मंगलवार, 25 जून 2024

मृत्युमुखी मोदी सरकार !

—अरुण माहेश्वरी 



मोदी-3  तेज़ी के साथ एक death-drive (मृत्यु उद्दीपन) में फँसी हुई दिखाई देने लगी है ।


यह सच अनायास ही हमें फ्रायड और जॉक लकान के मृत्यु-उद्दीपन संबंधी सूत्रों की याद दिला रहा है । 


आनंद सिद्धांत (जिसका अर्थ होता है प्रमाता का स्वीकृत मर्यादाओं के साथ निबाह करते हुए चलना) से हट कर प्रमाता जब अपने उल्लासोद्वेलन की दिशा में बढ़ता है तो उसके सामने कैसे-कैसे ख़तरे होते है, फ्रायडीय मनोविश्लेषण का सिद्धांत उसी पर टिका हुआ है । 


प्रमाता जब विकल होकर सभी मर्यादाओं को कुचलते हुए बढ़ना चाहता है तो फ्रायड ने कहा था कि इससे हमेशा यह ख़तरा रहता है कि वह आत्मपीड़क या परपीड़क मनोदशा के चक्र में फँस जाए । जॉक लकान ने प्रमाता में मृत्यु-उद्दीपन को इसी चक्र की परिणति बताया था । ऐसे मनोरोगी के लिए जब परिस्थिति बेहद प्रतिकूल हो जाती है तब उसकी विकलता इतनी ज़्यादा बढ़ जाती है कि वह अपने जुनून के लिए मर-मिटने पर उतारू हो जाता है । 


उदाहरण के तौर पर हमने देखा है कि कैसे बालीवुड के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत तीव्र आत्मपीड़क मनोदशा से निकल न पाने के अवसाद में आत्म हत्या की ओर बढ़ गए थे । इसी का एक राजनीतिक उदाहरण हमारे मोदी जी हैं जो अपनी जुनूनियत के चलते पिछले दस साल से भयानक परपीड़क तानाशाह की भूमिका में रहे हैं । 


आज मोदी-3 की बदली हुई प्रतिकूल परिस्थितियों में मोदी की वही परपीड़क उत्तेजना इतनी तीव्र हो गई है कि वे इसके चक्र में फँस कर मर मिटने पर उतारू हो गये हैं। 


स्पीकर पद पर चुनाव की परिस्थिति पैदा करके मोदी सरकार ने अपने अंदर के इसी मृत्यु-उद्दीपन का परिचय दिया है । 


ज़ाहिर है कि आगे यह दृश्य हमें बार-बार देखने को मिलेगा । और हम पायेंगे कि अचानक एक दिन यह सरकार किसी मामूली मुद्दे पर ही मृत्यु के कुएँ में छलांग लगा लेगी । इस सरकार के तमाम लक्षणों से कोई भी इसका अनुमान लगा सकता है । 

क्या मोदी मनोविश्लेषण का एक खास विषय बन चुके हैं !

अरुण माहेश्वरी 


अपने पुराने मंत्रिमंडल को ही दोहरा कर, ख़ास तौर पर अमित शाह को गृहमंत्री और ओम बिड़ला को फिर से स्पीकर पद के लिए उतार कर हमारी दृष्टि से मोदी ने संसदीय जनतंत्र को शूली पर चढ़ाने की पूरी तैयारी कर ली है ।


इससे यह भी पता चलता है कि मोदी अब भी पूरी तरह से अपनी कल्पित ईश्वरीय, अशरीरी छवि की गिरफ़्त में हैं। इसीलिए अनायास वही सब कर रहे हैं जो उस समय करते रहे जिससे उनमें अपने अशरीरी होने का जुनूनी अहसास पैदा हुआ था। ऐसे में यह भी कहा जा सकता है कि मोदी -3 का यह पूरा मसला ख़ास प्रकार की छवि की क़ैद से प्रमाता में उत्पन्न 

