(पिता को याद करने के इस दिन पर हम सालों पहले लिखे गए अपने एक लेख को मामूली सुधारों के साथ यहां दे रहे हैं । यह लेख पिता रमन माहेश्वरी के बारे में हमारी बड़ी बहन दुर्गा डागा के द्वारा संपादित पुस्तक ‘धारा के विरुद्ध’ में प्रकाशित हुआ था )
− अरुण माहेश्वरी
बात सन् 62 की है। लोकसभा के लिये आम चुनावों के साथ ही पश्चिम बंगाल की विधान सभा के चुनाव थे। कोलकाता उत्तर-पश्चिम सीट से कांग्रेस के अशोक सेन के खिलाफ सीपीआई के स्नेहांशुकांत आचार्य तथा बड़ाबाजार विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के दक्काक उम्मीदवार ईश्वरदास जालान के खिलाफ सीपीआई के किशन लाल माखरिया मैदान में उतारे गये थे। तब मेरी उम्र बमुश्किल 11 वर्ष थी। हम बड़ाबाजार क्षेत्र में ही पाटनी हाउस में रहते थे। पांच मंजिलों का दो चौक वाला विशाल मकान था। शाम का वक्त था। हमेशा की तरह हम मकान की छत पर खेल रहे थे कि अचानक नीचे सड़क पर लाल झंडों का एक चुनावी जुलूस निकला। हमारे एक मित्र ने चिल्ला कर कहा, अरे, लल्लू के बाबू जुलूस में जा रहे है। झांक कर जब नीचे देखा तो पाया कि हां, तेजी से गुजरते उस जुलूस में एक हाथ में अखबार लिये, कुहनी तक लपेटी हुई पूरी बाह की सफेद कमीज और काली पैंट पहने हाथ के अखबार को लहराते हुए हमारे पिता जुलूस के बिल्कुल आगे अपनी बुलंद आवाज में जोर-जोर से नारे देते हुए जा रहे थे। और, तभी पता चला कि हमारे पिता कम्युनिस्ट है।
‘62 का जमाना था। वैसे ही हवा में कम्युनिस्टों के प्रति नफरत का धुआं फैला हुआ था। ऊपर से बड़ाबाजार की एक बड़ी बाड़ी का खास माहौल, जहां कम्युनिस्ट होना तो दूर की बात, किसी भी राजनीतिक जुलूस में शामिल होना तक अनुचित माना जाता था। ऐसे में बाबू को कम्युनिस्टों की कतार में देख कर हमारे जैसे बच्चे अचंभित और शर्मसार होने के अलावा और कुछ महसूस नहीं कर सकते थे। तभी से मन के गहरे कोने में जुलूस में शामिल अखबार लहराते बाबू का दृश्य हमेशा के लिये अंकित होकर रह गया।
आज भी बाबू के व्यक्तित्व पर सोचते वक्त उनकी वहीं छवि सबसे पहले मस्तिष्क में उबर कर आती है। उसके बाद तो एक लंबे अर्से तक पूरी तरह मूक रह कर घर में बाबू की गतिविधियों, उनकी मित्र मंडलियों, साहित्यिक गोष्ठियों और राजनीतिक बहस-मुबाहिसों को तकता रहा, और पता नहीं कब खुद मार्क्स, एंगेल्स, माओ से लेकर राहुल, मुक्तिबोध की किताबों को टटोलने लगा कि अभी उच्च माध्यमिक परीक्षा भी पास नहीं किया था, लेकिन माओ का गोरिल्ला युद्ध मेरी दिमागी चर्चा का हिस्सा बन गया था। जाहिर है कि एक समय में सड़क के जिस औचक दृश्य ने बड़ाबाजार की बाड़ियों के साधारण परिवेश में अचकचा दिया था, वही दृश्य घर के परिवेश से अभिन्न होकर आगे हमारे संस्कारों में रचने-बसने लगा।
