जिस बात का दो साल पहले ही अनुमान लगाया जा सकता था कि अब फिर मोदी के लौट कर आने की संभावना नहीं रही है, समय बीत चुका है, वह अब हर बीतते दिन के साथ साफ़ तौर पर उभर कर सामने आने लगा है । जब तीन साल उन्होंने हवाबाज़ी में और नवाबी में ही बिता दिये तो आगे के दो साल वे कोई नया रास्ता पकड़ लेंगे, ऐसी कल्पना करना ही किसी शेखचिल्ली की कल्पना की तरह ही होता ।
मोदी शुद्ध झूठ पर टिकी हवाबाज़ी से सत्ता पर आए थे, और झूठ तथा हवाबाज़ी को ही उन्होंने राजनीति का पर्याय समझ लिया । डर और दमन को उन्होंने शासन का औज़ार बनाया, बेशुमार धन के बल पर कल्पनातीत प्रचार और बेलगाम भाषणबाज़ी को पूँजीपतियों से मिलीभगत की गुह्य कमीशनखोरी की करतूतों पर पर्देदारी का साधन ।
राजनीति जनता के लिये कामों से नहीं, अवधारणाओं से चला करती है - विज्ञापन की दुनिया के गुरुओं के ऐसे भ्रामक मंत्रों के फेर में मोदी ने एक ही काम किया, जहाँ से जैसे मिले दुनिया भर का रुपया बटोरा और प्रचार के सारे साधनों पर अपना एकाधिपत्य क़ायम करके ऐसी हरचंद कोशिश की कि आम लोगों की कथित अवधारणा में विकल्प की किसी भी संभावना के लिये कोई स्थान शेष न रहे ।
यह सच है कि आदमी के जीवन के तमाम मामले अवधारणाओं पर ही टिके होते हैं । लेकिन समझने की बात यह है कि अवधारणाएँ कभी भी कोरे झूठ पर टिकी नहीं होती है । फ्रायड ने सपनों की व्याख्या करते हुए यही प्रमाणित किया था कि सपने झूठे नहीं होते हैं । उन्होंने सपनों के अपने एक अलग अवचेतन के जगत की खोज की और मनोविश्लेषणों से उस अवचेतन के संकेतों को पढ़ने की, उनके विश्लेषण की अपनी एक भाषा तैयार की ।
इसीलिये कोई यदि यह समझता हो कि चकमेबाजी या ठगबाजी से अवधारणाएँ बनती या बिगड़ती है, तो वह सिर्फ खुद को ही धोखा दे रहा होता है । चकमेबाजी से चकमा दिया जाता है, आदमी को एक बार के लिये ठगा जा सकता है । लेकिन ठगे गये आदमी को जैसे ही सचाई का अहसास होता है, ठगने वाले आदमी के बारे में उसकी वास्तविक अवधारणा विकसित होती है, उसके यथार्थ अनुभव पर टिकी अवधारणा । सच पर टिके अनुभव से बनी अवधारणा । और, जब आदमी की ऐसी पहचान क़ायम हो जाती है, तब वह लाख सरंजाम क्यों न कर ले, आगे फिर उसके लिये लोगों को और चकमा देना आसान नहीं रह जाता है । सच पर टिकी अवधारणा चकमेबाजी की संभावनाओं को ख़त्म कर देती है ।
कहना न होगा, जीवन को संचालित करने वाली तमाम अवधारणाओं के साथ इसी प्रकार सत्य का संस्पर्श निश्चित तौर पर होता है । पुन: कहेंगे - अवधारणा चकमा नहीं होती है ।
मोदी की चकमेबाजी के बारे में दो साल पहले से ही लोगों की अवधारणा बनने लगी थी, और यह साफ़ दिखाई देने लगा था कि अब वे एक ऐसी भँवर में फँस चुके है, जिससे निस्तार का उनके पास कोई उपाय नहीं होगा । गुजरात के चुनावों के बाद, कई महत्वपूर्ण उपचुनावों और पाँच राज्यों के चुनाव से मोदी के मुलम्मे के उतर जाने के सारे संकेत मिल गये थे । और आज, जब भारत के राजनीतिक जीवन के इस निर्णायक चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, मोदी की सूरत बदहवासी में कैसी अजीब सी दिखाई देने लगी है !
पाँच वर्ष तक लगातार बकबक करने और सारे मीडिया को अपनी मुट्ठी में करके रखने के बाद भी, ऐन चुनाव के मौक़े पर वे यही सोच कहे हैं कि अभी उन्हें कितना कुछ कहना बाक़ी है ! यह नहीं कहा, शायद उसके कारण उनका जादू नहीं चल रहा है या वह नहीं कह पाया जिससे राहुल गांधी का बढ़ना रुक नहीं पा रहा है ! अब उन्हें साक्षात्कारों की भी याद आ रही है । लेकिन संवाददाता सम्मेलन का डर अभी भी निकला नहीं है । इस बीच उन्होंने एक-दो झूठे साक्षात्कारों का पासा भी फेंक दिया है तो राहुल गांधी के पिता के ‘कुकर्मों’ का बखान भी कर दिया है । सभाओं में तो हर रोज़ झूठों हाथ लहराते हुए गरज ही रहे है । खुद पर फ़िल्म भी रिलीज़ करा ली, गाने गँवा लिये । कई चैनलों से अपनी जय-जयकार के सर्वे भी जारी करा लिये । लेकिन उन्हें कहीं कोई चैन नहीं मिल रहा ।
जीवन भर जिस पढ़ाई-लिखाई की मोदी हँसी उड़ाते रहे और ढींगा-मुस्ती को पुरुषार्थ मानते रहे, आज कांग्रेस दल ने विचारों की गंभीरता के उसी हथियार से उन्हें बुरी तरह आतंकित कर दिया है । बेरोज़गारों को अपनी फ़ासिस्ट सेना का रंगरूट बनाने की उनकी योजना धराशायी दिखाई देती है । मोदी ने हज़ारों साल के भारत की नानात्व से जुड़ी अस्मिता के अंत का जो अभियान शुरू किया था, आज वही अस्मिता अपने विशाल रूप में महिषासुर वध के लिये रणक्षेत्र में उतर चुकी है । ‘गली गली में शोर है’ के प्रत्युत्तर में मोदी का ‘मैं भी चौकीदार’ मैं ही चौकीदार की आत्म-स्वीकृति बन चुका है । मोदी ने फिर एक बार शुद्ध झूठ के आधार पर अपने को ग़रीब चौकीदार दिखाने की जो कोशिश की है, उसे उनके पैसे वाले मित्रों ने ही खुद को चौकीदार घोषित करके ध्वस्त कर दिया है । इन लोगों ने अपने को चौकीदार बता कर चौकीदार मोदी की सच्चाई पर से पर्दा उठाने का ही काम किया है ।
आज की सच्चाई यह है कि मोदी के पास यह हिम्मत भी शेष नहीं है कि वह विपक्ष को नेता-विहीन होने की चुनौती दे सके । राहुल गांधी हर मामले में मोदी से बहुत, बहुत आगे दिखाई दे रहे हैं ।
इस बार भारत एक ऐसा निर्णय देगा, जो 1977 के आपातकाल के बाद के चुनाव को भी पीछे छोड़ देगा । यह भारत से आरएसएस कंपनी के तंबू को समूल उखाड़ फेंकने का जनादेश होगा ।