अस्वाभाविक लक्षणों का ख़ास मनोविश्लेषण का मसला भी बन गया है । 


व्यक्ति हमेशा कुछ ख़ास प्रकार की छवियों से जुड़ कर ही ऐसी तमाम हरकतें कर सकता है जो सामान्यतः कोई आम विवेकशील आदमी नहीं करता है। वह व्यक्ति खुद से नहीं, उस छवि से चालित होने लगता है । व्यक्ति की यह छवि-प्रसूत पहचान उसकी स्वतंत्रता का नहीं, अंततः उसकी सीमाओं, पंगुता और परतंत्रता के लक्षणों का कारण बन जाती है । यह अपने ख़ास खोल में दुबक कर आत्मरक्षा का उसका एक आंतरिक उपाय, एक अंदरूनी ढाँचा बन जाता है । 


मोदी ने अपनी अशरीरी ईश्वरीय छवि की मरीचिका के ज़रिये अपने में जिस शक्ति का अहसास किया, वह कभी भी उनकी वास्तविक शक्ति नहीं थी, इसे हर विवेकवान व्यक्ति जानता है । वह एक कोरा मिथ्याभास, पूरी तरह से उसके बाहर की चीज़ है, जिससे दुर्भाग्य से मोदी काएक ख़ास प्रकार का अस्वाभाविक मानस तैयार हो गया है । 


जैसे शैशव काल में बच्चा दर्पण के सामने हाथ-पैर पटक कर सोचता है कि उसमें दर्पण की उस छवि को सजीव बनाने की शक्ति है, कमोबेश उसी प्रकार मोदी भी अपने स्वेच्छाचार, जनतंत्र-विरोधी उपद्रवों को अपनी ‘ईश्वरीय’ शक्ति मान बैठे हैं । मनोविश्लेषण में इसे ही एक समग्र परिवेश में मनुष्य में “मैं” की मानसिक छवि के गठन की प्रक्रिया कहते हैं, जो उसकी चेतना में बस जाती है । यही चेतना उसे अपनी ख़ास पहचान के साथ अन्य से अलग-थलग करती है । इस प्रकार प्रमाता पर “मैं” का प्रेत सवार हो जाता है । यह प्रेत अपने ही रचे हुए संसार से एक धुंधले संबंध की स्वयंक्रिया के ज़रिए हमेशा आनंद लेते रहना चाहता है । ज़ाहिर है कि इससे प्रमाता के लिए बाक़ी दूसरी तमाम चीजें बंद, foreclosed हो जाती है । 


इसे प्रमाता पर विचारधारा के प्रभाव के संदर्भ से और भी आसानी से समझा जा सकता है । इसके चलते “मैं” के गठन की निजी और सामाजिक प्रक्रियाओं के बीच से ही विचारधारात्मक ज्ञान भी प्रमाता के मस्तिष्क की आँख के सामने अज्ञान की पट्टी बन जाता है । 


इसी अर्थ में मोदी की वर्तमान दशा को प्रमाता के अपनी एक छवि में क़ैद हो जाने, दिमाग़ पर अज्ञान की पट्टी बांध कर बेधड़क घूमने के मनोरोग का एक क्लासिक उदाहरण कहा जा सकता है । 

गुरुवार, 20 जून 2024

राहुल गांधी के जन्मदिन के बहाने सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के मनोविश्लेषण के औजार पर क्षण भर

 

−अरुण माहेश्वरी



कल राहुल गांधी का जन्मदिन था । वे 54 साल के पूरे हो गए । सोशल मीडिया पर राहुल के जन्मदिन की धूम थी । कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का उत्साह तो दिल्ली सहित पूरे देश में देखते बनता था । इसमें एक आवेग था, पर आडंबर नहीं, पूरी सादगी थी । 

हाल के चुनाव में राहुल के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन की उल्लेखनीय जीत से विपक्ष की राजनीति में जिस नये उत्साह का संचार हुआ है, उसकी झलक राहुल के जन्मदिन के सभी कार्यक्रमों में नजर आ रही थी। राहुल ने भी दिल्ली में कांग्रेस के मुख्यालय में अपने कार्यकर्ताओं का अभिवादन स्वीकार किया और इस प्रकार अपने जन्मदिन को उन्होंने सचेत रूप में निजी कार्यक्रम से एक शालीन सार्वजनिक आयोजन का रूप दे दिया । कुल मिला कर राहुल का जन्मदिन रायबरेली और वायनाड की जनता को उनके धन्यवाद ज्ञापन का ही विस्तार और मोदी की पराजय पर जनता की खुशियों के राष्ट्रव्यापी जश्न का हिस्सा बन गया । 