हम नहीं जानते थे कि बाबू ने क्या पढ़ाई की थी, लेकिन इतना जरूर जानते थे कि वे मकान के अन्य लोगों की तुलना में कुछ अलग, परिष्कृत और प्रांजल हिंदी बोला करते थे। उनके मित्र भी कुछ वैसे ही थे। सबसे करीबी थे शंकर माहेश्वरी। नाजुक बदन के नाजुक मिजाज आपाद-मस्तक कवि। प्रसादजी के भक्त और छायावादी कविता में गहरे तक पैठे हुए। झूम-झूम कर सुरीले गले से अपने गीत गाया करते थे। निराला जी किस ओज के साथ काव्यपाठ किया करते थे, कामायनी के एक-एक सर्ग से कैसे गहरे दार्शनिक संकेत मिलते हैं, मुक्तिबोध की षंकाओं में कितना दम है और दिनकर की उवर्षी पर तब चली बहस की गूंज-अनुगूंज बाबू की मित्र मंडली की गोष्ठी में तभी सुनने को मिली थी। लगभग हर रविवार को वे हमारे यहां जुटा करते थे। इसी मित्र-मंडली के एक अंशीदार थे जमनालाल दम्माणी, आनंदबाजार पत्रिका के परम भक्त और एक कट्टर नास्तिक। बाबू की भारी और बुलंद आवाज भी बहस-मुबाहिसे में जमनालाल जी की आवाज को नहीं दबा सकती थी। दास वृत्ति उन्हें कत्तई स्वीकार्य नहीं थी, इसीलिये सचेत रूप में उन्होंने अपना नाम जमनादास नहीं, जमना लाल किया था। एक और, कुछ अपनी ही पीनक में रहने वाले कवि मित्र थे एस नारायण। इनके अतिरिक्त यदा-कदा उपस्थित होने वाले हिंदी के एक प्रोफेसर प्रकाश शंकर चतुर्वेदी थे। एक थे काफी रईस तबियत के दिखने वाले, हमेशा पान चबाते होठों को सदा लाल किये रखते मृदु भाषी आशाराम जी, और जब कलकत्ते में होते तो हरीशजी भी इन गोष्ठियों में शामिल रहते। बाबू, शंकर माहेश्वरी, जमनालाल दम्माणी, एस नारायण और आशारामजी - ये सभी छोटे-मोटे व्यवसाय से जुड़े हुए लोग थे, लेकिन अपने घर में इन्हें कभी व्यवसाय की बातें करते हमने नहीं देखा। इन मित्रों ने आपस में मिल कर भी कभी कोई व्यवसाय नहीं किया। साथ मिल कर यदि कोई काम किया तो वह ‘जुही कुंज’ के नाम से एक प्रकाशन संस्थान खोला जो शंकर माहेश्वरी के कविता संकलन ‘कणिका’, प्रकाश शंकर चतुर्वेदी के उपन्यास ‘उड़ते पत्ते’ और हरीश भादानी की कविताओं के संकलन ‘सपन की गली’ के प्रकाशन के बाद ही बंद होगया। एस नारायण के कविता संकलन ‘कटाक्ष की उड़न किश्त’ के प्रकाशन का ऐलान जरूर किया गया था, लेकिन शायद वह कभी प्रकाशित नहीं हो सका। बाबू की इस मित्र-मंडली के साथ ही एक और नाम को जोड़ना चाहूंगा - देवकिशन बिन्नानी का। एक प्रसिद्ध प्रैस के मालिक देवकिशन जी ही बाबू की मित्र-मंडली में तब सबसे सफल व्यवसायी हुआ करते थे। कहने का अर्थ है कि ये ही वे लोग थे जिन्हें हमने बाबू के सबसे प्रारंभिक मित्रों के रूप में पाया और अंतिम समय तक उनके जीवन में इन सबका स्थान कुछ हद तक बना रहा। अब ये सबं चल बसे हैं। ये सभी हमेशा हमारे पूरे परिवार के गहरे सम्मान और श्रद्धा के पात्र बने रहे ।
