का नक़्शा बनाने में सक्षम होता है जिसे वह जानता होता है । दृष्टिहीनता उसे अपनी निजी ऐंद्रिकता के बाहर नहीं जाने देती ।

इसीलिये यदि किसी व्यक्ति को वृहत्तर समाज के हित में भूमिका अदा करनी होती है तो उसके लिये उतनी ही ज़्यादा शिक्षा और सार्विक ज्ञान पर आधारित गहनता की जरूरत होती है ।

जब भी कोई व्यक्ति शिक्षा और बौद्धिकता के प्रति तिरस्कार का भाव अपनाता है, मान लीजिए कि वह अपने व्यक्तित्व में एक प्रकार की अंधता और पंगुता को पाल रहा होता है ।

भारत में, दुनिया के दूसरे सभी उग्रवादी, आतंकवादी और आधुनिकता-विरोधी, शिक्षा-विरोधी समूहों की तरह का एक सबसे बड़ा राजनीतिक समूह है - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ।

आरएसएस में सुनियोजित ढंग से आदमी को बचपन से एक ऐसा परिवेश दिया जाता है जिससे उसमें सबसे पहले जानने का, प्रश्नाकुलता का भाव ख़त्म हो जाए । अंध श्रद्धा को यहाँ सुनियोजित ढंग से पाला-पोसा जाता है । इसके साथ ही योजनाबद्ध तरीक़े से उसके दिमाग में भारतीय समाज और धर्मों के बारे में आदमी में ऐसी तमाम प्रकार की झूठी बातों को भर दिया जाता है, जिससे आदमी अपने दायरे में ही सिमट कर रह जाए । अन्यों से नफ़रत करता हुआ उनसे स्थाई दूरी बनाए रखे ।

यह सच है कि आप जिसे अच्छी तरह से जानते हैं, उससे कभी नफरत नहीं कर सकते है ।

ये सारी बातें खास तौर पर हमारे प्रधानमंत्री को देखते हुए हमारे दिमाग में आ रही है ।

मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने संघी साथियों की खास नजर के दायरे से, उनकी दी हुई अंधता, अज्ञता और अन्यों के प्रति घृणा और नफ़रत के भाव से अलग नहीं हो पाए हैं ।

अंध भक्ति में आदमी की मुक्ति को देखने की उनकी बुनियादी समझ उन्हें आम जनता में हर प्रकार की स्वतंत्रता के भाव का शत्रु बनाए रखती है और शासक के रूप में उनके साथ भेड़-बकरियों की तरह के व्यवहार के लिये उन्हें प्रेरित करती है ।

मोदी संघी संस्कार के बाहर सोचने में असमर्थ है और इसीलिये कथित हिंदुत्व के वर्चस्व को आज भी अपना ध्येय बनाए हुए हैं ।

यदि भारत के स्तर के एक बहुजातीय विशाल राष्ट्र की बागडोर एक ऐसे अंध, अज्ञ और ज्ञान-विरोधी तानाशाही मनोवृत्ति के व्यक्ति के हाथ में आजाए तो कितना बुरा हो सकता है, मोदी के इन पाँच सालों के शासन का प्रत्येक क्षण इस सच के ही प्रमाण पेश करता रहा है ।

आज समय है जब इस आधे-अधूरे अशिक्षित व्यक्ति से भारत को पूरी तरह मुक्त किया जाए । भारत के विकास पथ से इस पहाड़ समान बाधा को दूर करने का समय आ गया है ।

आज का चुनावी परिदृश्य और मोदी की आत्मलीनता


-अरुण माहेश्वरी


दिन रात खुद ही मोदी मोदी रटने वाले आत्म-मुग्ध मोदी इतने आत्मलीन हो गये हैं कि उनमें बाकी दुनिया का अवबोध ही लुप्त हो गया है । खुद को ही निरखना आदमी के लिये मौत है । मृत के लिये ही खुद के बाहर कुछ नहीं होता । यही आत्मलीनता (autism) की बीमारी है ।आत्म-मुग्ध मोदी से देश और जनता की भलाई की कोई उम्मीद मृत व्यक्ति से किसी कर्त्तव्य के पालन की उम्मीद करने की तरह की भूल होगी । व्यतीत किसी को कितना भी अच्छा क्यों न लगे,जो यथार्थ में है ही नहीं, किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकता ।

मोदी की दशा यह है कि अभी एक सभा में उन्होंने कहा कि ‘हम किसी को छेड़ते नहीं और अगर हमें कोई छेड़ता है तो उसे छोड़ते नहीं’ और यह कहते हुए उन्होंने बंदूक़ का ट्रिगर दबाने की मुद्रा दिखाई । उनका यह आत्म-प्रदर्शन अपने में पूरी तरह से खो चुके व्यक्ति के मूलभूत चरित्र का अनायास ही प्रगटीकरण कहा जा सकता है ।