दरअसल, ध्यान से देखे तो हम पायेंगे कि व्यक्ति की निजता का सार्वजनीकरण, व्यष्टि का समष्टि में विस्तार वास्तव में एक गहन मनोविश्लेषणात्मक विमर्श का विषय है । प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक फ्रेडरिक जेमिसन (Fredrick Jameson) अपनी पुस्तक ‘राजनीतिक अवचेतन’ (The Political Unconscious) में लिखते हैं कि पूंजीवाद के कारण मनुष्यों के जीवन का निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में जो विभाजन हुआ है इसी के चलते मनुष्यों की इच्छा और कामुकता के विषय उनके अपने निजी उद्वेलन के क्षेत्र के विषय बन कर रह गए हैं । इसी वजह से फ्रायड के पहले तक मनोविश्लेषण का काम प्रमाता के निजी जगत तक ही सीमित था, क्योंकि उसका लक्ष्य होता था प्रमाता को उसकी अपनी विक्षिप्तता और जुनूनियत से हटा कर सामने उपलब्ध परिस्थितियों से उसका मेल बैठाना । परिणामतः अर्नेस्त गैलनर (Ernest Gellner) के शब्दों में “व्यक्तिगत समायोजन के मनोविश्लेषण के प्रमुख उद्देश्य से राजनीतिक सुप्तता पैदा होती है ।”(The chief psychoanalytical goal of individual adjustment leads to political quietism.) इसे उन्होंने ‘मस्तिष्क का बुर्जुआकरण’ ((the embourgeoisment of the psyche) बताया । मनोचिकित्सा की इस मूल प्रकृति के कारण ही रोगी के मामले को पूरी तरह से गोपनीय रखना इस चिकित्सा की नैतिकता में शुमार हो गया था । मनोचिकित्सा का कोई भी मामला किस्से-कहानियों के रूप में भले ही विवेचित हो जाए, लेकिन मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के लिहाज से वे स्वतंत्र रूप में सार्वजनिक अध्ययन का विषय नहीं हो सकते थे । 



प्रमाता की निजता तक सीमित मनोविज्ञान का यह सारा मसला तब पूरी तरह से उलट गया जब सिगमंड फ्रायड ने हर किसी के अध्ययन के लिए अपने तमाम मामलों के विस्तृत वृत्तांतों के व्यापक दस्तावेज तैयार कर दिए । इसीलिए फ्रायड को मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के एक सर्वथा नये अनुशासन का भीष्म पितामह कहा जाता हैं । उन्होंने अपने पूर्ववर्ती मनोचिकित्सा की टोटकेबाजियों से पूरी तरह अलग प्रमाता के अंतर की गति के नियमों के एक बिल्कुल नए मनोविश्लेषण के विज्ञान की आधारशिला रखी । आगे उनके अनुगामी फ्रांसीसी मनोविश्लेषक जॉक लकान ने और भी गहराई में जाकर मनोविश्लेषण को निजता के दायरे से पूरी तरह से मुक्त कर दिया और उसकी जिस नई नैतिकता को जन्म दिया उसमें मनोविश्लेषण का प्रत्येक मामला कभी भी बंद न होने वाली फाइल, अदालती फैसलों के गजट की तरह बना दिया गया जिनके सूत्रों को पकड़ कर कोई भी अन्य विश्लेषक उसमें अपना और योगदान कर सकता है और अपने लिए आगे के नए रास्ते भी तैयार कर सकता है । (देखें, अरुण माहेश्वरी, ‘प्रमाता की सुपुर्दगी’, अथातो चित्त जिज्ञासा, पृष्ठ – 375-381) इस प्रक्रिया को इस लेखक ने अभिनवगुप्त की भाषा का प्रयोग करते हुए लिखा कि इस प्रकार “तत्त्ववेत्ता सर्वथा वर्तमान रहते हुए भी प्राणी को अपनी इच्छा से मुक्त कर देता है ।”