देखते ही देखते, बाबू अपने इन मित्रों की तुलना में राजनीति की ओर कहीं ज्यादा प्रवृत्त होगये और बाबू के साथ जिन चंद नये चेहरों को देखा जाने लगा उनमें थे धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा, रामलाल दूगड़। ये सभी कम्युनिस्ट थे। मृदुभाषी धनराज दफ्तरी, विदेशी किताबों के व्यवसायी, पढ़े-लिखे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी थे। पन्नालाल नाहटा भी छोटे व्यवसायी ही थे लेकिन असाधारण वक्ता और कवि थे। इनमें रामलाल दूगड़ लंबे-चौड़े डीलडौल वाले अलमस्त, थोड़े अक्खड़, बड़ाबाजार की एक प्रसिद्ध कोठी, पारख कोठी के मैनेजर थे। इन तीनों कामरेडों के साथ ही जुड़ा हुआ एक और नाम था अतुल दत्ता, किसी समय कोलकाता के थोक व्यापार के केंद्र बागड़ी मार्केट में एक अंग्रेजी दवाओं की थोक दुकान के मालिक, लेकिन तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की बड़ाबाजार लोकल कमेटी के पूरावक्ती सचिव। यह सन् 64-65 का जमाना रहा होगा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को भारी सरकारी दमन का सामना करना पड़ रहा था। ‘चीन के दलाल’ का लेबल अभी उतरा ही नहीं था कि ‘65 में उसे पाकिस्तान का दलाल भी घोषित कर दिया गया। देश में तब आपातकाल चल रहा था और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सभी नेताओं की धर-पकड़ की जा रही थी। बीटीआर की तरह के कुछ नेताओं को, जिन्हें चीन युद्ध के समय गिरफ्तार किया गया, तब तक छोड़ा भी नहीं गया था। एक समय ऐसा आया जब पार्टी की प्रांतीय कमेटी का पूरा नेतृत्व ही जेल की सींखचों के पीछे था। उस समय पार्टी के नेतृत्व में चलाया जा रहा खाद्य आंदोलन अपने शिखर पर था। तभी पार्टी के प्रांतीय नेतृत्व की दूसरी पंक्ति के पियूष दाशगुप्ता और गणेश घोष सरीखे नेताओं ने एक वैकल्पिक प्रांतीय कमेटी का गठन करके आंदोलन की कमान संभाली और उन तूफानी दिनों में पाटनी हाउस का हमारा घर ही इन नेताओं की गोपनीय गतिविधियों का एक प्रमुख अड्डा हुआ करता था। उसी ऐतिहासिक खाद्य आंदोलन की पृष्ठभूमि में सन् 67 का चुनाव हुआ और पहली बार कांग्रेस की पराजय तथा संयुक्त मोर्चा सरकारों के गठन के साथ ही कृषि तथा औद्योगिक, दोनों क्षेत्रों में जन-आंदोलनों का एक बिल्कुल नया ज्वार दिखाई दिया। लगभग इसी समय से राजनीति हमारी नसों में भी पूरी तरह बसने लगी थी। हम खुद स्वयंसेवकों के उन जत्थों में शामिल थे, जिनके बारे में नारा दिया गया था कि ‘आजकेर स्वेच्छासेवकई होबे कालकेर मुक्तिवाहिनी’। हमारी दुकान पर भी अब अक्सर अतुल दत्ता और बड़ाबाजार के सुकुमार सेन की तरह के नेता दिखाई देने लगे थे। बाबू के समूचे साहित्यिक, सांस्कृतिक सोच के केंद्र में राजनीति ने अपना प्रमुख स्थान बना लिया। बाबू कथित रूप में डीक्लास तो कभी नहीं हो पाये, लेकिन विचारों और व्यवहार में उत्कट नास्तिकता के साथ ही ‘वर्गीय घृणा’ के लक्षणों के संकेत देने लगे थे। उनके मित्रों में कोई और व्यवसायी मित्र शामिल नहीं हो पाया । परिवार के अन्य जनों और व्यापक रूप में समाज से ही वे कटते चले गए । बाबू के नये साहित्यिक मित्रों में इसराइल, विमल वर्मा और श्री हर्ष शामिल हो गये। हरीश जी तो सदा से थे ही। नामवर सिंह को भी उन्हीं दिनों हमने अपने घर पर देखा था।