सब जानते हैं कि पिछले चुनाव के बाद से मोदी की साख लगातार गिरी है । उन्हें वोट न देने वाले 69 फीसदी लोगों में अगर न्यूनतम एकता भी क़ायम होती है तो क्या होगा ? मोदी कंपनी का पूरा सफ़ाया होगा ।

आज की स्थिति यह है कि मोदी को तमाम धाँधलियों की अनुमति देने के बावजूद यदि चुनाव आयोग किसी भी चरण में, चुनाव परिणामों के बाद भी, इस पूरे चुनाव को ही खारिज करने की हिम्मत नहीं रखता है तो वह मोदी के लिये मददगार साबित नहीं हो सकता है । चुनाव आयोग की मोदी को क्लीन चिट मोदी के द्वारा मोदी को क्लीन चिट से ज़्यादा अहमियत नहीं रखती है ।

भाजपा के नेता अब शिकायत कर रहे हैं कि राहुल गांधी मोदी और शाह के खिलाफ अपमानजनक प्रचार कर रहे हैं । कल तक तो मोदी कहते थे कि वे कीचड़ में कमल खिलाने वाले हैं । उनके खिलाफ जो भी कहा जायेगा, वे उसी से लाभ उठा लेंगे । इसी चक्कर में उन्होंने 'चौकीदार चोर है' कहे जाने पर अपनी पूरी पार्टी को ही चौकीदारों की पार्टी बना दिया ।

लेकिन अब ! अब मतदान के हर बीतते चरण के साथ क्रमशः यह साफ होता जा रहा है कि मोदी ने अपने सब लोगों को चौकीदार बना कर 'चौकीदार चोर है' के नारे को देश के कोने-कोने में और ज्यादा गूंजा दिया है ।

और, इसी नारे की गूंज-अनुगूंज से मोदी पार्टी के लोगों के होश उड़ने लगे हैं । 'चोर चौकीदारों' के दल के नेता चुनाव आयोग से राहुल के प्रचार के खिलाफ शिकायत कर रहे हैं ।

जिन 69 प्रतिशत लोगों ने 2014 में भी मोदी को मत नहीं दिया था, वे आज उनके विरोध में मत देने के लिये नि:शंक हैं । जिन्होंने तब मोदी को मत दिया था उनके भी एक बड़े हिस्से में मोदी का विकल्प खोजने की इच्छा जग गई है ।

‘चौकीदार चोर है’ के नारे को मोदी सहित सारे चौकीदार गाँव-गाँव, गली-गली अतिरिक्त गूंज दे रहे हैं । इसके बाद इस चुनाव के परिणाम के बारे में कोई भी आसानी से सटीक अनुमान लगा सकता है । फिर भी जिनमें उलझन बनी हुई है, यह उनकी निजी समस्या है । चुनाव मैदान के संकेत दिन के उजाले की तरह साफ़ है ।

सारे मोदी चैनल राहुल की नागरिकता की तरह के विषयों पर बहस में मुब्तिला है । जिसके पिता, दादी और परदादा इस देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं, भारत में जन्मे विपक्ष के उस नेता की नागरिकता पर सवाल सिर्फ पागलखाने के वाशिंदें ही उठा सकते हैं और वे ही ऐसे विषय पर चैनलों पर बहस चला सकते हैं ।

इस चुनाव में विपक्ष के दलों की पूर्ण एकता की अनुपस्थिति बहुतों को शंकित किये हुए हैं । दरअसल, चुनाव में जनता पर भरोसा न करना किसी भी दल की पहली पराजय होती है । चुनाव की प्रक्रिया के बीच से जनता को जगाने के लिये ही मूलत: गठबंधनों का प्रयोग होता है । सब विपक्षी दलों ने अपने-अपने तई यह काम किया है । इसीलिये परिणाम ऐसे होंगे जो सामान्य चुनावी गणित के अनुमानों को ख़ारिज करेंगे । जब तक कोई जुनूनी और पूरी तरह से विक्षिप्त नहीं होगा, पूरी तरह से मोदी भक्त नहीं होगा । जनता ही अब मोदी को यथार्थ की धरती पर उतारेगी ।

मतदान के चौथे राउंड के बाद चुनाव परिणामों के सटीक अनुमान का एक सूत्र :

हिंदी भाषी क्षेत्रों, गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र में विगत उपचुनावों और विधानसभाओं के नतीजों के आधार पर इस बार के चुनाव परिणामों के अनुमान का एक सबसे सटीक सूत्र - 2014 में मोदी को मिले मतों में सभी सीटों पर 12 प्रतिशत की कटौती कर दीजिए, आपको इस बार की जीत-हार का एक पक्का हिसाब मिल जायेगा ।