मनोविश्लेषण के क्षेत्र में जॉक लकान का सबसे प्रमुख अवदान यह था कि उन्होंने प्रमाता के उल्लासोद्वेलन (jouissance) को, उसकी इच्छाओं, संतुष्टियों और अतृप्तियों से उत्पन्न उद्वेलनों को, उसकी विक्षिप्तता अथवा जुनूनों को कोई रोग मानने के बजाय प्रमाता की स्वतंत्रता और आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के रूप में विवेचित किया। इस प्रकार, लकान ने ही मनोविश्लेषण को प्रमाता को शांत और उदासीन करने की उस बुर्जुआकरण की कारीगरी से हमेशा के लिए अलग कर दिया, जिसकी ओर फ्रेडरिक जेमिसन, गैलनर आदि इशारा कर रहे हैं ।  

मनोविश्लेषण के सिद्धांतों में फ्रायड और लकान के इस योगदान का ही परिणाम है कि आज की आधुनिक दुनिया में लिंग, कामुकता, नस्ल, और वर्ग की तरह की मनुष्यों की पहचान की श्रेणियों के सभी जटिल विषयों पर जो नाना रंगी (स्त्रीवाद, दलितवाद, एलजीबीटी प्लस आदि  की) उत्तेजना नजर आती है, उन सब का आज सिर्फ मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आधार पर ही कोई सुसंगत विमर्श तैयार हो पा रहा है । इसीलिए, यह अकारण नहीं है कि अमेरिका सहित सभी लातिन अमेरिकी देशों में आज के वक्त के सभी सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों पर फ्रायडियन-लकानियन मनोविश्लेषण का लगभग पूर्ण वर्चस्व दिखाई देता है।

राहुल गांधी और भारतीय राजनीति के अपने आज के मूल विषय से थोड़ा विषयांतर करते हुए ही हमें यहाँ दुनिया में सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के वर्चस्व का थोड़ा अलग से जिक्र करना उचित जान पड़ता है, ताकि इस टिप्पणी से हमारा जो मूल आशय है, उसे कहीं ज्यादा ठोस आधार पर स्थापित किया जा सके । 

मसलन् 15 जुलाई 2010 की अर्जेंटिना की घटना को देखा जाए । इस दिन अर्जेंटिना की नेशनल कांग्रेस (संसद) में हर प्रकार के विवाह को समान मानने (marriage equality) के कानून पर बहस चल रही थी । उस समय वहां के संसद भवन के अहाते में हजारों लोग गहरी आतुरता के साथ बड़े स्क्रीन पर उस पूरी बहस को सुन रहे थे । इसे लेकर पूरे देश में तीव्र आवेग था ।

मारिया यूहेनिया इस्तेनसोरो


अर्जेंटिना की संसद की उस बहस में ब्यूनो एयर्स की सिविक कोयलिशन पार्टी की बोलीवियन मूल की सांसद, जो एक पत्रकार और मानव अधिकार एक्टिविस्ट भी है, मारिया यूहेनिया इस्तेनसोरो (Maria Eugenia Estenssoro) ने अपने प्रभावशाली भाषण में उस कानून के पक्ष में अंतिम दलील देते हुए बहुत बल देकर फ्रायड को उद्धृत करते हुए कहा था कि “विशाल मानव परिवार में रिश्तेदारियों, परिवारों और विवाहों की अनेक प्रथाएं बरकरार हैं । प्राकृतिक परिवार या प्राकृतिक प्रणाली की तरह की कोई चीज नहीं होती है ।” (In the great human family there are many systems of kinship, families, and marriages. There is no natural family or natural system…)

इस्तेनसोरो के ठीक पहले एक और सिनेटर सैमुएल कैबानचिक ने भी बिल्कुल इसी प्रकार के विचार रखे थे । उनका कहना था कि अनेक मनोविश्लेषणात्मक लेखों को पढ़ने के बाद उनकी यह मान्यता है कि इस बात के कोई वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि “समलैंगिक युगलों के द्वारा पोषित बच्चों को विषमलैंगिक युगलों द्वारा पोषित बच्चों की तुलना में कहीं ज्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।” 

यहां कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि अर्जेंटिना की संसद की इन बहसों पर वहां किसी ने भी कोई आपत्ति या आश्चर्य व्यक्त नहीं किया क्योंकि अर्जेंटिना, ब्राजील, मेक्सिको, पेरु आदि ऐसे देश हैं जहां के सामाजिक जीवन में लंबे काल से मनोविश्लेषणात्मक संस्कृति का वर्चस्व बना हुआ है । वहां के तमाम सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों पर इसकी गहरी छाप देखी जा सकती है । अर्जेंटिना की यह बहस भी वहां के सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों में मनोविश्लेषण के सिद्धांतों की लोकप्रियता का ही एक बड़ा उदाहरण था । 