इसराइल साहब एक अच्छे कहानीकार और पार्टी के हिंदी साप्ताहिक मुखपत्र ‘स्वाधीनता’ के पूरावक्ती कार्यकर्ता थे। गप करने में उनकी सानी नहीं थी। वे अक्सर अलीमुद्दीन स्ट्रीट से बड़ाबाजार हमारे घर आ जाया करते थे। सन् ’67 और ’69 में बांग्ला कांग्रेस के अजय मुखर्जी के नेतृत्व में बनी मुख्यतः वामपंथियों की संयुक्त मोर्चा सरकारें क्रमशः 9 और 13 महीनों बाद ही गिरा दी गयी। सन् ’71 में फिर से विधान सभा का चुनाव हुआ और बड़ाबाजार सीट पर कांग्रेस के रामकृष्ण सरावगी के खिलाफ सीपीआई(एम) की ओर से ‘स्वाधीनता’ के संपादक कामरेड अयोध्या सिंह को खड़ा किया गया और इसके साथ ही मैं भी प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में उतर आया। तब तक उच्च माध्यमिक पास करके कालेज जाने लगा था और कालेज अलीमुद्दीन स्ट्रीट के निकट होने के कारण हमारे कदम ‘स्वाधीनता’ के दफ्तर में भी गिरने लगे थे। 1971 में स्वाधीनता में ही पार्टी सदस्यता लीं और इस प्रकार बाबू के दिये प्रगतिशील साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश ने अपने सांचे में हमें पूरी तरह से ढाल लिया। तब पार्टी की केंद्रीय कमेटी का कार्यालय कोलकाता में ही था और हमें सीधे तौर पर कामरेड बी टी रणदिवे की तरह के महान नेता के अन्तर्गत काम करने का मौका मिला। हमारी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक-साहित्यिक गतिविधियों का सिलसिला यहीं से शुरू हो गया। विमल वर्मा ने ‘सामयिक’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, जिसमें मेरा सबसे पहला समीक्षा निबंध, काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘अपना मोर्चा’ पर प्रकाशित हुआ था। 1971 में ही नामवरजी ने ‘आलोचना’ में मेरा एक लेख प्रकाशित किया।
बाबू दुकान भी जाते थे और अन्य तमाम प्रकार की गतिविधियों में भी शामिल रहते थे। उनकी गतिविधियों में नया संयोजन बांग्ला नाट्यमंडली ‘गंधर्व’ के साथ उनका जुड़ाव था। गंधर्व ने एक पत्रिका भी प्रकाशित की जिसके संपादक थे नृपेन साहा। बाद में वे ही ‘ग्रुप थियेटर’ पत्रिका के संस्थापक संपादक बने और अपने अंतिम दिनों में बांग्ला नाट्य अकादमी की पत्रिका के यशस्वी संपादक रहे। किसी भी पत्रिका के प्रस्तुतीकरण, अर्थात मेकअप, गेटअप के मामले में सचमुच नृपेन साहा अतुलनीय थे। ‘गंधर्व’ नाट्यमंडली के निदेशक थे देवकुमार भट्टाचार्य। उनके पहले श्यामल चटर्जी निदेशक हुआ करते थे, लेकिन हमने श्यामल बाबू को बहुत कम देखा था। रंगमंच पर अनूठी दखल रखने वाले अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि के देबू भट्टाचार्य द्वारा निदेशित कई नाटकों को हमने दक्षिण कोलकाता के ‘मुक्तांगन’ रंगमंच पर देखा था और तभी से ‘मुक्तांगन’ भी हमारी स्मृतियों में हमेशा के लिये बसा हुआ है। देबू भट्टाचार्य एक प्रतिभाशाली निदेशक थे, जिनकी कुछ प्रस्तुतियों ने शंभु मित्रा, उत्पल दत्त, अजितेश बंदोपाध्याय की तरह के बांग्ला रंगमंच के सबसे उज्जवल सितारों से भरे परिवेश में भी अपनी किंचित पहचान बनायी थी। लेकिन परवर्ती दिनों में वे कहां लुप्त हो गये, पता नहीं चला। अत्यधिक राजनीति-केंद्रित हो चुके बांग्ला रंगमंच से उनके सूत्र नहीं जुड़ पायें। उनके भाई, हड्डियों के डाक्टर, डा. दिलीप भट्टाचार्य काफी अर्से तक हमारे परिवार के डाक्टर बने रहे।