होसे कार्लोस मारियाते


लातिन अमेरिका के बौद्धिक विमर्शों में मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांतों की यह प्रमुखता किसी प्रकार का कोई तात्कालिक फैशन नहीं है । विगत एक सदी में इसका अपना एक लंबा इतिहास बन गया है । मेक्सिको में सन् 1930 के जमाने में अपराधशास्त्र पर जो महत्वपूर्ण विमर्श हुए थे उन पर मनोविश्लेषण के सुचिंतित सिद्धांतों की प्रमुखता दिखाई देती है । पेरु और ब्राजील के भी उदाहरणों को लिया जा सकता हैं । सन् 1926 में पेरु के प्रसिद्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवी होसे कार्लोस मारियातेगे (Jose Carlos Mariategui) ने पेरुवियन समाज की जो राजनीतिक व्याख्या पेश की थी, उसके बारे में कहा जाता है कि वह पूरी तरह से फ्रायडीय मार्क्सवाद के आदर्शों से अनुप्रेरित थी । क्यूबा की राजनीति और संस्कृति पर भी इसी धारा के प्रभाव को वहां के प्रसिद्ध क्रांतिकारी चिंतक और कवि होसे मार्ती (Jose Marti) और तोमस गुतियारे आलिआ ( Tomas Gutierroz Alea) के लेखन में साफ देखा जाता है । आज के समय में अर्जेंटिना, ब्राजील आदि कई देशों में मनोविश्लेषण के संगठन प्रमुख राजनीतिक दलों की भूमिका अदा कर रहे हैं, जिनकी रणनीति और कार्यनीतियां फ्रायड से लेकर जॉक लकान, ऐलेन बाद्यू और स्लावोय जिजेक के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों को केंद्र में रख कर तैयार की जाती हैं।    

होसे मार्ती
          

बहरहाल, यह सब अपने में एक बिल्कुल भिन्न विषय हैं और अलग से विस्तृत चर्चा की भी मांग करता है । पर सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के आधार के रूप में मनोविश्लेषण पर विचार खुद में एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है और इसके लिए मनोविश्लेषण की जिन मूलभूत अवधारणाओं और भारतीय समाज में उसकी प्रासंगिकता से गहराई से परिचय की जरूरत है, पिछले दस सालों से इस लेखक ने उस ओर लगातार काम किया है । लेकिन यह सच है कि भारत के, खास तौर पर हिंदी के बुद्धिजीवियों में अब तक मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के बारे में प्रारंभिक धारणा का भी सख्त अभाव है । चिंतन की फ्रायडीय-मार्क्सवादी धारा की बात सुन कर तो संभव है कि कुछ लोगों में बेहोशी छा जाए । 

खैर, यहां हमारा वर्तमान संदर्भ राहुल गांधी और उनके जन्मदिन के सार्वजनिक आयोजन से है । इस आयोजन की सार्वजनिकता से ही हमें मनोविश्लेषण को निजता के दायरे से आजाद किए जाने के फ्रेडरिक जेमिसन के उस कथन का स्मरण हुआ जो यह संकेत देता है कि मनोविश्लेषण को पूरी तरह से निजी दायरे में सीमित करने से उससे प्रमाता में राजनीतिक सुप्तता का बुर्जुआ रोग पैदा होता है । इसीलिए उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के रूप में मनोविश्लेषण की भूमिका के लिए ही उसके इस सार्वजनीकरण को ऐतिहासिक रूप से जरूरी बताया था । कहना न होगा, राहुल गांधी के सार्वजनीकरण में भी हमें उनकी बुर्जुआकरण से मुक्ति के कुछ वैसे ही संकेत दिखाई देते हैं । 

फ्रेडरिक जेमिसन


दरअसल, राहुल गांधी हमारे लिए काफी अर्से से एक गहरी दिलचस्पी का विषय रहे हैं । सन् 2004 से ही हमने समय-समय पर उन पर टिप्पणियां की हैं । और, खास तौर पर उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने तो शुरू से ही हमारे राजनीतिक विमर्श में एक केंद्रीय स्थान बना लिया था । 

कहना न होगा, ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने’ अथवा ‘डरो मत’ के राहुल गांधी के नारे हमारी दृष्टि में ऐसे नारे हैं जो हमें भारतीय राजनीति में मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के घोषित पदार्पण की तरह प्रतीत होते हैं । अब तक जो चीज राजनीति के जगत में महज एक लातिन अमेरिकी परिघटना के रूप में देखी जा रही थी, राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और उसमें मुहब्बत के प्रमाता के उल्लासोद्वेलन के पहलू पर दिये गए बल से जाहिर है कि उस परिघटना ने अब भारतीय राजनीति के दरवाजे पर भी दस्तक देना शुरू कर दिया है । 

लातिन अमेरिका के तमाम देशों में साम्राज्यवादियों के पिट्ठू, फासिस्ट दमनकारी शासकों और माफिया गठजोड़ के खिलाफ वहां के तमाम राजनेता जिस आवेग के साथ संघर्ष और प्रेम का नारा बुलंद करते रहे हैं, राहुल गांधी के नारों में भी हमें उसी की प्रतिध्वनि सुनाई देती है । 

जहां तक भारत में इन नारों के प्रभाव की शक्ति का सवाल है, हमें इसमें जरा भी शक नहीं है कि भारत में हजारों हजार सालों से इसकी प्रभावशालिता की अपनी बहुत ही उर्वर और व्यापक जमीन तैयार हैं । हमारे शैवमत में प्रमाता को हमेशा शिव और शक्ति के यामल संघट के रूप में देखने की तात्त्विक अवधारणा से लेकर हमारे संपूर्ण जीवन में गंगा-जमुनी संस्कृति का जो विशाल वैविध्यपूर्ण सतरंगी सामाजिक परिदृश्य नजर आता है, वही भारत के जन-मानस के उस मूलभूत अवचेतन को तैयार करता है जिसमें उसके सभी सामाजिक-राजनीतिक उल्लासोद्वेलन के स्रोतों को देखा जा सकता है । जिसे हम सच्ची भारतीय नैतिकता कहते हैं, जो हमारे सामाजिक-राजनीतिक जीवन के प्रत्येक पहलू को अनिवार्यतः निर्धारित कर सकती है, उसमें जीवन के प्रत्येक रूप, मनुष्य की पहचान के लिंग, कामुकता, नस्ल और वर्ग आदि के तमाम आयाम शामिल हैं, यह वही सतरंगी नैतिकता है जो प्रमाता की बहुरंगी और बहुआयामी पहचान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों की पुख्ता जमीन तैयार करती है । 

इसीलिए जब भी हमारे सामाजिक-राजनीतिक विमर्शों के सामने ऐसा कोई संकट पैदा हो, जिसमें वैविध्य के, जीवन के सतरंगे रूप के, जनतंत्र के विरुद्ध एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा आदि नारों की आड़ में तानाशाही और स्वेच्छाचार के खतरे नजर आएं, तब यही सबसे जरूरी है कि हम हमारे जनमानस के अवचेतन के इस मूलभूत सतरंगी पहलू का आह्वान करें, उसे उत्प्रेरित करके उसके जरिए उन चुनौतियों का मुकाबला करने की रणनीति और कार्यनीति तैयार करें । 

इन्हीं कारणों से जब राहुल गांधी ने नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान का नारा दिया तो हमारे सामने यह साफ था कि फासीवाद की ओर बढ़ रहे हमारे समाज की रुग्णता पर मनोविश्लेषण के सिद्धांतों का इससे सटीक प्रयोग और कुछ नहीं हो सकता है । और आज हम सब क्रमशः इस प्रयोग के परिणामों को साफ देख पा रहे हैं ।  विषय को दूसरे प्रकार से एक नए वैश्विक परिदृश्य में देख रहा हूँ । यह बताता है कि जब परिस्थितियाँ पहले की स्थापित संस्थाओं के जीवन पर संकट पैदा करने लगती है तो उसका विकल्प मनुष्यों के मूलभूत उल्लासोद्वेलन को उत्प्रेरित करके ही पाया जा सकता है । इस लिहाज़ से भारत में पूरे गांधीवादी आंदोलन को भी हम मनोविश्लेषण के राजनीतिक प्रयोग के रूप में देख सकते हैं जिसने दुनिया की सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताक़त को दीन-हीन भारत के लोगों के सत्य के प्रति उद्वेलन के बल पर परास्त कर दिया ।