बाबू की तरह ही दुकान और राजनीति, दोनों के साथ-साथ चलने का सिलसिला हमारे साथ भी समान रूप से जारी रहा। सन् ‘71 के बाद बंगाल की राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। इसके पहले ही नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रख कर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और विभाजन हो चुका था और सीपीआई(एम-एल) का गठन हुआ था। बाबू के राजनीतिक मित्र धनराज दफ्तरी, पन्नालाल नाहटा और रामलाल दूगड़ पर भी नक्सलवादी आंदोलन का असर पड़ा और वे सीपीआई(एम) से अलग होकर चारू मजुमदार, कानू सान्याल की सीपीआई(एम-एल) से जुड़ गये। ’71 के चुनाव में 280 सीटों की विधानसभा में 113 सीटों के साथ सीपीआई(एम) ही विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, फिर भी उसे सरकार बनाने का मौका नहीं दिया गया। पार्टी के खिलाफ लगातार खूनी षड़यंत्र किये जाने लगे, कार्यकर्ताओं की खुले आम हत्याएं की जाने लगी और राज्य में एक प्रकार से अर्द्ध-फासिस्ट आतंक का शासन कायम होगया। इसी माहौल में सन् 72 के चुनाव का प्रहसन हुआ जब बंदूक की नोक पर सरे आम चुनावों को लूट लिया गया था। पार्टी के 1100 कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी, पार्टी के हजारों लोगों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया। ऐसे समय में ही जोड़ाबगान के मंडल स्ट्रीट स्थित अपने घर से उजाड़ दिये गये हरेकृष्ण घोष महीनों पाटनी हाउस के हमारे घर पर ही रहे । जोड़ाबागान के उस क्षेत्र से लेकर उत्तर में बारानगर तक तब नक्सलवादियों का ‘मुक्तांचल’ बना हुआ था। नक्सली तत्व अपने क्षेत्र के विस्तार के लिये काठगोला-जोड़ाबागान के इलाके पर अक्सर हमले किया करते थे। मंडल स्ट्रीट काठगोला के पास ही था।
घोष बाबू आयकर के वकील, एक व्यवहारिक आदमी थे और पार्टी ने उन्हें अपने गोपनीय विभाग का जिम्मा सौंप रखा था। बाबू ने उन्हें ही हमारे व्यवसाय का भी वकील बना रखा था। बाद के दिनों में जब 1977 में वाममोर्चा सरकार बनी और कोलकाता के निकटवर्ती विधाननगर को बसाने का बीड़ा उठाया गया, तब घोष बाबू को उसके विकास में काफी अहम भूमिका सौंपी गई थी।
सन् ‘72 से ‘77 के जमाने को पश्चिम बंगाल में सीपीआई(एम) के इतिहास का सबसे कठिन जमाना कहा जा सकता है। याद पड़ता है इसी दौर में वियतनाम युद्ध भी अपने चरम पर था। वियतनाम युद्ध में मुक्ति सेना की एक के बाद एक जीतों से उस कठिन दौर में बंगाल के कम्युनिस्टों को भारी प्रेरणा मिलती थी। उन्हीं दिनों वियतनाम युद्ध की ताजा स्थितियों के बारे में मेरी एक रिपोर्ट पहली बार ‘स्वाधीनता’ की सुर्खी के रूप में प्रकाशित हुई थी, जिसके रोमांच को मैं आज तक नहीं भुला पाया हूं। 30 अप्रैल 1975 के दिन सैगोन का पतन हो गया और अमेरिकी सेना को वियतनाम छोड़ कर वापस जाना पड़ा था। उन्हीं दिनों बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में जोरदार आंदोलन शुरू हुआ, गुजरात में कांग्रेस पराजित हुई और जनता पार्टी के नाम से संयुक्त सरकार का गठन किया गया। जयप्रकाश का ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा पूरे देश के नौजवानों को इंदिरा गांधी की एकदलीय तानाशाही के खिलाफ उद्वेलित कर रहा था। तभी 12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को खारिज कर दिया और इसकी प्रतिक्रिया में इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 के दिन आंतरिक आपातकाल की घोषणा करके भारत में संसदीय जनतंत्र का पूरी तरह से गला घोंट देने की कोशिश की।
कहना न होगा कि आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आंतरिक आपातकाल और उसके खिलाफ भारत की जनता का वीरतापूर्ण संघर्ष तत्कालीन सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी। इसने वामपंथी राजनीति के भी समूचे दृश्यपट को बदल दिया था। जो सीपीआई(एम) कल तक सशस्त्र संघर्ष और वियतनाम युद्ध से प्रेरणा लेकर गुरिल्ला युद्ध की रणनीतियों पर अपने को केंद्रित कर रही थी, क्रांति के सीमाई और लगुआ क्षेत्रों की सिनाख्त करने की तरह के काम किए जा रहे थे, उसी ने यकबयक सन् 72 से पश्चिम बंगाल में चले आ रहे अर्द्ध-फासिस्ट आतंक और ’75 के आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद भारत में संसदीय जनतंत्र की रक्षा की लड़ाई के असीम महत्व को गहराई से आत्मसात किया। गौर करने लायक बात यह है कि पार्टी की नीतियों में आए इस भारी परिवर्तन का शायद प्रथम साक्षी हमारा घर ही बना था। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद ही सभी पार्टियों के नेताओं की व्यापक गिरफ्तारियां की जाने लगी थी। सीपीआई(एम) के भी ज्योतिर्मय बोस और ए. के. गोपालन को बंदी बना लिया गया था। बाकी के सभी नेता अंडरग्राउंड चले गये थे। ऐसे में देश के कोने-कोने से, कामरेड पी. सुंदरैय्या, ईएमएस, बीटीआर, पी राममूर्ति, एम वसवपुनैय्या, और हरकिशन सिंह सुरजीत छिप-छिप कर कोलकाता आए थे और सभी को हमारे पार्क स्ट्रीट स्थित घर में रखा गया था। पांच कमरों के उस फ्लैट के दो कमरों में ये सभी नेता रह रहे थे और ज्योति बसु तथा प्रमोद दाशगुप्त सिर्फ बैठक के समय कोलकाता के अपने गुप्त स्थान से आ जाया करते थे। आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद पोलिट ब्यूरो की पहली बैठक हमारे उसी 48एम, पार्क स्ट्रीट पर हुई थी, जिसमें कामरेड सुंदरैय्या ने पार्टी के महासचिव पद से इस्तीफा दिया था। इस बैठक के बाद काफी दिनों तक कामरेड रणदिवे हमारे घर में ही रह गये थे और उनसे मिलने के लिये अक्सर