हम यहाँ पुनः अपनी उस बात को दोहरायेंगे जिसे हमने अपने ‘प्रमाता का आवास’ के लेख ‘ऐसे निरुद्वेग सूत्रीकरणों का क्या लाभ?’ में कहा था कि कोई भी सामाजिक-राजनीतिक विमर्श तब तक किसी सामाजिक परिवर्तन की सार्थक दिशा का कारक नहीं बन सकता है जब तक वह जनमानस के अवचेतन से उत्पन्न होने वाले उसके उल्लासोद्वेलन के तारों से खुद को नहीं जोड़ता है ।                 


शनिवार, 8 जून 2024

‘ईश्वर मर गया है’

(चुनाव पर एक टिप्पणी) 



— अरुण माहेश्वरी 


‘ईश्वर मर गया है । अब ऐसा लगता है कि उसकी प्रेत छाया मंडराती रहेगी।’ नित्शे का यह कथन तब यथार्थ में साफ़ नज़र आया जब एनडीए की सभा में मोदी के भाषण से मोदी उड़ गया और एनडीए छा गया।


सीएसडीएस का ताज़ा सर्वे बताता है कि उत्तर प्रदेश की जनता में प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी उनकी पहली पसंद हैं । मोदी राहुल से पीछे हैं। राहुल को चाहने वालों की संख्या 36 प्रतिशत हो गई है और मोदी को पसंद करने वालों की संख्या 32 प्रतिशत रह गई है। 


ज़ाहिर है कि मोदी अब एक पतनोन्मुख शक्ति है । सत्ता उनकी सबसे भारी कमजोरी है । इसके विपरीत राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस दल उर्ध्वमुखी विकास के घोड़े पर सवार हो गया है । सत्ता का न होना अभी उसकी उड़ान को आसान बनाता है । 


डूबते हुए शासक दल के पूरी तरह से डूबने से बचने में उसके पास राजसत्ता का होना एक भारी बाधा की भूमिका अदा करता है और उदीयमान विपक्ष के विस्तार के लिए राजसत्ता का अभाव तीव्र प्रेरणा का काम करता है । 


इस 2024 के चुनाव ने विपक्ष और पीड़ित जनता के मिलन का एक वैसा ही दृश्य पेश किया है जैसा फ़िल्मों में खलनायक की डरावनी बाधा को पार कर प्रेमी और प्रेमिका के मिलन का दृश्य होता है । इस चुनाव में विपक्ष के प्रति जनता का आवेग बिछड़े हुए प्रेमी-प्रेमिका के मिलन के आवेग से कमतर नहीं था । यह प्रेम ही आगे एक नई राजनीति के निर्माण की ज़मीन तैयार करेगा । 


मोदी ने अपनी तमाम जनतंत्र-विरोधी करतूतों से राजनीति के सामने वह चुनौती पैदा की थी जिसका मुक़ाबला करके ही विपक्ष और जनता के मिलन की आकांक्षा की पूर्ति हो सकती थी। चुनौती स्वयं में ही किसी भी इच्छा और ज़रूरत का कम बड़ा कारक नहीं होती है।


यह चुनाव एक घटना है क्योंकि इसने भारत के ऐसे सत्य को सामने ला दिया है जिसे पहले जान कर भी लोग मानने को तैयार नहीं थे। यह अनेकों के लिए किसी इलहाम  से कम साबित नहीं होगा । जीवन में इसे ही घटना कहते हैं । 


दुनिया की किसी भी घटना का अर्थ उसके घटित होने में नहीं, उससे दुनिया को देखने-समझने के हमारे नज़रिये में हुए परिवर्तन में निहित होता है । मोदी की इस हार से जाहिरा तौर पर भारत के लोगों के दिमाग़ों की जड़ता टूटेगी। जब लोग अपनी अंतरबाधाओं से मुक्त होंगे, तभी उन्हें जीवन की गति की तीव्रता का अहसास होगा । सामान्य जीवन की शक्ति का परिचय अंदर की जड़ताओं से मुक्ति के बाद ही संभव होता है । 