ज्योति बसु, प्रमोद दाशगुप्त वहां आया करते थे। कामरेड रणदिवे का वह प्रेरणादायी सान्निध्य हमेशा हमारे जीवन का पाथेय बना रहेगा, इसमें कोई शक नहीं है। उस महान प्रतिभाशाली नेता, अध्येता, चिंतक और विचारक की सीखों ने हमें अपने अंतर से कितना समृद्ध और उदात्त बनाया है, इसका हम शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते। पार्क स्ट्रीट के हमारे घर पर ही उन्होंने अमृतलाल नागर के ‘मानस के हंस’ और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के ‘कुआनो नदी’ और रघुवीर सहाय की कविताओं के संकलनों को पढ़ा था और उनके बारे में कामरेड रणदिवे से हमारी विस्तार से बातें भी हुई थी। कामरेड बीटीआर पर लिखे अपने एक लेख में हमने उन बातों का जिक्र किया है। कामरेड बीटीआर बाद में भी अपनी यात्राओं के पड़ाव में, कोलकाता आने पर अनेक बार हमारे साल्ट लेक स्थित घर पर रुकते रहे हैं।
सन् ‘75 के पहले ही मेरी शादी हो गयी थी और मेरे साथ सरला भी परिवार के अन्य सदस्यों की तरह आपातकाल के उन दिनों में हमारे घर में इकट्ठा हुए पार्टी के नेताओं का पूरा ख्याल रखती थी। मेरी शादी सन् ’74 में उस वक्त हुई थी जब ऐतिहासिक रेल हड़ताल चल रही थी। सरला से मेरा संपर्क काफी पहले ही हो गया था। खास तौर पर सन् ’71 में जब बीकानेर में विश्वविद्यालय की स्थापना की मांग पर ऐतिहासिक आंदोलन चला था और हरीश जी का घर उस आंदोलन का केंद्र हुआ करता था, उन दिनों मैं बीकानेर में उन्हीं के घर रह रहा था। उसी आंदोलन के दौरान सरला ने बीकानेर में अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया था। ’74 आते-आते जब मैंने सरला से शादी करने का निर्णय लिया तो मेरा परिवार इस फैसले को स्वीकारने के लिये कत्तई तैयार नहीं था। यह एक अन्तर्जातीय विवाह था। लेकिन अपने परिवार के प्रगतिशील परिवेश, और खास तौर पर बाबू के विद्रोही तेवर की पृष्ठभूमि में मेरी शादी के प्रति परिवार का रुख मेरे लिये कुछ न समझ में आने वाला अप्रत्याशित रुख था। उसी समय बाबू से मेरे कुछ अजीबो-गरीब पत्राचार भी हुए। तथापि मोहब्बत के जुनून के सामने आज तक कौन टिक पाया है! शादी करने के मेरे दृढ़ निश्चय को कोई प्रभावित नहीं कर सका और रेल हड़ताल तथा राजस्थान में भारी बाढ़ के उन दिनों में हवाई जहाज से पहले दिल्ली और फिर तीन बसों को बदलता हुए मैं अकेला ही बिना किसी ताम-झाम के ऐन विवाह के दिन दोपहर को अकेले बीकानेर पहुंच गया। बढ़ी हुई दाढ़ी और अति साधारण पोशाक में हजारों लोगों के सामने सिर्फ एक भाषण के जरिये साथ रहने का संकल्प लेकर हमने विवाह की रश्म अदा की और सरला को लेकर कोलकाता आ गया। कोलकाता लौटने पर बाबू ने धीरे से कान में कहा, तुमने अच्छा किया। बाद में पार्क स्ट्रीट के घर पर एक अच्छी सी दावत हुई जिसमें ज्योति बाबू, प्रमोद दा आदि सबने हिस्सा लिया था।
जाहिर है कि ’75 तक आते-आते हमारा अपना स्वतंत्र राजनीतिक-साहित्यिक विवेक पूरी तरह से विकसित हो चुका था। हमने खुद अपना लिखने-पढ़ने का रास्ता तैयार किया। सरला भी पार्टी की ‘स्वाधीनता’ शाखा में शामिल हो गयी। आपातकाल के दिनों में हरेकृष्ण घोष ने चाहा था कि हम स्वाधीनता छोड़ दें, उनकी यूजी शाखा में शामिल हो जाएं। लेकिन हमें यूजी शाखा में जाना जमींदोज हो जाने जैसा प्रतीत हुआ। सन् 75 के बाद के राजनीतिक संघर्षों के चरित्र ने हमें सही साबित किया । सरला को पार्टी ने पहली बार सन् ’82 में विधान सभा का चुनाव लड़ाया, फिर सन् ’87 में। पार्टी ने सन् ’90 में उसे राज्य सभा का सांसद बना दिया। सन् 97 में उसने फिर विधान सभा का और ’98 में लोक सभा का चुनाव लड़ा। पुनः सन् ’99 में उसे राज्य सभा में भेज दिया गया। हम लोगों ने ‘कलम’ का प्रकाशन किया, जनवादी लेखक संघ के गठन में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की और इस दौरान काफी कुछ लिखा-पढ़ा तथा हमारी कई किताबें भी प्रकाशित हुई।
इसप्रकार, बाबू ने हमारे घर को जो राजनीतिक और साहित्यिक माहौल प्रदान किया, उसने हमारे जीवन की दिशा तय करने में अहम भूमिका अदा की है। राजनीति की ओर बाबू के भारी रूझान, साहित्य से लेकर जीवन के सभी मानदंडों में राजनीति को सर्वप्रमुख स्थान देने की उनकी विशेष मानसिकता ने बाबू के समग्र व्यक्तित्व को पार्टी के एक वफादार सिपाही का रूप दे दिया। वे जीवन की अंतिम घड़ी तक जिस निष्ठा और लगन के साथ ग्रुप थियेटर पत्रिका के प्रकाशन में लगे रहे और जीवन के अंतिम समय तक ‘स्वाधीनता’ के संपादक-मंडल के अध्यक्ष भी रहे, वह सचमुच उल्लेखनीय है ।
हमारी मां की मृत्यु 4 अप्रैल 2005 के दिन हुई थी । पिता के साथ ही मां का भी विशेष उल्लेख करना हमें कम जरूरी नहीं लगता है । बाबू कुल मिला कर हमेशा एक पारिवारिक व्यक्ति भी रहें और वे ही वस्तुतः हमारे परिवार की धुरी भी थे। तथापि बाई के अपने खास व्यक्तित्व ने पूरे परिवार में उनका बहुत ही विशेष स्थान बना लिया था। इसीलिये हमें लगता है कि बिना बाई की विशेषताओं का जिक्र किए, हमारे परिवार को और परिवार के मुखिया बाबू के व्यक्तित्व को पूरी तरह से नहीं जाना जा सकेगा। बहरहाल, बाई की मृत्यु के वक्त तक बाबू बिल्कुल स्वस्थ थे । इसके तीन साल बाद ही सन् 2008 के जनवरी महीने में हमारे छोटे भाई अनिल की कैंसर से मृत्यु हो गई । इसके बाद से बाबू में फेफड़ों से जुड़ी बीमारी के लक्षण दिखाई देने लगे । इस लंबी बीमारी से ही 3 जुलाई 2011 के दिन घर पर ही बाबू की मृत्यु हुई । उनकी इच्छा के अनुसार ही उनके शव को हमने कोलकाता मेडिकल कालेज को सुपुर्द कर दिया ।
बाबू के दिये साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश ने हम लोगों में लिखने-पढ़ने की दुनिया में और आगे छलांग लगाने का जो माद्दा उत्पन्न किया, उसके लिये हम हमेशा उनके प्रति श्रद्धावनत रहेंगे। उनका दृढ़, निष्ठावान, पार्टी के प्रति समर्पित राजनीतिक चरित्र हम सबके लिये हमेशा प्रेरणादायी बना रहेगा।