परिप्रेक्ष्य के बदलने के साथ ही जिसे कोरी फैंटेसी समझा जाता था, वही सबसे जीवंत, ठोस यथार्थ नज़र आने लगता है । इस चुनाव के बीच से अब जनतंत्र, धर्म-निरपेक्षता, समानता और नागरिकों की स्वतंत्रता संविधान की किताब की सजावटी इबारतें भर नहीं, दैनंदिन राजनीति के संघर्ष के जीवंत मसले बन गये हैं। स्वयं संविधान आम मेहनतकश जनता के संघर्ष का हथियार बन चुका है ।


भारत जोड़ो यात्रा 


पिछले दिनों राहुल और उनकी भारत जोड़ो यात्रा ने देश के डरावने और निरंकुश हालात में एक प्रमुख दिशा सूचक संकेतक की भूमिका अदा की । राजनीति की दिशाहीनता ख़त्म हुई, उसे अर्थ से जुड़ी स्थिरता मिली । 


भारत जोड़ो यात्रा का रास्ता कठिन था पर यह किसी को भी हंसते हुए राजनीति की इस कठिनाई को झेलने के लिए तैयार करने का एक सबसे प्रभावी रास्ता भी था। इस ओर बढ़ने में कोई बुराई नहीं है, यही बात इस लड़ाई में तमाम लोगों के उतर पड़ने के लिए काफ़ी थी।


भारत जोड़ो यात्रा की राजनीति वास्तव में कोई सुरक्षा कवच में आरामतलबी की राजनीति नहीं थी । इसमें कोई जादू भी नहीं था कि छड़ी घुमाते ही फल मिल जायेगा । यह किसी भी अघटन के प्रति अंधा भी नहीं बनाती थी । पर इतना तय है कि यह किसी भी अघटन के डर से बचाती थी । ‘डरो मत’ का राहुल का नारा इसका एक प्रमुख लक्ष्य भी था । 


भारत जोड़ो यात्रा ने ही प्रेम और संविधान को राजनीति के समानार्थी शब्द बना दिया । इस प्रकार, इसने सभ्यता के मूल्यों के अंत और जीवन में तबाही की आशंका का एक समुचित उत्तर पेश किया । इन यात्राओं का यह एक सबसे महत्वपूर्ण सर्वकालिक पहलू रहा है । 


अब मोदी की राजनीति के दुष्प्रभावों से बचने का एक सबसे उत्तम उपाय यह है कि हम समझ लें कि इस राजनीति में भारतीय जीवन के यथार्थ का लेशमात्र भी नहीं है । वह समग्रतः एक निरर्थक बकवास है। व्हाट्सअप विश्वविद्यालयों के ज्ञान की तरह की ही झूठी बकवास । और चूँकि कोरी बकवास से कभी कोई संवाद संभव नहीं होता है, इस राजनीति से भी कोई संवाद नहीं हो सकता है । इससे सिर्फ़ संघर्ष ही हो सकता है । 


मोदी अभी कुछ दिन और प्रेत बन कर हमारे सर पर मँडरायेंगे । पर बहुत ज़्यादा दिनों तक नहीं । उन्हें दफ़नाने की सारी रश्म अदायगी भी जल्द ही पूरी हो जायेगी । 


मोदी का फिर से प्रधानमंत्री बनना ही साबित करता है कि पूरी बीजेपी भारत की जन-भावनाओं के खिलाफ खड़ी हो गई है । इसीलिए जनतंत्र में अब उसकी कोई भूमिका नहीं बची है । उसकी जगह अब सिर्फ़ इतिहास के कूड़ेदान में है । 


जिन राहुल गांधी से उनकी संसद की सदस्यता को जबरन छीन लिया गया था, अब वे बाकायदा लोक सभा में विपक्ष के नेता होंगे । और जैसा कि सीएसडीएस का सर्वे संकेत दे रहा है, वे शीघ्र ही भारत के प्रधानमंत्री भी होंगे। कभी नेहरू जी को भारत के युवाओं का हृदय सम्राट कहा गया था,आज राहुल को कहा जाने लगा है । राजनीति के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए इतना ही काफ़ी है ।